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सजग होइए!–1998
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विशालकाय सफेद पक्षी की वापसी

जापान में सजग होइए! संवाददाता द्वारा

हा थ में छड़ी लिये वे लोग उन सुंदर सफेद पक्षियों को एक-एक करके, पीट-पीटकर मार डालने के लिए निकल पड़े। वे पक्षी ऐल्बाट्रॉस थे। वे लोग: हानेमोन टामाओकी और उसके साथी। स्थान: टोरीशीमा, टोक्यो से करीब ६०० किलोमीटर दक्षिण की ओर एक द्वीप। वर्ष १८८७ था।

टामाओकी ने सालों से इसकी योजना बनायी थी। स्वदेश और विदेश में गद्दों के लिए मुलायम परों की बहुत माँग थी। टोरीशीमा एक दूरस्थ द्वीप था जहाँ हज़ारों ऐल्बाट्रॉस प्रजनन के लिए नियमित रूप से आते थे। वे ही उस द्वीप के एकमात्र निवासी थे। उनमें से छोटी-दुमवाला ऐल्बाट्रॉस टामाओकी को सबसे ज़्यादा पसंद था। वह उत्तरी गोलार्ध का सबसे बड़ा समुद्री-पक्षी था। उसका वज़न करीब आठ किलोग्राम और पंखों की कुल लंबाई ढाई मीटर से भी ज़्यादा थी। सो कल्पना कीजिए कि उसके गदराये शरीर पर कितने पर होंगे! इसके अलावा, यह पक्षी भोला-भाला था और खतरा देखने पर भी भागने की कोई कोशिश नहीं करता था।

पक्षियों को मारने और उनके पर उतारने में मदद के लिए टामाओकी द्वीप पर ३०० मज़दूर ले गया। उन्होंने एक गाँव और छोटा-सा रेलमार्ग बनाया ताकि मरे हुए पक्षियों को ले जा सकें। यह काम इतना सफल रहा कि जल्द ही टामाओकी—करीब ५० लाख पक्षियों को मारकर—बहुत अमीर बन गया। विनाश इतना बड़ा था कि जब १९०२ में द्वीप पर ज्वालामुखी फूटा जिसमें गाँव और उसके सभी निवासी नाश हो गये, तो कुछ लोगों ने इसे “ऐल्बाट्रॉस को मारने के कारण आया श्राप” समझा। इसके बावजूद, अगले साल लोग बचे हुए पक्षियों की तलाश में फिर से आये।

लगभग १५०० किलोमीटर दूर पूर्वी चीन सागर में ताइवान और ओकीनावा के बीच उजाड़, चट्टानी द्वीपसमूह पर टाट्‌सुशीरो कोगा नाम का एक आदमी भी यही कमाईवाला धंधा कर रहा था। टामाओकी के जैसे कोगा ने भी पाया कि पक्षियों की संख्या तेज़ी से घट रही है। अंततः, १९०० में वह उस द्वीप से चला गया—लेकिन तब तक वह करीब दस लाख ऐल्बाट्रॉस मार चुका था।

लालच का दुःखद परिणाम

पक्षियों का वह भारी विनाश एक ऐसी त्रासदी थी जिसके गंभीर परिणाम हुए। ऐल्बाट्रॉस की विभिन्‍न प्रजातियों में से तीन उत्तर प्रशांत में रहती हैं। उनका मुख्य बसेरा उन द्वीपों पर है जो टामाओकी और कोगा ने उजाड़ दिये थे। प्रतीत होता है कि छोटी-दुमवाले ऐल्बाट्रॉस (डायमॆडिया ऐल्बाट्रस) का दुनिया में कोई और प्रजनन स्थान नहीं था।

पहले मल्लाह लोग खुले समुद्र पर ऐल्बाट्रॉस को बड़े विस्मय से देखा करते थे। समुद्र की कथा-कहानियों में इसे हवाओं, धुँध और कोहरे का संदेशा लानेवाला कहा गया है। लेकिन यह कोई कथा-कहानी नहीं कि इस विशालकाय सफेद पक्षी के कुछ ज़्यादा ही लंबे पंख इसे चंद दिनों में सागर पार करने में समर्थ करते थे। ज़्यादातर समय यह बिना पंख फड़फड़ाए हवा के साथ-साथ उड़ता था। हवा में तैरने और समुद्र पर लंबे समय तक रहने की इसकी क्षमता की बराबरी नहीं।

