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आपको किसका विश्वास करना चाहिए?सजग होइए!—2006 | अक्टूबर
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आपको किसका विश्वास करना चाहिए?
“हर एक घर का कोई न कोई बनानेवाला होता है, पर जिस ने सब कुछ बनाया वह परमेश्वर है।”—इब्रानियों 3:4.
क्या आप बाइबल में दी इस दलील से सहमत हैं? यह बात करीब 2,000 साल पहले लिखी गयी थी और तब से इंसान ने विज्ञान के क्षेत्र में बहुत तरक्की देखी है। मगर आज के इस वैज्ञानिक युग में भी क्या लोग मानते हैं कि कुदरत में पायी जानेवाली रचना अपने आप नहीं आ सकती, बल्कि इसके पीछे एक रचनाकार और सिरजनहार का, यानी परमेश्वर का हाथ होगा?
जी हाँ। यहाँ तक कि ऐसे देशों में भी, जहाँ तकरीबन हर कोई वैज्ञानिक जानकारी रखता है, बहुत-से लोग परमेश्वर पर विश्वास रखते हैं। अमरीका की मिसाल लीजिए। सन् 2005 में न्यूज़वीक पत्रिका ने जिन लोगों का सर्वे लिया, उनमें से 80 प्रतिशत ने कहा कि वे “विश्वास करते हैं कि परमेश्वर ने ही इस विश्व को सिरजा है।” क्या ऐसी राय रखनेवाले अनपढ़-गँवार हैं? वैज्ञानिकों के बारे में क्या? क्या ऐसे वैज्ञानिक हैं जो परमेश्वर पर आस्था रखते हैं? विज्ञान की पत्रिका, कुदरत (अँग्रेज़ी) ने सन् 1997 में रिपोर्ट दी कि तकरीबन 40 प्रतिशत जीव-वैज्ञानिक, भौतिक-वैज्ञानिक और गणित-शास्त्री, परमेश्वर के वजूद पर विश्वास रखते हैं। इतना ही नहीं, वे तो यह भी मानते हैं कि परमेश्वर, इंसानों की प्रार्थनाओं को सुनता है और उनका जवाब देता है।
लेकिन दूसरे वैज्ञानिक इस बात से बिलकुल सहमत नहीं हैं। नोबल पुरस्कार विजेता, डॉ. हर्बर्ट ए. हौप्टमैन ने हाल ही में एक विज्ञान सम्मेलन में कहा कि किसी अलौकिक शक्ति में विश्वास करना और खासकर परमेश्वर पर विश्वास करना, सच्चे विज्ञान के एकदम खिलाफ है। उन्होंने आगे कहा: “इस तरह का विश्वास, मानवजाति की बरबादी का सबब बन सकता है।” यहाँ तक कि जो वैज्ञानिक परमेश्वर पर विश्वास रखते हैं, वे भी यह सिखाने से हिचकिचाते हैं कि पौधों और जानवरों में पायी जानेवाली रचना के पीछे एक रचनाकार का हाथ है। आखिर क्यों? ‘स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूट’ के पुराजीव-वैज्ञानिक, डगलस एच. अरविन इसकी एक वजह बताते हैं: “विज्ञान यह नहीं मानता कि किसी अनोखी घटना के पीछे परमेश्वर का हाथ हो सकता है।”
लेकिन ज़रा सोचिए, क्या आपको यह मंज़ूर होगा कि वैज्ञानिक या कोई और आपको बताए कि आपको किस बात पर यकीन करना चाहिए और किस बात पर नहीं? या, क्या आप खुद सबूतों की जाँच करके नतीजा निकालना चाहेंगे? अगले कुछ पन्नों में जब आप विज्ञान की कुछ हाल की खोजों के बारे में पढ़ेंगे, तो अपने आपसे यह सवाल ज़रूर पूछिएगा: ‘क्या इस नतीजे पर पहुँचना सही होगा कि एक सिरजनहार है?’ (g 9/06)
[पेज 3 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
खुद सबूतों की जाँच कीजिए
[पेज 3 पर बक्स]
क्या यहोवा के साक्षी, सृष्टि के सिद्धांत के माननेवाले हैं?
यहोवा के साक्षी, बाइबल की उत्पत्ति किताब में दर्ज़ सृष्टि के ब्यौरे को सच मानते हैं। लेकिन उन्हें सृष्टि के सिद्धांत के माननेवाले (क्रिएशनिस्ट) नहीं कहा जा सकता। क्यों नहीं? क्योंकि इस सिद्धांत के माननेवाले विश्वास करते हैं कि लगभग 10,000 साल पहले, पूरे विश्व और पृथ्वी और उसमें पाए जानेवाले सभी जीवों को 24 घंटेवाले छः दिनों में सिरजा गया था। मगर बाइबल यह बात बिलकुल नहीं सिखाती।a इसके अलावा, इस सिद्धांत के माननेवालों ने ऐसी कई शिक्षाओं को अपनाया है जो बाइबल से नहीं हैं। लेकिन यहोवा के साक्षियों की सभी शिक्षाएँ परमेश्वर के वचन, बाइबल से हैं।
और-तो-और, आज कुछ देशों में शब्द, “सृष्टि के सिद्धांत के माननेवाले” उन कट्टरपंथी गुटों के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं, जो राजनीति में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। ये गुट राजनीति के नेताओं, न्यायाधीशों और शिक्षकों पर दबाव डालते हैं ताकि वे ऐसे कायदे-कानून बनाएँ और शिक्षाएँ दें जो उन गुटों के धार्मिक नियमों से मेल खाती हैं।
यहोवा के साक्षी राजनीति के मामलों में निष्पक्ष रहते हैं। वे यह कबूल करते हैं कि सरकार को कानून बनाने और उन्हें लागू करवाने का अधिकार है। (रोमियों 13:1-7) मगर वे यीशु की इस बात को भी गंभीरता से लेते हैं कि सच्चे मसीही ‘संसार के नहीं हैं।’ (यूहन्ना 17:14-16) जब वे घर-घर प्रचार करने जाते हैं, तो लोगों को यह सीखने का मौका देते हैं कि परमेश्वर के स्तरों के मुताबिक जीने से उन्हें क्या फायदे मिल सकते हैं। मगर वे किसी पर ये स्तर थोपने की कोशिश नहीं करते। ना ही वे उन कट्टरपंथी गुटों का साथ देते हैं जो आम लोगों से ज़बरदस्ती बाइबल के स्तर मनवाने के लिए कानून बनाते हैं। इस तरह, यहोवा के साक्षी अपनी मसीही निष्पक्षता बनाए रखते हैं।—यूहन्ना 18:36.
[फुटनोट]
a कृपया इस अंक के पेज 18 पर दिया यह लेख देखिए, “बाइबल का दृष्टिकोण: क्या विज्ञान, उत्पत्ति की किताब में दिए सृष्टि के ब्यौरे को गलत साबित करता है?”
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कुदरत क्या सिखाती है?सजग होइए!—2006 | अक्टूबर
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कुदरत क्या सिखाती है?
“पशुओं से तो पूछ और वे तुझे दिखाएंगे; और आकाश के पक्षियों से, और वे तुझे बता देंगे। पृथ्वी पर ध्यान दे, तब उस से तुझे शिक्षा मिलेगी; और समुद्र की मछलियां भी तुझ से वर्णन करेंगी।”—अय्यूब 12:7,8.
हाल के कुछ सालों में, वैज्ञानिकों और इंजीनियरों ने सचमुच में पेड़-पौधों और जानवरों से बहुत कुछ सीखा है। वे उनमें पायी जानेवाली रचनाओं का अध्ययन कर रहे हैं और उनकी नकल करके नयी-नयी चीज़ें ईजाद करने और मशीनों को बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं। विज्ञान के इस क्षेत्र को ‘बायोमिमेटिक्स’ कहा जाता है। आइए हम इसकी कुछ मिसालों पर गौर करें। इस दौरान अपने आपसे पूछिए: “इन रचनाओं के लिए सम्मान और तारीफ पाने का असली हकदार कौन है?”
व्हेल के फ्लिपर से सीखना
हम्पबैक व्हेल से हवाई जहाज़ के इंजीनियर क्या सीख सकते हैं? बहुत कुछ। एक हम्पबैक व्हेल का वज़न करीब 30 टन होता है, यानी एक भरी हुई लॉरी के वज़न के बराबर। इसका शरीर लचीला नहीं होता और इसके दोनों तरफ पंख जैसे दो बड़े अंग होते हैं जिन्हें ‘फ्लिपर’ कहते हैं। इस व्हेल की लंबाई 12 मीटर होती है और यह पानी में बहुत फुर्ती से तैरती है। मिसाल के तौर पर, गौर कीजिए कि हम्पबैक व्हेल अपने भोजन के लिए केकड़े, मछली वगैरह का शिकार कैसे करती है। सबसे पहले, वह पानी की गहराई में जाती है और सीधी होकर गोल-गोल घूमते हुए ऊपर की तरफ आती है। ऐसा करते वक्त, वह पानी में बुलबुले छोड़ती है। ये बुलबुले एक जाल की तरह (जिसकी चौड़ाई लगभग 1.5 मीटर होती है) शिकार को फाँस लेते हैं और उन्हें पानी की सतह पर ले आते हैं। फिर हम्पबैक व्हेल अपना मुँह खोलकर चुटकियों में अपने भोजन को निगल लेती है।
खोजकर्ताओं को खासकर इस बात ने चक्कर में डाल दिया है कि व्हेल का शरीर लचीला न होने के बावजूद भी वह इतने कम घेरे में कैसे घूम सकती है। उन्होंने इसका राज़ पता कर लिया है कि वह ऐसा अपने फ्लिपर के आकार की वजह से कर पाती है। फ्लिपर के आगे का हिस्सा, हवाई जहाज़ के पंख की तरह समतल नहीं होते। इसके बजाय, ये दाँतेदार होते हैं और इन पर कई गाँठें नज़र आती हैं जिन्हें ‘ट्यूबरकल्स्’ कहा जाता है।
जब व्हेल पानी में तैरती है, तो ये ट्यूबरकल्स् उसे ऊपर उठाती हैं और पानी के उस दबाव को कम करती हैं जो उसे नीचे की ओर खींचता है। लेकिन ट्यूबरकल्स् यह काम ठीक-ठीक कैसे करती हैं? नैचुरल हिस्ट्री पत्रिका समझाती है कि ट्यूबरकल्स् की वजह से पानी, फ्लिपर के चारों तरफ गोल-गोल घूमता है और इससे व्हेल को ऊपर उठने में मदद मिलती है, उस वक्त भी जब वह सीधी होकर तैरती है। अगर फ्लिपर का किनारा दाँतेदार न होता, तो पानी फ्लिपर के चारों तरफ नहीं घूमता और इससे व्हेल भी ऊपर नहीं उठ पाती।
क्या यह खोज इंसान के किसी काम आ सकती है? आम तौर पर हवाई जहाज़ में तरह-तरह के यंत्र होते हैं जो हवा के बहाव को काबू में रखते हैं, जैसे उसके पंखों में लगे फ्लैप, वगैरह। लेकिन अगर इन पंखों को हम्पबैक व्हेल के फ्लिपर की तरह बनाया जाए, तो ऐसे यंत्रों की कम-से-कम ज़रूरत पड़ेगी। इतना ही नहीं, दुर्घटना होने की गुंजाइश कम होगी और पंखों का रख-रखाव करना आसान होगा। बायोमेकैनिक्स विशेषज्ञ, जॉन लॉन्ग मानते हैं कि वह दिन अब दूर नहीं जब “हम हर हवाई जहाज़ में वैसे ही गाँठें देखेंगे जैसे हम्पबैक व्हेल के फ्लिपर पर पायी जाती हैं।”
समुद्री पक्षी के पंखों की नकल करना
बेशक, इंजीनियरों ने पक्षियों के पंखों की नकल करके हवाई जहाज़ के पंख बनाए हैं। मगर हाल ही में उन्होंने इस मामले में और भी तरक्की की है। न्यू साइंटिस्ट पत्रिका कहती है: ‘फ्लोरिडा के विश्वविद्यालय के खोजकर्ताओं ने 24 इंचवाले विमान का एक मॉडल तैयार किया है जो रिमोट से चलता है और समुद्री पक्षी की तरह चक्कर काट सकता, गोता खा सकता और तेज़ी से उड़ान भर सकता है।’
समुद्री पक्षी हवा में उड़ते वक्त, कोहनी और कंधों के जोड़ की मदद से अपने पंखों को ऊपर-नीचे करके क्या ही शानदार कलाबाज़ियाँ दिखाते हैं। पत्रिका कहती है कि इन लचीले पंखों की नकल करने के लिए “विमान के पंखों में लोहे की छड़ें और उन्हें हिलाने के लिए एक छोटी मोटर लगायी गयी।” इन पंखों की बेमिसाल कारीगरी की वजह से यह छोटा-सा विमान ऊँची-ऊँची इमारतों के ऊपर चक्कर काट सकता है और उनके बीच में से गोता खाते हुए भी उड़ सकता है। एक देश की वायु-सेना इस तरह के विमान को बेहतर बनाने के लिए बहुत उत्सुक है क्योंकि वह उनका इस्तेमाल बड़े-बड़े शहरों में रासायनिक या जैविक हथियार ढूँढ़ने के लिए करना चाहती है।
छिपकली के पंजों की नकल करना
इंसान ज़मीन पर रहनेवाले जानवरों से भी बहुत कुछ सीख सकता है। छिपकली की मिसाल लीजिए। वह दीवारों पर चढ़ सकती है और छतों पर उलटी लटक सकती है। छिपकली की इस काबिलीयत का राज़ क्या है जो गुरुत्वाकर्षण बल को भी बेअसर कर देती है?
