संसार जिसे सिखाया गया है घृणा करना
लोग जन्म से स्वार्थी होते हैं। और यदि स्वार्थ को दबाकर न रखा जाए तो यह घृणा में बदल सकता है। मानो स्वाभाविक स्वार्थ काफ़ी न था, मानव समाज लोगों को असल में यह सिखाता है कि स्वार्थी बनें!
यह सच है कि सामान्य-अनुमान हमेशा सही नहीं होते, फिर भी अमुक मनोवृत्तियाँ इतनी व्यापक हैं कि उन्हें अपवाद समझकर नकारा नहीं जा सकता। क्या प्रायः ऐसा नहीं होता कि राजनेताओं की रुचि अपनी प्रजा का भला करने से अधिक चुनाव जीतने में होती है? क्या व्यापारी यह देखने के बजाय कि हानिकर उत्पादन बाज़ार में न पहुँचें, प्रायः पैसा बनाने में और ज़रूरत पड़े तो ग़लत ढंग से पैसा बनाने में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं रखते? क्या पादरी प्रायः अपने झुंड को नैतिकता और प्रेम के मार्ग पर ले जाने से ज़्यादा दिलचस्पी लोकप्रिय होने अथवा पैसा ऐंठने में नहीं रखते?
युवावस्था से
जब बच्चों को उनमुक्त वातावरण में पाला जाता है, तब असल में उन्हें स्वार्थ में शिक्षा दी जा रही होती है, क्योंकि उनकी बचकाना इच्छाओं की वेदी पर विचारशीलता और निःस्वार्थता की बलि चढ़ायी जाती है। स्कूल और कॉलॆज में छात्रों को सिखाया जाता है कि अव्वल होने के लिए परिश्रम करें, सिर्फ़ पढ़ाई के मामले में नहीं, खेलकूद में भी। उनका नारा है, “अव्वल न होना फिसड्डी होने के बराबर है!”
हिंसा दिखानेवाले वीडियो खेल युवाओं को सिखाते हैं कि स्वार्थी ढंग से समस्याओं का हल करें—दुश्मन का सीधे सफ़ाया कर दें! निश्चित ही यह मनोवृत्ति प्रेम नहीं बढ़ाती! एक दशक से भी पहले, अमरीका के सैन्य चिकित्सा प्रमुख (सर्जन जनरल) ने चिताया कि वीडियो खेल युवाओं के लिए एक ख़तरा हैं। उसने कहा: “पूरा खेल यही है कि दुश्मन को मार गिराओ। उसमें कुछ हितकर नहीं है।” द न्यू यॉर्क टाइम्स को एक पत्र में कहा गया कि अनेक वीडियो खेल “मनुष्य की अति पतित कामनाओं को पूरा करते हैं” और आगे कहा गया: “वे बेअक़ल, बददिमाग़ युवाओं की पीढ़ी उत्पन्न कर रहे हैं।” जर्मनी के एक वीडियो-खेल उत्साही ने ईमानदारी से उपर्युक्त कथन की सत्यता को स्वीकार किया जब उसने कहा: “इन्हें खेलते समय मैं एक अलग-सी सपनों की दुनिया में चला गया जहाँ यह आदिम नारा था: ‘मारो या मारे जाओ।’”
जब घृणा में जातिभेद मिलाया जाता है, तब यह और भी हानिकर हो जाती है। इसलिए स्पष्ट है कि जर्मन लोग दक्षिणपंथी वीडियो के अस्तित्त्व के बारे में चिंतित हैं जो विदेशियों के विरुद्ध, ख़ासकर तुर्कियों के विरुद्ध हिंसा दिखाते हैं। और उनके पास इस चिंता का कारण है, क्योंकि जनवरी १, १९९४ में जर्मनी के ६८,७८,१०० विदेशी निवासियों में से २७.९ प्रतिशत तुर्की थे।
जातिभेद की भावनाएँ उसी को बढ़ाती हैं जो राष्ट्रीयवाद बच्चों को शिशुपन से सिखाता है, अर्थात् अपने राष्ट्र के शत्रुओं से घृणा करना ग़लत नहीं है। टाइम के एक लेखक, जॉर्ज एम. टेबर के एक लेख ने कहा: “इतिहास के सभी राजनैतिक वाद में, शायद सबसे मज़बूत है राष्ट्रीयवाद।” उसने आगे समझाया: “धर्म को छोड़, इसी के नाम पर सबसे अधिक खून बहाया गया है। आस-पास के किसी नृजातीय समूह पर अपनी सभी समस्याओं का दोष मढ़ने के द्वारा जनोत्तेजकों ने सदियों से उन्मादी दंगे भड़काये हैं।”
