सच्चाई से बेहतर और कोई चीज़ नहीं
जी. एन. फान डर बेल द्वारा बताया गया
जून १९४१ में मुझे गैसटापो (नात्ज़ी पुलिस) के हवाले कर दिया गया और फिर वे मुझे जर्मनी में बर्लिन के पास साक्सनहाउसन यातना शिविर में ले गए। वहाँ मुझे क़ैदी नंबर ३८१९० दिया गया, और मैं वहाँ अप्रैल १९४५ के मशहूर डैथ मार्च तक रहा। मगर इससे पहले कि मैं उन हालतों के बारे में बताना शुरू करूँ, मैं आपको बताना चाहता हूँ कि आख़िर मैं क़ैद में आया कैसे।
मैं १९१४ में, पहले विश्वयुद्ध की शुरूआत के कुछ ही समय बाद, नॆदरलॆंड्स के रॉटरडैम में पैदा हुआ। पिताजी रेलवे में नौकरी करते थे और हमारा छोटा-सा घर था जो रेल की पटरी के बहुत क़रीब था। १९१८ में युद्ध के ख़त्म होते-होते मैंने बहुत-सी ट्रेनें देखीं जिन्हें आफ़त (ऐम्बुलैंस) ट्रेन कहा जाता था। इसमें कोई शक नहीं कि ये ट्रेनें ज़ख़्मी सिपाहियों से भरी होती थीं जिन्हें मैदान-ए-जंग से घर ले जाया जा रहा होता था।
जब मैं १२ साल का हुआ तब मैंने नौकरी करने के लिए स्कूल छोड़ दिया। आठ साल बाद मैंने एक मुसाफ़िर जहाज़ पर वेटर की नौकरी कर ली, और फिर अगले चार साल तक इधर से उधर, नॆदरलॆंड्स और अमरीका के बीच सफ़र करता रहा।
जब हम १९३९ की गर्मियों में न्यू यॉर्क बंदरगाह पहुँचे तब एक और विश्वयुद्ध शुरू होने का ख़तरा मँडरा रहा था। सो जब एक आदमी ने हमारे जहाज़ पर आकर मुझे एक किताब दी जिसका नाम सरकार (अंग्रेज़ी) था तब मैंने उसे ख़ुशी-ख़ुशी क़बूल कर लिया क्योंकि उसमें एक धर्मी सरकार के बारे में बताया गया था। रॉटरडैम वापस आने पर, मैं ज़मीन पर काम तलाशने लगा क्योंकि समुंदर की ज़िंदगी जोखिम-भरी लगने लगी थी। सितंबर १ को जर्मनी ने पोलैंड पर हमला कर दिया और इसी वज़ह से बाक़ी देश भी दूसरे विश्वयुद्ध में शामिल हो गए।
बाइबल की सच्चाई सीखना
मार्च १९४० में एक इतवार की सुबह मैं अपने शादीशुदा भाई के घर उससे मुलाक़ात करने गया तभी एक यहोवा के साक्षी ने घर की घंटी बजाई। मैंने उसे बताया कि मेरे पास पहले से ही सरकार किताब है। मैंने उससे स्वर्ग के बारे में पूछा और यह भी कि वहाँ कौन जाएँगे। मुझे इतना आसान और दमदार जवाब मिला कि मैंने अपने आपसे कहा, ‘यही है सच्चाई।’ मैंने अपना पता उसे दिया और कहा कि वह मुझसे मेरे घर आकर मिले।
सिर्फ़ तीन मुलाक़ातों के बाद, जिस दौरान हमने बाइबल के बारे में गहरी बातचीत की, मैं उस साक्षी के साथ घर-घर के प्रचार में जाने लगा। जब हम क्षेत्र में पहुँचे, उसने मुझे दिखाया कि मुझे कहाँ प्रचार करना है और फिर मैं अकेला ही प्रचार करने लगा। उन दिनों नए जनों को इसी तरह प्रचार-काम से वाक़िफ़ कराया जाता था। मुझे हिदायत दी गई कि मैं हमेशा घर के अंदर जाकर प्रकाशन पेश करूँ ताकि सड़क से दिखाई न दूँ। युद्ध के शुरूआती दिनों में होशियार रहने की बहुत ज़रूरत थी।
