आतंकवाद—इसका हल क्या है?
अगर आप हवाई जहाज़ से यात्रा करते भी हैं तो आपने आतंकवाद के परिणामों को देख लिया है। सुरक्षा जाँच तो करीब-करीब सभी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई-अड्डों में अनिवार्य हो गया है। आतंकवाद के कारण सरकारों और हवाई-कम्पनियों की सुरक्षा कार्यवाही में बहुत खर्च होता है। १९८४ कि लॉस ऑन्जेलस के ऑलिम्पिक खेलों ने संयुक्त राज्य सरकार को सुरक्षा के लिए कुछ ६५० लाख डालर खर्च करने पड़े। यह कार्यवाही कितना सार्थक है?
कुछ हद तक ये लाभकर है। गए २० वर्षें में, केवल संयुक्त राज्य में लगभग ३५,००० पिस्तौल या विस्फोटक यन्त्रों को प्राप्त किया गया और १३,००० गिरफ्तारियाँ की गयीं। (ड़िपार्टमेन्ट ऑफ स्टेट बुलेटिन) इस्राएली हवाई कम्पनी एल आल ने जिसका शायद सबसे अधिक सख्त सुरक्षा जाँच है हवाई जहाज में आतंकवादी सफलता को कड़ी रूप से कम कर दिया है।
किन्तु सरकार और माध्यम वास्तव में मूल कारणों के बदले में लक्षणों से व्यवहार करते हैं। ये चिकित्साएं बीमारी की जड़ तक नहीं पहुँचती जो आधुनिक समाज की बहुत गहराई में है—एक बीमारी जो घृणा और स्वार्थ पर आधारित है। अन्याय और असमानताएं प्रचुर हो रहा है और कई गुणा बढ़ रहा है—चाहे जो भी विचारधारा प्रचलित हो। इसलिए, एक हल कहाँ पाया जा सकता है? क्या धर्म घृणा को प्रेम में बदल दिया जा सकता है? क्या राजनीति फूट में से एकता ला सकेगी? क्या संयुक्त राष्ट्र सचमुच राष्ट्रों में एकत्रित कर सकेगी? या कोई अन्य समाधान है?
क्या धर्म के पास समाधान है?
१९६९ से उत्तरी आयरलैन्ड में चालू आतंकवादी परिस्थिति ने २००० जानें ली हैं और कुछ १५ लाख की आबादी के देश में २०,००० से अधिक लोगों को घायल किया है। ये विरोधी भी वही मसीही परम्परा के भागीदार होने का दावा करते हैं जिसकी बुनियाद “परमेश्वर प्रेम है” इस आधार-वाक्य पर है। (१ यूहन्ना ४:८) इसके बावजूद कैथॉलिक और प्रॉटेस्टैन्ट आतंकवाद चलता रहता है। जैसे रिलिजन ऑन्ड द नॉर्थन आयरलैन्ड प्रॉबलेम में जॉन हिकी लिखते हैं: “अब यह सम्भव है कि . . . खतरा और मृत्यु को सिर्फ एक रोमन कैथॉलिक या प्रॉटेस्टैन्ट होने के परिणाम के रूप में स्वीकार करना; उत्तरी आयरलैन्ड का ‘आतंक-सन्तुलन’ का विशेष व्याख्या को बनाए रखने के रूप में जंगली बदला—जातीय हत्या—को स्वीकार करना।”
वही लेखक यह भी कहता हैः “[उत्तरी आयरलैन्ड] की राजनीति धर्म का लाभ उठानेवाली राजनीति नहीं है। . . . यह तो धर्म राजनीति को प्रेरित करनेवाली बात है।” और अगर बात यही है तो यह अन्योन्य घात करने और बदला लेने की राजनीति है।
अधिकतर धर्म प्रेम को एक बुनियादी सिद्धान्त-वाक्य के रूप में सिखाने का दावा करते हैं। आतंकवादियों का एक उच्च प्रतिशत धार्मिक सम्बन्ध रखनेवाले हैं—तथाकथित मसीही, यहूदी, मुसलमान, हिन्दू, सिख, बौध्द या कोई अन्य धर्म के हैं। लेकिन उनके धर्म कहाँ तक उनकी कार्यों को प्रभावित करता है? अपनी पुस्तक द अल्टिमेट वेपन—टेररिस्ट्स ऑन्ड द वल्ड ऑर्डर, में जॉन स्रीबर आय आर ए नेता रुआयरी ओ’ब्राडाय को उध्दृत करता हैः “मैं एक बार एक कठोर मनुष्य के साथ था। हम ने अँग्रेजी सैनिकों की एक पार्टी के नीचे विस्फोट होने के लिए एक सुरंग लगाए थे। . . . निश्चित ही, वे सही लक्ष्य पर थे। और इस कठोर व्यक्ति ने क्या किया? सुरंग का विस्फोट करने और उन सब को उड़ा देने के लिए संयोजन करने के ठीक पहले उसने उसकी आँखें बन्द कर लीं। फिर उसने क्रूस का चिन्ह किया और श्रद्धापूर्ण फुसफुसायाः ‘प्रभु को अब उनकी आत्माओं पर दया हो!’
