मसीही लोग और जाति भेद
भारत में सजग होइए! संवाददाता द्वारा
जब आप “जाति प्रथा” का नाम सुनते हैं, तब आपके मन में क्या आता है? शायद आप भारत और ऐसे लाखों लोगों के बारे में सोचते हैं जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों के हैं।a हालाँकि जाति प्रथा हिंदू धर्म का भाग है, फिर भी निम्न जातियों और अजातियों पर इसके जो प्रभाव हुए हैं उनको दूर करने के लिए हिंदू सुधारकों ने संघर्ष किया है। इसे ध्यान में रखते हुए, आप क्या कहेंगे यदि आप सुनें कि मसीही होने का दावा करनेवाले गिरजों में भी जाति प्रथा प्रचलित है?
भारत में जाति प्रथा का संभव उद्गम
लोगों का सामाजिक वर्गों में विभाजन, जिसमें कुछ लोग अपने आपको श्रेष्ठ समझते हैं, ऐसा नहीं कि सिर्फ भारत में हो। सभी महाद्वीपों पर एक-न-एक रूप में वर्ग भेद हुआ है। भारत की जाति प्रथा इसलिए भिन्न है कि ३,००० साल से पहले, यहाँ सामाजिक दमन की एक प्रक्रिया धर्म का भाग बन गयी।
हालाँकि जाति प्रथा के आरंभ के बारे में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, फिर भी कुछ विद्वान कहते हैं कि इसकी जड़ें सिंधु घाटी की प्राचीन सभ्यता में हैं जो आज के पाकिस्तान में स्थित थी। पुरातत्त्व-विज्ञान संकेत देता है कि वहाँ के आरंभिक निवासियों को बाद में उत्तर-पश्चिम की जनजातियों ने जीत लिया था, और सामान्य रूप से इसे “आर्य आगमन” कहा जाता है। अपनी पुस्तक द डिस्कवरी ऑफ इंडिया में जवाहरलाल नेहरु इसे “पहला बड़ा सांस्कृतिक संमिश्रण और समेकन” कहता है, जिसमें से “भारतीय जातियों और मूल भारतीय संस्कृति” का जन्म हुआ। लेकिन, इस समेकन से जातीय समानता परिणित नहीं हुई।
दी न्यू एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका कहती है: “भारतीयों के अनुसार अंतर्विवाह के कारण (जो धर्म के बारे में हिंदू रचनाओं में वर्जित है), चार वर्गों या वर्णों के पुनःविभाजन से जातियों (अक्षरशः ‘जन्म’) का फैलाव हुआ है। लेकिन, आधुनिक सिद्धांतवादी अकसर यह अनुमान लगाते हैं कि जातियाँ पारिवारिक रीति-रिवाज़ों, जातीय भिन्नताओं, और पेशा-संबंधी भिन्नताओं तथा विशेषताओं के कारण बनीं। अनेक आधुनिक विद्वान इस पर भी संदेह करते हैं कि सरल वर्ण प्रथा कभी एक सैद्धांतिक सामाजिक-धार्मिक आदर्श से अधिक थी या नहीं, और उन्होंने इस पर ज़ोर दिया है कि लगभग ३,००० जातियों और उपजातियों में हिंदू समाज का अति जटिल विभाजन संभवतः प्राचीन समय में भी था।”
कुछ समय तक जातियों के बीच अंतर्विवाह होते थे, और त्वचा के रंग पर आधारित पुरानी पूर्वधारणाएँ कम हो गयीं। जाति को नियंत्रित करनेवाले सख्त नियम बाद में विकसित हुए। वे वैदिक शास्त्रों और हिंदू ऋषि, मनु की संहिता (या नियमावली) में बताये गये। ब्राह्मणों ने सिखाया कि उच्च जातियाँ उस शुद्धता के साथ जन्मी हैं जो उन्हें निम्न जातियों से अलग करती है। उन्होंने शूद्र, या निम्नतम जाति के लोगों में यह विश्वास बिठा दिया कि उनका छोटा काम उनके पिछले जन्म के बुरे कामों का परमेश्वर-नियुक्त दंड है और जाति बंधन को तोड़ने का कोई भी प्रयास उन्हें अजाति बना देगा। अंतर्विवाह, अंतर्भोज, एक ही जगह से पानी भरना, या उसी मंदिर में प्रवेश करना जिसमें शूद्र जाता है उच्च जाति के व्यक्ति को अजाति बना सकता है।
आधुनिक माहौल में जाति भेद
वर्ष १९४७ में स्वतंत्रता पाने के बाद, भारत की धर्म-निरपेक्ष सरकार ने एक संविधान बनाया जिसमें जाति भेद को दंडनीय अपराध बनाया गया। यह स्वीकार करते हुए कि सदियों से निम्न-जाति हिंदुओं का दमन हुआ है, सरकार ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी और निर्वाचित पदों साथ ही शैक्षिक संस्थानों में सीटों के आरक्षण का कानून बनाया। इन हिंदू समूहों के लिए “दलित” नाम प्रयोग किया जाता है, जिसका अर्थ है “कुचला हुआ।” लेकिन हाल में एक अखबार की सुर्खियों में आया: “दलित ईसाई आरक्षण [नौकरी और विश्वविद्यालय कोटा] की माँग करते हैं।” यह स्थिति कैसे आयी?