छिपकली के पंजों में किसी तरह का गोंद नहीं होता बल्कि उनमें छोटे-छोटे रोएँ होते हैं। इसलिए वह शीशे जैसी चिकनी सतह पर भी आसानी से चढ़ सकती है। जब छिपकली किसी सतह के संपर्क में आती है, तो पंजों और सतह में मौजूद अणुओं के बीच ‘वान्डर वाल’ नाम की कमज़ोर शक्तियाँ पैदा होती हैं जो छिपकली को सतह से चिपकाए रखती हैं। आम तौर पर गुरुत्वाकर्षण बल इन शक्तियों से ज़्यादा प्रबल होता है, इसलिए एक इंसान दीवार पर हाथ रखकर नहीं चढ़ सकता। लेकिन छिपकली अपने रोओं की वजह से गुरुत्वाकर्षण बल को बेअसर कर देती है। उसके पंजों में मौजूद हज़ारों रोएँ जब किसी दीवार के संपर्क में आते हैं, तो ‘वान्डर वाल’ शक्तियाँ इतनी ज़बरदस्त हो जाती हैं कि ये पूरे छिपकली का वज़न दीवार से चिपकाए रखती हैं।
इस खोज को किस तरह इस्तेमाल किया जा सकता है? छिपकली के पंजों की नकल करके ऐसी कृत्रिम चीज़ें बनायी जा सकती हैं जो वैलक्रो की जगह काम आ सकें। दरअसल वैलक्रो को भी कुदरत की नकल करके ही बनाया गया था।a दी इकॉनमिस्ट पत्रिका में एक खोजकर्ता ने कहा कि “अगर ऐसी पट्टी बनायी जाए जिसकी बनावट छिपकली के पंजों के रोएँ जैसी हो,” तो यह “मरहम-पट्टी करने में बहुत काम आ सकती है, खासकर तब जब ऐसी पट्टियाँ इस्तेमाल नहीं की जा सकतीं जिनमें गोंद होता है।”
कौन सम्मान पाने का हकदार है?
फिलहाल, ‘राष्ट्रीय वैमानिकी और अंतरिक्ष प्रशासन’ (नासा) कई पैरोंवाला रोबोट तैयार करने में जुटा हुआ है जो देखने-चलने में एक बिच्छू की तरह होगा। फिनलैंड के इंजीनियरों ने तो छः पैरोंवाले कीड़े की नकल करके एक ट्रैक्टर बनाया है, जो रास्ते में आनेवाली हर रुकावट को पार कर सकता है। दूसरे खोजकर्ताओं ने गौर किया है कि कैसे चीड़ पेड़ के शंकु मौसम के बदलने से खुलते-बंद होते हैं। इसी जानकारी के आधार पर उन्होंने ऐसा कपड़ा तैयार किया है जो बदलते मौसम में पहननेवाले को आराम दे सके। एक कार बनानेवाली कंपनी ने ऐसी गाड़ी तैयार की है जो दिखने में हू-ब-हू बॉक्सफिश नाम की मछली की तरह है। बॉक्सफिश के शरीर की बनावट की वजह से उस पर सामने से पानी का कम दबाव (low-drag) आता है और वह आसानी से तैर पाती है। कुछ और खोजकर्ता, समुद्री शंख (ऐबालोन) पर अध्ययन कर रहे हैं जिसकी एक खासियत यह है कि वह झटके सह सकता है। उनका मानना है कि इस खोजबीन से वे हलका और मज़बूत बुलेटप्रूफ जैकेट बना पाएँगे।
कुदरत की रचनाओं का अध्ययन करके खोजकर्ताओं को ढेरों बढ़िया जानकारी मिली है और उन्होंने इन्हें कंप्यूटर में लिख लिया है। दी इकॉनमिस्ट पत्रिका कहती है कि अब अगर वैज्ञानिक “अपनी किसी रचना पर काम करते वक्त मुश्किल का सामना करते हैं, तो वे कुदरत से [ली जानकारी में] इसका हल ढूँढ़ सकते हैं।” खोजकर्ताओं का कहना है कि इन तमाम जानकारी का “पेटेंट अधिकार जीव-जंतुओं को मिलना चाहिए।” आम तौर पर पेटेंट अधिकार एक ऐसे इंसान या कंपनी को दिया जाता है जो कोई नयी तरकीब या मशीन की ईजाद करती है। यानी वह अपनी ईजाद को कैसे इस्तेमाल करना चाहती है, इसका पूरा अधिकार सरकार से हासिल करती है। इस बारे में दी इकॉनमिस्ट कहती है: “यह कहकर कि बायोमिमेटिक्स की रचनाओं का ‘पेटेंट अधिकार जीव-जंतुओं को मिलना चाहिए,’ खोजकर्ता दरअसल यही कबूल कर रहे हैं कि कुदरत इन रचनाओं का असली हकदार है।”
लेकिन, कुदरत को एक-से-बढ़कर-एक रचनाएँ सूझी कैसे? बहुत-से खोजकर्ता मानते हैं कि अरबों-खरबों सालों के दौरान हुए विकास की बदौलत ही आज कुदरत में इतनी कमाल की रचनाएँ पायी जाती हैं। मगर दूसरे खोजकर्ता कुछ और ही कहते हैं। उदाहरण के लिए, सूक्ष्म-जीव वैज्ञानिक माइकल बीही ने सन् 2005 में द न्यू यॉर्क टाइम्स अखबार में यह कहा: “[कुदरत में] पायी जानेवाली रचनाएँ एक सीधी मगर ज़बरदस्त दलील पेश करती हैं: जैसे अँग्रेज़ी में लोग कहते हैं कि अगर एक जानवर देखने, चलने और सुनने में बत्तख जैसा है, और ऐसा कोई ठोस सबूत नहीं कि यह कोई दूसरा जानवर है, तो वह जानवर बत्तख ही होगा।” बीही के कहने का क्या मतलब था? “अगर यह बात साफ नज़र आए कि कुदरत की हर चीज़ अपने आप नहीं आयी बल्कि इसे रचा गया था, तो इस सच्चाई को नज़रअंदाज़ करना सही नहीं होगा।”
आप इस बात से सहमत होंगे कि अगर एक इंजीनियर, हवाई जहाज़ के लिए ऐसे पंख तैयार करता है जो पहले से ज़्यादा सुरक्षित और बेहतर हों, तो बेशक इस रचना के लिए उसे सम्मान मिलना चाहिए। उसी तरह, ऐसे लोग भी सम्मान पाने के हकदार हैं जो तरह-तरह के इलाज में काम आनेवाली पट्टी, आराम देनेवाले कपड़े या बेहतरीन तरीके से चलनेवाली गाड़ी की ईजाद करते हैं। लेकिन जब एक इंसान किसी कारीगर की रचना की नकल करके उसे उसके लिए श्रेय नहीं देता, तो असल में वह एक अपराधी ठहरता है।
तो फिर, जब खोजकर्ता कुदरत की रचनाओं की नकल करते हैं और उनके असली कारीगर को श्रेय देने के बजाय यह कहते हैं कि इनका विकास हुआ है, तो क्या आपको उनकी बात में कोई तुक नज़र आता है? अगर किसी रचना की नकल करने के लिए एक बुद्धिमान कारीगर की ज़रूरत है, तो क्या असली रचना के लिए बुद्धिमान कारीगर की ज़रूरत नहीं होगी? आप ही बताइए, किसे ज़्यादा सम्मान मिलना चाहिए, कारीगर को या उसके शागिर्द को जो उससे काम करने का तरीका सीखता है?
एक सही नतीजा
इन सबूतों की जाँच करने के बाद कि कुदरत की चीज़ों को रचा गया है, बहुत-से लोग भजनहार की तरह महसूस करते हैं जिसने लिखा: “हे यहोवा तेरे काम अनगिनित हैं! इन सब वस्तुओं को तू ने बुद्धि से बनाया है; पृथ्वी तेरी सम्पत्ति से परिपूर्ण है।” (भजन 104:24) बाइबल का एक लेखक, पौलुस भी इसी नतीजे पर पहुँचा। उसने लिखा: “क्योंकि [परमेश्वर के] अनदेखे गुण, अर्थात् उस की सनातन सामर्थ, और परमेश्वरत्व जगत की सृष्टि के समय से उसके कामों के द्वारा देखने में आते हैं।”—रोमियों 1:19,20.
लेकिन बहुत-से नेकदिल लोग, जो बाइबल का आदर करते और परमेश्वर पर विश्वास रखते हैं, शायद कहें कि परमेश्वर ने कुदरत की अद्भुत चीज़ों को रचने के लिए विकासवाद का इस्तेमाल किया होगा। मगर इस बारे में बाइबल क्या सिखाती है? (g 9/06)
[फुटनोट]
a गोखरू नाम के काँटेदार पौधों के बीजों को देखकर ही वैलक्रो तैयार किया गया था। यह नाइलॉन की दो पट्टियाँ हैं जो एक-दूसरे के संपर्क में आने से चिपक जाती हैं।
[पेज 5 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
कुदरत को एक-से-बढ़कर-एक रचनाएँ सूझी कैसे?
[पेज 6 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
कुदरत पर किसका पेटेंट अधिकार है?
[पेज 7 पर बक्स/तसवीरें]
अगर किसी रचना की नकल करने के लिए एक बुद्धिमान कारीगर की ज़रूरत है, तो क्या असली रचना के लिए बुद्धिमान कारीगर की ज़रूरत नहीं होगी?
समुद्री पक्षी के लचीले पंखों की नकल करके यह विमान तैयार किया गया है
छिपकली के पंजे न तो गंदे होते हैं, ना ही ये निशान छोड़ते हैं। ये टेफलॉन को छोड़ किसी भी सतह पर बड़ी आसानी से चिपक सकते या उससे अलग हो सकते हैं। खोजकर्ता इन पंजों की नकल करने की कोशिश में लगे हुए हैं
बॉक्सफिश के शरीर की बनावट की वजह से उस पर सामने से पानी का कम दबाव आता है और वह आसानी से तैर पाती है। इसी बनावट को देखकर एक गाड़ी तैयार की गयी है
[चित्रों का श्रेय]
हवाई जहाज़: Kristen Bartlett/ University of Florida; छिपकली का पंजा:Breck P. Kent; बॉक्स फिश और गाड़ी: Mercedes-Benz USA
[पेज 8 पर बक्स/तसवीरें]
रास्ता ढूँढ़ने में सहज-बुद्धि का इस्तेमाल
धरती पर ऐसे बहुत-से जीव-जंतु हैं जो सहज-बुद्धि से अपना रास्ता ढूँढ़ लेते हैं। इसकी दो मिसालें लीजिए।
◼ चींटियों की आवा-जाही व्यवस्था खाने की तलाश में निकलनेवाली चींटियाँ वापस अपने घर का रास्ता कैसे ढूँढ़ लेती हैं? ग्रेट ब्रिटेन और उत्तरी आयरलैंड के खोजकर्ताओं ने पता लगाया है कि कुछ चींटियाँ रास्ते-भर अपनी खुशबू छोड़ने के अलावा एक और तरकीब अपनाती हैं। वे रेखागणित (geometry) का इस्तेमाल करके ऐसे रास्ते बनाती हैं जिनसे उनके लिए घर लौटना आसान होता है। मिसाल के लिए, फेरो नाम की चींटियों के बारे में न्यू साइंटिस्ट पत्रिका कहती है कि वे “अपने घर से निकलकर 50 से 60 डिग्री के कोण के दो अलग रास्ते बनाती हैं और हर रास्ते पर इसी तरह के दो रास्ते बनाती जाती हैं। ऐसा करके वे रास्तों का एक बड़ा जाल बिछाती हैं।” इस जाल में ऐसी क्या खास बात होती है? जब एक चींटी अपने घर की तरफ लौट रही होती है और उसके सामने 50 से 60 डिग्री के कोण के दो अलग रास्ते आते हैं, तो चींटी सहज-बुद्धि से वह रास्ता चुनती है जो ज़्यादा नहीं मुड़ता और बिना घुमा-फिराकर उसे सीधे घर पहुँचाता है। पत्रिका आगे कहती है: “रेखागणित का इस्तेमाल करने से चींटियाँ रास्तों पर और भी तरतीब से चल पाती हैं, तब भी जब सामने से दूसरी चींटियाँ आ रही होती हैं। साथ ही, इससे हर चींटी की ताकत कम खर्च होती है क्योंकि वह गलत रास्ते पर नहीं भटकती।”
◼ पक्षियों में पाए जानेवाले दिशा यंत्र बहुत-से प्रवासी पक्षी, दूर-दूर तक का सफर करते वक्त और अलग-अलग जगहों के मौसम में भी ठीक अपनी मंज़िल तक पहुँच जाते हैं। मगर कैसे? खोजकर्ताओं ने ढूँढ़ निकाला है कि वे पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का पता लगाकर ऐसा कर पाते हैं। लेकिन विज्ञान (अँग्रेज़ी) पत्रिका कहती है कि “अलग-अलग जगहों पर [पृथ्वी के] चुंबकीय क्षेत्र की रेखाओं में फर्क होता है और इनसे हमेशा उत्तर की दिशा का पता नहीं चलता।” तो क्या बात प्रवासी पक्षियों को गलत दिशा में भटकने से रोकती है? ऐसा मालूम होता है कि पक्षियों में एक किस्म का अंदरूनी दिशा यंत्र (compass) होता है और हर शाम सूरज ढलने पर वे अपने यंत्र का तालमेल बिठाते हैं ताकि सही दिशा का पता लगा सकें। लेकिन सूर्यास्त की स्थिति, अक्षांश रेखा (latitude) और ऋतुओं के हिसाब से बदलती रहती है। विज्ञान पत्रिका के मुताबिक, खोजकर्ताओं का मानना है कि ऐसे में दिशा का पता लगाने के लिए प्रवासी पक्षी “अपने अंदर मौजूद एक किस्म की कुदरती घड़ी की मदद लेते हैं जो उन्हें यह भी बताती है कि साल की कौन-सी ऋतु चल रही है।”
ज़रा सोचिए, चींटियों को रेखागणित की समझ किसने दी? किसने पक्षियों में दिशा यंत्र और कुदरती घड़ी लगायी और इनसे मिलनेवाली जानकारी को समझने के लिए बुद्धि दी? विकासवाद ने या एक बुद्धिमान सिरजनहार ने?
