प्रेम के सिद्ध बंधन में संयुक्त
“प्रेम से एकता में एकसाथ बँधे रहो।”—कुलुस्सियों २:२, NW.
१, २. ख़ास तौर पर आज कौन-सा विभाजक प्रभाव महसूस किया जा रहा है?
सुनो! सारे आकाश में गूँजती हुई एक ऊँची आवाज़ कहती है: “हे पृथ्वी, और समुद्र, तुम पर हाय! क्योंकि शैतान बड़े क्रोध के साथ तुम्हारे पास उतर आया है; क्योंकि जानता है, कि उसका थोड़ा ही समय और बाकी है।” (प्रकाशितवाक्य १२:१२) हर साल के बीतने पर यह संदेश पृथ्वी के रहनेवालों के लिए अधिकाधिक अनिष्ट-सूचक होता जाता है।
२ यहोवा का मुख्य शत्रु बहुत पहले से विरोधी (शैतान) और निन्दक (इब्लीस) के तौर पर जाना गया है। परन्तु इस भरमानेवाले ने अब एक और अनर्थकारी भूमिका अपनायी है—वह एक क्रोधित ईश्वर बन गया है! क्यों? क्योंकि मीकाईल और उसके स्वर्गदूतों ने १९१४ में स्वर्ग में शुरू हुए युद्ध के बाद उसे स्वर्ग से बाहर फेंक दिया था। (प्रकाशितवाक्य १२:७-९) इब्लीस जानता है कि अपनी इस चुनौती को साबित करने के लिए कि वह सब मनुष्यों को परमेश्वर की उपासना करने से हटा सकता है, उसके पास केवल थोड़ा समय ही है। (अय्यूब १:११; २:४, ५) क्योंकि उनके पास बचने का कोई रास्ता नहीं है, वह और उसके स्वर्गदूत क्रोधित मधुमक्खियों के झुंड की तरह हैं जो अपना क्रोध अशान्त मानव समाज पर उतारते हैं।—यशायाह ५७:२०.
३. हमारे समय में शैतान के अवमानित किए जाने का क्या असर रहा है?
३ ये घटनाएँ जो मनुष्यों के लिए अदृश्य थीं, समझाती हैं कि मनुष्यजाति में अभी एक आम नैतिक पतन क्यों हो रहा है। विघटित हो रहे राष्ट्रों को, जो कभी एकता में रह ही नहीं सकते, किसी तरह जोड़ने की मनुष्यों की व्याकुल कोशिशों को भी ये घटनाएँ समझाती हैं। जातीय और जनजातीय समूह एक दूसरे पर क्रूरतापूर्वक आक्रमण करते हैं जिससे लाखों लोग बेघर और विस्थापित हो जाते हैं। इसमें आश्चर्य नहीं कि अराजकता अपूर्व दर से बढ़ रही है! जैसे यीशु ने पूर्वबताया, ‘बहुतों का प्रेम ठण्डा हो रहा है।’ जहाँ भी आप देखें, फूट और प्रेमहीनता आज की अशान्त मनुष्यजाति को चिह्नित करती है।—मत्ती २४:१२.
४. परमेश्वर के लोग ख़ास ख़तरे में क्यों हैं?
४ संसार की परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए, अपने अनुयायियों के लिए यीशु की प्रार्थना और गहरा अर्थ लेती है: “मैं यह बिनती नहीं करता, कि तू उन्हें जगत से उठा ले, परन्तु यह कि तू उन्हें उस दुष्ट से बचाए रख। जैसे मैं संसार का नहीं, वैसे ही वे भी संसार के नहीं।” (यूहन्ना १७:१५, १६) आज वह “दुष्ट” अपना क्रोध ख़ास तौर पर उन पर उतारता है, “जो परमेश्वर की आज्ञाओं को मानते, और यीशु की गवाही देने पर स्थिर हैं।” (प्रकाशितवाक्य १२:१७) यदि यहोवा की चौकन्नी और प्रेममय परवाह न होती, तो उसके वफ़ादार गवाहों का सत्यानाश हो जाता। हमारी आध्यात्मिक सुरक्षा और कल्याण के लिए परमेश्वर द्वारा किए गए सभी प्रबन्धों का पूरा लाभ उठाने पर हमारा जीवन निर्भर करता है। इसमें मसीह द्वारा उसकी शक्ति के अनुसार जो हम पर प्रभाव डालती है तन मन लगाकर परिश्रम करना शामिल है, जैसे प्रेरित ने कुलुस्सियों १:२९ में आग्रह किया।
५, ६. प्रेरित पौलुस ने कुलुस्से के मसीहियों के बारे में कैसे महसूस किया, और १९९५ का मुख्य पाठ क्यों उपयुक्त है?