निम्न-जाति हिंदुओं को जो अनेक सरकारी लाभ दिये जाते हैं वे इस तथ्य पर आधारित हैं कि उन्होंने जाति प्रथा के कारण अन्याय सहा है। सो यह तर्क किया गया कि जिन धर्मों में जाति प्रथा का चलन नहीं है वे इन लाभों की अपेक्षा नहीं कर सकते। लेकिन, दलित ईसाई कहते हैं कि वे निम्न जाति के अथवा अछूत धर्मांतरित हैं, इसलिए वे भी भेदभाव सह रहे हैं। यह भेदभाव वे केवल हिंदुओं से नहीं, बल्कि अपने ‘संगी ईसाइयों’ से भी सह रहे हैं। क्या यह सही है?
मसीहीजगत के मिशनरी और जाति भेद
उपनिवेशी समय में कैथोलिक और प्रोटॆस्टॆंट धर्म के पुर्तगाली, फ्रांसीसी, और ब्रिटिश मिशनरियों ने अनेक हिंदुओं को धर्मांतरित किया। हर जाति के लोग नाममात्र के ईसाई बन गये। कुछ प्रचारकों ने ब्राह्मणों को आकर्षित किया, दूसरों ने अछूतों को। जाति भेद में लोगों के गहरे विश्वास पर मिशनरियों की शिक्षा और आचरण का क्या प्रभाव हुआ?
भारत में ब्रिटिश लोगों के बारे में लेखक नीरद चौधरी कहता है कि गिरजों में “भारतीय कलीसिया यूरोपीय लोगों के साथ नहीं बैठ सकती थी। मसीहियत में जातीय श्रेष्ठता का वही भाव दिखा जिस पर भारत में ब्रिटिश राज्य टिका हुआ था।” ऐसी ही मनोवृत्ति दिखाते हुए, १८९४ में एक मिशनरी ने अमरीका के बोर्ड ऑफ फौरन मिशन्स को रिपोर्ट दी कि निम्न जाति के लोगों को धर्मांतरित करना “चर्च में कूड़ा-करकट इकट्ठा करना” हुआ।
स्पष्ट है कि आरंभिक मिशनरियों में जातीय श्रेष्ठता की भावना और ब्राह्मणी विचार का चर्च शिक्षाओं के साथ मिश्रण ही मुख्यतः इसका ज़िम्मेदार है कि आज भारत में अनेक तथाकथित मसीहियों के बीच खुलकर जाति प्रथा का पालन हो रहा है।
आज गिरजों में जाति भेद
कैथोलिक आर्चबिशप जॉर्ज ज़र ने १९९१ में भारत में कैथोलिक बिशप्स कॉनफ्रॆंस को संबोधित करते हुए कहा: “अनुसूचित जाति के धर्मांतरितों के साथ न केवल उच्च जाति के हिंदुओं द्वारा बल्कि उच्च जाति के ईसाइयों द्वारा भी निम्न जाति के जैसा व्यवहार किया जाता है। . . . गिरजों और कब्रिस्तानों में उनके लिए अलग स्थान रखे जाते हैं। अंतर्जातीय विवाहों पर नाक-भौं सिकोड़ी जाती है। . . . पादरियों के बीच जाति प्रथा व्यापक है।”
युनाइटॆड प्रोटॆस्टॆंट चर्च, चर्च ऑफ साउथ इंडिया के बिशप एम, ऎज़राया ने अपनी पुस्तक भारतीय चर्च का अ-मसीही पहलू (अंग्रेज़ी) में कहा: “इस प्रकार विभिन्न गिरजों में अनुसूचित जाति (दलित) ईसाइयों से उनकी अपनी किसी गलती के कारण नहीं, परंतु उनके निम्न जाति में जन्म लेने के कारण संगी ईसाइयों द्वारा भेदभाव रखा जाता है और उनका दमन किया जाता है। ऐसा तब भी होता है जब वे दो, तीन, या चार पीढ़ी पहले ईसाई बने थे। उच्च जाति के ईसाई जो चर्च में अल्पसंख्यक हैं पीढ़ियों बाद भी अपनी जाति पूर्वधारणाएँ बनाए रखते हैं। वे मसीही विश्वास और व्यवहार से अप्रभावित हैं।”
