अजीबोगरीब मौसम
हममें से अधिकतर लोग कई तरीकों से कार्बन-युक्त ईंधन पर आश्रित हैं। हम कारें और दूसरी गाड़ियाँ चलाते हैं जो पॆट्रोल या डीज़ल ईंधन से चलती हैं। हम विद्युत संयंत्रों द्वारा उत्पन्न बिजली इस्तेमाल करते हैं जो कोयले, प्राकृतिक गैस या तेल से चलते हैं। हम भोजन बनाने या अपने आपको गरम रखने के लिए लकड़ी, काठकोयला, प्राकृतिक गैस और कोयला जलाते हैं। इन सब कामों से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ती है। यह गैस सूरज की गरमी को रोक लेती है।
हम वायुमंडल में दूसरी उष्मा-रोधी ग्रीनहाउस गैसें भी छोड़ते हैं। खेती में इस्तेमाल किये गये नाइट्रोजन उर्वरक (फर्टिलाइज़र) से नाइट्रस ऑक्साइड निकलती है। धान के खेतों और पशु फार्मों से मिथेन गैस निकलती है। प्लास्टिक फोम उत्पादन और दूसरी औद्योगिक प्रक्रियाओं से क्लोरोफ्लूरोकार्बन (CFC) निकलते हैं। CFC न सिर्फ गरमी को रोककर रखते हैं बल्कि पृथ्वी की समतापमंडलीय (स्ट्रॆटोस्फॆरिक) ओज़ोन परत को भी नष्ट करते हैं।
CFC को छोड़, जिनको अब नियंत्रित किया गया है, ये उष्मा-रोधी गैसें सदा-बढ़ती दरों पर वायुमंडल में छोड़ी जा रही हैं। ऐसा अंशतः इसलिए है कि पृथ्वी पर लोगों की संख्या बढ़ रही है, साथ ही ऊर्जा के इस्तेमाल, औद्योगिक काम और खेती में बढ़ोतरी हो रही है। वॉशिंगटन स्थित पर्यावरण संरक्षण एजॆंसी के अनुसार, मनुष्य आज हर साल छः अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसें वायुमंडल में छोड़ रहे हैं। ये ग्रीनहाउस गैसें यूँ ही गायब नहीं हो जातीं; ये दशकों तक वायुमंडल में समायी रह सकती हैं।
आम तौर पर वैज्ञानिक दो बातों के बारे में निश्चित हैं। पहली, हाल के दशकों और सदियों के दौरान वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा बढ़ी है। दूसरी, पिछले सौ सालों में पृथ्वी का औसत धरातल तापमान ०.३ से ०.६ डिग्री सॆल्सियस तक बढ़ गया है।
प्रश्न यह उठता है, क्या भूमंडलीय तापन और ग्रीनहाउस गैसों की मानव-प्रेरित वृद्धि के बीच कोई संबंध है? कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि शायद कोई संबंध नहीं। उनका कहना है कि तापमान में वृद्धि स्वाभाविक उतार-चढ़ाव की सीमा के अंदर है और इसका ज़िम्मेदार सूरज हो सकता है। लेकिन अनेक जलवायु विशेषज्ञ अंतर्सरकारी जलवायु परिवर्तन समिति की रिपोर्ट के शब्दों से सहमत हैं। उसमें कहा गया है कि तापमान में वृद्धि “पूरी तरह प्राकृतिक कारणों से हो यह अति संभव नहीं” और “प्रमाणों से दिखता है कि भूमंडलीय जलवायु पर मनुष्यों का प्रभाव हुआ है।” फिर भी, इस बारे में अनिश्चितता बनी हुई है कि मनुष्यों के कार्य हमारे ग्रह को गरम कर रहे हैं या नहीं—खासकर इस बारे में कि २१वीं सदी में दुनिया कितनी जल्दी गरम हो जाएगी और असल में परिणाम क्या होंगे।
अनिश्चितताएँ बहस शुरू करती हैं