[चित्र का श्रेय]
© E.J.H. Robinson 2004
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क्या परमेश्वर ने जीवन को शुरू करने के लिए विकासवाद का इस्तेमाल किया था?सजग होइए!—2006 | अक्टूबर
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क्या परमेश्वर ने जीवन को शुरू करने के लिए विकासवाद का इस्तेमाल किया था?
“हे हमारे प्रभु, और परमेश्वर, तू ही महिमा, और आदर, और सामर्थ के योग्य है; क्योंकि तू ही ने सब वस्तुएं सृजीं और वे तेरी ही इच्छा से थीं, और सृजी गईं।”—प्रकाशितवाक्य 4:11.
जब चार्ल्स डार्विन ने विकासवाद के सिद्धांत को पूरी दुनिया में मशहूर कर दिया, तो ईसाई कहलानेवाले कई समूहों ने भी इस सिद्धांत को मान लिया। और फिर उन्होंने परमेश्वर पर अपने विश्वास और इस सिद्धांत के बीच मेल बिठाने की कोशिश की।
आज, “ईसाई” होने का दावा करनेवाले कई जाने-माने समूह मानते हैं कि परमेश्वर ने जीवन को शुरू करने के लिए किसी-न-किसी तरीके से विकासवाद का इस्तेमाल किया होगा। ऐसे समूह सिखाते हैं कि परमेश्वर ने विश्व को बनाने की योजना कुछ इस तरह से की कि निर्जीव रसायनों से जीव-जंतुओं का विकास हो और धीरे-धीरे वे इंसान में बदल जाएँ। इस शिक्षा को ‘ईश्वरवादी विकासवाद’ कहा जाता है। इसके माननेवाले कुछ लोगों का कहना है कि परमेश्वर ने मूल पदार्थ की रचना करने के बाद जब विकास का सिलसिला शुरू किया, तो आगे उसने उसमें कोई दखल नहीं दिया। औरों का मानना है कि परमेश्वर ने पौधों और जानवरों की ज़्यादातर जातियों को अपने आप विकसित होने दिया, मगर उनके विकास में मदद करने के लिए कभी-कभार दखल दिया।
विकासवाद और परमेश्वर पर विश्वास —क्या इन दोनों शिक्षाओं का वाकई कोई मेल है?
क्या विकासवाद के सिद्धांत और बाइबल की शिक्षाओं के बीच वाकई कोई मेल हो सकता है? एक पल के लिए मान लीजिए कि विकासवाद का सिद्धांत सच है। तो फिर इसका यह मतलब हुआ कि बाइबल में पहले इंसान, आदम की सृष्टि का ब्यौरा महज़ एक कहानी है, जिससे हम सही-गलत के बारे में बस एक अच्छा सबक सीख सकते हैं और कुछ नहीं। (उत्पत्ति 1:26,27; 2:18-24) लेकिन क्या यीशु ने इस ब्यौरे को महज़ एक कहानी माना था? गौर कीजिए कि उसने क्या कहा: “क्या तुम ने नहीं पढ़ा, कि जिस ने उन्हें बनाया, उस ने आरम्भ से नर और नारी बनाकर कहा। कि इस कारण मनुष्य अपने माता पिता से अलग होकर अपनी पत्नी के साथ रहेगा और वे दोनों एक तन होंगे? सो वे अब दो नहीं, परन्तु एक तन हैं: इसलिये जिसे परमेश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग न करे।”—मत्ती 19:4-6.
यीशु ने यहाँ उत्पत्ति अध्याय 2 में दिए सृष्टि के ब्यौरे का हवाला दिया जिसमें दुनिया की सबसे पहली शादी का ज़िक्र है। अगर यीशु की नज़र में यह शादी सिर्फ एक कोरी कल्पना होती, तो क्या वह इसका हवाला देकर लोगों को सिखाता कि शादी एक पवित्र बंधन है? हरगिज़ नहीं। यीशु ने उत्पत्ति में दिए ब्यौरे का ज़िक्र इसलिए किया क्योंकि वह जानता था कि यह एक सच्ची घटना थी।—यूहन्ना 17:17.
यीशु के चेलों ने भी उत्पत्ति में दिए सृष्टि के ब्यौरे को सच्चा माना था। मिसाल के तौर पर लूका को लीजिए। उसकी सुसमाचार की किताब में, यीशु की वंशावली दी गयी है जो पहले इंसान, आदम से शुरू होती है। (लूका 3:23-38) अगर हम आदम को एक काल्पनिक किरदार कहें, तो सवाल यह उठता है कि इस वंशावली में आदम से लेकर किस पूर्वज तक की सूची काल्पनिक है? अगर इस वंशावली का पहला पूर्वज ही काल्पनिक है, तो क्या यीशु के इस दावे पर भरोसा किया जा सकता है कि वही वह मसीहा है जो भविष्यवाणी के मुताबिक दाऊद के खानदान से आता? (मत्ती 1:1) सुसमाचार के लेखक, लूका ने कहा कि उसने “सब बातों का सम्पूर्ण हाल आरम्भ से ठीक ठीक जांच करके” लिखा है। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि उसे उत्पत्ति में दिए सृष्टि के ब्यौरे पर यकीन था।—लूका 1:3.
प्रेरित पौलुस भी उत्पत्ति के ब्यौरे को सच मानता था, तभी तो उसे यीशु पर विश्वास था। उसने लिखा: “क्योंकि जब मनुष्य के द्वारा मृत्यु आई; तो मनुष्य ही के द्वारा मरे हुओं का पुनरुत्थान भी आया। और जैसे आदम में सब मरते हैं, वैसा ही मसीह में सब जिलाए जाएंगे।” (1 कुरिन्थियों 15:21,22) अगर आदम सचमुच सारी मानवजाति का पूर्वज नहीं था जिसके ज़रिए “पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई,” तो फिर उसके पाप के अंजामों को मिटाने के लिए यीशु को अपनी जान देने की क्या ज़रूरत थी?—रोमियों 5:12; 6:23.
उत्पत्ति किताब में दिए सृष्टि के ब्यौरे को नकारने से हम मसीही विश्वास की बुनियाद को ही कमज़ोर कर रहे होंगे। विकासवाद के सिद्धांत और मसीह की शिक्षाओं को मिलाना नामुमकिन है। अगर इन्हें मिलाने की कोशिश की जाए, तो इसका अंजाम बस ऐसी धारणा होगी जो टिक नहीं सकेगी बल्कि ‘उपदेश की, हर एक बयार से उछाली, और इधर-उधर घुमायी’ जाएगी।—इफिसियों 4:14.
एक पक्की बुनियाद पर टिका विश्वास
बाइबल की सदियों से नुक्ताचीनी की गयी है और उस पर कई इलज़ाम लगाए गए हैं। लेकिन हर बार, बाइबल एक सच्ची किताब साबित हुई है। बाइबल में इतिहास, स्वास्थ्य और विज्ञान से ताल्लुक रखनेवाली जो भी जानकारी दी गयी है, वह सौ-फीसदी सच पुख्ता हुई है। इंसानी रिश्तों के बारे में इसकी सलाह भरोसेमंद और हर दौर के लिए फायदेमंद है। इंसानी तत्त्वज्ञान और धारणाएँ, हरी घास की तरह हैं जो वक्त के साथ-साथ मुर्झा जाती हैं, मगर उसके बिलकुल उलट, परमेश्वर का वचन ‘सदैव अटल रहता है।’—यशायाह 40:8.
विकासवाद की शिक्षा, सिर्फ विज्ञान का एक सिद्धांत नहीं है। दरअसल यह एक इंसानी तत्त्वज्ञान है जो दशकों से बढ़कर पूरी दुनिया में फैल गया है। लेकिन हाल के सालों में, खुद डार्विन की विकासवाद की शिक्षा का भी धीरे-धीरे विकास हुआ है या यूँ कहें कि इसमें बहुत बड़ा बदलाव आया है। वह कैसे? जब इस बात के ढेरों सबूत मिलने लगे कि कुदरत की रचनाओं के पीछे एक महान कारीगर का हाथ है, तो उन सबूतों को गलत ठहराने के इरादे से, विकासवाद की शिक्षा में फेरबदल किए गए हैं। हम आपको न्यौता देते हैं कि आप उन सबूतों की जाँच करें। इसके लिए आप इस अंक के बाकी लेखों को पढ़ सकते हैं। इसके अलावा, इस पेज पर और पेज 32 पर जिन साहित्य के नाम दिए गए हैं, उन्हें भी आप पढ़ सकते हैं।
इस विषय पर छानबीन करने के बाद, इस बात पर आपका यकीन बढ़ जाएगा कि बाइबल में दर्ज़ बीते ज़माने की घटनाएँ एकदम सच्ची हैं। यही नहीं, भविष्य के बारे में बाइबल जो वादे करती है, उन पर भी आपका विश्वास मज़बूत होगा। (इब्रानियों 11:1) साथ ही, आपका दिल यहोवा का गुण गाने और उसकी महिमा करने के लिए उमड़ पड़ेगा जो ‘आकाश और पृथ्वी का कर्त्ता’ है।—भजन 146:6. (g 9/06)
पढ़ने के लिए दूसरे साहित्य
सब लोगों के लिए एक किताब इस ब्रोशर में ऐसी खास मिसालें दी गयी हैं जो बाइबल को एक सच्ची किताब साबित करती हैं
Is There a Creator Who Cares About You? विज्ञान से मिले और भी सबूतों की जाँच कीजिए। यह भी जानिए कि अगर परमेश्वर को हमारी परवाह है, तो उसने इतनी दुःख-तकलीफें क्यों रहने दीं
बाइबल असल में क्या सिखाती है? इस किताब के अध्याय 3 में, इस सवाल का जवाब दिया गया है कि पृथ्वी के लिए परमेश्वर का मकसद क्या है?
[पेज 10 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
यीशु को उत्पत्ति में दिए सृष्टि के ब्यौरे पर विश्वास था। क्या उसका विश्वास गलत था?
[पेज 9 पर बक्स]
विकास क्या है?
“विकास” की एक परिभाषा है: “किसी एक दिशा में होनेवाले बदलाव का सिलसिला।” लेकिन इस शब्द के दूसरे अर्थ भी होते हैं। मिसाल के लिए इसका एक मतलब है, निर्जीव वस्तुओं में होनेवाले बड़े बदलाव, जैसे अंतरिक्ष का फैलना। इसके अलावा, यह शब्द जीवों में होनेवाले छोटे-छोटे बदलाव के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। जैसे, पेड़-पौधों और जानवरों में ये बदलाव तब आते हैं जब वे खुद को वातावरण के हिसाब से ढाल रहे होते हैं, मगर वे एक जाति से दूसरी जाति में नहीं बदलते। लेकिन आम तौर पर “विकास” शब्द का इस्तेमाल यह सिद्धांत समझाने के लिए किया जाता है: जीवन की शुरूआत निर्जीव रसायनों से हुई, जो कोशिकाओं में बदल गए। फिर धीरे-धीरे ये कोशिकाएँ जीव-जंतुओं में तबदील होने लगीं और इनमें से सबसे बुद्धिमान जीव, इंसान का विकास हुआ। इस लेख में जब शब्द, “विकास” या “विकासवाद” का ज़िक्र आता है, तो वे इस आखिरी मतलब की ओर इशारा करते हैं।
[पेज 10 पर चित्र का श्रेय]
अंतरिक्ष की तसवीर: J. Hester and P. Scowen (AZ State Univ.), NASA
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जीव-रसायन वैज्ञानिक से एक मुलाकातसजग होइए!—2006 | अक्टूबर
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जीव-रसायन वैज्ञानिक से एक मुलाकात
माइकल जे. बीही, अमरीका के राज्य, पेन्सिलवेनिया के लीहाइ विश्वविद्यालय में जीव-रसायन के प्रोफेसर हैं। सन् 1996 में उन्होंने एक किताब निकाली थी जिसका नाम था, डार्विन की रहस्यमयी धारणा—विकासवाद को जीव-रसायन की चुनौती (अँग्रेज़ी)। मई 8,1997 की सजग होइए! (अँग्रेज़ी) के श्रृंखला लेखों में, बीही की इसी किताब से हवाले दिए गए थे। उन लेखों का विषय था: “हमारी शुरूआत कैसे हुई?—इत्तफाक से या हमें रचा गया था?” डार्विन की रहस्यमयी धारणा किताब को छपे लगभग दस साल बीत चुके हैं, मगर उन सालों के दौरान विकासवाद को बढ़ावा देनेवाले वैज्ञानिकों ने बीही की दलीलों को गलत साबित करने के लिए काफी जद्दोजेहद की। आलोचकों ने बीही पर यह इलज़ाम लगाया कि उन्होंने अपने धार्मिक विश्वास (बीही एक रोमन कैथोलिक हैं) में अंधे होकर वैज्ञानिकों की तरह सोचना बंद कर दिया है। दूसरों ने कहा कि उसकी दलीलें, विज्ञान के आधार पर नहीं हैं। सजग होइए! के एक लेखक ने प्रोफेसर बीही से बात की और उनसे पूछा कि आखिर, उनके विचारों को लेकर इतनी ज़ोरदार बहस क्यों छिड़ी है।
सजग होइए!: आपको ऐसा क्यों लगता है कि जीवन, एक कुशल दिमाग की कारीगरी है?