मंडल आयोग के नाम से प्रसिद्ध, भारत में पिछड़े वर्गों की समस्याओं की एक सरकारी जाँच ने पाया कि केरल के तथाकथित ईसाई “अपनी जाति पृष्ठभूमि के आधार पर विभिन्न नृजातीय समूहों में” विभाजित हैं। “धर्मांतरण के बाद भी, निम्न जाति के धर्मांतरित लोगों के साथ हरिजनb की तरह व्यवहार किया जाता है . . . एक ही चर्च के सिरियन और पूलाया सदस्य अलग-अलग होकर अलग-अलग इमारतों में धार्मिक संस्कार करते हैं।”
अगस्त १९९६ में इंडियन ऎक्सप्रॆस की एक समाचार रिपोर्ट ने दलित ईसाइयों के बारे में कहा: “तमिल नाडु में, उनके निवास उच्च जातियों से अलग हैं। केरल में, वे ज़्यादातर भूमिहीन मज़दूर हैं, और सिरियन ईसाइयों तथा उच्च जातियों के दूसरे भूमिधरों के लिए काम करते हैं। दलितों और सिरियन ईसाइयों के बीच अंतर्भोज या अंतर्विवाह का प्रश्न ही नहीं उठता। अनेक मामलों में, दलित अपने गिरजों में उपासना करते हैं, जिन्हें ‘पूलाया गिरजा’ या ‘पाराया गिरजा’ कहा जाता है।” ये उपजाति नाम हैं। “पाराया” का अंग्रेज़ी रूप है PARIAH (अछूत)।
असंतोष को देखकर प्रतिक्रियाएँ
ईसाई शोषण विरुद्ध मंच (FACE) जैसे जन-सुधारक समूह, ईसाई दलितों को सरकारी लाभ प्राप्त करवाने की कोशिश कर रहे हैं। मुख्य चिंता है ईसाई धर्मांतरितों के लिए आर्थिक सहायता। लेकिन, दूसरों को इसकी चिंता है कि चर्च के अंदर कैसा व्यवहार किया जाता है। पोप जॉन पॉल द्वितीय को एक पत्र में, करीब १२० हस्ताक्षर-कर्ताओं ने कहा कि उन्होंने “जाति प्रथा से मुक्त होने के लिए मसीहियत अपनायी” थी लेकिन उन्हें गाँव के गिरजे में न तो प्रवेश करने दिया जाता है और न ही सभाओं में हिस्सा लेने दिया जाता है। उन्हें एक ही सड़क किनारे घर बनाने के लिए मजबूर किया गया जहाँ न तो कोई उच्च-जाति ईसाई—और न ही पैरिश पादरी—कभी कदम रखता है! इसी तरह परेशान एक कैथोलिक स्त्री ने कहा: “मेरे लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि मेरा बेटा किसी अच्छे कॉलॆज में पढ़े। लेकिन यह उससे भी महत्त्वपूर्ण है कि उसके [कैथोलिक] भाई उसे बराबर का समझें।”
जबकि कुछ लोग दलित ईसाइयों की स्थिति सुधारने की कोशिश कर रहे हैं, बहुतों के धीरज का बाँध टूट रहा है। विश्व हिंदू परिषद् जैसे संगठन ईसाई धर्मांतरितों को फिर से हिंदू समुदाय में लाने की कोशिश कर रहे हैं। इंडियन ऎक्सप्रॆस ने एक धर्म-अनुष्ठान के बारे में रिपोर्ट दी जिसमें १०,००० लोग उपस्थित हुए और ६०० से अधिक ऐसे “ईसाई” परिवारों ने हिंदुत्व को फिर से अपना लिया।
सच्चा मसीही मार्ग
यदि चर्च संगठनों के मिशनरियों ने प्रेम पर आधारित मसीह की शिक्षाएँ सिखायी होतीं, तो आज “ब्राह्मण ईसाई,” “दलित ईसाई,” “पाराया ईसाई” नहीं होते। (मत्ती २२:३७-४०) दलितों के लिए अलग गिरजे नहीं होते और भोजन के समय कोई अलगाव नहीं होता। यह मुक्त करनेवाली बाइबल शिक्षा क्या है जो जाति भेदभाव को नहीं मानती?
