उसने ईश्वरीय निर्देशन स्वीकार किया
मान लीजिए कि एक परिपूर्ण बच्चे को आपकी देखरेख में सौंप दिया जाता और आपसे अपेक्षा की जाती कि आप उसकी परवरिश अच्छी तरह से करें। क्या ही एक चुनौती! एक अपरिपूर्ण मानव इसे कैसे कर सकता है? सिर्फ़ ईश्वरीय निर्देशन को स्वीकार करने और उसे रोज़मर्रा जीवन में लागू करने के द्वारा।
यही बात यूसुफ, अर्थात् यीशु के दत्तकी पिता द्वारा की गयी थी। यूसुफ के बारे में विस्तृत अप्रामाणिक कहानियों के विपरीत, यीशु के आरंभिक जीवन में उसकी नम्र भूमिका के बारे में बाइबल कम बोलती है। हम जानते हैं कि यूसुफ और उसकी पत्नी मरियम ने यीशु, चार अन्य बेटों और बेटियों की भी परवरिश की।—मरकुस ६:३.
यूसुफ सुलैमान के वंश से इस्राएल के राजा दाऊद का वंशज था। वह याकूब का पुत्र और एली का दामाद था। (मत्ती १:१६; लूका ३:२३) गलील के नासरत नगर में एक बढ़ई के तौर पर यूसुफ ग़रीब था। (मत्ती १३:५५; लूका २:४, २४. लैव्यव्यवस्था १२:८ से तुलना कीजिए।) लेकिन वह आध्यात्मिक रूप से धनी था। (नीतिवचन १०:२२) यह निश्चय ही इसलिए था क्योंकि उसने ईश्वरीय निर्देशन स्वीकार किया।
निःसंदेह, यूसुफ एक दीन और नम्र यहूदी था जिसे परमेश्वर में विश्वास था और जो सही था उसे करने का वह इच्छुक था। शास्त्रवचनों में उसके जीवन की अभिलिखित चंद घटनाएँ दिखाती हैं कि वह यहोवा की आज्ञाओं के प्रति हमेशा आज्ञाकारी था। चाहे ये आज्ञाएँ व्यवस्था में समाविष्ट थीं अथवा स्वर्गदूतों के माध्यम से सीधे यूसुफ को प्राप्त हुईं, उसने उन्हें माना।
समस्याओं सहित एक धर्मी मनुष्य
एक धर्मपरायण व्यक्ति को किसी बड़ी समस्या का सामना करते वक़्त क्या करना चाहिए? उसे ‘अपना बोझ यहोवा पर डाल देना’ चाहिए और ईश्वरीय निर्देशन का पालन करना चाहिए! (भजन ५५:२२) यही यूसुफ ने किया। जब मरियम के साथ उसकी मंगनी हो चुकी थी, “तो उन के इकट्ठे होने से पहिले वह पवित्र आत्मा की ओर से गर्भवती पाई गई।” क्योंकि यूसुफ ‘धर्मी था और उसे बदनाम करना नहीं चाहता था, उसने उसे चुपके से त्याग देने की मनसा की।’ जब यूसुफ ने मामले पर विचार कर लिया, तो यहोवा का स्वर्गदूत उसे स्वप्न में दिखाई दिया और कहा: “हे यूसुफ दाऊद की सन्तान, तू अपनी पत्नी मरियम को अपने यहां ले आने से मत डर; क्योंकि जो उसके गर्भ में है, वह पवित्र आत्मा की ओर से है। वह पुत्र जनेगी और तू उसका नाम यीशु रखना; क्योंकि वह अपने लोगों का उन के पापों से उद्धार करेगा।” नींद से जागकर यूसुफ “प्रभु के दूत की आज्ञा अनुसार अपनी पत्नी को अपने यहां ले आया। और जब तक वह पुत्र न जनी तब तक वह उसके पास न गया: और उस ने उसका नाम यीशु रखा।” (मत्ती १:१८-२५) यूसुफ ने ईश्वरीय निर्देशन स्वीकार किया।
औगूस्तुस कैसर ने आज्ञा निकाली कि लोग अपने नगरों में अपना नाम लिखाएँ। आज्ञापालन करते हुए यूसुफ और मरियम यहूदिया के बैतलहम को गए। वहाँ मरियम ने यीशु को जन्म दिया और उसे चरनी में रखना पड़ा क्योंकि और कोई दूसरा स्थान उपलब्ध नहीं था। उस रात जिन गड़ेरियों ने इस विशेष जन्म की स्वर्गदूतीय घोषणा सुनी थी वे इस शिशु को देखने आए। लगभग ४० दिन बाद, यूसुफ और मरियम ने यरूशलेम के मंदिर में भेंट के साथ यीशु को प्रस्तुत करने के द्वारा व्यवस्था का पालन किया। यीशु जो महान बातें करता उसके बारे में वृद्ध शमौन के भविष्यसूचक शब्दों को सुनते वक़्त दोनों आश्चर्य करते रहे।—लूका २:१-३३. लैव्यव्यवस्था १२:२-४, ६-८ से तुलना कीजिए।
यद्यपि लूका २:३९ प्रतीयमानतः यह सूचित करता है कि यूसुफ और मरियम यीशु को मंदिर में प्रस्तुत करने के तुरंत बाद नासरत को गए, यह वचन एक संक्षिप्त वृत्तान्त का भाग है। ऐसा प्रतीत होता है कि मंदिर में प्रस्तुति के काफ़ी समय बाद, पूर्वी ज्योतिषियों (मजूसियों) ने बैतलहम के एक मकान में मरियम और यीशु से भेंट की। ईश्वरीय हस्तक्षेप ने इस भेंट के परिणामस्वरूप यीशु पर आनेवाली मृत्यु को रोका। जब मजूसी चले गए, तो यहोवा का स्वर्गदूत स्वप्न में यूसुफ को दिखायी पड़ा और उससे कहा: “हेरोदेस इस बालक को ढूंढ़ने पर है कि उसे मरवा डाले।” हमेशा की तरह, यूसुफ ने ईश्वरीय निर्देशन का पालन किया और अपने परिवार को मिस्र ले गया।—मत्ती २:१-१४.
