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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1996
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सांत्वना के लिए यहोवा की ओर देखिए

“धीरज, और शान्ति [“सांत्वना,” NW] का दाता परमेश्‍वर तुम्हें यह बरदान दे, कि मसीह यीशु के अनुसार आपस में एक मन रहो।”—रोमियों १५:५.

१. हर दिन क्यों सांत्वना की ज़रूरत बढ़ती जाती है?

हर गुज़रता दिन अपने साथ सांत्वना की बढ़ती ज़रूरत लेकर आता है। जैसे एक बाइबल लेखक ने १,९०० वर्ष पहले कहा, “सारी सृष्टि अब तक मिलकर कहरती और पीड़ाओं में पड़ी तड़पती है।” (रोमियों ८:२२) हमारे समय में ‘कराहना’ और ‘पीड़ा’ पहले से कहीं ज़्यादा रही है। प्रथम विश्‍व युद्ध के समय से, मानवजाति युद्ध, अपराध और मानव द्वारा पृथ्वी के कुप्रबन्ध से अकसर जुड़ी हुई प्राकृतिक विपत्तियों के रूप में एक के बाद एक संकट से गुज़री है।—प्रकाशितवाक्य ११:१८.

२. (क) मानवजाति की वर्तमान तक़लीफों के लिए सबसे ज़्यादा दोषी कौन है? (ख) कौन-सी बात हमें सांत्वना का आधार देती है?

२ हमारे समय में इतना दुःख क्यों रहा है? १९१४ में राज्य के जन्म के बाद स्वर्ग से शैतान के बाहर निकाले जाने का वर्णन करते हुए, बाइबल जवाब देती है: “हे पृथ्वी, और समुद्र, तुम पर हाय! क्योंकि शैतान बड़े क्रोध के साथ तुम्हारे पास उतर आया है; क्योंकि जानता है, कि उसका थोड़ा ही समय और बाकी है।” (प्रकाशितवाक्य १२:१२) उस भविष्यवाणी की पूर्ति के स्पष्ट प्रमाण का अर्थ है कि हम शैतान के दुष्ट शासन के लगभग अन्त तक पहुँच चुके हैं। यह जानना कितना सांत्वनादायक है कि जल्द ही पृथ्वी पर जीवन उस शान्तिपूर्ण अवस्था में फिर आ जाएगा जो शैतान द्वारा हमारे प्रथम माता-पिता को विद्रोह की ओर ले जाने से पहले मौजूद थी!

३. कब मानव को सांत्वना की ज़रूरत नहीं थी?

३ शुरूआत में, मानव के सृष्टिकर्ता ने पहले मानव दम्पति को घर के रूप में एक सुंदर बग़ीचा प्रदान किया। यह अदन नामक एक क्षेत्र में स्थित था, जिसका अर्थ है “आनन्द” या “सुख।” (उत्पत्ति २:८, NW, फुटनोट) इसके अलावा, आदम और हव्वा कभी न मरने की प्रत्याशा के साथ, परिपूर्ण स्वास्थ्य का आनन्द उठा रहे थे। उन अनेक क्षेत्रों के बारे में ज़रा सोचिए जिनमें वे अपनी क्षमताओं को विकसित कर सकते थे, जैसे बाग़बानी, कला, निर्माण, और संगीत। साथ ही, जब वे इस पृथ्वी को अपने वश में करने और इसे एक परादीस बनाने की अपनी कार्यनियुक्‍ति को पूरा करते, तब उन सभी सृष्टि-कार्यों के बारे में सोचिए जिनका वे अध्ययन कर सकते थे। (उत्पत्ति १:२८) सचमुच, आदम और हव्वा के जीवन, कराहने और पीड़ा से नहीं, बल्कि सुख और आनन्द से भरे हुए होते। स्पष्टतः, उन्हें सांत्वना की ज़रूरत नहीं होती।

४, ५. (क) आदम और हव्वा आज्ञाकारिता की परीक्षा में असफल क्यों रहे? (ख) मानवजाति को सांत्वना की ज़रूरत कैसे पड़ी?