५ इसके बावजूद कि पौलुस ने संभवतः उन्हें कभी आमने-सामने नहीं देखा था, फिर भी वह कुलुस्से के अपने भाइयों से प्रेम करता था। उसने उनसे कहा: “काश तुम यह समझ सकते कि तुम्हारे लिए मेरी चिन्ता कितनी गहरी है।” (कुलुस्सियों २:१, जे. बी. फिलिप्पस् द्वारा द न्यू टेस्टामेंट इन मॉडर्न इंग्लिश) चूँकि यीशु के अनुयायी इस संसार के भाग नहीं हैं, भाइयों के बीच संसार की आत्मा बोने के द्वारा वह “दुष्ट” उनकी एकता को तोड़ने की कोशिश करता रहेगा। कुलुस्से से इपफ्रास द्वारा लाए गए समाचार से सूचित हुआ कि कुछ हद तक यह बात हो रही थी।
६ अपने मसीही भाइयों के लिए पौलुस की मुख्य चिन्ताओं में से एक को संक्षिप्त में इन शब्दों से व्यक्त किया जा सकता है: “प्रेम से एकता में एकसाथ बँधे रहो।” (NW) फूट और प्रेमहीनता से भरे हुए इस संसार में उसके शब्द आज ख़ास अर्थ रखते हैं। यदि हम पौलुस की सलाह को उत्साह से लागू करेंगे तो हम यहोवा की देखभाल का आनन्द लेंगे। हम अपने जीवन में उसकी आत्मा की शक्ति का भी अनुभव करेंगे, जिससे हमें संसार के दबावों का विरोध करने में मदद मिलेगी। यह क्या ही बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह है! अतः, कुलुस्सियों २:२ वर्ष १९९५ का हमारा मुख्य पाठ होगा।
७. सच्चे मसीहियों के बीच कैसी एकता पायी जानी चाहिए?
७ इससे पहले कुरिन्थियों को लिखी एक पत्री में प्रेरित ने मानव शरीर को एक दृष्टांत के तौर पर इस्तेमाल किया। उसने लिखा कि अभिषिक्त मसीहियों की कलीसिया में “फूट न पड़े, परन्तु अंग एक दूसरे की बराबर चिन्ता करें।” (१ कुरिन्थियों १२:१२, २४, २५) क्या ही बढ़िया दृष्टांत! हमारे अंग एक दूसरे पर निर्भर हैं, हरेक हमारे शेष शरीर से जुड़ा हुआ। वही सिद्धान्त हमारे विश्वव्यापी भाइचारे पर भी लागू होता है जो अभिषिक्त जनों से और ऐसे लाखों लोगों से बना है जो परादीस पृथ्वी पर जीने की आशा रखते हैं। स्वतंत्रता से जीने के लिए हमें कभी अपने आपको संगी मसीहियों के निकाय से अलग नहीं करना चाहिए! मसीह यीशु द्वारा कार्य करनेवाली परमेश्वर की आत्मा, भाइयों के साथ हमारी संगति से हमें बहुतायत में प्राप्त होती है।
ज्ञान से जुड़ी हुई एकता
८, ९. (क) कलीसिया की एकता में हमारा योग देने में क्या महत्त्वपूर्ण है? (ख) आप ने मसीह के बारे में ज्ञान कैसे हासिल किया है?