धर्म ने स्पेन के दाएं-पक्ष कैथॉलिकों को अपने खुद के आतंकवादी दल बनाने से रोका नहीं जो गरिल्लरॉस डेल क्रिस्टो रे, या राजा मसीह के गुरिल्ला के रूप में जाने गए हैं। द टेररिस्ट्स के लेखकों के अनुसार गरिल्लरॉस “अपने अस्तित्व के लिए धर्म के उतना ही आभारी हैं जितना राजनीति के हैं।”
क्या आतंकवाद को निकाल देने की धर्म की असफलता हमें आश्चर्यचकित करनी चाहिए? कॉलिफॉरनिया विश्वविद्यालय के राजनैतिक विज्ञान विभाग के प्रॉफेसर सी. ई. ज़ोप्पो लिखते हैं: “पश्चिम के संघटित धर्म, जब राजनीतिक उद्देश्यों के लिए अत्याचार के उपयोगों के सम्मुख आते हैं तब वे उन नैतिक अधिकारों को जिनका वे उनके अनुगामियों में प्रोत्साहित किया, अपनी धार्मिक शत्रुओं को नहीं दिया . . . और ‘अविश्वासियों’ के विरोध भी आतंकवाद की अनुमति दी।” पोप अर्बन II के समय के पवित्र धर्मयुद्ध का उल्लेख करते हुए वे आगे कहते हैं: “यह धर्मयुध्द के द्वारा इस्लाम को हमेशा के लिए अभिभूत करने की अपेक्षा रखी गयी थी और इसे ‘युध्दों का अन्त करनेवाला युध्द’ माना गया था। इसलाम को सभी प्रकार की बुराई का अवतरण के रूप में माना गया था इसलिए जब कि एक मसीही शत्रु की हत्या करने से एक मसीही सैनिक को चालीस दिवसीय शोधन कार्य करना होगा, मुसलमानों की हत्या करना ‘सभी शोधन-कार्यों का निष्कर्ष बन जाता था।”—द रॉशनलाइज़ेशन ऑफ टेररिज़म।
अन्य धर्मों ने भी एक अविश्वासी या एक विश्वासघाती की हत्या करने पर पुण्यफल प्रदान किया है। वे विश्वास करते हैं कि वे उनके स्वर्गीय प्रमोदवन पाने के लिए एक पासपोर्ट है। इसलिए, एक आतंकवादी का धार्मिक विश्वास वास्तव में उसका खून करने और आत्महत्या-गोलाबारी करने तक की प्रेरणा को शक्त कर सकता है।
क्या कोई राजनैतिक हल है?