जब जलवायु-विज्ञानी भावी ग्रीनहाउस प्रभाव का पूर्वानुमान लगाते हैं तो वे जलवायु मॉडलों पर निर्भर होते हैं जो दुनिया के सबसे तेज़ और सबसे शक्तिशाली कंप्यूटरों पर चलाये जाते हैं। लेकिन पृथ्वी की जलवायु पृथ्वी के परिभ्रमण, वायुमंडल, महासागरों, बर्फ, भू-आकृतियों और सूरज के बहुत ही जटिल अंतःसंबंध द्वारा निश्चित होती है। जलवायु इतने बड़े पैमाने पर इतनी सारी बातों द्वारा प्रभावित होती है कि किसी भी कंप्यूटर के लिए निश्चित रूप से यह बताना संभव नहीं कि आज से ५० या १०० साल बाद क्या होगा। साइंस पत्रिका ने हाल ही में बताया: “अनेक जलवायु विशेषज्ञ चिताते हैं कि अब तक यह बिलकुल स्पष्ट नहीं हुआ है कि मानव कार्यों ने हमारे ग्रह को गरम करना शुरू कर दिया है या नहीं—या जब ग्रीनहाउस तापन होगा तो वह कितना गंभीर होगा।”
अनिश्चितताओं के कारण यह कहना आसान हो जाता है कि कोई खतरा नहीं है। जिन वैज्ञानिकों को भूमंडलीय तापन के बारे में संदेह है, साथ ही ऐसे शक्तिशाली उद्योग जिन्हें वर्तमान स्थिति बनाए रखने में आर्थिक दिलचस्पी है, बहस करते हैं कि हमारा वर्तमान ज्ञान ऐसा कोई सुधार कार्य करना उचित नहीं ठहराता जो महँगा पड़ सकता है। उनका कहना है, शायद भविष्य उतना बुरा न हो जितना कि कुछ लोग सोचते हैं।
पर्यावरणवादी यह कहकर इसका विरोध करते हैं कि वैज्ञानिक अनिश्चितताओं के कारण नीति बनानेवालों को सुस्त नहीं पड़ जाना चाहिए। जबकि यह सच है कि शायद भावी जलवायु उतनी बुरी न हो जितना कि कुछ लोगों को डर है, लेकिन यह भी संभव है कि स्थिति उससे भी बदतर हो! इसके अलावा, उनका तर्क है कि भविष्य का निश्चित ज्ञान न होने का यह अर्थ नहीं कि जोखिम को कम करने के लिए कुछ न किया जाए। उदाहरण के लिए, जो लोग धूम्रपान करना छोड़ते हैं वे पहले वैज्ञानिक सबूत की माँग नहीं करते कि यदि वे धूम्रपान करते रहें तो ३० या ४० साल बाद उन्हें फेफड़े का कैंसर होगा ही। वे धूम्रपान छोड़ देते हैं क्योंकि वे देख सकते हैं कि जोखिम है और उसे कम करना अथवा दूर करना चाहते हैं।
क्या किया जा रहा है?
क्योंकि भूमंडलीय तापन समस्या के पैमाने के बारे में—और इस बारे में कि समस्या है भी या नहीं—काफी बहस हो रही है, तो इसमें आश्चर्य नहीं कि समाधान के बारे में लोगों के अलग-अलग विचार हैं। सालों से पर्यावरण समूहों ने प्रदूषण-मुक्त ऊर्जा स्रोतों के व्यापक इस्तेमाल को बढ़ावा दिया है। सूरज, हवा, नदियों और वाष्प तथा गरम पानी के भूमिगत भंडारों से विद्युत-शक्ति प्राप्त की जा सकती है।
पर्यावरणवादियों ने सरकारों से भी आग्रह किया है कि उष्मा-रोधी गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए कानून बनाएँ। सरकारों ने कागज़ पर तो ऐसा किया है। उदाहरण के लिए, १९९२ में रीओ डे ज़्हानॆरो, ब्राज़ील में हुए पृथ्वी शिखर-सम्मेलन में करीब १५० देशों के प्रतिनिधियों ने एक संधि पर हस्ताक्षर किये और अपनी इस वचनबद्धता की पुष्टि की कि ग्रीनहाउस गैस, खासकर कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को कम करेंगे। लक्ष्य था कि वर्ष २००० तक औद्योगिक राष्ट्रों द्वारा ग्रीनहाउस उत्सर्जन को १९९० के स्तर तक घटा दिया जाएगा। जबकि कुछ देशों ने इस दिशा में प्रगति की है, अधिकतर अमीर देश अपना छोटा-सा वचन भी पूरा करने से कोसों दूर हैं। कटौती करने के बजाय, अधिकतर राष्ट्र पहले से भी कहीं ज़्यादा ग्रीनहाउस गैसें उत्पन्न कर रहे हैं! उदाहरण के लिए, माना जाता है कि अमरीका में वर्ष २००० तक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन १९९० की तुलना में संभवतः ११-प्रतिशत बढ़ गया होगा।