८ पौलुस के मुख्य मुद्दों में से एक मुद्दा यह था कि मसीही एकता ज्ञान से, ख़ास तौर पर मसीह के बारे में ज्ञान से जुड़ी हुई है। पौलुस ने लिखा कि मसीहियों को चाहिए कि ‘वे प्रेम से एकता में एकसाथ बँधे रहें, और अपनी समझ की पूर्ण निश्चितता का समस्त धन प्राप्त करें, ताकि परमेश्वर के पवित्र भेद, अर्थात्, मसीह का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करें।’ (कुलुस्सियों २:२, NW) जब से हम ने परमेश्वर के वचन का अध्ययन करना शुरू किया है, हम ने ज्ञान हासिल किया है, तथ्य हासिल किए हैं। परमेश्वर के उद्देश्य में इन में से अनेक तथ्य कैसे ठीक बैठते हैं, इसकी समझ प्राप्त करने के भाग के तौर पर हम यीशु की महत्त्वपूर्ण भूमिका को समझते हैं। जिस में “बुद्धि और ज्ञान से सारे भण्डार छिपे हुए हैं।”—कुलुस्सियों २:३.
९ क्या आप यीशु और परमेश्वर के उद्देश्य में उसकी भूमिका के बारे में ऐसा महसूस करते हैं? मसीहीजगत में अनेक व्यक्ति आसानी से यीशु के बारे में बात करते हैं, और दावा करते हैं कि उन्होंने उसे स्वीकार किया है और वे उद्धार-प्राप्त हैं। पर क्या वे उसे वास्तव में जानते हैं? नहीं, क्योंकि अधिकतर जन अशास्त्रीय त्रियेक के सिद्धान्त पर विश्वास करते हैं। आप न केवल इस बारे में सच्चाई जानते हैं परन्तु आपको संभवतः यीशु ने जो कहा और किया उसका काफ़ी विस्तृत ज्ञान है। वह सर्वश्रेष्ठ मनुष्य जो कभी जीवित रहा पुस्तक का उपयोग करते हुए एक शिक्षाप्रद अध्ययन के द्वारा लाखों लोगों को यीशु मसीह का ज्ञान हासिल करने के लिए मदद की गयी है। फिर भी यीशु और उसके तरीक़ों के बारे में अपना ज्ञान बढ़ाते रहने की हमें ज़रूरत है।
१०. छिपा हुआ ज्ञान हमें किस तरह उपलब्ध है?
१० इस कथन का कि “बुद्धि और ज्ञान से सारे भण्डार” यीशु में “छिपे हुए हैं” यह अर्थ नहीं कि ऐसा ज्ञान हमारी समझ से परे है। बल्कि, यह कुछ-कुछ एक खुली खान की तरह है। हमें यह सोचते हुए एक विशाल क्षेत्र में खोजने की ज़रूरत नहीं है कि कहाँ से खोदना शुरू करें। हम पहले ही जानते हैं—वास्तविक ज्ञान यीशु मसीह के बारे में बाइबल जो प्रकट करती है उससे शुरू होता है। जैसे-जैसे हम यहोवा के उद्देश्य की पूर्ति में यीशु की भूमिका का और ज़्यादा मूल्यांकन करते हैं, हम सच्ची बुद्धि और यथार्थ ज्ञान का ख़ज़ाना पाते हैं। अतः हमें और गहरा खोदते रहने की ज़रूरत है, ताकि जहाँ हम पहले ही खोद चुके हैं उस स्रोत से प्राप्य और अधिक रत्न या बहुमूल्य वस्तुएँ निकालें।—नीतिवचन २:१-५.