पश्चिम के राजनैतिक और सैनिक विशेषज्ञों के पास आतंकवाद का समाधान है, भले ही वे उसके प्रयोग में हमेशा एकता में नहीं है। पीड़ित राष्ट्रों की वर्तमान नीति आग से आग का सामना करना है। सी आय ए (केन्द्रीय गुप्तचर विभाग) के निर्देशक विलियम केसी ने कहा “आतंकवादी कार्यों को रोकने या पहले से अधिकृत करने के लिए जहाँ परिस्थिति शक्ति का उपयोग आवश्यक समझती है तब हम बलकृत कार्यों से न पीछे हट सकेंगे या हटेंगे। कई राष्ट्रों के पास जिस में संयुक्त राज्य भी संबद्ध है, विशेष शक्तियाँ और योग्यताएँ हैं, जिसका हमें आतंकवाद के विरुद्ध कार्य करने में आवश्यक होंगे।”—हाइड्रा ऑफ कारनेज।
अप्रैल १९८६ में लिबिया पर संयुक्त राज्य का धावा जो बर्लिन नाइट-क्लब में हुई आतंकवादी बम विस्फोट के बदले में था, इस तत्वज्ञान को चित्रित करता है। लेकिन यह एक तात्कालिक मूल्य की माँग भी करता है—लिबिया के असैनिकों की मृत्यु जिसका संयुक्त प्राधिकारों के अनुसार अपरिहार्य था और एक संयुक्त राज्य हवाई जहाज़ का उसके कर्मादल के साथ विनाश। आतंकवाद और प्रति-आतंकवाद का गुप्त मूल्य है—प्रतिष्ठा और विश्चसनीयता।
राजनीतिज्ञ और सैन्यवादी गुप्त युद्ध में इसे साधारण बलिदानों के रूप में देखते हैं। जैसे बेन्जामिन नेतन्याहू लिखते हैं: “एक अलग दृष्टि में लोकतन्त्र के सभी नागरिक अपने आप को जब आतंकवाद से धमकाया गया, तब एक सर्वसामान्य युध्द के सैनिकों के रूप में देखना चाहिए। आतंकवाद से हार मानने या अभिभूत होने के लिए उन्हें अपनी सरकार पर दबाव नहीं डालना चाहिए। . . . अगर हम सचमुच आतंकवाद के विरुद्ध की लड़ाई जीतना चाहते हैं तो लोगों को त्याग सहने और अगर प्रिय व्यक्तियों का नुकसान भी शायद हो, तो असीम दुःख सहने तक के लिए तैयार होना चाहिए।”-टेररिज़म—हाव द वेस्ट कॉन विन।
तो क्या आतंकवाद के मूल कारणों को राजनीति से निकाला जा सकता है? क्या अन्याय को ठीक किया जा सकता है और स्थिति को काबू में लाया जा सकता है? राजनैतिक टीकाकारों के अनुसार ऐसा नहीं होगा। क्यों नहीं? क्योंकि, जैसे हमने पूर्ववर्ती लेख में देखा, वे कहते हैं कि आतंकवाद प्रायः दो महान राजनीतिक व्यवस्थाओं के बीच के संघर्ष के लिए सिर्फ एक और साधन है। इसलिए राजनीति आतंकवाद को उत्पन्न करती है।
उदाहरणार्थ, फ्रान्सीसी लेखक और पत्रकार जाँ फ्रान्स्वाँ रवेल ने लिखा: “उनके घोषणा-पत्रों और किताबों में, आतंकवादी, लोकतन्त्र पर उनका आक्रमण ‘तनाव की योजना’ के रूप में वर्णन करते हैं। विचार यह है कि फासीवादी से साम्यवाद में मिल जाना लोकतन्त्र से साम्यवाद में जाने से अधिक आसान है। इसलिए ‘क्रान्तिकारी’ को पहले लोकतान्त्रिक सरकारों को फासीवादी प्रतिरूपी आचरण की ओर जाने के लिए दबाव डालना चाहिए ताकि दूसरे पहलू में, समाजवाद को फासीवाद के भस्म पर बनाया जा सके।” इसलिए कुछ देशों में आतंकवादी जान बूझकर सैनिक अफसरों का खून करते हैं, ताकि एक दाए-पक्ष सैनिक राज्य-विप्लव उत्तेजित कर सकें।
क्या यू.एन. इस प्रवाह को रोक सकता है?