४ लेकिन, आदम और हव्वा को एक बात की ज़रूरत थी वह थी अपने कृपालु स्वर्गीय पिता के लिए गहरा प्रेम और मूल्यांकन विकसित करना। ऐसे प्रेम ने उन्हें प्रेरित किया होता कि सब परिस्थितियों में परमेश्‍वर की आज्ञा मानें। (यूहन्‍ना १४:३१ से तुलना कीजिए।) दुःख की बात है, हमारे दोनों प्रथम माता-पिता अपने न्याययुक्‍त सर्वसत्ताधारी, यहोवा की आज्ञा मानने में असफल रहे। इसके बजाय, उन्होंने अपने आप को एक पतित स्वर्गदूत, शैतान अर्थात्‌ इब्‌लीस के दुष्ट शासन के अधीन आने दिया। यह शैतान था जिसने हव्वा को प्रलोभित किया कि पाप करे और निषेधित फल को खाए। उसके बाद आदम ने पाप किया जब उसने भी उस वृक्ष से फल खाया जिसके बारे में परमेश्‍वर ने स्पष्ट रूप से चिताया था: “जिस दिन तू उसका फल खाए उसी दिन अवश्‍य मर जाएगा।”—उत्पत्ति २:१७.

५ इस तरीक़े से, वह पापपूर्ण दम्पति मरने लगा। मृत्युदंड सुनाते वक़्त, परमेश्‍वर ने आदम से यह भी कहा: “भूमि तेरे कारण शापित है; तू उसकी उपज जीवन भर दुःख के साथ खाया करेगा: और वह तेरे लिये कांटे और ऊंटकटारे उगाएगी, और तू खेत की उपज खाएगा।” (उत्पत्ति ३:१७, १८) इस प्रकार आदम और हव्वा ने इस अकृषित पृथ्वी को एक परादीस बनाने की प्रत्याशा को खो दिया। अदन से निकाले जाने पर, उन्हें शापित भूमि से भोजन पाने के संघर्ष में अपनी पूरी शक्‍ति लगानी पड़ी। उनके वंशजों ने इस पापपूर्ण, मरणासन्‍न स्थिति को विरासत में पाया, इसलिए उन्हें सांत्वना की बड़ी ज़रूरत हुई।—रोमियों ५:१२.

एक सांत्वनादायक प्रतिज्ञा पूरी हुई

६. (क) मानवजाति के पाप में पतन के बाद परमेश्‍वर ने कौन-सी सांत्वनादायक प्रतिज्ञा की? (ख) लेमेक ने सांत्वना के सम्बन्ध में कौन-सी भविष्यवाणी कही?

६ मनुष्य के विद्रोह को भड़कानेवाले को दंड सुनाते वक़्त, यहोवा ‘सांत्वना का दाता परमेश्‍वर’ साबित हुआ। (रोमियों १५:५) उसने एक “वंश” को भेजने की प्रतिज्ञा करने के द्वारा ऐसा किया जो आख़िरकार आदम की संतान को आदम के विद्रोह के अनर्थकारी प्रभावों से छुड़ाता। (उत्पत्ति ३:१५) कुछ समय बाद, परमेश्‍वर ने इस छुटकारे का पूर्वदर्शन भी दिया। उदाहरण के लिए, आदम के पुत्र शेत से उसके दूर के वंशज, लेमेक को उसने उत्प्रेरित किया कि लेमेक का पुत्र जो करता उसकी भविष्यवाणी करे: “यहोवा ने जो पृथ्वी को शाप दिया है, उसके विषय यह लड़का हमारे काम में, और उस कठिन परिश्रम में जो हम करते हैं, हम को शान्ति [सांत्वना] देगा।” (उत्पत्ति ५:२९) इस प्रतिज्ञा के सामंजस्य में, उस लड़के का नाम नूह रखा गया, जिसका अर्थ “विश्राम” या “दिलासा” समझा जाता है।

७, ८. (क) कौन-सी स्थिति के कारण यहोवा मानव को सृष्ट करने से पछताया, और इसकी प्रतिक्रिया में उसने क्या करने का उद्देश्‍य किया? (ख) कैसे नूह अपने नाम के अर्थ पर पूरा उतरा?