११. यीशु पर मनन करने से हम अपना ज्ञान और बुद्धि कैसे बढ़ा सकते हैं? (यीशु का शिष्यों के पाँव धोने या अन्य उदाहरण प्रयोग करके सचित्रित कीजिए।)
११ उदाहरण के लिए, हम शायद जानते हैं कि यीशु ने अपने प्रेरितों के पाँव धोए। (यूहन्ना १३:१-२०) लेकिन, उस सबक़ पर जो वह सिखा रहा था और उस मनोवृत्ति पर जो उसने प्रदर्शित की, क्या हम ने मनन किया है? ऐसा करने से हम शायद बुद्धि का एक ख़ज़ाना निकाल पाएँगे। यह हमें योग्य करता है—हाँ, हमें प्रेरित करता है—कि हम एक ऐसे भाई या बहन के प्रति अपने बरताव को बदलें, जिसके व्यक्तित्व ने हमें काफ़ी समय से तंग किया है। या जब हमें ऐसी नियुक्ति दी जाती है जो हमें ज़्यादा पसंद नहीं है, तब यूहन्ना १३:१४, १५ का पूरा महत्त्व समझने के बाद हम शायद दूसरी रीति से प्रतिक्रिया दिखाएँगे। इस प्रकार ज्ञान और बुद्धि का हम पर असर होता है। दूसरों पर इसका क्या असर हो सकता है जब हम मसीह के उदाहरण का अनुकरण बढ़े हुए ज्ञान के अनुसार और ज़्यादा नज़दीकी से करेंगे? संभवतः झुंड ‘ज़्यादा प्रेम से एकता में एकसाथ बँधा रहेगा।’a
विकर्षण एकता को क्षति पहुँचा सकता है
१२. किस ज्ञान के बारे में हमें चौकस रहने की ज़रूरत है?
१२ यदि यथार्थ ज्ञान हमारा ‘प्रेम से एकता में एकसाथ बँधे रहना’ सरल बना देता है, तो ‘झूठे ज्ञान’ से क्या परिणित होता है? इसके बिलकुल विपरीत—विवाद, फूट और विश्वास से विचलन। अतः हमें ऐसे झूठे ज्ञान से चौकस रहना चाहिए, जैसे पौलुस ने तीमुथियुस को चिताया। (१ तीमुथियुस ६:२०, २१, NW) पौलुस ने यह भी लिखा: “यह मैं इसलिये कहता हूं, कि कोई मनुष्य तुम्हें लुभानेवाली बातों से धोखा न दे। चौकस रहो कि कोई तुम्हें उस तत्त्वज्ञान और व्यर्थ धोखे के द्वारा अहेर न कर ले, जो मनुष्यों के परम्पराई मत और संसार की आदि शिक्षा के अनुसार है, पर मसीह के अनुसार नहीं।”—कुलुस्सियों २:४, ८.
१३, १४. (क) कुलुस्से के भाई ज्ञान के बारे में किस ख़तरे में थे? (ख) आज कुछ लोग शायद क्यों महसूस करें कि वे समान ख़तरे में नहीं हैं?
१३ कुलुस्से के मसीही एक घातक प्रभाव से घिरे हुए थे जो झूठे ज्ञान के बराबर था। कुलुस्से में और उसके आस-पास काफ़ी लोग ऐसे थे जो यूनानी तत्त्वज्ञान को ऊँचा मान देते थे। ऐसे यहूदी-मत-समर्थक भी थे जो चाहते थे कि मसीही मूसा की व्यवस्था का पालन करें, जैसे कि उसके त्योहार के दिन और भोजन-सम्बन्धी माँगें। (कुलुस्सियों २:११, १६, १७) पौलुस इस बात के विरुद्ध नहीं था कि उसके भाई सच्चा ज्ञान हासिल करें। परन्तु उन्हें चौकस रहने की ज़रूरत थी कि कोई उन्हें लुभानेवाली बातों से जीवन और कार्यों के प्रति मात्र एक मानवी दृष्टिकोण अपनाने का विश्वास दिलाकर अहेर न कर ले। आप समझ सकते हैं कि यदि कलीसिया में कुछ जन अपने सोच-विचार और निर्णयों को जीवन के बारे में ऐसे ग़ैर-शास्त्रीय धारणाओं और मनोवृत्ति से मार्गदर्शित होने देते हैं, तो यह कलीसिया के सदस्यों की एकता और उनके बीच के प्रेम के विरुद्ध कार्य करेगा।
१४ आप शायद सोचेंगे ‘हाँ, मैं उस ख़तरे को समझ सकता हूँ जिसका सामना कुलुस्सियों ने किया, पर मैं अमर प्राण या एक त्रियेक ईश्वर जैसी यूनानी धारणाओं से प्रभावित होने के ख़तरे में नहीं हूँ; न ही जिस झूठे धर्म से मैं बच निकला हूँ उसके विधर्मी त्योहारों के फंदे में फँसने का ख़तरा मुझे नज़र आता है।’ यह अच्छा है। यीशु द्वारा व्यक्त की गई और शास्त्रों में उपलब्ध उस मूल सच्चाई की श्रेष्ठता के बारे में दृढ़-निश्चयी होना अच्छा है। परन्तु, क्या ऐसा हो सकता है कि हम आज प्रचलित अन्य किसी तत्त्वज्ञान या मानव दृष्टिकोण के ख़तरे में हैं?