तीन हफ़्ते बाद मई १०, १९४० में जर्मन फ़ौजियों ने नॆदरलॆंड्स पर चढ़ाई कर दी और मई २९ को राइख़ कमिश्नर ज़ाइसिंकवार्ट ने ऐलान कर दिया कि यहोवा के साक्षियों के संगठन पर पाबंदी लगा दी गई है। फिर हम सिर्फ़ छोटे समूहों में मिलते और इस बात पर ध्यान देते थे कि हमारी सभाओं की जगहें किसी को मालूम न पड़ें। ख़ासकर, हमें और ज़्यादा मज़बूती तब मिलती थी जब सफ़री ओवरसियर आकर हमसे मुलाक़ात करते थे।
मैं सिगरेट बहुत ज़्यादा पीता था। एक मरतबा मैंने उस साक्षी को जो मेरे साथ अध्ययन करता था, सिगरेट पीने को दी और जब मुझे मालूम पड़ा कि वह सिगरेट नहीं पीता, मैं बोला: “मैं तो सिगरेट छोड़ ही नहीं सकता!” बहरहाल, उसके कुछ ही दिन बाद जब मैं सड़क पर जा रहा था तब मैंने सोचा, ‘अगर मुझे साक्षी बनना ही है, तो मुझे एक सच्चा साक्षी बनना है।’ सो उसके बाद मैंने फिर कभी सिगरेट नहीं पी।
सच्चाई के लिए क़दम उठाना
अपने भाई के घर उस साक्षी से मुलाक़ात किये मुझे तीन महीने भी नहीं हुए थे कि मैंने जून १९४० में यहोवा को अपना समर्पण करके बपतिस्मा ले लिया। कुछ महीने बाद, अक्तूबर १९४० में पायनियर की हैसियत से मैंने पूर्ण-समय सेवकाई शुरू कर दी। उस वक़्त मुझे वो चीज़ दी गई जिसे पायनियर जैकट कहा जाता था। उसमें किताबें और पुस्तिकाएँ रखने के लिए काफ़ी जेबें थीं, साथ ही उसे कोट के अंदर पहना जा सकता था।
जर्मन फ़ौज द्वारा कब्ज़ा कर लिए जाने की शुरूआत से ही यहोवा के साक्षियों को व्यवस्थित ढंग से खोजा गया और पकड़ लिया गया। फरवरी १९४१ की एक सुबह मैं दूसरे कुछ साक्षियों के साथ क्षेत्र सेवकाई में था। वे गली की एक तरफ़ प्रचार कर रहे थे, मैं गली की दूसरी तरफ़ प्रचार कर रहा था ताकि हम एक साथ मिलें। कुछ समय बाद यह देखने के लिए कि क्यों उन्हें देरी हो रही है, मैं उनकी तरफ़ चला और एक आदमी से मिला जिसने मुझसे पूछा, “क्या तुम्हारे पास भी इस तरह की छोटी किताबें हैं?”
“हाँ हैं,” मैंने जवाब दिया। इस पर उसने मुझे गिरफ़्तार कर लिया और पुलिस स्टेशन ले गया। मुझे क़रीब चार हफ़्ते हिरासत में रखा गया। वहाँ पर ज़्यादातर अफ़सर दोस्ताना थे। जब तक कि एक व्यक्ति को गैस्टापो के हवाले नहीं किया गया था, उसे आज़ादी मिल सकती थी, अगर वह एक दस्तावेज़ पर दस्तख़त कर दे कि वह आगे से कभी बाइबल किताबें नहीं बाँटेगा। जब मुझसे दस्तख़त करने के लिए कहा गया तब मैंने कहा: “अगर तुम मुझे २० लाख रुपये दोगे तो भी मैं दस्तख़त नहीं करूँगा।”
कुछ और समय वहाँ हिरासत में रखने के बाद मुझे गैस्टापो के हवाले कर दिया गया। और वहाँ से मुझे जर्मनी के साक्सनहाउसन यातना शिविर ले जाया गया।
साक्सनहाउसन में ज़िंदगी