७ इस दौरान, शैतान स्वर्ग के कुछ स्वर्गदूतों को अपने अनुयायी बना रहा था। इन्होंने मनुष्य के रूप में भौतिकीकरण किया और आदम की सुंदर स्त्री वंशजों को पत्नियों के रूप में अपनाया। ऐसे अस्वाभाविक गठबन्धनों ने मानव समाज को और अधिक भ्रष्ट किया और दानवों, “गिरानेवालों,” की भक्‍तिहीन जाति को जन्म दिया जिन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया। (उत्पत्ति ६:१, २, ४, ११; यहूदा ६) “और यहोवा ने देखा, कि मनुष्यों की बुराई पृथ्वी पर बढ़ गई है . . . और यहोवा पृथ्वी पर मनुष्य को बनाने से पछताया, और वह मन में अति खेदित हुआ।”—उत्पत्ति ६:५, ६.

८ यहोवा ने उस दुष्ट संसार का एक विश्‍वव्याप्त जलप्रलय के द्वारा विनाश करने का उद्देश्‍य रखा, लेकिन पहले उसने जीवन को बनाए रखने के लिए नूह से एक जहाज़ बनवाया। अतः, मानवजाति और प्राणियों की जातियाँ बच गयीं। नूह और उसके परिवार ने जलप्रलय के बाद कितनी राहत महसूस की होगी जब उन्होंने जहाज़ से बाहर निकलकर एक साफ़ की गयी पृथ्वी पर क़दम रखा! यह पाना कितना सांत्वनादायक था कि पृथ्वी पर का शाप उठा लिया गया था, जिससे कृषि कार्य कितना ज़्यादा आसान हो गया था! सचमुच, लेमेक की भविष्यवाणी सच साबित हुई, और नूह अपने नाम के अर्थ पर पूरा उतरा। (उत्पत्ति ८:२१) परमेश्‍वर के एक विश्‍वासी सेवक के तौर पर, नूह ने मानवजाति को कुछ हद तक “सांत्वना” देने में एक माध्यम का काम किया। लेकिन, शैतान और उसके पिशाच स्वर्गदूतों का दुष्ट प्रभाव जलप्रलय के साथ ख़त्म नहीं हुआ, और मानवजाति पाप, बीमारी और मृत्यु के बोझ तले अब भी कराह रही है।

नूह से बढ़कर कोई

९. पश्‍चातापी मनुष्यों के लिए यीशु मसीह कैसे एक सहायक और सांत्वना देनेवाला साबित हुआ है?

९ आख़िरकार, मानव इतिहास के क़रीब ४,००० वर्षों के अन्त में, वह प्रतिज्ञात वंश आया। मानवजाति के लिए अत्यधिक प्रेम से प्रेरित होकर, यहोवा परमेश्‍वर ने पापपूर्ण मानवजाति के लिए छुड़ौती के रूप में मरने के लिए अपने एकलौते पुत्र को पृथ्वी पर भेजा। (यूहन्‍ना ३:१६) यीशु मसीह पश्‍चातापी पापियों को जो उसकी बलिदान-रूपी मृत्यु में विश्‍वास रखते हैं बड़ी राहत देता है। वे सभी स्थायी विश्राम और सांत्वना का अनुभव करते हैं जो यहोवा को अपना जीवन समर्पित करते हैं और उसके पुत्र के बपतिस्मा-प्राप्त शिष्य बनते हैं। (मत्ती ११:२८-३०; १६:२४) उनकी अपरिपूर्णता के बावजूद, वे शुद्ध अंतःकरण से परमेश्‍वर की सेवा करने में गहरा आनन्द पाते हैं। उनके लिए यह जानना कितना सांत्वनादायक है कि यदि वे यीशु पर विश्‍वास रखना जारी रखें, तो उन्हें अनन्त जीवन का प्रतिफल दिया जाएगा! (यूहन्‍ना ३:३६; इब्रानियों ५:९) यदि कमज़ोरी के कारण वे एक गंभीर पाप करते हैं, तो उनके पास पुनरुत्थित प्रभु यीशु मसीह के रूप में, एक सहायक, या सांत्वना देनेवाला है। (१ यूहन्‍ना २:१, २) ऐसे पाप को स्वीकार करने और पाप की आदत डाल लेने से दूर रहने के लिए शास्त्रीय क़दम उठाने के द्वारा वे राहत पाते हैं, यह जानते हुए कि ‘परमेश्‍वर उनके पापों को क्षमा करने में विश्‍वासयोग्य और धर्मी है।’—१ यूहन्‍ना १:९; ३:६; नीतिवचन २८:१३.