१५, १६. जीवन के प्रति कैसा दृष्टिकोण एक मसीही के सोच-विचार को प्रभावित कर सकता है?
१५ ऐसी मनोवृत्ति काफ़ी पुरानी है: “उसके आने की प्रतिज्ञा कहां गई? क्योंकि जब से बाप-दादे सो गए हैं, सब कुछ वैसा ही है, जैसा सृष्टि के आरम्भ से था?” (२ पतरस ३:४) यही विचार दूसरे शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है, परन्तु दृष्टिकोण वही है। उदाहरण के लिए, कोई शायद तर्क करे, ‘जब दशकों पहले मैं ने पहले-पहल सच्चाई सीखी थी, तब अन्त “भविष्य में जल्द ही” आनेवाला था। परन्तु वह अब तक नहीं आया है, और कौन जाने कि कब आएगा?’ यह सच है, कोई मनुष्य नहीं जानता कि अन्त कब आएगा। फिर भी, यीशु ने जो दृष्टिकोण रखने का हमसे आग्रह किया उस पर ध्यान दीजिए: “देखो, जागते और प्रार्थना करते रहो; क्योंकि तुम नहीं जानते कि वह समय कब आएगा।”—मरकुस १३:३२, ३३.
१६ यह दृष्टिकोण अपनाना कितना ख़तरनाक होगा कि, क्योंकि हम यह नहीं जानते कि अन्त कब आएगा हमें एक भरपूर और “सामान्य” जीवन की योजना बनानी चाहिए! वह रुख़ इस तर्क से दिख सकता है, ‘मेरा ऐसे क़दम उठाना उचित होगा जो मुझको (अथवा मेरे बच्चों को) एक आदरणीय पेशा दिलाएँगे, जिससे अच्छी आमदनी होगी और जो मुझे आरामदेह जीवन बिताने में समर्थ करेगा। हाँ, मैं मसीही सभाओं में उपस्थित रहूँगा और प्रचार कार्य में भी कुछ भाग लूँगा, परन्तु कोई कारण नहीं कि मैं परिश्रम करूँ या बड़े त्याग करूँ।’—मत्ती २४:३८-४२.
१७, १८. यीशु और उसके प्रेरितों ने हमसे कैसा दृष्टिकोण रखने का आग्रह किया?
१७ परन्तु, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यीशु और उसके प्रेरितों ने हमें सुसमाचार का प्रचार किए जाने के बारे में अत्यावश्यकता के भाव से जीने और परिश्रम तथा त्याग करने के लिए इच्छुक रहने की सलाह दी। पौलुस ने लिखा: “हे भाइयो, मैं यह कहता हूं, कि समय कम किया गया है, इसलिये चाहिए कि जिन के पत्नी हों, वे ऐसे हों मानो उन के पत्नी नहीं। . . . और मोल लेनेवाले ऐसे हों, कि मानो उन के पास कुछ है नहीं। और इस संसार के बरतनेवाले ऐसे हों, कि संसार ही के न हो लें; क्योंकि इस संसार की रीति और व्यवहार बदलते जाते हैं।”—१ कुरिन्थियों ७:२९-३१; लूका १३:२३, २४; फिलिप्पियों ३:१३-१५; कुलुस्सियों १:२९; १ तीमुथियुस ४:१०; २ तीमुथियुस २:४; प्रकाशितवाक्य २२:२०.