प्रोफेसर बीही: जब हम अलग-अलग पुरज़ों से बनी मशीन को कोई जटिल काम करते देखते हैं, तो हम यह नतीजा निकालते हैं कि उस मशीन को बनाया गया है। मिसाल के तौर पर, रोज़ इस्तेमाल होनेवाली मशीनों को ही लीजिए, जैसे घास काटनेवाली मशीन, गाड़ी या इससे भी छोटे यंत्र। मेरी सबसे मनपसंद मिसाल चूहेदानी की है। जब आप देखते हैं कि इसके अलग-अलग पुरज़ों को कैसे एक-साथ जोड़ा गया है ताकि यह चूहा पकड़ने के काम आए, तो आप यही कहेंगे कि यह अपने आप नहीं आयी बल्कि इसे बनाया गया है।
आज विज्ञान, तरक्की के उस मुकाम पर पहुँच गया है, जहाँ उसने पता लगा लिया है कि जीव का सबसे छोटा अंश, अणु कैसे काम करता है। यही नहीं, वैज्ञानिक यह जानकर दाँतों तले उँगली दबा लेते हैं कि इन जीवों में पाए जानेवाले अणु किसी जटिल मशीन से कम नहीं। मिसाल के लिए, एक जीवित कोशिका में कुछ अणु, छोटी-छोटी “लॉरियों” की तरह होते हैं, जो कोशिका के एक कोने से दूसरे कोने तक सामान ढोकर ले जाते हैं। दूसरे अणु, “साइन पोस्ट” की तरह इन “लॉरियों” को दिशा दिखाते हैं कि उन्हें बाएँ मुड़ना चाहिए या दाएँ। कुछ अणु तो कोशिकाओं से ऐसे जुड़े होते हैं, जैसे “जहाज़ के पीछे मोटर” लगा रहता है और कोशिकाओं को तरल पदार्थों में सफर करने में मदद देते हैं। अगर लोग यही जटिल व्यवस्था किसी दूसरी चीज़ में देखेंगे, तो वे इसी नतीजे पर पहुँचेंगे हैं कि उसे रचा गया है। तो फिर अणुओं के बारे में भी यही नतीजा निकालना सही होगा, भले ही डार्विन का सिद्धांत यह दावा क्यों न करे कि इन अणुओं का विकास हुआ था। जब भी हम किसी चीज़ में जटिल व्यवस्था देखते हैं, तो यही कहते हैं कि इसके पीछे किसी कुशल कारीगर का हाथ है। इसलिए हमारा यह कहना भी वाजिब है कि अणुओं की व्यवस्था को किसी बुद्धिमान हस्ती ने बनाया है।
सजग होइए!: आपकी राय में, आपके ज़्यादातर साथी इस बात से सहमत क्यों नहीं हैं कि जीवन, एक कुशल दिमाग की कारीगरी है?
प्रोफेसर बीही: अगर वे मानते कि जीवन, एक कुशल दिमाग की कारीगरी है, तो उन्हें यह भी मानना पड़ता कि यह दिमाग किसी ऐसी हस्ती का है, जो विज्ञान के सिद्धांतों और कुदरत से भी बढ़कर है। और यही बात कबूल करने से कई लोग घबराते हैं। लेकिन मैंने हमेशा यही सीखा है कि वैज्ञानिकों को पहले से कोई धारणा नहीं बना लेनी चाहिए, बल्कि सबूत जो दिखाता है वही मानना चाहिए। मेरी नज़र में ऐसे लोग बुज़दिल हैं जो ठोस सबूत मिलने पर भी, गलत सिद्धांत को छोड़ने से डरते हैं। और वह भी बस इसलिए कि अगर वे मेरी बातों से सहमत होंगे, तो उन्हें उस बुद्धिमान हस्ती पर भी विश्वास करना पड़ेगा।
सजग होइए!: आप ऐसे आलोचकों को क्या जवाब देते हैं जो दावा करते हैं कि एक बुद्धिमान कारीगर पर विश्वास करना, अज्ञानता को बढ़ावा देना है?
प्रोफेसर बीही: हम अज्ञानता की वजह से एक बुद्धिमान कारीगर पर विश्वास नहीं करते। हम इस नतीजे पर इसलिए पहुँचे हैं क्योंकि हम इस बारे में जानते हैं, इसलिए नहीं कि हम इस बारे में कुछ नहीं जानते। डेढ़ सौ साल पहले जब डार्विन ने अपनी किताब, दी ओरिजिन ऑफ स्पीशीज़ छापी थी, तो उस वक्त ज़िंदगी बहुत सीधी-सादी मालूम पड़ती थी। उस ज़माने के वैज्ञानिकों ने सोचा, कोशिका इतनी सरल है कि शायद यह समुद्र के कीचड़ में से निकली हो। लेकिन तब से विज्ञान ने काफी खोज की है और पता लगाया है कि कोशिका बहुत ही जटिल है, इतनी कि 21वीं सदी की कोई भी मशीन इसकी बराबरी नहीं कर सकती। कोशिका की जटिलता चीख-चीखकर यही कहती है कि इसे एक मकसद से बनाया गया है।
सजग होइए!: आप अभी-अभी अणुओं की जटिल व्यवस्था के बारे में बता रहे थे। क्या विज्ञान यह साबित कर पाया है कि प्राकृतिक चुनाव (इसका एक मतलब है, जो ताकतवर है वही संघर्ष करके ज़िंदा रहता है) से कोशिका की जटिल व्यवस्था का विकास हुआ है?
प्रोफेसर बीही: अगर आप विज्ञान के साहित्य में छानबीन करें, तो पाएँगे कि आज तक ऐसा एक भी वैज्ञानिक नहीं रहा जिसने यह समझाने का बीड़ा उठाया हो कि कैसे कोशिका की जटिल व्यवस्था का विकास हुआ है। दस साल पहले जब मेरी किताब छपकर निकली थी, तब ‘विज्ञान की राष्ट्रीय अकादमी’ और ‘विज्ञान की प्रगति के लिए अमरीकी संघ’ जैसे कई वैज्ञानिक संगठनों ने अपने सदस्यों से ज़ोरदार अपील की थी कि वे इस धारणा के खिलाफ सबूत इकट्ठा करें कि जीवन, एक कुशल दिमाग की कारीगरी है। इसके बाद भी किसी वैज्ञानिक ने कुछ नहीं किया।
सजग होइए!: आप उन लोगों को क्या जवाब देते हैं जो कहते हैं कि पौधों या जानवरों के कुछ हिस्सों को ठीक से नहीं रचा गया है?
प्रोफेसर बीही: जब हमें यह पता नहीं रहता है कि पौधों और जानवरों में फलाँ हिस्से या अंग का क्या काम है, तो इसका यह मतलब नहीं कि वे बेकार हैं। मिसाल के लिए, उन अंगों पर गौर कीजिए जिन्हें अवशेष अंग कहा जाता था। एक ज़माना था, जब इन अंगों की वजह से यह माना जाता था कि इंसान का शरीर और दूसरे जीव ठीक से नहीं रचे गए हैं। इन अंगों में से दो हैं, अपेंडिक्स और टांसिल जिन्हें पहले बेकार समझकर, ऑपरेशन के ज़रिए हटाया जाता था। मगर फिर खोजों से पता चला कि ये अंग, शरीर में बीमारियों से लड़ने में एक अहम भूमिका निभाते हैं। तब से इन्हें अवशेष अंग मानना बंद हो गया।
याद रखनेवाली एक और बात यह है कि कुछ जीवों में बदलाव अपने आप से होता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि इन जीवों की शुरूआत इत्तफाक से हुई थी। इसे समझने के लिए मेरी गाड़ी की मिसाल लीजिए। अगर मेरी गाड़ी को कोई नुकसान पहुँचता है या उसके टायर की हवा निकल जाती है, तो मैं यह नहीं कह सकता कि इसका कोई बनानेवाला नहीं था। उसी तरह, इस बात में कोई तुक नहीं कि जीवन और उसमें पाए जानेवाले जटिल अणुओं का विकास हुआ था। (g 9/06)
[पेज 12 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
“मेरी नज़र में ऐसे लोग बुज़दिल हैं जो ठोस सबूत मिलने पर भी, गलत सिद्धांत को छोड़ने से डरते हैं। और वह भी बस इसलिए कि अगर वे मेरी बातों से सहमत होंगे, तो उन्हें उस बुद्धिमान हस्ती पर भी विश्वास करना पड़ेगा”
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क्या विकासवाद सच है?सजग होइए!—2006 | अक्टूबर
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क्या विकासवाद सच है?
एक जाने-माने विकासवादी और वैज्ञानिक, प्रोफेसर रिचर्ड डॉकन्ज़ ने दावा किया: “विकासवाद उतना ही सच है जितना कि सूरज की गरमी।” इसमें कोई शक नहीं कि तरह-तरह के परीक्षणों और खुद इंसान के अनुभव से साबित हुआ है कि सूरज गरम है। लेकिन क्या किसी परीक्षण और इंसानी अनुभव से यह साबित हुआ है कि विकासवाद की शिक्षा सच है?
इस सवाल का जवाब देने से पहले, हमें एक बात साफ-साफ समझने की ज़रूरत है। कई वैज्ञानिकों ने गौर किया है कि समय के गुज़रते, जीवों की नसलों में हलका-सा बदलाव आ सकता है। चार्ल्स डार्विन ने इस बदलाव को “पीढ़ी-दर-पीढ़ी होनेवाली तबदीली” कहा। ऐसे बदलाव सीधे-सीधे देखे गए हैं, इस बारे में परीक्षण किए गए और उनके नतीजों को दर्ज़ किया गया है और पौधों और जानवरों की नसलें पैदा करनेवालों ने भी बड़ी अक्लमंदी से इनका इस्तेमाल किया है।a इसलिए ऐसे बदलावों को सच माना जा सकता है। मगर कई वैज्ञानिकों ने ऐसे हलके बदलावों को “सूक्ष्मविकास” (microevolution) का नाम दिया है। यह नाम देकर वे दावा करते हैं कि ये छोटे-छोटे बदलाव इस बात का सबूत हैं कि एक बहुत ही अलग तरह की घटना घटी थी, जिसे किसी ने नहीं देखा। वैज्ञानिकों ने उस घटना को ‘महाविकास’ (macroevolution) नाम दिया।
तो आप गौर कर सकते हैं कि डार्विन ने ऐसी घटना की बात की जिसे किसी ने घटते नहीं देखा। उसने अपनी मशहूर किताब, दी ओरिजिन ऑफ स्पीशीज़ में लिखा: “मैं नहीं मानता कि पौधों और जीवित प्राणियों को अलग-अलग बनाया गया था, बल्कि वे सब चंद जीवों के वंशज हैं।” डार्विन ने कहा कि अरसों पहले, इन शुरूआती “चंद जीवों” या जिन्हें जीवन का सरल रूप माना जाता था, उनमें “बहुत ही बारीक तबदीलियाँ” हुईं और इस तरह, उनसे पृथ्वी पर लाखों किस्म के जीवों का विकास हुआ। विकासवादी अपने मन-मुताबिक सिखाते हैं कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऐसे छोटे-छोटे बदलाव होते रहने से जीवों में बड़े-बड़े बदलाव आए, जैसे मछलियाँ, जल-थल जंतुओं में तबदील हो गयीं और बंदर, इंसान में। इन बड़े-बड़े बदलावों को ‘महाविकास’ कहा जाता है। कई लोगों को यह धारणा सही लगती है। वे सोचते हैं, ‘अगर एक जाति के जीवों में छोटे-छोटे बदलाव हो सकते हैं, तो फिर लंबे अरसे के दौरान विकास के ज़रिए बड़े-बड़े बदलाव भी ज़रूर हो सकते हैं।’b
महाविकास की शिक्षा इन तीन अहम धारणाओं पर आधारित है:
1. उत्परिवर्तन या जीन में फेरबदल करने (mutations) से ऐसे पदार्थ मिलते हैं जो एक नयी जाति की रचना के लिए ज़रूरी हैं।c
2. प्राकृतिक चुनाव (natural selection) से नयी-नयी जातियाँ बनती हैं।
3. जीवाशम या फॉसिल रिकॉर्ड से इस बात के सबूत मिलते हैं कि पौधों और जानवरों में महाविकास हुआ था।
क्या महाविकास के लिए दिए जानेवाले सबूत इतने ठोस हैं कि इसे सच माना जा सकता है?
क्या उत्परिवर्तन से वाकई नयी जातियाँ बन सकती हैं?