१०. जब यीशु पृथ्वी पर था तो उसके द्वारा किए गए चमत्कारों से हम क्या सीखते हैं?

१० जब वह पृथ्वी पर था, यीशु ने पिशाच-ग्रस्त व्यक्‍तियों को छुड़ाने, हर प्रकार की बीमारी को चंगा करने और मृत प्रिय जनों को फिर से जीवित करने के द्वारा भी विश्राम प्रदान किया। सच है, ऐसे चमत्कारों का केवल तात्कालिक लाभ हुआ, क्योंकि जिन व्यक्‍तियों को इस प्रकार आशीष प्राप्त हुई वे बाद में बूढ़े होकर मर गए। फिर भी, यीशु ने इसके द्वारा स्थायी भावी आशिषों की ओर संकेत किया जो वह सारी मानवजाति पर बरसाएगा। अब जब वह एक शक्‍तिशाली स्वर्गीय राजा है, वह जल्द ही केवल पिशाचों को निकालने से कहीं ज़्यादा करेगा। वह उन्हें उनके अगुवे, शैतान के साथ, निष्क्रियता की स्थिति में अथाह कुंड में बन्द करेगा। उसके बाद मसीह का हज़ार वर्ष का महिमायुक्‍त शासन शुरू होगा।—लूका ८:३०, ३१; प्रकाशितवाक्य २०:१, २, ६.

११. यीशु ने स्वयं को ‘सब्त के दिन का प्रभु’ क्यों कहा?

११ यीशु ने कहा कि वह ‘सब्त के दिन का प्रभु’ है, और उसकी अनेक चंगाइयाँ सब्त के दिन की गयी थीं। (मत्ती १२:८-१३; लूका १३:१४-१७; यूहन्‍ना ५:१५, १६; ९:१४) ऐसा क्यों था? सब्त इस्राएल को दी गयी परमेश्‍वर की व्यवस्था का भाग था और इस प्रकार इसने ‘आनेवाली अच्छी वस्तुओं के प्रतिबिम्ब’ के तौर पर कार्य किया। (इब्रानियों १०:१) छः कार्यदिवस हमें शैतान के उत्पीड़क शासन के अधीन मानव के गत ६,००० वर्षों की दासता की याद दिलाते हैं। सप्ताह के अन्त में सब्त का दिन उस सांत्वनादायक विश्राम की याद दिलाता है जो मानवजाति महान नूह, यीशु मसीह के हज़ार वर्ष के शासन के दौरान अनुभव करेगी।—२ पतरस ३:८ से तुलना कीजिए।

१२. किन सांत्वनादायक अनुभवों का हम उत्सुकता से इंतज़ार कर सकते हैं?