१८ एक आरामदेह जीवन को अपना लक्ष्य बनाने का सुझाव बिलकुल नहीं देते हुए, पौलुस ने उत्प्रेरित होकर लिखा: “न हम जगत में कुछ लाए हैं और न कुछ ले जा सकते हैं। और यदि हमारे पास खाने और पहिनने को हो, तो इन्हीं पर सन्तोष करना चाहिए। . . . विश्वास की अच्छी कुश्ती लड़; और उस अनन्त जीवन को धर ले, जिस के लिये तू बुलाया गया, और बहुत गवाहों के साम्हने अच्छा अंगीकार [सार्वजनिक घोषणा, NW] किया था।”—१ तीमुथियुस ६:७-१२.
१९. एक कलीसिया कैसे प्रभावित होती है जब उसके सदस्य जीवन के प्रति यीशु द्वारा प्रोत्साहित दृष्टिकोण को अपनाते हैं?
१९ जब एक कलीसिया उत्साही मसीहियों से बनी होती है जो ‘अच्छी सार्वजनिक घोषणा करने का’ तीव्रता से प्रयास करते हैं तो एकता स्वाभाविक है। वे इस मनोवृत्ति के सामने नहीं झुकते, “बहुत वर्षों के लिये बहुत संपत्ति रखी है; चैन कर, खा, पी, सुख से रह।” (लूका १२:१९) इसके बजाय, इस फिर-कभी-न-दोहराए-जानेवाले कार्य में जितना ज़्यादा हो सके उतना ज़्यादा करने के लिए त्याग करने के इच्छुक, वे एक ही कार्य में संयुक्त हैं।—फिलिप्पियों १:२७, २८ से तुलना कीजिए।
लुभानेवाली बातों से चौकस
२०. एक और क्षेत्र कौन-सा है जिसमें मसीही धोखा खा सकते हैं?
२० जी हाँ, और भी तरीक़े हैं जिनसे मसीही व्यर्थ धोखे से और “लुभानेवाली बातों से धोखा” खा सकते हैं, जो ‘प्रेम से एकता में एकसाथ बँधे रहने’ में बाधा डालते हैं। जर्मनी में वॉच टावर संस्था के शाखा दफ़्तर ने लिखा: “एक मामला विवाद का कारण बना, एक भाई ने जिन चिकित्सा तरीक़ों को अपनाया उस पर प्रकाशक यहाँ तक कि प्राचीन भी पक्ष लेने लगे।” उन्होंने आगे कहा: “विभिन्न तरीक़ों के अपनाए जाने और मरीज़ों की संख्या बहुत होने की वजह से यह एक ऐसा क्षेत्र है जो विवादास्पद है और, यदि चिकित्सीय तरीक़े प्रेतात्मवाद से जुड़े हुए हों तो यह ख़तरनाक भी हो सकता है।”—इफिसियों ६:१२.
२१. आज एक मसीही सही केंद्रदृष्टि कैसे खो सकता है?
२१ मसीही जीवित और स्वस्थ रहना चाहते हैं ताकि वे परमेश्वर की उपासना कर सकें। फिर भी, इस रीति-व्यवस्था में हम अपरिपूर्णता से परिणित बुढ़ापे और बीमारी के अधीन हैं। स्वास्थ्य मुद्दों पर ज़ोर देने के बजाय, हमें अपने लिए, और दूसरों के लिए वास्तविक हल पर ध्यान लगाना चाहिए। (१ तीमुथियुस ४:१६) उस हल का केंद्र-बिन्दु मसीह है, जैसे वह कुलुस्सियों को पौलुस की सलाह का केंद्र भी था। लेकिन याद रखिए, पौलुस ने सूचित किया कि कुछ लोग “लुभानेवाली बातों” के साथ आएँगे, हमारा ध्यान मसीह से दूर ले जाकर शायद रोग-निदान तरीक़ों, उपचार या आहार की ओर मोड़ेंगे।—कुलुस्सियों २:२-४.
२२. रोग-निदान और इलाज के तरीक़ों के बारे में बहुत से दावों के प्रति हमारा क्या संतुलित दृष्टिकोण होना चाहिए?