राजनीतिक विज्ञानी सी.ई.ज़ोप्पो ने उस दुविधा को स्पष्ट किया जिस में संयुक्त राष्ट्र अपने आप को पा रहा हैः “यह कोई भी आश्चर्य की बात नहीं . . . कि संयुक्त राष्ट्र, अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद के संघटन पर या सदस्य राष्ट्रों की उचित प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए, इस पर कोई भी मतैक्य पर नहीं आ सका।” किसी को भी यह आश्वर्य की बात नहीं होगी जब हम यह पूर्ण रूप से समझेंगे कि संयुक्त राष्ट्र सिर्फ एक अन्तर्राष्ट्रीय रंगभूमि है जहाँ प्रमुख शक्तियाँ, लड़नेवाले बारहसिंगों की तरह, युध्द में अपने सिंगों को जकड़ते हैं और अर्थविज्ञान से अचल हो जाते हैं।
एक और कारण यह है कि संयुक्त राष्ट्र में आतंकवाद से पीड़ित लोकतांत्रिक राष्ट्र अपने आप को एक अल्पसंख्या में पाते हैं। जैसे ज़ोप्पो ने चित्रित किया: “अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर एक संयुक्त राष्ट्र आम सभा प्रस्ताव ने . . . यद्यपि ‘अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवादी कार्यों पर गहराई से व्याकुलता प्रगट की,’ ‘उपनिवेशीय और जातीय शासनों और अन्य विदेशी शासन के अधीन के सभी लोगों के आत्मनिर्णय और स्वतंत्रता के उस असंक्राम्य अधिकार’ को पुनःसमर्थित किया।” वही प्रस्ताव “उपनिवेशीय, जातीय और विदेशी शासनों द्वारा लोगों के आत्मनिर्णय और स्वतंत्रता के न्याय संगत अधिकारों को वंचित करने के लिए किए गए निरोधात्मक और आतंकवादी कार्यों” की निन्दा करता है।
इस तरह जोप्पो के अनुसार संयुक्त राष्ट्र ने आतंकवाद पर एक द्वैध स्तर अपनाया है। वे आगे कहते हैं: “यह अन्तर्निहित है कि आतंकवाद जब राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का साधन हो तब उसे माफ किया जाता है और जब वह राज्य-आतंक हो तो स्वतंत्रता को रोकने के लिए उसकी निन्दा की जाती है। हाल में स्थापित राष्ट्र जिन्होंने आतंकवाद को मुक्ति पाने का एक साधन के रूप में इस्तेमाल किए हैं, दूसरों में इसका निन्दा करना अनुपयुक्त महसूस करते हैं।” (द रॉशनलाइ₹जेशन ऑफ टेररिज़म) इसलिए आतंकवाद के विरुद्ध एक प्रभावकारी साधन के रूप में संयुक्त राष्ट्र को रोका गया है। नैतिकता प्रबल नहीं होता क्योंकि जैसे ज़ोप्पो अन्त में कहता है, “राजनीति मूल रूप से, क्या नैतिक है, इसकी परिभाषा करती है।” इस बीच आतंकवाद के बेकसूर सशकार दुःख भोगते हैं और मरते हैं।
आतंक बिना एक भ्रातृ-संघ
जॉन स्क्रीबर राष्ट्रों द्वारा सामना की गयी द्विविधा को स्पष्ट करते हैं: “वह घबरा देनेवाला तथ्य यह है कि वे राष्ट्र जो आतंकवाद को दुनिया से निकालना चाहते हैं—और अपने आप को अल्पसंख्या में पाते हैं—वे अपूर्ण योजनाओं से तृप्त होने के लिए मजबूर बन जाते हैं। या तो मान्य सज़ाएं आतंकवादियों पर असर नहीं करते जो एक विचारधारा के लिए बलिदान करते हैं या वे उन से एक हिंसात्मक प्रतिक्रिया माँगते हैं जो लड़ने के लिए तब भी तैयार हैं।”—द अल्टिमेट वेपन—टेररिस्ट्स ऑन्ड वल्ड ऑडर।
इस समस्या पर विश्लेषण करते हुए प्रॉफेसर ज़ोप्पो अन्त में कहते हैं: “मुश्किल से कोई आधुनिक राष्ट्र का जन्म आतंक के बिना हुआ है।” यह सूचित करता है कि राजनीतिक प्रक्रिया में आतंक एक अपरिहार्य अंश है। फिर भी हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि एक ऐसा “राष्ट्र” है जो आतंक या अत्याचार के बिना—या राजनीतिक दखल के बिना उत्पन्न हुआ है। वह तीस लाख से अधिक लोगों का बना एक राष्ट्र है जिसके लोग सारी दुनिया के, अलग अलग परम्पराओं, भाषाओं और धर्मों के हैं। वे कौन हैं? वे लोग जो आपके पास इस पुस्तिका के साथ आते हैं—यहोवा के गवाह।
वे लोगों की एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था से अधिक है। वे एक अधि-राष्ट्रीय भ्रातृ-संघ हैं, जो एक सामान्य विश्वास और परमेश्वर के द्वारा दिए एक आशा के भागीदार हैं। वे उनका प्रभाव दुनिया भर में फैला रहे हैं, आतंकवाद से नहीं बल्कि शान्तिमय बाइबल शिक्षण के द्वारा। करीब-करीब पृथ्वी के हर राष्ट्र में वे मानव जाति की समस्याओं का एक मात्र हल के रूप में परमेश्वर के राज्य का परामर्श करते हैं जो मसीह के द्वारा है।—मत्ती ६:९, १०.