एक पौधे या जानवर की बारीकियाँ, उसके जेनेटिक कोड में लिखी हिदायतों से तय होती हैं। जेनेटिक कोड का मतलब है, आनुवंशिक रूप-रेखा जो हर कोशिका की नाभि (nucleus) में पायी जाती है।d खोजकर्ताओं ने पता लगाया है कि जेनेटिक कोड में उत्परिवर्तन से या अपने आप होनेवाले बदलावों से, पौधों और जानवरों की नसलों में कुछ तबदीलियाँ आ सकती हैं। सन् 1946 में, नोबेल पुरस्कार विजेता और आनुवंशिक उत्परिवर्तन के अध्ययन की शुरूआत करनेवाले, हरमन जे. मलर ने दावा किया: “वैज्ञानिकों ने उत्परिवर्तन के ज़रिए पौधों और जानवरों में छोटे-छोटे बदलाव लाकर उनमें सुधार किए हैं। अगर इंसान ऐसा कर सकता है, तो प्राकृतिक चुनाव से जीवों का भी विकास ज़रूर हुआ होगा।”
जी हाँ, महाविकास की शिक्षा, इस दावे पर आधारित है कि उत्परिवर्तन से न सिर्फ पौधों और जानवरों की नयी जातियाँ बन सकती हैं बल्कि उनका पूरा-का-पूरा नया कुल बन सकता है। क्या इतने बड़े दावे को साबित करने का कोई तरीका है? ध्यान दीजिए कि आनुवंशिक विज्ञान पर, करीब 100 साल तक किया गया अध्ययन क्या दिखाता है।
सन् 1930 के दशक के आखिरी सालों में, वैज्ञानिकों ने गर्मजोशी के साथ यह धारणा अपनायी कि अगर प्राकृतिक चुनाव से, जिसमें उत्परिवर्तन अपने आप होता है, पौधों की नयी जाति पैदा हो सकती है, तो इंसान के किए उत्परिवर्तन से और भी बढ़िया जातियाँ पैदा होनी चाहिए। इस बारे में जर्मनी के ‘मेक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर प्लांट ब्रीडिंग रिसर्च’ में काम करनेवाले एक वैज्ञानिक, वुल्फ-एकहार्ट लौनिग ने एक इंटरव्यू में सजग होइए! को बताया: “इससे ज़्यादातर जीव वैज्ञानिकों, आनुवंशिक वैज्ञानिकों और खासकर पौधों और जानवरों की नसलें पैदा करनेवालों में सनसनी फैल गयी।” लेकिन क्यों? लौनिग, जिन्होंने करीब 28 साल पौधों के जीन में किए जानेवाले फेरबदल का अध्ययन किया है, कहते हैं: “इन खोजकर्ताओं को लगा कि अब वक्त आ गया है कि वे पौधों और जानवरों की नसलें पैदा करने के पुराने तरीके छोड़कर, नयी तरकीबें अपनाएँ। उन्होंने सोचा कि उत्परिवर्तन से वे अच्छे जीन तैयार करके, नए और उम्दा पौधे और जानवर पैदा कर सकते हैं।”e
अमरीका, एशिया और यूरोप के वैज्ञानिकों ने कई खोज कार्यक्रमों की शुरूआत की। इन कार्यक्रमों में उन्होंने ऐसे तरीके इस्तेमाल किए जिनके बारे में उन्होंने वादा किया कि इनसे पौधों और जानवर में विकास तेज़ी से होगा। इन कार्यक्रमों में काफी पैसा खर्च किया गया। मगर 40 से भी ज़्यादा साल तक ज़बरदस्त खोजबीन करने के बाद, क्या नतीजे सामने आए? खोजकर्ता, पेटर फॉन ज़ैंगबूश कहते हैं: “हमने रेडिएशन से उत्परिवर्तन करके पौधों और जानवरों की अच्छी नसलें पैदा करने की खूब कोशिश की। और इसमें बहुत पैसा खर्च किया। फिर भी, हमारी यह कोशिश काफी हद तक नाकाम रही।” लौनिग कहते हैं: “सन् 1980 के आते-आते, दुनिया-भर के वैज्ञानिकों की सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया। पश्चिमी देशों में उत्परिवर्तन के ज़रिए नयी नसलें पैदा करने के बारे में जो अध्ययन किए जा रहे थे, उन्हें भी रोक दिया गया। उत्परिवर्तन से ‘अच्छे जीन तैयार’ करके नसलें पैदा करने की कोशिश ‘नाकाम’ रही, क्योंकि ये नसलें या तो मर गयीं या कुदरती नसलों से भी कमज़ोर निकलीं।”f
लेकिन फिर भी, इससे एक फायदा ज़रूर हुआ है। उत्परिवर्तन पर की गयी करीब 100 साल की खोज और खासकर इस तरीके से नसलें पैदा करने के बारे में 70 साल की खोजबीन से वैज्ञानिक ढेर सारे आँकड़े और जानकारी इकट्ठा कर पाए हैं। इनकी मदद से वे इस बारे में नतीजे निकाल पाए हैं कि क्या उत्परिवर्तन से नयी जाति पैदा की जा सकती है या नहीं। सबूतों की जाँच करने के बाद, लौनिग ने कहा: “उत्परिवर्तन के ज़रिए [पौधों या जानवरों की] मूल जातियों से एक बिलकुल नयी जाति पैदा करना नामुमकिन है। यह बात, 20वीं सदी में किए गए सारे अध्ययन और परीक्षण के नतीजे से मेल खाती है। यहाँ तक कि यह ‘संभाविता के नियम’ (laws of probability) के मुताबिक भी है। इसलिए ‘बार-बार होनेवाले एक ही तरह के बदलाव के नियम’ से ज़ाहिर होता है कि जिन दो जातियों के जीन में फर्क होता है, उनमें ऐसी सीमाएँ होती हैं जिन्हें इत्तफाक से होनेवाले बदलाव भी मिटा नहीं सकता।”
अब ज़रा ऊपर बतायी सच्चाइयों पर गौर कीजिए। अगर ऊँची शिक्षा और बढ़िया ट्रेनिंग हासिल करनेवाले वैज्ञानिक, जीन में फेरबदल करके नयी जातियाँ पैदा नहीं कर पाए हैं, तो भला कुदरत अपने आप बेहतर और नयी जातियाँ कैसे पैदा कर सकती है? अगर खोज दिखाती है कि उत्परिवर्तन के ज़रिए मूल जाति से एक बिलकुल अलग और नयी जाति पैदा नहीं की जा सकती, तो फिर महाविकास ठीक-ठीक कैसे हुआ होगा?
क्या प्राकृतिक चुनाव से नयी जाति बनती है?
डार्विन का मानना था कि जिसे वह प्राकृतिक चुनाव कहता है, उसके तहत वे जीव ज़िंदा रहते हैं जो खुद को वातावरण के हिसाब से ढाल पाते हैं, जबकि दूसरे जीव धीरे-धीरे मर जाते हैं। नए ज़माने के विकासवादी सिखाते हैं कि जब जीवों की अलग-अलग जातियाँ दुनिया में फैलने लगीं और अलग-थलग रहने लगीं, तब प्राकृतिक चुनाव से उन जीवों को फायदा हुआ जिनके जीन में हुए उत्परिवर्तन की वजह से वे अपने नए वातावरण में जीने के काबिल बने। नतीजा, विकासवादी दावा करते हैं कि इन जीवों का धीरे-धीरे विकास होने लगा और आखिरकार, वे एकदम नयी जातियों में तबदील हो गए।
जैसे हमने पहले देखा कि खोज से मिले नतीजे, इस बात के ठोस सबूत देते हैं कि उत्परिवर्तन से न तो पौधों की और ना ही जानवरों की एक बिलकुल नयी जाति पैदा हो सकती है। लेकिन विकासवादियों के पास इस बात का क्या सबूत है कि प्राकृतिक चुनाव में जिन जीवों में उम्दा तरीके से उत्परिवर्तन हुए, उनसे नयी जातियाँ पैदा हुईं? सन् 1999 में, अमरीका की ‘विज्ञान की राष्ट्रीय अकादमी’ (NAS) ने एक ब्रोशर छापा, जिसमें लिखा था: “[नयी जातियों का विकास होता है,] इसकी सबसे ज़बरदस्त मिसाल है, फिंच नाम के पक्षी की 13 जातियाँ, जो गलापगस द्वीप-समूह में पायी जाती हैं। इन्हीं पक्षियों पर डार्विन ने अध्ययन किया था, इसलिए आज ये ‘डार्विन के फिंच’ के नाम से जाने जाते हैं।”
सन् 1970 के दशक में एक खोजकर्ता दल ने, जिसकी अगुवाई पीटर और रोज़मेरी ग्रांट ने की थी, इन पक्षियों पर अध्ययन करना शुरू किया। उन्होंने पाया कि गलापगस द्वीप-समूह में एक साल सूखा पड़ने के बाद, बड़ी चोंचवाले पक्षी ज़िंदा बच गए जबकि छोटी चोंचवाले पक्षी मर गए। दरअसल, इन 13 जातियों के फिंच पक्षियों को खास तौर पर उनकी चोंच के आकार और नाप से पहचाना जाता है। इसलिए खोजकर्ताओं ने माना कि बड़ी चोंचवाले पक्षियों का ज़िंदा बचना, प्राकृतिक चुनाव का एक बड़ा सबूत है। ब्रोशर आगे कहता है: “पीटर और रोज़मेरी ग्रांट ने अनुमान लगाया कि अगर द्वीप-समूह में हर 10 साल में एक बार सूखा पड़ेगा, तो करीब 200 साल में फिंच की एक नयी जाति बन सकती है।”
लेकिन इस ब्रोशर में ऐसी कुछ अहम सच्चाइयाँ नहीं लिखी गयीं, जो काफी शर्मनाक हैं। जिस साल द्वीप-समूह में सूखा पड़ा, उसके बादवाले सालों में दोबारा छोटी चोंचवाले पक्षियों की तादाद बढ़कर, बड़ी चोंचवाले पक्षियों से ज़्यादा हो गयी। इसलिए पीटर ग्रांट और एक ग्रेजुएट विद्यार्थी, लायल गिब्स ने सन् 1987 में, विज्ञान की पत्रिका कुदरत (अँग्रेज़ी) में लिखा कि उन्होंने “प्राकृतिक चुनाव को पलटते देखा है।” सन् 1991 में, ग्रांट ने लिखा कि जब भी आबोहवा में बदलाव आते हैं, तो “जिन पक्षियों पर प्राकृतिक चुनाव का असर पड़ता है, उनकी गिनती घटती-बढ़ती रहती है।” खोजकर्ताओं ने यह भी गौर किया कि फिंच की कुछ अलग-अलग “जातियाँ” आपस में सहवास करती हैं और उनके जो बच्चे पैदा होते हैं, वे अपने माँ-बाप से बेहतर जी पाते हैं। यह देखकर, पीटर और रोज़मेरी ग्रांट इस नतीजे पर पहुँचे कि अगर इसी तरह प्रजनन जारी रहा, तो 200 साल में दो “जातियाँ” मिलकर एक जाति बन जाएँगी।
सन् 1966 में, विकासवाद पर अध्ययन करनेवाले जीव वैज्ञानिक, जॉर्ज क्रिसटफर विलियम्स ने लिखा: “यह बड़े दुःख की बात है कि विकासवाद को समझाने के लिए सबसे पहले प्राकृतिक चुनाव का सिद्धांत ईजाद किया गया। दरअसल, यह सिद्धांत इस बात को समझाने के लिए ज़्यादा ज़रूरी है कि जीव वातावरण के मुताबिक खुद को कैसे ढाल पाते हैं।” सन् 1999 में, विकासवाद के सिद्धांत को बढ़ावा देनेवाले, जैफरी श्वॉट्र्ज़ ने लिखा कि अगर विलियम्स की बात सही है, तो यह मुमकिन है कि अलग-अलग जाति के जीव, प्राकृतिक चुनाव की मदद से बदलते माहौल में ज़िंदा रह रहे हैं, लेकिन “इससे कुछ भी नया नहीं बन रहा है।”
इसमें कोई शक नहीं कि डार्विन के फिंच पक्षियों से “कुछ भी नया” नहीं बन रहा है। फिंच अभी-भी फिंच ही हैं। और यह सच्चाई कि वे आपस में प्रजनन कर रहे हैं, विकासवादियों के उन तरीकों को गलत साबित करती है जिनके आधार पर वे कहते हैं कि एक नयी जाति पैदा होती है। इसके अलावा, यह इस बात का भी पर्दाफाश करती है कि विज्ञान की जानी-मानी संस्थाएँ भी पक्षपाती हो सकती हैं और सबूतों को तोड़-मरोड़कर पेश कर सकती हैं।
क्या फॉसिल रिकॉर्ड महाविकास को सच साबित करता है?
‘विज्ञान की राष्ट्रीय अकादमी’ का ब्रोशर, जिसका ज़िक्र पहले किया गया था, पढ़नेवालों के मन में यह छाप छोड़ता है कि वैज्ञानिकों को इतने फॉसिल मिले हैं कि वे महाविकास को सच साबित करने के लिए काफी हैं। ब्रोशर कहता है: “जब मछली से जल-थल जंतुओं का, जल-थल जंतुओं से रेंगनेवालों का और रेंगनेवालों से स्तनधारियों का, यहाँ तक कि जब बंदर से इंसान का विकास हुआ, तब इनके विकास के दौरान जो तरह-तरह के प्राणी बने, उनके ढेरों फॉसिल मिले हैं। इसलिए यह ठीक-ठीक बताना अकसर मुश्किल है कि एक जाति दूसरी जाति में कब तबदील हो गयी।”
बड़े ताज्जुब की बात है कि यह बयान कितने पक्के यकीन के साथ छापा गया। लेकिन इसमें ताज्जुब की क्या बात है? सन् 2004 की नैशनल जिओग्राफिक पत्रिका ने बताया कि फॉसिल रिकॉर्ड, “विकासवाद की एक ऐसी फिल्म” की तरह है “जिसकी हर 1,000 तसवीरों में से 999 तसवीरें, काट-छाँट के दौरान गुम हो गयी हैं।” तो हर हज़ार में से जो एक-एक “तसवीरें” बची हैं, क्या उनसे वाकई यह साबित किया जा सकता है कि महाविकास हुआ था? आखिर, फॉसिल रिकॉर्ड असल में क्या दिखाते हैं? कट्टर विकासवादी, नायल्ज़ एलड्रेज कबूल करते हैं कि फॉसिल रिकॉर्ड दिखाते हैं कि एक लंबे अरसे से “जानवरों की ज़्यादातर जातियों में एकदम न के बराबर बदलाव हुए।”
दुनिया-भर के वैज्ञानिकों ने आज तक, करीब 20 करोड़ बड़े फॉसिल और अरबों छोटे-छोटे फॉसिल खोद निकाले हैं और उनके रिकॉर्ड तैयार किए हैं। बहुत-से खोजकर्ता इस बात से सहमत हैं कि इतने सारे ब्यौरेदार रिकॉर्ड दिखाते हैं कि जानवर के सभी खास समूह अचानक वजूद में आए और उनमें लगभग कोई बदलाव नहीं हुआ, और बहुत-सी जातियाँ जिस तरह अचानक वजूद में आयीं, उसी तरह अचानक लुप्त भी हो गयीं। फॉसिल रिकॉर्ड की जाँच करने के बाद जीव वैज्ञानिक, जॉनथन वेल्स लिखते हैं: “जानवरों को जिन खास समूहों में बाँटा जाता है, जैसे जगत, संघ और वर्ग, उससे साफ ज़ाहिर होता है कि विज्ञान के मुताबिक, यह धारणा सच नहीं कि सभी जीवों की शुरूआत एक ही पूर्वज से हुई। फॉसिल रिकॉर्ड और अणुओं की जटिल व्यवस्था की जाँच करने पर मिले सबूतों से पता चलता है कि इस सिद्धांत का कोई ठोस आधार भी नहीं है।”
विकासवाद—सच या झूठ?