१२ मसीह के शासन की पार्थिव प्रजा कितनी राहत महसूस करेगी जब, आख़िरकार, वे अपने आप को शैतान के दुष्ट प्रभाव से पूर्णतया मुक्‍त पाते हैं! अधिक सांत्वना प्राप्त होगी जब वे अपने शारीरिक, भावात्मक और मानसिक रोगों की चंगाई का अनुभव करेंगे। (यशायाह ६५:१७) उसके बाद, उनके उल्लास के बारे में सोचिए जब वे मृतकों से प्रिय जनों का स्वागत करते हैं! इन तरीक़ो से परमेश्‍वर “उन की आंखों से सब आंसू पोंछ डालेगा।” (प्रकाशितवाक्य २१:४) जैसे-जैसे यीशु के छुड़ौती बलिदान के लाभों को प्रगतिशील रूप से लागू किया जाता है, परमेश्‍वर के राज्य की आज्ञाकारी प्रजा परिपूर्णता की ओर बढ़ेगी, और आदम के पाप के बुरे प्रभावों से पूरी तरह मुक्‍त होगी। (प्रकाशितवाक्य २२:१-५) उसके बाद शैतान को “थोड़ी देर के लिये” छोड़ दिया जाएगा। (प्रकाशितवाक्य २०:३, ७) सभी मानव जो वफ़ादारी से यहोवा की न्याययुक्‍त सर्वसत्ता का समर्थन करते हैं उन्हें अनन्त जीवन का प्रतिफल दिया जाएगा। पूरी तरह से “विनाश के दासत्व से छुटकारा” पाने के अतुलनीय आनन्द और राहत की कल्पना कीजिए! इस प्रकार आज्ञाकारी मानवजाति “परमेश्‍वर की सन्तानों की महिमा की स्वतंत्रता प्राप्त” करने का आनन्द उठाएगी।—रोमियों ८:२१.

१३. क्यों सभी सच्चे मसीहियों को परमेश्‍वर द्वारा दी गयी सांत्वना की ज़रूरत है?

१३ इस दौरान, हम अब भी उस कराहने और पीड़ा के अधीन हैं जो शैतान की दुष्ट व्यवस्था में रहनेवाले सभी लोगों के लिए सामान्य है। शारीरिक बीमारी और भावात्मक रोगों में बढ़ोतरी सब प्रकार के लोगों को प्रभावित करती है, जिसमें वफ़ादार मसीही भी शामिल हैं। (फिलिप्पियों २:२५-२७; १ थिस्सलुनीकियों ५:१४) इसके अतिरिक्‍त, मसीहियों के रूप में हम अकसर अन्यायपूर्ण उपहास और सताहट सहन करते हैं जो शैतान हम पर ‘मनुष्यों की आज्ञा से बढ़कर परमेश्‍वर की आज्ञा का पालन करने’ के लिए थोपता है। (प्रेरितों ५:२९) अतः, यदि हमें शैतान के संसार के अन्त तक परमेश्‍वर की इच्छा करने में धीरज धरना है, तो हमें उसके द्वारा दी गयी सांत्वना, सहायता और शक्‍ति की ज़रूरत है।

सांत्वना कहाँ पाएँ

१४. (क) अपनी मृत्यु की पहली रात को यीशु ने कौन-सी प्रतिज्ञा की? (ख) यदि हमें परमेश्‍वर की पवित्र आत्मा की सांत्वना से पूरी तरह लाभ प्राप्त करना है तो क्या बात ज़रूरी है?