दूसरे नृजातीय समूहों, जातियों, या राष्ट्रीयताओं के प्रति चिरकालिक घृणा आज के संसार की अनेक समस्याओं के पीछे है। और अजनबियों या विदेशियों का भय, विदेशी-द्वेष बढ़ रहा है। लेकिन, दिलचस्पी की बात है कि जर्मन समाज-शास्त्रियों के एक समूह ने पाया कि यह वहाँ ज़्यादा स्पष्ट है जहाँ थोड़े-से विदेशी रहते हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि विदेशी-द्वेष ज़्यादातर पूर्वधारणा के कारण होता है, व्यक्तिगत अनुभव के कारण उतना नहीं। “युवाओं की पूर्वधारणाओं को मुख्यतः उनके मित्र और परिजन बढ़ाते हैं,” समाज-शास्त्रियों ने पाया। सच तो यह है कि इंटरव्यू देनेवाले ७७ प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे पूर्वधारणा का समर्थन तो करते हैं, परंतु उनका विदेशियों के साथ सीधा संपर्क बिलकुल नहीं है या बहुत कम है।
स्वार्थ का सबक़ सिखाना कठिन नहीं है, क्योंकि हम सभी ने अपरिपूर्ण माता-पिता से कुछ हद तक स्वार्थ तो विरासत में पाया है। लेकिन प्रेम और घृणा के बीच विवाद में धर्म क्या भूमिका निभाता है?
धर्म क्या सिखाता है?
आम तौर पर लोग सोचते हैं कि धर्म प्रेम को बढ़ावा देता है। लेकिन यदि ऐसा है तो फिर मात्र तीन उदाहरण, उत्तरी आयरलॆंड, मध्य पूर्व और भारत में धार्मिक मतभेद तनाव का मुख्य कारण क्यों हैं? निःसंदेह, कुछ लोग कहते हैं कि गड़बड़ी के दोषी धार्मिक नहीं, राजनैतिक मतभेद हैं। यह वाद-विवाद का विषय है। बात जो भी हो, यह स्पष्ट है कि संगठित धर्म लोगों में उतना मज़बूत प्रेम जगाने में असफल रहा है जो राजनैतिक और नृजातीय भेदभाव को पार कर सके। असल में अनेक कैथोलिक और ऑर्थोडॉक्स विश्वासी, और अन्य धर्मों के लोग पूर्वधारणा को बुरा नहीं मानते, जो कि हिंसा की ओर ले जाता है।
यदि एक व्यक्ति को किसी धार्मिक समूह की शिक्षाएँ और प्रथाएँ ग़लत लगती हैं तो उनका खंडन करने की कोशिश करने में कोई बुराई नहीं। लेकिन क्या यह उसे यह अधिकार देता है कि उस समूह या उसके सदस्यों के साथ हिंसा पर उतारू हो जाए? धर्म विश्वकोश (अंग्रेज़ी) ईमानदारी से स्वीकार करता है: “निकट पूर्वी और यूरोपीय इतिहास में बारंबार धार्मिक अगुवों ने दूसरे धार्मिक समूहों पर हिंसक हमलों का आदेश दिया है।”
यह विश्वकोश प्रकट करता है कि हिंसा धर्म का अभिन्न अंग है। यह कहता है: “दोनों, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विकास प्रक्रियाओं के लिए संघर्ष को ज़रूरी समझनेवाले केवल डार्विनवादी नहीं हैं। धर्म ने संघर्ष, हिंसा और इस प्रकार विकास के लिए अंतहीन स्रोत का काम किया है।”
विकास के लिए ज़रूरी कहकर हिंसा को उचित नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि यह यीशु मसीह द्वारा उस समय दिये गये एक जाने-माने सिद्धांत के विरुद्ध होगा जब प्रेरित पतरस ने उसका बचाव करने की कोशिश की। पतरस ने “हाथ बढ़ाकर अपनी तलवार खींच ली और महायाजक के दास पर चलाकर उस का कान उड़ा दिया। तब यीशु ने उस से कहा; अपनी तलवार काठी में रख ले क्योंकि जो तलवार चलाते हैं, वे सब तलवार से नाश किए जाएंगे।”—मत्ती २६:५१, ५२; यूहन्ना १८:१०, ११.