जब मैं जून १९४१ में साक्सनहाउसन पहुँचा तब वहाँ पहले से ही क़रीब १५० साक्षी थे जिनमें से अधिकतर जर्मन थे। हम नए क़ैदियों को कैंप के एक हिस्से में ले जाया गया जिसे आइसोलेशन (अलग-थलग) कहा जाता था। वहाँ हमारे मसीही भाई हमारी देखरेख करने लगे और उन्होंने हमें आगाह किया कि आगे क्या-क्या हो सकता है। एक हफ़्ते बाद नॆदरलॆंड्स से साक्षियों का एक और समूह आ गया। पहले हमें बैरक के सामने एक ही जगह पर सुबह सात बजे से शाम छ: बजे तक खड़े रहने के लिए कहा गया। कई बार तो क़ैदियों को ऐसा हर रोज़, शायद एक हफ़्ते या उससे भी ज़्यादा समय तक करना पड़ता था।
बहुत ही बेरहमी से सलूक किये जाने के बावजूद भाइयों ने संगठित रहने और आध्यात्मिक भोजन लेने की सख़्त ज़रूरत को महसूस किया। हर रोज़ किसी-न-किसी को बाइबल के मुद्दों पर तैयारी करने के लिए नियुक्त किया जाता। बाद में साक्षी मैदान में एक-एक करके आते और जिसने तैयारी की थी उसकी सुनते। किसी-न-किसी तरह प्रकाशन लगातार चोरी-छिपे कैंप में पहुँच जाते और हम सब हर इतवार को जमा होकर बाइबल प्रकाशन का अध्ययन करते।
किसी तरह से बच्चे (अंग्रेज़ी) किताब की एक कॉपी साक्सनहाउसन में चोरी-छिपे पहुँच गई। इस किताब को १९४१ की गर्मियों में अमरीका के सेंट लूइस अधिवेशन में जारी किया गया था। किताब के पकड़े जाने या तबाह किए जाने के ख़तरे को कम करने के लिए हमने किताब के कई हिस्से बनाकर भाइयों में बाँट दिये ताकि हर कोई बारी-बारी से इसे पढ़ सके।
कुछ समय बाद कैंप के प्रबंधकों को हमारी सभाओं के बारे में मालूम पड़ गया। सो उन्होंने साक्षियों को अलग-अलग बैरकों में डाल दिया। इससे हमें दूसरे क़ैदियों को भी प्रचार करने का एक अच्छा मौक़ा मिला और इसका नतीजा यह हुआ कि बहुत सारे पोलिश जाति, यूक्रेनी जाति और दूसरी जातियों के लोगों ने सच्चाई सीखी।
नात्ज़ियों ने बीबलफोरशर (बाइबल विद्यार्थी), जिन्हें आज यहोवा के साक्षियों के नाम से जाना जाता है, की खराई तोड़ने या उन्हें मार डालने के इरादे को एक राज़ बनाकर नहीं रखा। इस वज़ह से जो दबाव आया वह बरदाश्त के बाहर था। हमसे यह कहा गया कि अगर हम विश्वास से इनकार करने के दस्तावेज़ पर दस्तख़त कर दें तो हमें रिहा कर दिया जाएगा। कुछ भाई तर्क करने लगे, “अगर मैं आज़ाद हो गया तो मैं यहोवा की सेवा में ज़्यादा कर सकूँगा।” हालाँकि कुछ भाइयों ने दस्तख़त कर दिए, मगर हमारे ज़्यादातर भाई ज़लील किये जाने, मुहताजी और बदसलूकी के बावजूद वफ़ादार रहे। ऐसे कुछ लोग जिन्होंने ईमान बेच दिया था, फिर कभी नज़र नहीं आए। लेकिन, ख़ुशी की बात है कि कुछ बाद में ठीक हो गए और आज वे सक्रिय साक्षी हैं।
हमसे लगातार ज़बरदस्ती की जाती थी कि जब क़ैदियों को ख़ौफ़नाक जिस्मानी सज़ा दी जाती थी उस वक़्त हम उन्हें देखें, जैसे कि २५ कोड़े खाते वक़्त। एक मरतबा हमें चार आदमियों को फाँसी के फँदे पर लटकाते वक़्त देखने के लिए मजबूर किया गया। ऐसे अनुभवों का आदमी पर सचमुच असर पड़ता है। एक भाई ने, जो हट्टा-कट्टा और लंबे-क़द का था और जो मेरे बैरक में ही रहता था, मुझसे कहा: “यहाँ आने से पहले अगर मैं खून देख लेता था तो बेहोश हो जाता था। मगर अब तो मेरा दिल कड़ा हो गया है।” हालाँकि हमारा दिल शायद कड़ा हो गया हो फिर भी हम पत्थर-दिल नहीं बने हैं। मैं यह कह सकता हूँ कि हमारे सतानेवालों के लिए न मेरे अंदर कभी नफ़रत पैदा हुई न ही मैंने उनसे कोई गिला रखा।