जबकि ऐल्बाट्रॉस हवा में नज़ाकत से उड़ सकता है, धरती पर इसकी चाल धीमी और भद्दी होती है। इसके लंबे पंखों और काफी गदराये हुए शरीर के कारण यह जल्दी से उड़ान नहीं भर पाता। इस कारण और मनुष्य का भय विकसित न करने के कारण यह पक्षी आसान शिकार बन गया। इसी कारण, लोगों ने इसे गूनी पक्षी या मॉलीमॉक जैसे नाम दिये।a

गैर-ज़िम्मेदार लोगों ने इस जानकारी से उत्सुक होकर कि मृत ऐल्बाट्रॉस से पैसा बढ़ता है खुशी-खुशी इसे नाश करना जारी रखा। एक सर्वेक्षण ने दिखाया कि १९३३ तक, टोरीशीमा में ६०० से भी कम पक्षी थे। हताश होकर, जापानी सरकार ने घोषित किया कि द्वीप पर मनुष्यों को जाने की मनाही है। लेकिन नीतिभ्रष्ट लोग द्वीप की ओर भागे कि प्रतिबंध लगने से पहले ज़्यादा-से-ज़्यादा पक्षी मार लें। एक विशेषज्ञ के अनुसार, १९३५ तक केवल ५० पक्षी बचे थे। अंततः, छोटी-दुमवाले ऐल्बाट्रॉस को लुप्त घोषित करना पड़ा। मानवी लालच का क्या ही दुःखद परिणाम! लेकिन एक बड़ी खुशखबरी मिलनेवाली थी।

वापसी शुरू होती है

जनवरी १९५१ की एक शाम, टोरीशीमा की चट्टान पर चढ़ रहा एक आदमी एकाएक पक्षियों की आवाज़ सुनकर दंग रह गया। उसके सामने ऐल्बाट्रॉस खड़ा था! छोटी-दुमवाला ऐल्बाट्रॉस किसी तरह बच गया था और फिर से टोरीशीमा पर प्रजनन कर रहा था। लेकिन इस बार यह पक्षी ढलानवाली भूमि पर बसेरा कर रहा था जहाँ मनुष्यों का पहुँचना लगभग असंभव है। और प्रतीत हुआ कि अब वे मनुष्यों से घबराने लगे हैं। प्रकृति के प्रेमी कितने आनंदित हुए होंगे!

जापानी सरकार ने तत्परता से कार्य किया। उन्होंने पम्पस घास लगा दी ताकि ज़मीन घोंसलों के लिए ज़्यादा मज़बूत हो जाए और टोरीशीमा पर मनुष्यों का जाना बंद कर दिया। ऐल्बाट्रॉस को राष्ट्रीय संपदा घोषित कर दिया गया और यह अंतर्राष्ट्रीय रूप से संरक्षित पक्षी बन गया।

वर्ष १९७६ से जापान की टोहो यूनिवर्सिटी का हीरोशी हासेगावा इन पक्षियों का अध्ययन कर रहा है और अब साल में तीन बार द्वीप पर जाकर उनका सर्वेक्षण करता है। उसने सजग होइए! को बताया कि हर साल पक्षियों के पैरों पर अलग रंग के छल्ले पहनाने से उसने पाया है कि छोटी-दुमवाला ऐल्बाट्रॉस तीन या चार साल में केवल एक बार प्रजनन के लिए अपने जन्म स्थान पर लौटता है। वे पहली बार छः साल की उम्र में प्रजनन करते हैं और हर बार केवल एक अंडा देते हैं। इसलिए २० साल की औसत आयु होने पर भी उनकी संख्या को बढ़ने में काफी समय लगता है। १९९६/९७ की सर्दियों में टोरीशीमा पर १७६ अंडे दिये गये, लेकिन उनमें से केवल ९० चूज़े निकले।