दूसरों के साथ हिंसा करना—चाहे वे अच्छे हैं या बुरे—प्रेम का मार्ग नहीं है। इसलिए, जो लोग हिंसा का सहारा लेते हैं वे अपने इस दावे को झुठलाते हैं कि वे एक प्रेममय परमेश्वर की नक़ल करते हैं। लेखक एमस ऑज़ ने हाल ही में कहा: “यह धार्मिक कट्टरों की ठेठ बात है . . . कि परमेश्वर से उन्हें जो ‘आज्ञाएँ’ मिलती हैं वे हमेशा, मूलतः एक होती हैं: तू हत्या कर। लगता है कि सारे कट्टरों का ईश्वर इब्लीस है।”
बाइबल भी कुछ ऐसा ही कहती है: “इसी से परमेश्वर की सन्तान, और शैतान की सन्तान जाने जाते हैं; जो कोई धर्म के काम नहीं करता, वह परमेश्वर से नहीं, और न वह, जो अपने भाई से प्रेम नहीं रखता। जो कोई अपने भाई से बैर रखता है, वह हत्यारा है; और तुम जानते हो, कि किसी हत्यारे में अनन्त जीवन नहीं रहता। यदि कोई कहे, कि मैं परमेश्वर से प्रेम रखता हूं; और अपने भाई से बैर रखे; तो वह झूठा है: क्योंकि जो अपने भाई से, जिसे उस ने देखा है, प्रेम नहीं रखता, तो वह परमेश्वर से भी जिसे उस ने नहीं देखा, प्रेम नहीं रख सकता। और उस से हमें यह आज्ञा मिली है, कि जो कोई परमेश्वर से प्रेम रखता है, वह अपने भाई से भी प्रेम रखे।”—१ यूहन्ना ३:१०, १५; ४:२०, २१.
सच्चे धर्म को प्रेम के एक नमूने पर चलना है, जिसमें शत्रुओं से भी प्रेम करना सम्मिलित है। यहोवा के बारे में हम पढ़ते हैं: “वह भलों और बुरों दोनों पर अपना सूर्य उदय करता है, और धर्मियों और अधर्मियों दोनों पर मेंह बरसाता है।” (मत्ती ५:४४, ४५; १ यूहन्ना ४:७-१० भी देखिए।) घृणा के ईश्वर, शैतान से कितना भिन्न! वह लोगों को लुचपन, अपराध और स्वार्थ का जीवन जीने के लिए लुभाता और बहकाता है और इस प्रकार उनके जीवन को दुःख-दर्द से भर देता है। जबकि उसे अच्छी तरह मालूम है कि यह विकृत जीवन-शैली आगे चलकर उनका विनाश कराएगी, फिर भी वह अदबदाकर ऐसा करता है। क्या उस क़िस्म का ईश्वर इस योग्य है कि उसकी सेवा की जाए, जो अपनों का बचाव करने में असमर्थ—प्रत्यक्षतः अनिच्छुक भी है?