२२ पूरी पृथ्वी पर हर तरह के इलाज और रोग-निदान के तरीक़ों के बारे में विज्ञापनों और सिफ़ारिशों की लोगों पर गोलाबारी होती है। इनमें से कुछ व्यापक रूप से उपयोग किए जाते हैं और स्वीकृत हैं; दूसरों की व्यापक रूप से आलोचना की गई है या उनपर संदेह किया गया है।b हरेक व्यक्ति यह निर्णय करने के लिए ज़िम्मेदार है कि वह अपने स्वास्थ्य के बारे में क्या करेगा। परन्तु वे जो कुलुस्सियों २:४, ८ में पाई गई पौलुस की सलाह को स्वीकार करते हैं उन्हें “लुभानेवाली बातों” से या “व्यर्थ धोखे” से सुरक्षा प्राप्त होगी। यह बातें उन अनेकों को भटकाती हैं जो राज्य आशा के बिना राहत के लिए बेचैन हैं। यदि एक मसीही विश्वस्त है कि एक ख़ास इलाज उसके लिए अच्छा प्रतीत होता है, तो भी उसे मसीही भाइचारे में इसे बढ़ावा नहीं देना चाहिए, क्योंकि यह एक व्यापक चर्चा और विवाद का विषय बन सकता है। इस प्रकार वह प्रदर्शित कर सकता है कि वह कलीसिया में एकता के महत्त्व का बहुत आदर करता है।
२३. आनन्द का हमारे पास ख़ास कारण क्यों है?
२३ पौलुस ने ज़ोर दिया कि मसीही एकता वास्तविक आनन्द का एक आधार है। उसके दिनों में कलीसियाओं की संख्या आज के मुक़ाबले निश्चित ही कम थी। फिर भी वह कुलुस्सियों को लिख सका: “मैं यदि शरीर के भाव से तुम से दूर हूं, तौभी आत्मिक भाव से तुम्हारे निकट हूं, और तुम्हारे विधि-अनुसार चरित्र और तुम्हारे विश्वास की जो मसीह में है दृढ़ता देखकर प्रसन्न होता हूं।” (कुलुस्सियों २:५; साथ ही कुलुस्सियों ३:१४ भी देखिए।) हमारे आनन्द का कारण और कितना ज़्यादा है! हम अपनी कलीसिया में एकता, सुव्यवस्था, और विश्वास की दृढ़ता का वास्तविक प्रमाण देख सकते हैं। यह परमेश्वर के विश्वव्यापी लोगों की आम स्थिति को प्रतिबिंबित करता है। अतः वर्तमान रीति-व्यवस्था के थोड़े-से बाक़ी बचे समय में हम सभी दृढ़निश्चयी हों कि हम ‘प्रेम से एकता में एकसाथ बँधे रहेंगे।’
[फुटनोट]
a जबकि बहुत से वृत्तान्त हैं जिनसे हम सीख सकते हैं, निम्नलिखित उदाहरणों से देखिए कि आप व्यक्तिगत तौर पर यीशु के बारे में क्या सीख सकते हैं जो आपकी कलीसिया की एकता में योग दे सकता है: मत्ती १२:१-८; लूका २:५१, ५२; ९:५१-५५; १०:२०; इब्रानियों १०:५-९.
b जून १५, १९८२ की द वॉचटावर के पृष्ठ २२-९ देखिए।
क्या आपने ध्यान दिया?
▫ यहोवा के गवाहों के लिए १९९५ का वार्षिक-पाठ क्या है?
▫ कुलुस्से के मसीहियों को प्रेम से एकता में बँधे रहने की ज़रूरत क्यों थी, और हमें आज ऐसे रहने की ज़रूरत क्यों है?
▫ जीवन के प्रति किस घातक दृष्टिकोण से आज मसीहियों को ख़ास तौर पर चौकस रहने की ज़रूरत है?
▫ मसीहियों को क्यों सचेत रहना चाहिए कि वे स्वास्थ्य और इलाज के तरीक़ों के बारे में लुभानेवाली बातों से धोखा न खाएँ?
[पेज 29 पर तसवीरें]
क्या भविष्य के लिए आपकी योजनाएँ यीशु की उपस्थिति पर केंद्रित हैं?