बहुत-से जाने-माने विकासवादी क्यों इस बात पर अड़े हुए हैं कि महाविकास एक सच है? विकासवादी रिचर्ड लवॉनटन ने, जिनका काफी दबदबा है, रिचर्ड डॉकन्ज़ की कुछ दलीलों की निंदा करने के बाद लिखा कि कई वैज्ञानिक, विज्ञान के उन दावों को सच मानने के लिए तैयार हैं जिनमें कोई तुक ही नहीं, क्योंकि “हम सभी वैज्ञानिकों ने यह वादा किया है कि हम बस इसी धारणा को मानेंगे: जो चीज़ें दिखायी देती हैं वही हकीकत हैं और विश्व और उसमें पाए जानेवाले जीवन की शुरूआत के पीछे किसी आलौकिक शक्ति का हाथ नहीं।” यहाँ तक कि कई वैज्ञानिक एक बुद्धिमान रचनाकार के होने की गुंजाइश को मानने से साफ इनकार करते हैं। क्यों? लवॉनटन लिखते हैं: “हमारी दुनिया में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं।”
इस बारे में समाज वैज्ञानिक, रॉडनी स्टार्क ने जो कहा, उसका हवाला देते हुए साइंटिफिक अमेरिकन पत्रिका कहती है: “पिछले 200 सालों से, इस बात को बढ़ावा दिया गया है कि अगर आप विज्ञान के माननेवाले बनना चाहते हैं, तो आपको धर्म की बेड़ियों से आज़ाद होना पड़ेगा।” उन्होंने यह भी कहा कि खोज करनेवाले विश्वविद्यालय में, “धर्म पर आस्था रखनेवाले लोग अपना मुँह बंद रखते हैं,” और “नास्तिक लोग उन्हें नीचा देखते हैं।” स्टार्क के मुताबिक, “[वैज्ञानिकों की बिरादरी में] ऊँचे दर्जे के लोगों में जो नास्तिक होते हैं, उन्हें सिर आँखों पर बिठाया जाता है।”
अगर आप महाविकास की शिक्षा को सच मानना चाहते हैं, तो आपको यह मानना होगा कि अज्ञेयवादी या नास्तिक वैज्ञानिक अपनी खोज में खुद के खयालात मिलाकर नहीं बताएँगे। आपको यह भी यकीन करना होगा कि उत्परिवर्तन और प्राकृतिक चुनाव से हर तरह के जटिल जीव पैदा हुए हैं, इसके बावजूद कि उत्परिवर्तन पर की गयी सौ साल की खोज और इस तरीके से पैदा की गयी अरबों नसलों की जाँच दिखाती है कि उत्परिवर्तन से एक भी ढंग की नयी जाति पैदा नहीं हुई है। इसके अलावा, आपको यह भरोसा करना होगा कि सब जीवों की शुरूआत एक ही पूर्वज से हुई, हालाँकि फॉसिल रिकॉर्ड ज़ोरदार तरीके से इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि पौधों और जानवरों के खास समूह अचानक वजूद में आए और कई अरसों के बीतने पर भी उनका एक से दूसरी जाति में विकास नहीं हुआ। अब बताइए, क्या आपको लगता है कि ये सारी धारणाएँ सच पर आधारित हैं या झूठ पर? (g 9/06)
[फुटनोट]
a कुत्तों की नसलें पैदा करनेवाले विशेषज्ञ, कुत्तों को चुनकर उनका आपस में सहवास कराते हैं ताकि वक्त के गुज़रते ऐसी नसलें पैदा हों जिनके पैर छोटे हों या जिनके बाल उनके पूर्वजों से ज़्यादा लंबे हों। मगर अकसर ये बदलाव जीन में कुछ खराबी की वजह से होते हैं। उदाहरण के लिए, डाक्सहूण्ड नाम के कुत्ते इसलिए बौने पैदा होते हैं क्योंकि उनमें उपास्थि (कार्टिलेज) बराबर बन नहीं पाती।
b हालाँकि इस लेख में शब्द “जाति” का कई बार इस्तेमाल किया गया है, मगर ध्यान दीजिए कि यह विज्ञान से जुड़ा शब्द है। इसमें और बाइबल की किताब, उत्पत्ति में इस्तेमाल किए गए शब्द “जाति” में फर्क है। बाइबल के शब्द “जाति” का मतलब है, “किस्म, प्रकार, वर्ग, तरह-तरह के।” जबकि विज्ञान के शब्द “जाति” का मतलब है, “वंश (genus) का छोटा समूह जिसमें एक-जैसी खासियत और लक्षण रखनेवाले जानवर या पौधे होते हैं।” इसलिए वैज्ञानिक जिसे विकासवाद के ज़रिए पैदा हुई नयी जाति कहते हैं, वह दरअसल बाइबल के शब्द “जाति” के मुताबिक एक किस्म है।
c “जीवों को किन अलग-अलग समूहों में बाँटा जाता है,” बक्स देखिए।
d एक खोज दिखाती है कि एक जीव को बनाने में जेनेटिक कोड के अलावा, कोशिका में पाए जानेवाले कोशिका द्रव्य (cytoplasm), झिल्ली (membranes), और दूसरे सूक्ष्म अंग का भी हाथ होता है।
e इस लेख में लौनिग, ‘मेक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर प्लांट ब्रीडिंग रिसर्च’ की तरफ से राय नहीं दे रहे हैं बल्कि खुद अपनी राय पेश कर रहे हैं।
f उत्परिवर्तन के परीक्षण से बार-बार यही नतीजा सामने आया है कि नसलों में जितने भी नए बदलाव होते हैं, वे बदलाव आगे की नसलों में खत्म होते जाते हैं और आखिरकार, एक ही तरह की नसलें पैदा होती रहती हैं। लौनिग ने इसे “बार-बार होनेवाले एक ही तरह के बदलाव का नियम” (law of recurrent variation) कहा। इसके अलावा, जिन पौधों में उत्परिवर्तन किया गया था, उनमें से 1 प्रतिशत से भी कम पौधों को आगे की जाँच के लिए चुना गया। और इन पौधों में 1 प्रतिशत से भी कम, बाज़ार में बेचने लायक थे। जानवरों में किए उत्परिवर्तन के नतीजे और भी बदतर निकले, इसलिए इस तरीके को पूरी तरह छोड़ दिया गया।
[पेज 15 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
“उत्परिवर्तन के ज़रिए [पौधों या जानवरों की] मूल जातियों से एक बिलकुल नयी जाति पैदा करना नामुमकिन है”
[पेज 16 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
डार्विन के फिंच पक्षियों के अध्ययन से हम एक ज़बरदस्त नतीजा निकाल सकते हैं, वह यह कि जीव की एक जाति बदलते आबोहवा के मुताबिक खुद को ढाल सकती है
[पेज 17 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
फॉसिल रिकॉर्ड के मुताबिक, जानवर के सभी खास समूह अचानक आए और उनमें बदलाव न के बराबर हुए
[पेज 14 पर चार्ट]
(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)
जीवों को किन अलग-अलग समूहों में बाँटा जाता है
जीवों को जाति से लेकर जगत तक, अलग-अलग समूहों में बाँटा गया है।g मिसाल के लिए, इंसान और फल-मक्खी किन समूहों में आते हैं, यह जानने के लिए नीचे दिए चार्ट पर एक नज़र डालिए।
इंसान फल-मक्खी
जाति सेपिएन्स मेलेनोगैस्टर
वंश होमो ड्रॉसोफिला
कुल होमिनिड्स ड्रॉसोफिलिड्स
संघ कार्डेटा आर्थ्रोपोडा
गण प्राइमेट्स द्विपंखी
वर्ग स्तनधारी कीट
जगत जानवर जानवर
[फुटनोट]
g ध्यान दीजिए: उत्पत्ति का पहला अध्याय बताता है कि पेड़-पौधे और जानवर “अपनी अपनी जाति के अनुसार” नसलें पैदा करते हैं। (उत्पत्ति 1:12,21,24,25) मगर बाइबल में इस्तेमाल किया गया शब्द, “जाति” और विज्ञान के शब्द “जाति” में फर्क है।
[चित्र का श्रेय]
यह चार्ट, विकासवाद के सबूत—विज्ञान पर आधारित या झूठ पर? हम विकासवाद के बारे जो कुछ सिखाते हैं वह ज़्यादातर क्यों गलत है (अँग्रेज़ी) किताब से लिया गया है, जिसके लेखक जॉनथन वेल्स हैं।
[पेज 15 पर तसवीरें]
उत्परिवर्तन के ज़रिए पैदा की गयी फल-मक्खी (ऊपरवाली)। हालाँकि उसके पंख वगैरह ठीक से नहीं बन पाए हैं, फिर भी वह फल-मक्खी है
[चित्र का श्रेय]
© Dr. Jeremy Burgess/Photo Researchers, Inc.
[पेज 15 पर तसवीरें]
पौधों में उत्परिवर्तन के परीक्षण से बार-बार यही नतीजा सामने आया है कि नसलों में जितने भी नए बदलाव होते हैं, वे बदलाव आगे की नसलों में खत्म होते जाते हैं और आखिरकार, एक ही तरह की नसलें पैदा होती रहती हैं। (उत्परिवर्तन से तैयार किए गए पौधे का बड़ा फूल है)
[पेज 13 पर चित्र का श्रेय]
From a Photograph by Mrs. J. M. Cameron/U.S. National Archives photo
[पेज 16 पर चित्र का श्रेय]
फिंच पक्षी के सिर: © Dr. Jeremy Burgess/ Photo Researchers, Inc.
[पेज 17 पर चित्र का श्रेय]
डायनोसौर: © Pat Canova/Index Stock Imagery; फॉसिल: GOH CHAI HIN/AFP/Getty Images
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क्या विज्ञान, उत्पत्ति की किताब में दिए सृष्टि के ब्यौरे को गलत साबित करता है?सजग होइए!—2006 | अक्टूबर
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बाइबल का दृष्टिकोण
क्या विज्ञान, उत्पत्ति की किताब में दिए सृष्टि के ब्यौरे को गलत साबित करता है?
बहुत-से लोग दावा करते हैं कि विज्ञान, उत्पत्ति किताब में दिए सृष्टि के ब्यौरे को गलत साबित करता है। लेकिन असल में विज्ञान, बाइबल को नहीं बल्कि उन गुटों की धारणाओं को गलत साबित करता है, जिन्हें ‘कट्टरपंथी मसीही’ कहा जाता है। इनमें से कुछ गुटों का यह झूठा दावा है कि बाइबल के मुताबिक, करीब 10,000 साल पहले सारी सृष्टि की रचना 24 घंटेवाले छः दिनों में की गयी थी।
लेकिन बाइबल ऐसा कुछ नहीं सिखाती है। अगर वह यह सिखाती, तो पिछले सौ से भी ज़्यादा सालों में वैज्ञानिकों ने जितनी खोजबीन की, उनकी रोशनी में बाइबल झूठी साबित होती। मगर बाइबल का गहराई से अध्ययन करने पर ज़ाहिर होता है कि इसमें लिखी बातें, विज्ञान के सबूतों के खिलाफ नहीं हैं। यही वजह है कि क्यों यहोवा के साक्षी, ‘कट्टरपंथी मसीहियों’ और सृष्टि के सिद्धांत के माननेवालों से सहमत नहीं हैं। आगे दी जानकारी दिखाती है कि बाइबल असल में क्या सिखाती है।
“आदि” का क्या मतलब है?
उत्पत्ति की किताब में दिया ब्यौरा, बहुत ही सरल मगर दमदार शब्दों से शुरू होता है: “आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की।” (उत्पत्ति 1:1) बाइबल विद्वान इस बात से एकमत हैं कि इस आयत में जिस काम का ज़िक्र किया गया है, वह सृष्टि के दिनों में किए गए उन कामों से बिलकुल अलग है जिनका ब्यौरा आयत 3 से शुरू होता है। यह बात बहुत ही खास मायने रखती है। बाइबल का पहला वाक्य दिखाता है कि पूरा विश्व यहाँ तक कि हमारी पृथ्वी भी, सृष्टि के दिन शुरू होने से अनिश्चित समय पहले वजूद में आ चुकी थी।
भूवैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि पृथ्वी करीब 4 अरब साल पुरानी है और खगोल वैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया है कि विश्व करीब 15 अरब साल पुराना होगा। क्या विज्ञान की ये खोज, जिनमें आगे चलकर और भी फेरबदल हो सकते हैं, उत्पत्ति 1:1 में लिखी बात को काटती हैं? हरगिज़ नहीं। बाइबल नहीं बताती है कि “आकाश और पृथ्वी” ठीक कितने साल पुराने हैं। और विज्ञान भी बाइबल में लिखी बात को गलत नहीं बताता।
सृष्टि का हरेक दिन कितना लंबा था?
सृष्टि के दिनों के बारे में क्या? क्या इसका हर दिन 24 घंटे का था? उत्पत्ति किताब के लेखक, मूसा ने बाद में जब साप्ताहिक सब्त मनाने का नियम दिया, तो इसका आधार समझाते हुए उसने बताया कि यहोवा ने छः दिन सृष्टि करने के बाद, सातवें दिन विश्राम किया। यही दलील देकर कुछ लोग दावा करते हैं कि सृष्टि का हरेक दिन भी ज़रूर 24 घंटे का रहा होगा। (निर्गमन 20:11) क्या उत्पत्ति में दी जानकारी इस बात को पुख्ता करती है?