हाल में कदम उठाये गये हैं कि अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में “धार” लगायी जाए। कटौती को स्वैच्छिक बनाने के बजाय जैसे १९९२ की संधि में था, अब यह माँग की जा रही है कि ग्रीनहाउस उत्सर्जन के अनिवार्य लक्ष्य बनाये जाएँ।
बदलाव की कीमत
राजनेता पृथ्वी के दोस्त समझे जाने के लिए लालायित रहते हैं। लेकिन वे इस पर भी एक नज़र रखते हैं कि बदलाव का अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा। दी इकॉनोमिस्ट पत्रिका के अनुसार दुनिया के ९० प्रतिशत लोग ऊर्जा के लिए कार्बन-युक्त ईंधन पर आश्रित हैं, सो इसका इस्तेमाल छोड़ना बड़े बदलाव लाएगा; और बदलाव की कीमत पर गरमागरम बहस चल रही है।
वर्ष २०१० तक ग्रीनहाउस उत्सर्जन को १९९० के स्तर से १० प्रतिशत घटाने की क्या कीमत होगी? इसका उत्तर इस पर निर्भर है कि आप किससे पूछते हैं। अमरीका में लोगों के विचारों पर ध्यान दीजिए। वहाँ सब देशों से अधिक ग्रीनहाउस गैसों को वायुमंडल में छोड़ा जाता है। उद्योग जगत के विशेषज्ञ चिताते हैं कि ऐसी कटौती से अमरीकी अर्थव्यवस्था को हर साल अरबों डॉलर का घाटा होगा और ६,००,००० लोगों की नौकरी चली जाएगी। इसकी विषमता में, पर्यावरणवादी कहते हैं कि इस लक्ष्य तक पहुँचने से अर्थव्यवस्था में हर साल अरबों डालर की बचत हो सकती है और ७,७३,००० नयी नौकरियाँ मिल सकती हैं।
तुरंत कदम उठाने के लिए पर्यावरणवादी समूहों की माँगों के बावजूद, शक्तिशाली उद्योग—वाहन निर्माता, तेल कंपनियाँ, कोयला उत्पादक इत्यादि—भूमंडलीय तापन के खतरे को झुठलाने के लिए और अश्म (फॉसिल) ईंधन का इस्तेमाल छोड़ने से होनेवाले आर्थिक प्रभाव को बढ़ा-चढ़ाकर बताने के लिए अपना बहुत पैसा और प्रभाव इस्तेमाल करते हैं।
बहस जारी है। लेकिन यदि मनुष्य जलवायु को बदल रहे हैं और उसके बारे में बात करने के अलावा कुछ नहीं करते, तो यह कहावत कि हर कोई मौसम के बारे में बात तो करता है, लेकिन कोई उसके बारे में कुछ करता नहीं, विनाशकारी रूप अपना लेगी।
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कीओटो संधि
दिसंबर १९९७ में, १६१ देशों के २,२०० से अधिक प्रतिनिधि कीओटो, जापान में मिले ताकि भूमंडलीय तापन के खतरे के बारे में कुछ करने के लिए एक समझौता या संधि कर सकें। एक सप्ताह से ऊपर चर्चा करने के बाद, प्रतिनिधियों ने तय किया कि वर्ष २०१२ तक विकसित देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को घटाकर १९९० के स्तर से औसत ५.२ प्रतिशत कम कर देना चाहिए। इस समझौते का उल्लंघन करनेवालों के लिए दंड बाद में तय किया जाएगा। यह मानते हुए कि सभी राष्ट्र इस संधि पर चलते हैं, ५.२ प्रतिशत की कटौती से कितना फर्क पड़ेगा? साफ है कि बहुत कम फर्क पड़ेगा। टाइम पत्रिका ने रिपोर्ट किया: “औद्योगिक क्रांति की शुरूआत से वायुमंडल में जो ग्रीनहाउस गैसें जमा हो रही हैं उन्हें काफी हद तक घटाने के लिए ६०% कटौती करनी होगी।”
