क्यों नयी कल्पनाओं की ओर खुले-मनस्क होना चाहिए?
जैसे धुंध का परदा धीरे-धीरे उठने लगा, अमरीकी कमाडोर मॅथ्यू सी. पेरी ने, अपने ध्वज-पोत, सुस्केहान्ना के डेक पर से फूजी पर्वत देखा। वह जापान देखने के लिए बहुत ही उत्सुक रहा था और सात से भी ज़्यादा महीनों की समुद्रयात्रा करने के बाद, वह आख़िर जुलाई ८, १८५३, के रोज़ वहाँ पहुँच गया था। कमाडोर ने उस देश के बारे में हर उपलब्ध रिपोर्ट पढ़ा था। क्यों? इसलिए कि यह उसकी आशा थी कि इस “स्वतः-वियुक्त राज्य” को दुनिया के लिए खोल दें।
सचमुच, स्वतः-वियुक्त! २०० से ज़्यादा साल पहले, जापान ने, चीन, कोरिया तथा हॉलैंड के अलावा, सभी देशों से व्यापारिक तथा सांस्कृतिक संबंध तोड़ दिए थे। फिर वह देश अविक्षुब्ध आत्म-संतोष में, मानो पीठ लगाकर बैठ गया। उस अवस्था में, यह उन अनेक व्यक्तियों के सदृश था जो नयी कल्पनाओं का प्रतिरोध करते हैं और अपने से भिन्न मत सुनना अस्वीकार करते हैं। कुछ बातों में, यह सांत्वनादायक हो सकता है, इसलिए कि नयी कल्पनाएँ अस्थिर कर देनेवाली, डरावने भी, हो सकती हैं। पर क्या ऐसा दृष्टिकोण विवेकपूर्ण है? ख़ैर, जापान की अपवर्जन नीति के परिणामों पर ग़ौर करें।
जापान की विविक्ति किस से उत्पन्न हुई?
जापान ने खुद को निष्कारण ही विविक्त नहीं किया। १५४९ में, जेसुइट मिशनरी फ्रांसिस ज़ेवियर जापान में अपना धर्म प्रसारित करने के लिए पहुँच गया। कम अवधि में ही, रोमन कैथोलिक धर्म उस देश में सुव्यक्त बन गया। उस वक्त के शासकों ने एक बौद्ध पंथ की ओर से विद्रोह अनुभव किया था और उन्हें कैथोलिक लोगों की तरफ़ से वही संभावना नज़र आयी। इसलिए, कैथोलिकवाद निषिद्ध किया गया, हालाँकि निषेध सख़्ती से लागू नहीं किया गया।
यह दावा करते हुए कि जापान “एक दैवी देश” था, उसके शासकों का कोई इरादा न था कि किसी “ईसाई” धर्म को उनकी व्यवस्था के लिए एक ख़तरा बनने दें। तो फिर, उन्होंने कैथोलिकवाद पर लगाया निषेध सख़्ती से लागू क्यों नहीं किया? इसलिए कि कैथोलिक मिशनरी पुर्तगाली व्यापारी जहाज़ों पर आया करते थे, और सरकार वे मुनाफ़े चाहती थी जो उन जहाज़ों के आने से उन्हें मिलता। फिर भी, धीरे-धीरे यह डर, कि कैथोलिक लोग जापानी लोगों पर असर करते, व्यापार के लिए शासकों की इच्छा से भारी साबित हुआ। इसलिए, उन्होंने विदेशी व्यापार, उत्प्रवास और “ईसाइयों” पर नियंत्रण कड़ा करनेवाले आदेशपत्र जारी किए।
जब उत्पीड़ित और तंगहाल “ईसाइयों” ने एक स्थानीय सामन्त के विरुद्ध बग़ावत की, तो सहन शक्ति की अंतिम स्थिति आयी। यह सोचते हुए कि वह बग़ावत कैथोलिक प्रचार का एक सीधा नतीजा था, केंद्रिय शोगुनेट सरकार ने पुर्तगालियों को निकाल बाहर किया और जापानियों को विदेश जाने से मना कर दिया। १६३९ में इस आदेशपत्र के जारी होने से, जापान की विविक्ति एक असलियत बन गयी।
हॉलैंडवासी एकमात्र पश्चिम-निवासी थे जिन्हें जापान के साथ व्यापार जारी रखने की अनुमति थी, और उन्हें देजीमा पर, जो तब नागासाकी बन्दरगाह में एक छोटा द्वीप था, भर दिया गया। २०० सालों तक, जापान में पश्चिमी संस्कृति देजीमा से ही अन्दर आती थी, जो कि अब महाद्वीप से जोड़ा जा चुका था। हर साल, द्वीप का व्यापारिक-चौकी निदेशक “डच रिपोर्ट” पेश करता था, जिस से सरकार को पता चलता कि बाहरी दुनिया में क्या हो रहा था। लेकिन शोगुनेट सरकार ने यह निश्चित किया कि कोई और व्यक्ति ये रिपोर्ट न देखते। तो जापानी लोग विविक्ति में रहे, १८५३ तक, जब कमाडोर पेरी ने उनके दरवाज़ों पर ज़ोर से खटखटाया।
विविक्ति की समाप्ति