जी नहीं। सच तो यह है कि जिस इब्रानी शब्द का अनुवाद “दिन” किया गया है, उसका मतलब सिर्फ 24 घंटे नहीं बल्कि अलग-अलग समय-अवधि भी हो सकती है। मिसाल के लिए, मूसा ने जब परमेश्वर के सृष्टि के कामों का निचोड़ दिया, तो उसने पूरे छः दिनों को एक दिन कहा। (उत्पत्ति 2:4) इसके अलावा, सृष्टि के पहले दिन “परमेश्वर ने उजियाले को दिन और अन्धियारे को रात कहा।” (उत्पत्ति 1:5) इस आयत में, 24 घंटों में से कुछ घंटों के लिए शब्द “दिन” इस्तेमाल किया गया है। इन सब मिसालों से साफ पता चलता है कि बाइबल यह नहीं सिखाती कि सृष्टि का हर दिन 24 घंटे का था बल्कि यह लोगों की दिमागी-उपज है।
तो फिर सवाल उठता है कि सृष्टि के दिन कितने लंबे थे? उत्पत्ति अध्याय 1 और 2 दिखाते हैं कि इसमें काफी लंबी समय-अवधियाँ शामिल थीं।
कुदरत में पायी जानेवाली चीज़ों को एक-एक करके रचा गया
मूसा ने सृष्टि का अपना ब्यौरा, इब्रानी भाषा में लिखा था। उसने इस ब्यौरे को इस अंदाज़ में लिखा मानो एक इंसान सृष्टि के समय, धरती पर मौजूद था और घटनाओं को होते देख रहा था। जब हम इन दो सच्चाइयों को इस बात के साथ जोड़ते हैं कि विश्व, सृष्टि की समय-अवधियों या ‘दिनों’ से बहुत पहले वजूद में था, तो इससे सृष्टि के ब्यौरे को लेकर उठनेवाले ज़्यादातर विवाद मिट जाते हैं। वह कैसे?
अगर हम उत्पत्ति के ब्यौरे की गहराई से जाँच करें, तो हमें पता चलता है कि पहले “दिन” में शुरू हुई घटनाएँ, अगले दिन या उसके बाद के कई दिनों तक चलती रहीं। मिसाल के लिए, सृष्टि के पहले “दिन” की शुरूआत से पहले ही सूरज वजूद में था, मगर शायद घने बादलों की वजह से उसकी किरणें पृथ्वी तक नहीं पहुँच रही थीं। (अय्यूब 38:9) इसलिए पहले “दिन” के दौरान, ये बादल धीरे-धीरे छँटने लगे और सूरज की धुँधली किरणें वायुमंडल को चीरती हुई पृथ्वी पर पहुँचने लगीं।a
दूसरे “दिन,” वायुमंडल साफ होता गया जिससे ऊपर के घने बादलों और नीचे के महासागर के बीच फासला बन गया। चौथे “दिन” तक वायुमंडल इतना खुल गया कि “आकाश के अन्तर में” सूरज और चाँद नज़र आने लगे। (उत्पत्ति 1:14-16) दूसरे शब्दों में कहें तो इंसान अब धरती से सूरज और चाँद को साफ देख सकता था। ये सारी घटनाएँ धीरे-धीरे हुईं।
उत्पत्ति किताब यह भी बताती है कि जैसे-जैसे वायुमंडल खुलने लगा, पाँचवें “दिन” से आकाश में ‘पक्षी’ दिखायी देने लगे। जिस इब्रानी शब्द का अनुवाद ‘पक्षी’ किया गया है, उसमें कीड़े-मकोड़े और चमगादड़ भी शामिल हो सकते हैं। लेकिन बाइबल दिखाती है कि परमेश्वर, छठे “दिन” के दौरान भी ‘भूमि में से सब जाति के बनैले पशुओं, और आकाश के सब भाँति के पक्षियों की रचना’ कर रहा था।—उत्पत्ति 2:19.
इन सारी बातों से साफ है, बाइबल की मूल भाषा में लिखा ब्यौरा इस बात की गुंजाइश छोड़ता है कि हर “दिन” या सृष्टि की समय-अवधि में कुछ खास घटनाएँ अचानक नहीं बल्कि धीरे-धीरे घटी होंगी। और हो सकता है कि कुछ घटनाएँ, सृष्टि के अगले ‘दिनों’ तक भी घटती रहीं।
अपनी-अपनी जाति के अनुसार
इस तरह एक-के-बाद-एक पेड़-पौधों और जानवरों के उभरने का क्या यह मतलब है कि परमेश्वर ने तरह-तरह के जीवों को बनाने के लिए विकासवाद का इस्तेमाल किया था? हरगिज़ नहीं। बाइबल साफ-साफ बताती है कि परमेश्वर ने सभी पेड़-पौधों और जानवरों की मूल ‘जातियाँ’ बनायी थीं। (उत्पत्ति 1:11,12,20-25) क्या उसने इन मूल ‘जातियों’ को इस काबिलीयत के साथ बनाया कि वे पर्यावरण के बदलते हालात के मुताबिक खुद को ढाल सकें? आखिर, “जाति” शब्द का दायरा क्या है? इस बारे में बाइबल कुछ नहीं बताती। लेकिन हाँ, इसमें इतना ज़रूर लिखा है कि ‘जाति जाति के जीव-जंतु भरने लगे।’ (उत्पत्ति 1:21) यह वाक्य दिखाता है कि एक “जाति” में कितना बदलाव आ सकता है, इसकी एक हद है। फॉसिल रिकॉर्ड और नए ज़माने की खोज, दोनों यही साबित करते हैं कि मुद्दतों से, पेड़-पौधों और जानवरों की मूल जातियों में बदलाव ना के बराबर हुए हैं।
कुछ कट्टरपंथी मसीही दावा करते हैं कि विश्व, पृथ्वी और उसमें पाए जानेवाले सभी जीवों की सृष्टि कुछ अरसों पहले, बहुत कम समय के दरमियान हुई थी। मगर बाइबल की किताब, उत्पत्ति यह बिलकुल नहीं सिखाती। इसके बजाय, इसमें विश्व की सृष्टि और पृथ्वी पर जीवन की शुरूआत का जो ब्यौरा दिया गया है, वह हाल ही में वैज्ञानिकों के ज़रिए की गयी खोजों से मेल खाता है।
बहुत-से वैज्ञानिक फलसफों को मानते हैं, इसलिए वे बाइबल की इस बात को नकार देते हैं कि परमेश्वर ने सबकुछ बनाया है। मगर दिलचस्पी की बात है कि बाइबल की प्राचीन किताब, उत्पत्ति में लिखी मूसा की ये बातें विज्ञान के मुताबिक एकदम सही हैं: विश्व की एक शुरूआत हुई थी, पृथ्वी पर सिलसिलेवार ढंग से सभी जीवों को बनाया गया था और वक्त के गुज़रते, धीरे-धीरे उनकी तादाद बढ़ती गयी। लेकिन आज से करीब 3,500 साल पहले, मूसा को यह जानकारी कहाँ से मिली? इसका सिर्फ एक ही सही जवाब है। जिस महान हस्ती ने अपनी शक्ति और बुद्धि से आकाश और पृथ्वी को सिरजा, उसके सिवा कोई और मूसा को इतनी मुद्दतों पहले जानकारी नहीं दे सकता। इससे बाइबल में लिखी यह बात और भी सच साबित होती है कि इसे “परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है।”—2 तीमुथियुस 3:16. (g 9/06)
क्या आपने कभी सोचा है?
◼ परमेश्वर को विश्व बनाने में कितना समय लगा?—उत्पत्ति 1:1.
◼ क्या पृथ्वी को 24 घंटेवाले छः दिनों में सिरजा गया था?—उत्पत्ति 2:4.
◼ मूसा ने पृथ्वी की शुरूआत के बारे में जो लिखा, वह विज्ञान के मुताबिक एकदम सही कैसे हो सकता है?—2 तीमुथियुस 3:16.
[फुटनोट]
a सृष्टि के पहले “दिन” के ब्यौरे में उजियाले के लिए जो इब्रानी शब्द इस्तेमाल किया गया है, वह है ऑर जिसका आम तौर पर मतलब है, रोशनी। लेकिन चौथे “दिन” के ब्यौरे में जो इब्रानी शब्द इस्तेमाल किया गया है, वह है माऑर जिसका मतलब है, ज्योति जिससे रोशनी निकलती है।
[पेज 19 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
उत्पत्ति की किताब यह नहीं सिखाती कि विश्व की सृष्टि कुछ अरसों पहले, बहुत कम समय के दरमियान की गयी थी
[पेज 20 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
“आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की।” —उत्पत्ति 1:1
[पेज 18 पर चित्र का श्रेय]
विश्व: IAC/RGO/David Malin Images
[पेज 20 पर चित्र का श्रेय]
NASA photo
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हम क्यों विश्वास करते हैं कि एक सिरजनहार हैसजग होइए!—2006 | अक्टूबर
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हम क्यों विश्वास करते हैं कि एक सिरजनहार है
विज्ञान की अलग-अलग शाखाओं के बहुत-से विद्वान, कुदरत की रचनाओं से साफ देख पाते हैं कि इनके पीछे एक कुशल कारीगरी का हाथ है। उन्हें यह मानना बेतुका लगता है कि पृथ्वी पर जटिल जीवों की शुरूआत इत्तफाक से हुई। इसलिए बहुत-से वैज्ञानिक और खोजकर्ता विश्वास करते हैं कि एक सिरजनहार है।
इनमें से कुछ, यहोवा के साक्षी बन गए हैं। उन्हें पक्का यकीन है कि बाइबल का परमेश्वर, यहोवा ही विश्व का रचनाकार और बनानेवाला है। वे इस नतीजे पर कैसे पहुँचे? यही सवाल सजग होइए! ने उनसे पूछा। उनके जवाब आगे दिए गए हैं, जो आपको पढ़ने में दिलचस्प लगेंगे।a
“ज़िंदगी की जटिलता को पूरी तरह समझना, इंसान के बस के बाहर है”
◼ वुल्फ-एकहार्ट लौनिग
परिचय: पिछले 28 से ज़्यादा सालों से मैंने विज्ञान के उस क्षेत्र में काम किया है, जिसमें पौधों के जीन में फेरबदल की जाती है। उन सालों में से 21 साल मैंने जर्मनी के कलोन शहर में ‘मेक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर प्लांट ब्रीडिंग रिसर्च’ के लिए काम किया है। इसके अलावा, करीब 30 सालों से मैं यहोवा के साक्षियों की एक मसीही कलीसिया में प्राचीन हूँ।
आनुवंशिक विज्ञान पर खोजबीन करते वक्त, मैंने काफी अध्ययन और परीक्षण किए हैं। साथ ही, मैंने जीव विज्ञान की अलग-अलग शाखाओं पर भी अध्ययन किया है, जैसे शरीर-क्रिया विज्ञान (शरीर और उसके अलग-अलग अंगों के कामों का अध्ययन) और आकृति विज्ञान (जानवरों और पौधों के आकार और बनावट का अध्ययन)। इन अध्ययनों से मुझे एहसास हुआ कि ज़िंदगी की जटिलता को पूरी तरह समझना, इंसान के बस के बाहर है। इन तमाम विषयों पर अध्ययन करने से मेरा यह विश्वास और भी पक्का हो गया कि एक बुद्धिमान हस्ती ने ज़िंदगी की, यहाँ तक कि जीव के छोटे-से-छोटे अंश की भी शुरूआत की है।
सभी वैज्ञानिक अच्छी तरह जानते हैं कि जीवों की बनावट जटिल है। मगर आम तौर पर वे इस जानकारी का इस्तेमाल, विकासवाद को सच साबित करने के लिए करते हैं। लेकिन मेरी राय में, बाइबल में दिए सृष्टि के ब्यौरे को झूठा साबित करने के लिए चाहे जितनी भी दलीलें पेश की जाएँ, जब उनकी जाँच विज्ञान की रोशनी में की जाती है, तो वे सारी दलीलें बेबुनियाद साबित होती हैं। मैंने खुद बरसों से ऐसी दलीलों को परखा है। पौधे और जीव-जंतुओं का गहराई से अध्ययन करने और यह खोज करने के बाद कि कैसे विश्व के नियम धरती पर जीवन को कायम रखते हैं, मैं यह विश्वास करने के लिए कायल हो गया हूँ कि एक सिरजनहार है।
“हर चीज़ के पीछे एक कर्त्ता होता है”
◼ बाइरन लीऑन मेडोस
परिचय: मैं अमरीका में रहता हूँ और ‘राष्ट्रीय वैमानिकी और अंतरिक्ष प्रशासन’ (नासा) के लिए काम करता हूँ। मैं ‘लेसर फिजिक्स’ के क्षेत्र में काम करता हूँ। फिलहाल मैं एक ऐसी तकनीक की ईजाद करने में लगा हूँ जिससे दुनिया-भर के मौसम, आबोहवा और दूसरे ग्रहों पर होनेवाली घटनाओं पर अच्छी तरह नज़र रखी जा सके। मैं वर्जिनिया इलाके के किलमारनक कसबे में, यहोवा के साक्षियों की कलीसिया में एक प्राचीन हूँ।
अपनी खोजबीन के लिए मुझे अकसर भौतिक विज्ञान के सिद्धांतों को इस्तेमाल करना पड़ता है। मैं हमेशा यह समझने की कोशिश करता हूँ कि फलाँ घटना क्यों और कैसे होती है। मैं जिस क्षेत्र में काम करता हूँ, उसमें मैंने साफ-साफ देखा है कि हर चीज़ के पीछे एक कर्त्ता होता है। और मेरा मानना है कि विज्ञान के मुताबिक यह बात कबूल करना बिलकुल सही है कि कुदरत की सभी चीज़ों के पीछे सबसे महान कर्त्ता, परमेश्वर का हाथ है। कुदरत के कभी न बदलनेवाले नियमों को देखकर मुझे यह मानना पड़ेगा कि इन्हें कायम करने का काम एक सिरजनहार और व्यवस्थापक का ही हो सकता है।
अगर यह बात बिलकुल साफ है, तो फिर बहुत-से वैज्ञानिक विकासवाद पर क्यों विश्वास करते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि वे ठोस सबूत मिलने से पहले ही अपनी राय कायम कर लेते हैं? वैज्ञानिकों का ऐसा करना कोई नयी बात नहीं। लेकिन कुदरत की किसी घटना पर सिर्फ गौर करने से ही सही नतीजे पर नहीं पहुँचा जा सकता। मिसाल के लिए, ‘लेसर फिज़िक्स’ पर खोजबीन करनेवाला शायद ज़ोर देकर कहे कि प्रकाश, ध्वनि की तरह एक तरंग है क्योंकि यह अकसर एक तरंग की तरह काम करता है। लेकिन उसकी यह बात अधूरी होगी, क्योंकि सबूत दिखाते हैं कि प्रकाश, कणों की तरह भी काम करता है जिन्हें ‘फोटोन्स’ कहा जाता है। उसी तरह, जो लोग विकासवाद के सच होने पर ज़ोर देते हैं, उनका नतीजा आधे-अधूरे सबूतों की बिनाह पर होता है। साथ ही, वे जो नतीजा पहले से निकाल लेते हैं, उसी के मुताबिक सबूतों की जाँच भी करते हैं।
मुझे यह देखकर बड़ा ताज्जुब होता है कि कोई विकासवाद के सिद्धांत को हकीकत कैसे मान सकता है, जबकि इस सिद्धांत को बढ़ावा देनेवाले “विद्वान” खुद आपस में बहस करते हैं कि जीवन का विकास कैसे हुआ होगा। मिसाल के लिए, अगर कुछ विद्वान कहें कि दो और दो, चार होते हैं जबकि दूसरे विद्वान कहें कि दो और दो, तीन या छः हो सकते हैं, तो क्या आप अंकगणित (arithmetic) को हकीकत मानेंगे? अगर विज्ञान का काम है सिर्फ उन बातों को कबूल करना जिन्हें साबित किया जा सकता है, परखा जा सकता है और जिनकी नकल की जा सकती है, तो फिर विज्ञान के मुताबिक यह सिद्धांत सच नहीं कि सभी जीवों का विकास, एक ही पूर्वज से हुआ है।
“जो है ही नहीं, उससे भला क्या कुछ आ सकता है?”