१४ अपनी मृत्यु की पहली रात को, यीशु ने अपने विश्‍वासी प्रेरितों को स्पष्ट रूप से बताया कि वह जल्द ही उनको छोड़कर अपने पिता के पास लौटेगा। इस बात से उन्हें कष्ट और दुःख हुआ। (यूहन्‍ना १३:३३, ३६; १४:२७-३१) जारी सांत्वना की उनकी ज़रूरत को समझते हुए, यीशु ने प्रतिज्ञा की: “मैं पिता से बिनती करूंगा, और वह तुम्हें एक और सहायक [“सांत्वना देनेवाला,” NW, फुटनोट] देगा, कि वह सर्वदा तुम्हारे साथ रहे।” (यूहन्‍ना १४:१६) यीशु ने यहाँ परमेश्‍वर की पवित्र आत्मा की ओर संकेत किया, जिसे उसके शिष्यों पर उसके पुनरुत्थान के ५० दिन बाद उंडेल दिया गया था।a अन्य बातों के अलावा, परमेश्‍वर की आत्मा ने उन्हें उनकी परीक्षाओं में सांत्वना दी और परमेश्‍वर की इच्छा करना जारी रखने के लिए उन्हें मज़बूत किया। (प्रेरितों ४:३१) लेकिन, ऐसी सहायता को स्वतः प्राप्त होनेवाली सहायता नहीं समझा जाना चाहिए। इससे पूरा लाभ प्राप्त करने के लिए, प्रत्येक मसीही को सांत्वनादायक सहायता के लिए प्रार्थना करना जारी रखना चाहिए जो परमेश्‍वर अपनी पवित्र आत्मा के माध्यम से देता है।—लूका ११:१३.

१५. कौन-से कुछ तरीक़ों से यहोवा हमें सांत्वना प्रदान करता है?

१५ एक और तरीक़ा जिससे परमेश्‍वर सांत्वना प्रदान करता है, उसका वचन बाइबल है। पौलुस ने लिखा: “जितनी बातें पहिले से लिखी गईं, वे हमारी ही शिक्षा के लिये लिखी गईं हैं कि हम धीरज और पवित्र शास्त्र की शान्ति [सांत्वना] के द्वारा आशा रखें।” (रोमियों १५:४) यह नियमित रूप से बाइबल और बाइबल-आधारित प्रकाशनों में लिखी बातों का अध्ययन करने और उन पर मनन करने की हमारी ज़रूरत को दिखाता है। मसीही सभाओं में हमारा नियमित रूप से उपस्थित होना भी ज़रूरी है, जहाँ परमेश्‍वर के वचन से सांत्वनादायक विचार बाँटे जाते हैं। ऐसे समूहनों का एक मुख्य उद्देश्‍य है एक दूसरे को प्रोत्साहित करना।—इब्रानियों १०:२५.

१६. परमेश्‍वर के सांत्वनादायक प्रबन्धों से हमें क्या करने की प्रेरणा मिलनी चाहिए?

१६ रोमियों को लिखी पौलुस की पत्री आगे यह दिखाती है कि परमेश्‍वर के सांत्वनादायक प्रबन्धों का प्रयोग करने से कौन-से अच्छे परिणाम हमें प्राप्त होते हैं। “धीरज, और शान्ति [सांत्वना] का दाता परमेश्‍वर,” पौलुस ने लिखा, “तुम्हें यह बरदान दे, कि मसीह यीशु के अनुसार आपस में एक मन रहो। ताकि तुम एक मन और एक मुंह होकर हमारे प्रभु यीशु मसीह के पिता परमेश्‍वर की बड़ाई करो।” (रोमियों १५:५, ६) जी हाँ, परमेश्‍वर के सांत्वनादायक प्रबन्धों का पूरा फ़ायदा उठाने के द्वारा, हम और ज़्यादा अपने साहसी अगुवे, यीशु मसीह की तरह बनेंगे। यह हमें प्रेरित करेगा कि अपने मुँह अपने गवाही कार्य में, हमारी सभाओं में, संगी विश्‍वासियों के साथ निजी बातचीत में, और अपनी प्रार्थनाओं में परमेश्‍वर की महिमा करने के लिए प्रयोग करते रहें।

कठिन परीक्षा के समय में

१७. यहोवा ने अपने पुत्र को सांत्वना कैसे दी, और इसका परिणाम क्या हुआ?