भय, क्रोध, या चोट का भाव
इसकी आसानी से पुष्टि की जा सकती है कि ये बातें घृणा उत्पन्न करती हैं। टाइम की एक रिपोर्ट कहती है: “समस्या-ग्रस्त १९३० के दशक के बाद से यूरोप के अनेक मिले-जुले उग्र-दक्षिणपंथी आंदोलन कभी इतने सारे प्रतीयमान अवसरों का लाभ नहीं उठा पाये हैं। . . . अपनी नौकरियों को लेकर भयभीत, लोग मध्यमार्गी सरकारों की नपुंसकता के विरुद्ध भावशून्य क्रोध दिखा रहे हैं और अपने बीच विदेशियों को बलि का बकरा बना रहे हैं।” यॉर्ग शिंडलर ने राइनइशर मरकूर/क्रिस्त उन्त वॆल्त में उन हज़ारों राजनैतिक शरणार्थियों की ओर ध्यान आकर्षित करवाया जो पिछले दो दशकों से जर्मनी में आये हैं। द जर्मन ट्रिब्यून चिताता है: “जातिभेद पूरे यूरोप में बढ़ रहा है।” इतने सारे विदेशियों का आना घृणा की भावनाएँ उत्पन्न करता है। लोगों को यह शिकायत करते हुए सुना गया है: ‘वे हमारा पैसा चूस रहे हैं, वे हमारी नौकरियाँ छीन रहे हैं, वे हमारी बेटियों के लिए ख़तरा हैं।’ सेंट ऐन्टनीज़ कॉलॆज, ऑक्सफ़र्ड के एक सदस्य, थीअडोर ज़ॆलडन ने कहा कि लोग “हिंसक हैं क्योंकि वे ख़तरा या अपमान महसूस करते हैं। उनके क्रोध के कारणों पर ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है।”
हमारा संसार, संसार जो अपने नागरिकों को घृणा करना सिखाता है, उसका वर्णन करने के लिए ब्रिटिश टॆलिविज़न पत्रकार जोन बेकवॆल उपयुक्त शब्द इस्तेमाल करती है। वह लिखती है: “मैं रूढ़िवादी मसीही नहीं हूँ, लेकिन मैं यीशु की शिक्षा में एक गहरा और पूर्ण सत्य देखती हूँ: प्रेम की दुःखदायी कमी ही दुष्टता है। . . . मैं जानती हूँ कि हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जो प्रेम के सिद्धांत को कोई महत्त्व नहीं देता। सचमुच, यह समाज इतना बनावटी है कि यह ऐसे सिद्धांत को सहज, संवेदनात्मक, आदर्शवादी कहकर नकार देता है। यह इस धारणा की हँसी उड़ाता है कि परवाह और निःस्वार्थता को लाभ और आत्महित से अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए। जब यह नया-नया सौदा पक्का करता है, अपनी बाध्यताओं से कतराता है और उस प्रमाण को हलका जानता है जो साफ़-साफ़ दिखाता है कि इसकी ग़लती है, तब यह कहता है कि ‘व्यावहारिक बनो।’ ऐसा संसार असफल और अकेले लोग उत्पन्न करता है, लोग जो सफलता, आत्म-सम्मान और सुखी परिवार जैसी समाज की प्राथमिकताओं को नहीं पा सके।”
स्पष्ट है कि इस संसार का ईश्वर, शैतान मनुष्यजाति को घृणा करना सिखा रहा है। लेकिन व्यक्तिगत रूप से, हम प्रेम करना सीख सकते हैं। अगला लेख दिखाएगा कि यह संभव है।
[पेज 7 पर तसवीर]
कहीं ऐसा तो नहीं कि वीडियो खेल आपके बच्चों को घृणा करना सिखा रहे हों?
[पेज 8 पर तसवीर]
युद्ध की हिंसा अज्ञानता और घृणा का लक्षण है
[चित्र का श्रेय]
Pascal Beaudenon/Sipa Press