हेरोदेस की मृत्यु होने पर, मिस्र में एक स्वर्गदूत यूसुफ को स्वप्न में दिखायी पड़ा, उसने कहा: “उठ, बालक और उस की माता को लेकर इस्राएल के देश में चला जा।” यह सुनकर कि हेरोदेस का पुत्र अरखिलाउस अपने पिता के स्थान पर राज्य कर रहा था, यूसुफ यहूदिया लौटने से डरा। स्वप्न में दी गयी ईश्वरीय चेतावनी को मानकर, वह गलील के क्षेत्र में गया और नासरत नाम नगर में बस गया।—मत्ती २:१५-२३.
एक आध्यात्मिक मनुष्य
यूसुफ ने मामलों को इस प्रकार निर्देशित किया ताकि उसका परिवार ईश्वरीय नियम का पालन करे और आध्यात्मिक रूप से पोषित रहे। प्रत्येक वर्ष वह अपने पूरे परिवार को अपने साथ यरूशलेम में फसह के पर्व के लिए ले जाता। उनमें से एक ऐसे अवसर पर, यूसुफ और मरियम नासरत को लौट रहे थे और यरूशलेम से एक दिन का फ़ासला तय कर चुके थे जब उन्हें पता चला कि १२-वर्षीय यीशु लापता था। यरूशलेम लौटकर उन्होंने परिश्रमपूर्वक खोज की और आख़िरकार उसे मंदिर में उपदेशकों की सुनते हुए और उनसे प्रश्न करते हुए पाया।—लूका २:४१-५०.
ऐसा लगता है कि यूसुफ ने कुछ बातों में अपनी पत्नी को पहल करने दी। उदाहरण के लिए, जब वे यरूशलेम को लौटे और यीशु को मंदिर में पाया, तो मरियम थी जिसने अपने युवा बेटे से उस बात के बारे में बात की। (लूका २:४८, ४९) ‘बढ़ई के बेटे’ के तौर पर बड़े होते वक़्त, यीशु को आध्यात्मिक उपदेश प्राप्त हुआ। यूसुफ ने उसे बढ़ई का काम भी सिखाया, क्योंकि यीशु को ‘बढ़ई जो मरियम का पुत्र है’ कहा जाता था। (मत्ती १३:५५; मरकुस ६:३) आज धर्मपरायण माता-पिताओं को अपने बच्चों को उपदेश देने के समान अवसरों का पूरा फ़ायदा उठाना चाहिए, विशेषकर उन्हें आध्यात्मिक प्रशिक्षण देना चाहिए।—इफिसियों ६:४; २ तीमुथियुस १:५; ३:१४-१६.
यूसुफ की प्रत्याशाएँ
शास्त्रवचन यूसुफ की मृत्यु के बारे में कोई जानकारी नहीं देते। लेकिन यह बात ध्यान देने योग्य है कि मरकुस ६:३ यीशु को “मरियम का पुत्र” कहता है, यूसुफ का नहीं। यह सूचित करता है कि यूसुफ की तब मृत्यु हो चुकी थी। इसके अतिरिक्त, यदि यूसुफ सा.यु. ३३ तक जीवित रहा होता, तो शायद ही यह संभावना होती कि सूली पर चढ़ा यीशु, मरियम को प्रेरित यूहन्ना की देखरेख में सौंपता।—यूहन्ना १९:२६, २७.
तब, यूसुफ उन मृतकों में होगा जो मनुष्य के पुत्र का शब्द सुनकर पुनरुत्थान में उठेंगे। (यूहन्ना ५:२८, २९) अनन्त जीवन के लिए यहोवा के प्रबंध के बारे में सीखकर, निश्चय ही यूसुफ यहोवा के प्रबंध का लाभ उठाएगा और महान स्वर्गीय राजा, अर्थात् यीशु मसीह का एक आज्ञाकारी नागरिक होगा, वैसे ही जैसे उसने १,९०० से अधिक वर्ष पहले ईश्वरीय निर्देशन का पालन किया।
[पेज 31 पर तसवीरें]
यूसुफ ने यीशु को आध्यात्मिक उपदेश दिया और उसे बढ़ई का काम भी सिखाया