१७ यीशु अपनी व्यथापूर्ण मृत्यु की पहली रात को “ब्याकुल” और “बहुत उदास” हो गया। (मत्ती २६:३७, ३८) सो वह अपने शिष्यों से थोड़ी दूर चला गया और सहायता के लिए अपने पिता से प्रार्थना की। “भक्‍ति के कारण उस की सुनी गई।” (इब्रानियों ५:७) बाइबल रिपोर्ट करती है कि “स्वर्ग से एक दूत [यीशु] को दिखाई दिया जो उसे सामर्थ देता था।” (लूका २२:४३) जिस साहसी और पुरुषोचित तरीक़े से यीशु अपने विरोधियों का सामना करने चला, वह इस बात का प्रमाण है कि अपने पुत्र को सांत्वना देने का परमेश्‍वर का तरीक़ा सबसे ज़्यादा प्रभावकारी था।—यूहन्‍ना १८:३-८, ३३-३८.

१८. (क) प्रेरित पौलुस के जीवन में कौन-सी अवधि ख़ासकर परीक्षाओं से भरी थी? (ख) हम कैसे परिश्रमी, करुणामयी प्राचीनों के लिए सांत्वना देनेवाले हो सकते हैं?

१८ प्रेरित पौलुस भी कठिन परीक्षा की अवधियों से गुज़रा। उदाहरण के लिए, इफिसुस में उसकी सेवकाई की विशिष्टता थी ‘आंसू और वे परीक्षाएँ जो यहूदियों के षड़यन्त्र के कारण उस पर आ पड़ीं।’ (प्रेरितों २०:१७-२०) आख़िरकार, अरतिमिस देवी के समर्थकों ने उसके प्रचार कार्य के कारण नगर में कोलाहल मचा दिया तो पौलुस ने इफिसुस छोड़ दिया। (प्रेरितों १९:२३-२९; २०:१) जब पौलुस उत्तर में त्रोआस नगर को जा रहा था, तो किसी और बात का बोझ उसके मन पर था। इफिसुस में कोलाहल मचने से कुछ समय पहले, उसे एक चिन्ताजनक रिपोर्ट मिली थी। कुरिन्थ में एक युवा कलीसिया विभाजन से ग्रस्त थी, और वह व्यभिचार को बरदाश्‍त कर रही थी। सो इफिसुस से, पौलुस ने स्थिति को सुधारने की आशा में कड़ी ताड़ना की एक पत्री लिखी थी। उसके लिए ऐसा करना आसान बात नहीं थी। “बड़े क्लेश, और मन के कष्ट से, मैं ने बहुत से आंसू बहा बहाकर तुम्हें लिखा,” उसने बाद में दूसरी पत्री में बताया। (२ कुरिन्थियों २:४) पौलुस की तरह, करुणामयी प्राचीन सुधारने हेतु सलाह और ताड़ना देना आसान नहीं पाते, कुछ हद तक इसलिए क्योंकि वे अपनी कमज़ोरियों के बारे में बहुत ज़्यादा सचेत हैं। (गलतियों ६:१) तो फिर, ऐसा हो कि हम प्रेमपूर्ण, बाइबल-आधारित सलाह के प्रति तत्काल प्रतिक्रिया दिखाने के द्वारा उनके लिए सांत्वना देनेवाले हों जो हमारे बीच में अगुवाई करते हैं।—इब्रानियों १३:१७.

१९. पौलुस त्रोआस से मकिदुनिया को क्यों गया, और उसने आख़िरकार कैसे राहत पायी?