जब पेरी के बड़े काले जहाज़, मानो धुएँ के डकार देते हुए, ईडो बन्दरगाह में भापशक्ति से आये, स्थानीय मछुए हक्के-बक्के हुए, चूँकि उन्होंने सोचा कि ये चलते ज्वालामुखी थे। ईडो (जो अब टोक्यो है) के नागरिक आतंकित हुए और कई लोग अपने सामान समेत शहर से भाग गए। यह निष्क्रमण इतना बड़ा था कि लोगों को शान्त करने के लिए सरकार को एक राजकीय सूचना जारी करनी पड़ी।
न सिर्फ़ कमाडोर पेरी के कमान में के स्टीमर लेकिन उसके द्वारा लाए गए उपहारों ने भी वियुक्त लोगों को हक्का-बक्का कर दिया। एक इमारत से दूसरी इमारत तक संदेश टेलीग्राफ़ किए जाने के प्रदर्शन से वे आश्चर्यचकित हुए। नॅरेटिव ऑफ़ दी एक्सपिड़िशन आफ़ ॲन अमेरिकन स्क्वॉड्रन टू द चाइना सीज़ ॲन्ड जपॅन (चीन के समुद्र तथा जापान को भेजी एक अमरीकन स्क्वॉड्रन की खोजयात्रा की कथा), जो पेरी के अधिक्षण में संकलित की गयी, जापानी अधिकारियों के बारे में बताती है जो खुद को एक ऐसे बौने इंजन पर छलांग मारने से न रोक सके, जो “एक छः वर्षीय बच्चे को मुश्किल से ढो सकता था।” एक प्रतिष्ठित मेन्डारिन (चीनी दफ़्तरशाह) भी, “उसके ढीले वस्त्र हवा में उड़ते हुए,” उसकी छाजन से लिपटा था।
उसके अगले साल पेरी की दूसरी भेंट से जापान के दरवाज़े आख़िरकार झटककर पूरी तरह खोल दिए गए। दबाव के सामने झुककर, सरकार ने देश को खोल दिया। कट्टर अपवर्जनवादियों ने, जो जापान की विविक्ति कायम रखना चाहते थे, आतंकवाद का सहारा लिया, सरकार के मुख्य मंत्री की हत्या की और विदेशियों पर हमले किए। कुछेक अपवर्जनवादी सामन्तों ने विदेशी जलसेनाओं पर गोलाबारी की। बहरहाल, उनके प्रहार आख़िरकार रुक गए, और जापान नरेश ने टोकूगावा शोगुनेट से सरकार को अपने हाथों में ले ली।
पेरी द्वारा जापान के दरवाज़े खुलने तक, पश्चिमी राष्ट्र औद्योगिक क्रांति अनुभव कर चुके थे। जापान की विविक्ति की वजह से, वह बहुत ही पीछे छोड़ दी गयी थी। औद्योगीकृत देशों ने वाष्प शक्ति को काम में लिया था। १८३० के दशक तक, भाप इंजन और वाष्प-चलित मशीनें आम प्रयोग में थीं। जापान की विविक्ति-नीति की वजह से वह औद्योगीकरण में बहुत ही पीछे रह गयी थी। यह बात यूरोप में प्रथम जापानी प्रतिनिधि-मण्डल द्वारा तीव्रता से महसूस की गयी। १८६२ में लंडन में आयोजित एक प्रदर्शनी में, एक लज्जित प्रतिनिधि के अनुसार, जापानी प्रदर्शन वस्तु कागज़ और लकड़ी के बने थे, जैसे कि “किसी पुरावशेषों की दुकान में प्रदर्शित किए जाते।”
यूरोप और यूनाइटेड स्टेट्स में जापानी प्रतिनिधियों ने अपने देश को औद्योगीकृत करने की सख़्त ज़रूरत महसूस की और उन्होंने उत्सुकता से आधुनिक आविष्कार और कल्पनाएँ प्रस्तुत कीं। पेरी की पहली भेंट के चौंसठ साल बाद, उसके कर्मीदल का आख़री उत्तरजीवित सदस्य जापान गया और उसने कहा: “साठ से कुछ ही ज़्यादा सालों में जापान की प्रगति ने मुझे भौचक्का कर दिया।”
अतः, जापान की विविक्ति नीति ने वृद्धि के लिए उसकी अंतः-शक्ति को बहुत ही सीमित कर दिया था। अपने दरवाज़े नयी कल्पनाओं की ओर खुला करना उस राष्ट्र के लिए काफ़ी हद तक फ़ायदेमंद साबित हुआ। बहरहाल, आज जापान में कुछेक व्यक्ति लोगों में की “मन की विविक्ति” की ओर संकेत करते हैं और इसे एक ऐसी समस्या के तौर से पेश करते हैं जिसे अब सुलझाना है। सचमुच, नयी कल्पनाओं का प्रतिरोध करने की प्रवृत्ति न केवल आधुनिक जापानियों के लिए, बल्कि सभी मनुष्यों के लिए एक चुनौती है। लेकिन आप और “मन की विविक्ति” के मामले का क्या? क्या आप अपना मन नयी कल्पनाओं की ओर खुला रखने से, जैसे जापानी लोगों ने १८५० के दशक में किया, लाभ प्राप्त करेंगे?