कुछ समय तक कमान्डो (कर्मी-दल) के साथ काम करने के बाद मुझे तेज़ बुख़ार की वज़ह से अस्पताल में भरती किया गया। नॉर्वे के एक डाक्टर और चेकोस्लोवाकिया की एक नर्स ने मेरी मदद की और शायद उनकी मेहरबानी ने ही मेरी जान बचाई।
डैथ मार्च
अप्रैल १९४५ तक यह साफ़ नज़र आ रहा था कि जर्मनी युद्ध हार रहा है। ब्रिटिश और अमरीकी फ़ौजें पश्चिम की तरफ़ से तेज़ी से बढ़ रही थीं और सोवियत फ़ौज पूरब से। कुछ ही दिनों में यातना शिविरों के हज़ारों-हज़ार क़ैदियों का क़त्ल करके उनकी लाशों को बिना किसी सुराग़ के ठिकाने लगाना नात्ज़ियों के लिए नामुमकिन हो गया था। सो उन्होंने सारे बीमारों का क़त्ल करने और बाक़ी क़ैदियों को क़रीबी बंदरगाह पर ले जाने का फ़ैसला किया। उनका मनसूबा था, वहाँ उन्हें जहाज़ में चढ़ाना और फिर जहाज़ को समुंदर में डुबा देना।
साक्सनहाउसन से क़रीब २६,००० क़ैदियों का मार्च अप्रैल २० की रात को शुरू हुआ। हमारे कैंप छोड़ने से पहले हमारे बीमार भाइयों को कैंप-अस्पताल से छुड़ा लिया गया। उन्हें ले जाने के लिए एक गाड़ी ले ली गयी। हम सब छ: अलग-अलग देशों के २३० लोग थे। बीमारों में भाई आर्थर विंकलर भी थे जिन्होंने नॆदरलॆंड्स में प्रचार काम को बढ़ाने में एक बड़ा हिस्सा लिया था। हम साक्षी डैथ-मार्च के आख़िरी भाग में थे और चलते रहने के लिए हम लगातार एक दूसरे को हिम्मत दिलाते रहे।
शुरू में हम लगातार ३६ घंटे बिना रुके चलते रहे। इतनी दुख-तकलीफ़ और थकान से मैं चलते-चलते ही सोने लगा। मगर पीछे छूटने या अराम करने का सवाल ही नहीं था क्योंकि पीछे से सिपाही के गोली मार देने का ख़तरा था। रात में हम खेतों में या जंगलों में सोते थे। और खाना ना के बराबर ही था। जब भूख के मारे दर्द बरदाश्त से बाहर हो गया तो मैं टूथपेस्ट को चाटने लगा जो हमें स्वीडिश रेड-क्रॉस ने दिया था।
एक मुक़ाम पर जर्मन सिपाही समझ नहीं पाए कि रूसी और अमरीकी फ़ौजें किस तरफ़ से आ रही हैं और इसलिए हमने चार दिन जंगल में ही काटे। इसमें सचमुच परमेश्वर का हाथ था क्योंकि इसकी वज़ह से हम समय पर लूबक बंदरगाह नहीं पहुँच पाए, जहाँ हमें पानी की क़ब्र तक पहुँचानेवाला जहाज़ तैयार था। आख़िरकार १२ दिन बाद क़रीब २०० किलोमीटर का रास्ता तय करके हम क्रिविट्ज़ वुड पहुँचे। यह श्फ़ेरीन शहर से बहुत दूर नहीं था, जो लूबक से क़रीब ५० किलोमीटर दूर था।
हमारे दहिनी तरफ़ रूसी फ़ौज थी और बायीं तरफ़ अमरीकी फ़ौज। तोपों के धमाकों और बंदूक़ों की लगातार आवाज़ से हम जान गए कि हम मैदान-ए-जंग के क़रीब हैं। जर्मन सिपाही घबरा गए; कुछ भागने लगे और कुछ अपनी फ़ौजी वरदी फेंककर क़ैदी लाशों के कपड़े पहनने लगे जिससे कि उन्हें पहचाना न जा सके। इस भगदड़ में हम साक्षी जमा हुए और मार्गदर्शन के लिए दुआ करने लगे।