१९ इफिसुस में रहते वक़्त, पौलुस ने न सिर्फ़ कुरिन्थ के भाइयों को लिखा बल्कि उसने तीतुस को उनकी सहायता करने के लिए भी भेजा, उसे उस पत्री के प्रति उनकी प्रतिक्रिया के बारे में वापस रिपोर्ट करने का काम दिया। पौलुस ने त्रोआस में तीतुस से मिलने की आशा की। वहाँ पौलुस को शिष्य बनाने के बढ़िया अवसरों की आशीष प्राप्त हुई। लेकिन इस बात ने उसकी चिन्ता को कम नहीं किया क्योंकि तीतुस अब तक नहीं आया था। (२ कुरिन्थियों २:१२, १३) सो वह मकिदुनिया को गया, इस आशा में कि तीतुस से वहाँ मिलेगा। पौलुस की चिन्ताजनक अवस्था उसकी सेवकाई के प्रति तीव्र विरोध से और गंभीर हो गयी। “जब हम मकिदुनिया में आए,” वह समझाता है, “तब भी हमारे शरीर को चैन नहीं मिला, परन्तु हम चारों ओर से क्लेश पाते थे; बाहर लड़ाइयां थीं, भीतर भयंकर बातें थीं। तौभी दीनों को शान्ति [सांत्वना] देनेवाले परमेश्‍वर ने तितुस के आने से हम को शान्ति [सांत्वना] दी।” (२ कुरिन्थियों ७:५, ६) क्या ही राहत मिली जब तीतुस आख़िरकार पौलुस को उसकी पत्री के प्रति कुरिन्थियों की सकारात्मक प्रतिक्रिया के बारे में बताने के लिए आया!

२०. (क) जैसे पौलुस के मामले में था, कौन-सा एक और महत्त्वपूर्ण तरीक़ा है जिससे यहोवा सांत्वना देता है? (ख) अगले लेख में किस बात पर चर्चा की जाएगी?

२० पौलुस का अनुभव आज परमेश्‍वर के सेवकों के लिए सांत्वनादायक है, जिनमें से अनेक ऐसी परीक्षाओं का सामना भी करते हैं जिनके कारण वे ‘दीन,’ या “हताश” हो जाते हैं। (फिलिप्पस्‌) जी हाँ, ‘सांत्वना का दाता परमेश्‍वर’ हमारी व्यक्‍तिगत ज़रूरतों को जानता है और एक दूसरे को सांत्वना देने के लिए हमारा प्रयोग कर सकता है, ठीक जैसे पौलुस ने कुरिन्थियों की पश्‍चातापी मनोवृत्ति के बारे में तीतुस की रिपोर्ट से सांत्वना प्राप्त की। (२ कुरिन्थियों ७:११-१३) हमारे अगले लेख में, हम कुरिन्थियों को पौलुस के स्नेहपूर्ण जवाब पर और कैसे यह आज हमें परमेश्‍वर की सांत्वना के प्रभावकारी सहभागी होने के लिए सहायता कर सकता है इस पर चर्चा करेंगे।

[फुटनोट]

a प्रथम-शताब्दी मसीहियों पर परमेश्‍वर की आत्मा की एक मुख्य कार्यवाही थी उन्हें परमेश्‍वर के दत्तक आत्मिक पुत्रों और यीशु के भाइयों के तौर पर अभिषिक्‍त करना। (२ कुरिन्थियों १:२१, २२) यह केवल मसीह के १,४४,००० शिष्यों के लिए अलग रखा गया है। (प्रकाशितवाक्य १४:१, ३) आज अधिकांश मसीहियों को कृपापूर्वक परादीस पृथ्वी पर अनन्त जीवन की आशा दी गयी है। यद्यपि वे अभिषिक्‍त नहीं हैं, उन्हें भी परमेश्‍वर की पवित्र आत्मा की सहायता और सांत्वना मिलती है।

क्या आप उत्तर दे सकते हैं?

◻ मानवजाति को सांत्वना की ज़रूरत कैसे पड़ी?

◻ कैसे यीशु नूह से महान साबित हुआ है?

◻ यीशु ने स्वयं को ‘सब्त के दिन का प्रभु’ क्यों कहा?

◻ परमेश्‍वर आज सांत्वना कैसे देता है?

[पेज 10 पर नक्शा/तसवीर]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

पौलुस ने कुरिन्थियों के बारे में तीतुस की रिपोर्ट से बड़ी सांत्वना का अनुभव किया

मकिदुनिया

यूनान

फिलिप्पी

कुरिन्थ

त्रोआस

आसिया

इफिसुस

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