जी हाँ, यहोवा के गवाह विभाजक राजनीति और राष्ट्रीयता से ऊपर उठे हैं, जो युद्ध और आतंकवाद में परिणत होती हैं। वे अब एक ऐसे लोग हैं जो वास्तविक शांति में जी रहे हैं और वे एक ऐसे समय के लिए तैयार हो रहे हैं, जब बहुत ही जल्द पृथ्वी परमेश्वर के राज्य के द्वारा शासित होगी। यह कोई विश्व-परिवर्तन से नहीं बल्कि विश्व-शोधन कार्य से होगा जो परमेश्वर का हरमगिदोन के युध्द में होगा।—मत्ती २४:३७-३९; प्रकाशितवाक्य १६;१४,१६.
फिर वास्तविक शांति और अनन्त जीवन उनका होगा जो पृथ्वी के नम्र हैं। (तीतुस १:२; प्रकाशितवाक्य २१:३, ४) अगर आप इस राज्य के बारे में ज्यादा जानना चाहते हैं, जहाँ आतंकवाद कभी नहीं होगा, कृपया आपके समुदाय के यहोवा के गवाहों से मिले या आपके राष्ट्र के इस पुस्तिका के प्रकाशकों को लिखें।
[पेज 11 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
गए बीस वर्षों में, केवल संयुक्त राज्य में लगभग ३५,००० पिस्तौल या विस्फोटक यन्त्र प्राप्त किया गया और १३००० गिरफ्तारियाँ की गयीं।—डिपार्टमेन्ट ऑफ स्टेट बुलेटिन
[पेज 12 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
“सुरंग का विस्फोट करने और उन सब को उड़ा देने के लिए संयोजन करने से ठीक पहले उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं। फिर उसने क्रूस का चिन्ह किया और श्रध्दापूर्ण फुसफुसाया, ‘प्रभु को उनकी आत्माओं पर दया हो!’”
[पेज 14 पर बक्स]
परमेश्वर का राज्य यीशु मसीह के द्वारा आतंकवाद को निकाल देगा
आतंकवाद निराशोन्मत व्यक्तियों का युद्ध कहा जाता है जिन्हें लगता है कि वे प्रतिकूल परिस्थितियों में हैं। परमेश्वर के राज्य में किसी को भी असुविधा महसूस करने की आवश्यकता नहीं होगी जैसे कि हम मसीह यीशु के राज से सम्बन्धित इन भविष्यवाणियों में देखते हैं:
“हे परमेश्वर, राजा को अपना नियम बता, राजपुत्र को अपना धर्म सिखला! वह तेरी प्रजा का न्याय धर्म से, और तेरे दीन लोगों का न्याय ठीक ठीक चुकाएगा। वह प्रजा के दीन लोगों का न्याय करेगा, और दरिद्र लोगों को बचाएगा; और अन्धेर करनेवालों को चूर करेगा। क्योंकि वह दोहाई देनेवाले दरिद्र को, और दुःखी और असहाय मनुष्य का उद्धार करेगा। वह कंगाल और दरिद्र पर तरस खाएगा, और दरिद्रों के प्राणों को बचाएगा। वह उनके प्राणों को अन्धेर और उपद्रव से छुड़ा लेगा; और उनका लोहू उसकी दृष्टि में अनमोल ठहरेगा।”—भजन ७२:१,२,४, १२-१४.