जो भाई अगुवाई कर रहे थे उन्होंने फ़ैसला किया कि हमें अगली सुबह जल्दी ही अमरीकी फ़ौज की तरफ़ चलना चाहिए। जबकि आधे से ज़्यादा क़ैदी जिन्होंने डैथ मार्च शुरू किया था मर चुके थे या उन्हें रास्ते में ही गोली मार दी गई थी, सभी साक्षी बच निकले।
मुझे कैनेडियन सिपाहियों से नाइमेगन शहर तक जहाँ मेरी बहन रहती थी, सवारी मिल गई। मगर जब मैं उस जगह पहुँचा तब मैंने देखा कि वह वहाँ से कहीं और चली गई। सो मैंने पैदल ही रॉटरडैम जाना शुरू किया। रास्ते में मुझे एक सवारी मिल गई जिसने मुझे सीधे मेरी मंज़िल तक पहुँचा दिया।
सच्चाई मेरी ज़िंदगी बन गई थी
जिस दिन मैं रॉटरडैम पहुँचा उसी दिन मैंने पायनियर काम के लिए नाम दे दिया। तीन हफ़्ते बाद मैं ज़तफन शहर में अपनी नियुक्ति पर था जहाँ मैंने डेढ़ साल सेवा की। इस दौरान मैं फिर से शारीरिक तौर पर तंदुरुस्त हो गया। फिर मुझे सर्किट ओवरसियर नियुक्त किया गया जैसा कि सफ़री सेवकों को कहा जाता था। कुछ महीने बाद मुझे साउथ लैन्सिंग, न्यू यॉर्क में वॉचटावर बाइबल स्कूल ऑफ गिलियड के लिए बुलाया गया। फरवरी १९४९ में उस स्कूल की १२वीं क्लास से ग्रेजुएट होने के बाद मुझे बॆलजियम भेजा गया।
मैंने बॆलजियम में सेवकाई के अलग-अलग पहलुओं में सेवा की है, जिसमें मैंने तक़रीबन आठ साल शाखा दफ़्तर में और कई साल सर्किट और ज़िला ओवरसियर की हैसियत से सफ़री काम भी किया। १९५८ में मैंने ज़ूस्टीन से शादी की जो फिर सफ़री काम में मेरी साथी बनी। अब उम्र के तकाज़े के बावजूद एवज़ी सफ़री ओवरसियर की हैसियत से कुछ हद तक जो सेवा कर पाता हूँ उससे मुझे बहुत ख़ुशी मिलती है।
जब मैं पीछे मुड़कर अपनी सेवकाई देखता हूँ तब मैं सचमुच कह सकता हूँ: “सच्चाई से बेहतर और कोई चीज़ नहीं है।” यक़ीनन यह हमेशा आसान तो नहीं था। मैंने अपनी ग़लतियों और भूलों से सीखने की ज़रूरत को महसूस किया है। सो जब मैं जवान लोगों से बात करता हूँ, मैं अकसर उनसे कहता हूँ: “तुम से भी ग़लतियाँ होंगी और शायद गंभीर पाप भी हों मगर उसके बारे में कभी झूठ मत बोलना। अपने माँ-बाप से या एक प्राचीन से उसके बारे में बात करो और फिर ज़रूरी बदलाव करो।”
बॆलजियम में मेरी ५० साल की पूर्ण-समय सेवकाई में जिन लोगों को मैं बचपन से ही जानता था, मुझे उनको प्राचीनों और सर्किट ओवरसियरों की हैसियत में देखने की ख़ुशी मिली। और मैंने यह भी देखा है कि इस देश में १,७०० राज्य प्रचारक अब २७,००० से ज़्यादा हो गए हैं।
मैं यह पूछता हूँ: “क्या यहोवा की सेवा करते हुए जीने से और कुछ बेहतर हो सकता है?” न कभी था, न अभी है और न कभी होगा। मैं यहोवा से प्रार्थना करता हूँ कि लगातार मुझे और मेरी पत्नी को राह दिखाता रहे और आशीष देता रहे जिससे हम उसकी सेवा हमेशा-हमेशा करते रहें।
[पेज 26 पर तसवीर]
१९५८ में शादी के कुछ ही समय बाद अपनी पत्नी के साथ