बाकी समय ऐल्बाट्रॉस क्या करता है? हासेगावा कहता है कि इसके बारे में बहुत कम जानकारी है। यह तो निश्‍चित है कि वे लोगों और ज़मीन से दूर रहते हैं। क्या ऐल्बाट्रॉस समुद्री-जहाज़ों का पीछा करके उन पर जा बैठते हैं? हासेगावा के अनुसार यह बस कथा है और इसका समर्थन करने के लिए कोई प्रमाण नहीं। वह कहता है कि उसके हिसाब से “जापानी ऐल्बाट्रॉस समुद्री-जहाज़ों पर नहीं जा बैठते।” लेकिन वह आगे कहता है कि संसार के दूसरे भागों में “कुछ पक्षी शायद थोड़े समय के लिए जहाज़ पर मँडराते हों यदि उन्हें भोजन दिया जाए।” अधिकतर समय वे वही करते हैं जिसमें वे माहिर हैं—हवा की अनुकूल तरंगों पर सवार होकर विशाल सागर की सैर करते हैं। जब वे थक जाते हैं, तो वे समुद्र पर बैठे-बैठे सो जाते हैं। वे स्क्विड, उड़न-मछली, केकड़ा और झींगा खाते हैं। जिन पक्षियों के पैरों पर हासेगावा ने छल्ले पहनाये हैं वे नियमित रूप से बॆरिंग सागर और अलास्का की खाड़ी में दिखायी पड़ते हैं। और १९८५ में कैलिफॉर्निया तट पर जब—करीब एक सदी में पहली बार—छोटी-दुमवाला ऐल्बाट्रॉस दिखायी पड़ा तो पक्षी-दर्शकों के बीच काफी ऊधम मच गया।

भविष्य के बारे में क्या?

उज्ज्वल पहलू देखें तो छोटी-दुमवाले ऐल्बाट्रॉस की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। पिछली मई में, हासेगावा ने अनुमान लगाया कि “चूज़ों समेत ९०० से ऊपर” पक्षी हैं। उसने आगे कहा: “हर साल १०० चूज़े निकलें तो वर्ष २००० तक हमारे पास मात्र टोरीशीमा पर १,००० से ज़्यादा पक्षी होने चाहिए।” यह बात भी रोमांचक है कि ८८ सालों के बाद, १९८८ में वे पूर्वी चीन सागर में भी फिर से प्रजनन करते देखे गये। इन पक्षियों ने विवादित क्षेत्र में एक चट्टानी स्थान चुना है। इस कारण कुछ समय तक तो उन्हें मानवी हस्तक्षेप से सुरक्षा मिलनी ही चाहिए।

सौ साल पहले की गयी गलतियाँ धीरे-धीरे सुधारी जा रही हैं। क्या यह सही है? अनुसंधायक अकसर पाते हैं कि जब वे पक्षियों को चिन्हित करने के लिए पकड़ते हैं, तो वे डर के मारे उलटी कर देते हैं। उनके पेट से प्लास्टिक के टुकड़े, डिस्पोसॆबल सिगरॆट लाइटर और दूसरा कचरा निकलता है जो उनके भोजन स्थान, समुद्र में लोग लापरवाही से फेंक रहे हैं।

क्या मनुष्य की गलतियाँ इस विशालकाय सफेद पक्षी को एक बार फिर विनाश के कगार पर पहुँचा देंगी?

[फुटनोट]

a “ ‘गूनी’ मूलतः ‘गोनी’ था, जो मूर्ख व्यक्‍ति के लिए पुराना अंग्रेज़ी शब्द है . . . ‘मॉलीमॉक’ जो ‘मॉलीहॉक’ या सिर्फ ‘मॉली’ भी है, डच ‘मॉलमॉक’ से आया है, जिसका अर्थ है मूर्ख पक्षी।” (बड्‌र्स ऑफ द वर्ल्ड, ऑलिवर एल. ऑस्टिन, जूनियर द्वारा) जापानी में नाम आहॉडोरी का अर्थ है “मूर्ख पक्षी।” इसने पुराने नाम की जगह ले ली जिसका अर्थ था “विशालकाय सफेद पक्षी।”

[पेज 16 पर तसवीर]

टोरीशीमा, छोटी-दुमवाले ऐल्बाट्रॉस का बसेरा

[पेज 16 पर तसवीर]

ऐल्बाट्रॉस के लंबे, पतले पंख इसे संसार का सबसे कुशल उड़ाकू बनाते हैं

[पेज 17 पर तसवीर]

छोटी-दुमवाले ऐल्बाट्रॉस टोरीशीमा पर वापस आये हैं

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