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ग्रीनहाउस प्रभाव का सचित्रण
ग्रीनहाउस प्रभाव: ग्रीनहाउस (पौधा-घर) में शीशे की दीवारों की तरह पृथ्वी का वायुमंडल सूरज की गरमी को रोक लेता है। सूरज की रोशनी पृथ्वी को गरम करती है लेकिन जो गरमी पैदा होती है—जो अवरक्त विकिरण (इंफ्रारॆड रेडियेशन) द्वारा आती है—वह वायुमंडल से आसानी से बाहर नहीं निकल सकती। इसके बजाय, ग्रीनहाउस गैसें विकिरण को रोक लेती हैं और कुछ विकिरण वापस पृथ्वी की ओर भेज देती हैं, इस प्रकार पृथ्वी के धरातल की गरमी बढ़ती है।
१. सूर्य
२. अवरुद्ध अवरक्त विकिरण
३. ग्रीनहाउस गैसें
४. बाहर निकलता विकिरण
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जलवायु को नियंत्रित करनेवाली शक्तियाँ
यदि हमें भूमंडलीय तापन के बारे में आजकल चल रही बहस को समझना है, तो हमें कुछ विस्मय-प्रेरक शक्तियों को समझने की ज़रूरत है जो हमारी जलवायु को उसका स्वरूप देती हैं। आइए कुछ मूल बातों पर विचार करें।
१. सूर्य—उष्मा और प्रकाश का स्रोत
पृथ्वी पर जीवन उस अतिविशाल नाभिकीय भट्टी पर आश्रित है जिसे हम सूर्य कहते हैं। यह पृथ्वी से दस लाख गुना बड़ा है और उष्मा और प्रकाश की सप्लाई का सदा-विश्वसनीय स्रोत है। सूर्य की उष्मा में कमी से हमारा ग्रह बर्फ से ढक जाएगा; उसमें बढ़त होने से पृथ्वी उबलने लगेगी। चूँकि पृथ्वी सूर्य से १५ करोड़ किलोमीटर की दूरी पर परिक्रमा करती है, यह सूर्य की उत्सर्जित ऊर्जा का दो अरब में से मात्र एक अंश प्राप्त करती है। फिर भी, यह मात्रा ऐसी जलवायु उत्पन्न करने के लिए एकदम सही है जिसमें जीवन फल-फूल सके।
२. वायुमंडल—पृथ्वी का गरम कंबल
मात्र सूर्य पृथ्वी का तापमान निश्चित नहीं करता; इसमें हमारे वायुमंडल की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पृथ्वी और चंद्रमा सूर्य से एकसमान दूरी पर स्थित हैं, सो दोनों को अनुपातिक रूप से सूर्य की करीब-करीब उतनी ही उष्मा मिलती है। फिर भी, पृथ्वी का औसत तापमान १५ डिग्री सॆल्सियस है, परंतु चंद्रमा की औसत ठंडक शून्य से १८ डिग्री सॆल्सियस कम है। यह भिन्नता क्यों? क्योंकि पृथ्वी पर एक वायुमंडल है; चंद्रमा पर नहीं।
हमारा वायुमंडल—पृथ्वी पर ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और अन्य गैसों का बादल—सूर्य की कुछ गरमी को रोक लेता है और बाकी को बाहर निकल जाने देता है। इस प्रक्रिया की तुलना प्रायः ग्रीनहाउस (पौधा-घर) से की जाती है। आप शायद जानते ही हों, ग्रीनहाउस एक घर होता है जिसकी दीवारें और छत शीशे या प्लास्टिक की होती हैं। उसमें धूप आसानी से अंदर आकर घर को गरम कर देती है। साथ ही, छत और दीवारें गरमी को जल्दी से बाहर नहीं निकलने देतीं।
उसी प्रकार, हमारा वायुमंडल धूप को पृथ्वी पर आने देता है जिससे धरातल गरम हो जाता है। बदले में, पृथ्वी उष्मा-ऊर्जा को अवरक्त विकिरण के रूप में वापस वायुमंडल में भेज देती है। इसमें से काफी विकिरण सीधे अंतरिक्ष में नहीं जाता क्योंकि वायुमंडल में विद्यमान कुछ गैसें इसे अवशोषित कर लेती हैं और वापस पृथ्वी पर भेज देती हैं, जिससे पृथ्वी की गरमी बढ़ जाती है। तापन की इस प्रक्रिया को ग्रीनहाउस प्रभाव कहते हैं। यदि हमारा वायुमंडल इस प्रकार सूर्य की उष्मा को रोक न ले, तो पृथ्वी भी चंद्रमा के जैसी ही निर्जीव हो जाएगी।