‘क्योंकि तुम्हारा परमेश्वर यहोवा वही ईश्वरों का परमेश्वर है, जो किसी का पक्ष नहीं करता और न घूस लेता है।’—व्यवस्थाविवरण १०:१७.
“हे भाइयो, मैं तुम से यीशु मसीह जो हमारा प्रभु है उसके नाम के द्वारा बिनती करता हूं, कि तुम सब एक ही बात कहो; और तुम में फूट न हो, परन्तु एक ही मन और एक ही मत होकर मिले रहो।”—१ कुरिन्थियों १:१०.
“यदि आपस में प्रेम रखोगे तो इसी से सब जानेंगे, कि तुम मेरे चेले हो।”—यूहन्ना १३:३५.
बाइबल सिखाती है कि परमेश्वर ने एक मनुष्य से पूरी मानवजाति बनायी। बाइबल यह भी कहती है कि उस एक मनुष्य के सभी वंशजों को चाहिए कि ‘वे परमेश्वर को ढूंढ़ें और पा जाएं तौभी वह हम में से किसी से दूर नहीं।’—प्रेरितों १७:२६, २७.
जब आरंभिक मसीही कलीसिया में वर्ग भेद होने लगा था, तब ईश्वरीय प्रेरणा के अधीन लेखक याकूब ने साफ शब्दों में उसकी निंदा की। उसने कहा: “तो क्या तुम ने आपस में भेद भाव न किया और कुविचार से न्याय करनेवाले न ठहरे?” (याकूब २:१-४) सच्ची मसीही शिक्षा में जाति प्रथा के किसी रूप की गुंजाइश नहीं।
नये संसार के सोच-विचार की ज़रूरत
लाखों यहोवा के साक्षियों ने अपने पुराने विश्वास और व्यवहार को बदलने की तत्परता दिखायी है जो उन्होंने अनेक अलग-अलग धर्मों से सीखे थे। बाइबल की शिक्षाओं ने उनके दिल और दिमाग से श्रेष्ठता अथवा हीनता की भावनाएँ दूर कर दी हैं, चाहे इनकी जड़ें उपनिवेशी विजय, वर्ग-भेद, रंग-भेद, अथवा जाति प्रथा में थीं। (रोमियों १२:१, २) उन्हें उसकी साफ समझ है जिसे बाइबल “नई पृथ्वी” कहती है, जिसमें “धार्मिकता बास करेगी।” पृथ्वी के पीड़ाग्रस्त लाखों लोगों के लिए क्या ही शानदार आशा!—२ पतरस ३:१३.
[फुटनोट]
a “अनुसूचित जातियाँ” एक औपचारिक पद है जो हिंदुओं के बीच निम्न जातियों, अथवा अजातियों, अछूतों के लिए प्रयोग किया जाता है, जिन्होंने सामाजिक और आर्थिक हानि उठायी है।
b एम. के. गांधी ने निम्न जातियों को यह नाम दिया था। इसका अर्थ है “हरि के लोग।” हरि विष्णु देवता का एक नाम है।
[पेज 21 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात/तसवीर]
“परमेश्वर किसी का पक्ष नहीं करता, बरन हर जाति में जो उस से डरता और धर्म के काम करता है, वह उसे भाता है।”
[पेज 19 पर बक्स/तसवीर]
कैसा लगता है?
जी हाँ, जो मसीही होने का दावा करते हैं उन्हीं लोगों द्वारा अजाति की तरह दुतकारे जाने पर कैसा लगता है? एक मसीही के पूर्वज हिंदुओं की एक निम्न जाति, चॆर्मार या पूलाया से धर्मांतरित हुए थे। वह अपने गृह राज्य केरल में कुछ साल पहले घटी एक घटना का ज़िक्र करता है:
मुझे एक विवाह में न्यौता दिया गया। वहाँ काफी मेहमान चर्च सदस्य थे। जब उन्होंने मुझे दावत में देखा, तब काफी हंगामा हो गया, और जो ऑर्थोडॉक्स सिरियन चर्च के थे उन्होंने कहा कि यदि मैं वहाँ से नहीं गया तो वे दावत से चले जाएँगे, क्योंकि वे किसी पूलाया के साथ भोजन नहीं करते। जब दुलहन के पिता ने उनकी धमकी के आगे हार नहीं मानी, तब उन सब ने मिलकर दावत का विरोध किया। उनके जाने के बाद, भोजन परोसा गया। लेकिन भोजन परोसनेवालों ने मेरी मेज़ साफ करने और केले के उस पत्ते को उठाने से इनकार कर दिया जिस पर मैंने भोजन किया था।
[तसवीर]
दक्षिण भारत का एक ठेठ गिरजा, जिसमें केवल निम्न जाति के लोग जाते हैं