३. जल वाष्प—अति अनिवार्य ग्रीनहाउस गैस
हमारा निनानवे प्रतिशत वायुमंडल दो गैसों से बना है: नाइट्रोजन और ऑक्सीजन। पृथ्वी के जीवन में योग देनेवाले जटिल चक्रों में इन गैसों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन जलवायु नियंत्रण से इनका लगभग कोई सीधा संबंध नहीं। जलवायु नियंत्रण का काम बाकी के १ प्रतिशत वायुमंडल, उष्मा-रोधी ग्रीनहाउस गैसों पर है, जिनमें जल वाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, मिथेन, क्लोरोफ्लूरोकार्बन और ओज़ोन सम्मिलित है।
अति महत्त्वपूर्ण ग्रीनहाउस गैस—जल वाष्प—को आम तौर पर गैस माना ही नहीं जाता, क्योंकि जब हम जल के बारे में सोचते हैं तो उसके तरल रूप का ही विचार आता है। परंतु वायुमंडल में विद्यमान जल वाष्प का हर अणु उष्मा-ऊर्जा से भरा होता है। उदाहरण के लिए, जब बादल में वाष्प ठंडा होकर संघनित हो जाता है तो उष्मा निकलती है, जिससे शक्तिशाली संवहन धाराएँ बनती हैं। हमारे वायुमंडल में जल वाष्प की तेज़ गति हमारे मौसम और जलवायु को निश्चित करने में महत्त्वपूर्ण और जटिल भूमिका निभाती है।
४. कार्बन डाइऑक्साइड—जीवन के लिए अनिवार्य
भूमंडलीय तापन की चर्चा छिड़ती है तो सबसे ज़्यादा कार्बन डाइऑक्साइड के बारे में बात होती है। कार्बन डाइऑक्साइड को मात्र प्रदूषक कहकर उसकी निंदा करना सही नहीं। कार्बन डाइऑक्साइड प्रकाश-संश्लेषण (फोटोसिंथसिस) का अत्यावश्यक अवयव है। इस प्रक्रिया से हरे पौधे अपना भोजन बनाते हैं। मनुष्य और पशु साँस में ऑक्सीजन अंदर लेते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड बाहर निकालते हैं। पौधे कार्बन डाइऑक्साइड अंदर लेते हैं और ऑक्सीजन बाहर छोड़ते हैं। असल में यह सृष्टिकर्ता का एक ऐसा प्रबंध है जिसके द्वारा पृथ्वी पर जीवन संभव है।a लेकिन वायुमंडल में बहुत ज़्यादा कार्बन डाइऑक्साइड होना बिस्तर पर एक और कंबल डालने के जैसा हो सकता है। इससे गरमी बढ़ सकती है।
शक्तियों का जटिल क्रम
मात्र सूर्य और वायुमंडल ही जलवायु को निश्चित नहीं करते। इसमें सागर और हिमावरण (आइस कैप), धरातल के खनिज और वनस्पति, पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र, अनेक जैव-रसायनिक प्रक्रियाएँ और पृथ्वी की कक्षीय-यांत्रिकी (ऑर्बिटल मॆकैनिक्स) भी अंतर्ग्रस्त है। जलवायु के अध्ययन में पृथ्वी के लगभग सभी विज्ञान अंतर्ग्रस्त हैं।
सूर्य
वायुमंडल
जल वाष्प (H20)
कार्बन डाइऑक्साइड (CO2)
[फुटनोट]
a पृथ्वी पर लगभग समस्त जीव कार्बनिक स्रोतों से ऊर्जा प्राप्त करते हैं, इस प्रकार वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सूर्य के प्रकाश पर आश्रित हैं। लेकिन ऐसे जीव भी हैं जो समुद्र तल के अंधकार में पनपते हैं और अकार्बनिक रसायनों से ऊर्जा प्राप्त करते हैं। प्रकाश-संश्लेषण के बजाय, ये जीव रसायन-संश्लेषण (कीमोसिंथसिस) नामक प्रक्रिया से काम लेते हैं।