◼ केनेथ लॉइड टानाका
परिचय: मैं एक भूवैज्ञानिक हूँ और फिलहाल एरिज़ोना के फ्लैगस्टाफ शहर में ‘यू.एस. जियोलॉजिकल सर्वे’ के लिए काम कर रहा हूँ। करीब 30 सालों से मैंने भूविज्ञान की अलग-अलग शाखाओं की खोजबीन में हिस्सा लिया है। इनमें से एक है, ग्रह-संबंधी भूविज्ञान। मैंने अपनी खोजबीन पर बहुत-से लेख लिखे हैं और मंगल ग्रह के काफी नक्शे भी तैयार किए हैं, जो मान्यता-प्राप्त वैज्ञानिक पत्रिकाओं में छपे हैं। मैं यहोवा का एक साक्षी हूँ और हर महीने दूसरों को बाइबल पढ़ने का बढ़ावा देने में करीब 70 घंटे बिताता हूँ।
मुझे विकासवाद पर विश्वास करना सिखाया गया था। लेकिन यह बात कभी मेरे गले नहीं उतरती थी कि पूरे विश्व को बनाने के लिए जो बेशुमार उर्जा की ज़रूरत पड़ी, उसके पीछे किसी शक्तिशाली सिरजनहार का हाथ नहीं था। जो है ही नहीं, उससे भला क्या कुछ आ सकता है? इसके अलावा, बाइबल से मुझे ज़बरदस्त दलीलें मिलीं जो साबित करती हैं कि एक सिरजनहार है। यह किताब विज्ञान के उस क्षेत्र में ऐसी ढेरों मिसालें देती है जिसमें मैं काम करता हूँ। जैसे, पृथ्वी गोल है और यह ‘बिना टेक की लटकी’ है। (अय्यूब 26:7; यशायाह 40:22) ये सच्चाइयाँ अरसों पहले बाइबल में दर्ज़ की गयी थीं, जब इंसान ने इस बारे में जाँच-पड़ताल करना शुरू भी नहीं किया था।
ज़रा सोचिए हमें किस तरह बनाया गया है। हम सबमें देखने, सुनने, वगैरह की ज्ञानेंद्रियाँ हैं। हम जानते हैं कि हमारी शख्सियत कैसी है। हममें बुद्धि, बातचीत करने की काबिलीयत और भावनाएँ हैं। और हम खासकर प्यार जैसी भावना को महसूस कर पाते हैं, दूसरों का प्यार पाकर एहसानमंद होते हैं और बदले में दूसरों को प्यार देते हैं। हम इंसानों में ऐसे लाजवाब गुण कहाँ से आए, इस सवाल का विकासवाद के सिद्धांत के पास कोई जवाब नहीं।
खुद से पूछिए: ‘विकासवाद को सच साबित करने के लिए जितनी भी जानकारी मौजूद है, उस पर कितना भरोसा किया जा सकता है?’ मिसाल के लिए, भूविज्ञान के ज़रिए हासिल की गयी जानकारी अधूरी, पेचीदा और चक्कर में डाल देनेवाली है। विकासवादी, प्रयोगशाला में विज्ञान के तरीकों और सिद्धांतों को इस्तेमाल करके भी यह साबित करने में नाकाम रहे हैं कि विकासवाद कैसे होता है। वैज्ञानिक आम तौर पर जानकारी हासिल करने के लिए खोजबीन करने की बेहतरीन तरकीबें अपनाते हैं। लेकिन जब अपनी खोजों के बारे में समझाने की बात आती है, तो वे स्वार्थी बन जाते हैं। यह एक जानी-मानी बात है कि जब वैज्ञानिकों की जानकारी से कुछ साबित नहीं होता या वह हकीकत से मेल नहीं खाती, तो वे अकसर अपने ही खयालात बताते हैं। ऐसा वे इसलिए करते हैं क्योंकि उनका करियर और अहं ही उनके लिए सबकुछ होता है।
मैं एक वैज्ञानिक और बाइबल विद्यार्थी होने के नाते, सही समझ हासिल करने के लिए पूरी सच्चाई की तलाश करता हूँ। यह सच्चाई, हकीकत और अध्ययनों से मेल खाती हैं। जहाँ तक मैं सोचता हूँ, सिरजनहार पर विश्वास करने में ही ज़्यादा तुक बनता है।
“कोशिका की बढ़िया बनावट”
◼ पॉला किनचलो
परिचय: मुझे कोशिका, अणु-जीव और सूक्ष्म-जीव विज्ञान की शाखाओं में खोजबीन करने में कई सालों का तजुरबा है। अब मैं जॉर्जिया, अमरीका के एटलांटा शहर के एमरी विश्वविद्यालय में काम करती हूँ। मैं एक स्वयंसेवक भी हूँ और रूसी भाषा बोलनेवाले इलाके में लोगों को बाइबल सिखाती हूँ।
जब मैं जीव विज्ञान की पढ़ाई कर रही थी, तब मैंने सिर्फ कोशिका और उसके अलग-अलग भागों का अध्ययन करने में चार साल लगा दिए। मैं जितना ज़्यादा कोशिका के डी.एन.ए., आर.एन.ए., प्रोटीन और उर्जा पैदा करने के तरीकों के बारे में सीखती हूँ, उतना ज़्यादा उसकी जटिलता, उसमें पायी जानेवाली व्यवस्था और काम करने का अचूक तरीका देखकर भौचक्की रह जाती हूँ। हालाँकि मैं हैरान हूँ कि इंसान ने कोशिकाओं के बारे में कितना कुछ सीख लिया है, मगर इससे भी ज़्यादा हैरानी मुझे इस बात की है कि हमें और भी बहुत कुछ सीखना बाकी है। कोशिका की बढ़िया बनावट ही एक वजह है कि क्यों मैं परमेश्वर पर विश्वास करती हूँ।
बाइबल के अध्ययन के ज़रिए मैंने जाना कि सिरजनहार का नाम यहोवा है। मुझे पक्का यकीन है कि वह सिर्फ एक बुद्धिमान रचनाकार ही नहीं, बल्कि एक कृपालु और प्यार करनेवाला पिता भी है जिसे मेरी परवाह है। बाइबल समझाती है कि हमारी ज़िंदगी का मकसद क्या है। साथ ही, यह हमें भविष्य में मिलनेवाली खुशहाल ज़िंदगी की आशा भी देती है।
स्कूल जानेवाले जिन बच्चों को विकासवाद सिखाया जाता है, उन्हें ठीक-ठीक मालूम नहीं रहता कि उन्हें क्या विश्वास करना चाहिए। यह उनकी ज़िंदगी का ऐसा दौर होता है, जब वे बड़े कशमकश से गुज़रते हैं। अगर वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, तो उनके विश्वास की परख हो सकती है। मगर वे इस परीक्षा में खरे उतर सकते हैं, बशर्ते वे कुदरत में पायी जानेवाली बेमिसाल रचनाओं की जाँच करें और सिरजनहार और उसके गुणों के बारे में ज्ञान लेते रहें। मैंने खुद ऐसा किया है और मैं इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि बाइबल में दिया सृष्टि का ब्यौरा एकदम सही है और यह सच्चे विज्ञान से भी मेल खाता है।
“क्या ही सरल नियम मौजूद हैं!”
◼ एनरीके एरनानडेस लेमूस
परिचय: मैं यहोवा का एक साक्षी और पूरे समय का सेवक हूँ। मैं एक वैज्ञानिक भी हूँ जो अपने काम में भौतिक विज्ञान के सिद्धांतों का इस्तेमाल करता हूँ (थियोरेटिकल फिज़िसिस्ट)। मैं मेक्सिको के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में काम करता हूँ और फिलहाल इस घटना पर अध्ययन कर रहा हूँ कि तारे कैसे फैलते हैं, जिसे ‘ग्रैवोथर्मल कटास्ट्रोफी’ कहा जाता है। इस घटना को थर्मोडाइनैमिक (ऊष्मागतिकी) के सिद्धांतों के मुताबिक कैसे समझाया जा सकता है, मैं इस पर भी अध्ययन कर रहा हूँ। मैंने डी.एन.ए. के क्रम में पायी जानेवाली जटिलता का भी अध्ययन किया है।
सच बताऊँ तो ज़िंदगी इतनी जटिल है कि इसकी शुरूआत अपने आप हो ही नहीं सकती। उदाहरण के लिए, गौर कीजिए कि एक छोटे-से डी.एन.ए. में जानकारी का कितना भंडार होता है। डी.एन.ए. के एक क्रोमोसोम का अपने आप बनने की कितनी गुंजाइश है? नौ लाख-करोड़ में मुश्किल से एक गुंजाइश। दूसरे शब्दों में कहें तो यह गुंजाइश ना के बराबर है। मेरे खयाल से यह मानना बेवकूफी है कि सिर्फ एक क्रोमोसोम ही नहीं बल्कि जीवित प्राणियों में पायी जानेवाली पूरी जटिल व्यवस्था इत्तफाक से आयी है।
इसके अलावा, जब मैं सूक्ष्म-जीवों से लेकर अंतरिक्ष में धूल और गैस के बड़े-बड़े बादलों का अध्ययन करता हूँ, तो मैं यह देखकर दंग रह जाता हूँ कि उनकी गति को नियंत्रित करने के लिए क्या ही सरल नियम मौजूद हैं! मेरी राय में, ये नियम सिर्फ एक सर्वोत्तम गणितशास्त्री का ही काम नहीं बल्कि एक महान कलाकार का भी है।
जब मैं लोगों को बताता हूँ कि मैं यहोवा का एक साक्षी हूँ, तो अकसर वे चौंक जाते हैं। कुछ मुझसे पूछते हैं कि मैं परमेश्वर पर विश्वास कैसे कर सकता हूँ। उनका इस तरह चौंक जाना वाजिब है, क्योंकि ज़्यादातर धर्म अपने माननेवालों को यह बढ़ावा नहीं देते कि उन्हें जो सिखाया जाता है, उनका सबूत माँगें या फिर अपनी शिक्षाओं पर छानबीन करें। लेकिन बाइबल हमें अपने “विवेक,” यानी सोचने-समझने की अपनी काबिलीयत का इस्तेमाल करने का बढ़ावा देती है। (नीतिवचन 3:21) कुदरत की रचनाओं के पीछे एक कुशल दिमाग के सबूतों के साथ-साथ, बाइबल के सबूतों से मुझे पक्का यकीन हो गया है कि परमेश्वर न सिर्फ वजूद में है बल्कि वह हमारी प्रार्थनाओं को सुनने में दिलचस्पी भी रखता है।
[फुटनोट]
a इस लेख में जिन विद्वानों की राय पेश की गयी है, ज़रूरी नहीं कि उनके मालिक भी एक-जैसी राय रखते हों।
[पेज 22 पर चित्र का श्रेय]
पीछे के मंगल ग्रह की तसवीर: Courtesy USGS Astrogeology Research Program, http://astrogeology.usgs.gov
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पौधों की दिलचस्प बनावटसजग होइए!—2006 | अक्टूबर
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पौधों की दिलचस्प बनावट
क्या आपने कभी गौर किया है कि कई पौधे सर्पिल आकार में उगते हैं? अनन्नास फल को ही लीजिए। उसके छिलके पर 8 सर्पिल एक दिशा में जाते हैं जबकि 5 या 13 सर्पिल इसकी उलटी दिशा में जाते हैं। (तसवीर नं. 1 देखिए।) अगर आप सूरजमुखी के बीज देखें, तो आपको 55 और 89 सर्पिल या उससे भी ज़्यादा सर्पिल एक-दूसरे का रास्ता काटते नज़र आएँगे। यहाँ तक कि फूलगोभी का आकार भी सर्पिल होता है। एक बार आप जब फलों और सब्ज़ियों के सर्पिल आकार पर गौर करने लगेंगे, तो सब्ज़ी-मंडी जाने में आपको और भी मज़ा आएगा। आखिर फूल-पौधे इस तरह से क्यों उगते हैं? क्या यह बात कोई अहमियत रखती है कि उनमें कितने सर्पिल होते हैं?
पौधे कैसे उगते हैं?
ज़्यादातर पौधों के बीच में ‘मेरीस्टेम’ नाम का एक हिस्सा होता है और यहीं से डंठल, पत्तियाँ और फूल जैसे नए अंग उगते हैं। हर नए अंग को ‘प्राइमोर्डियम’ कहा जाता है। यह अंग, ‘मेरीस्टेम’ से एक नयी दिशा की तरफ बढ़ता है और पिछले प्राइमोर्डियम के साथ एक कोण बनाता है।a (तसवीर नं. 2 देखिए।) ज़्यादातर पौधों में हर नया अंग एक खास कोण में उगता है और इस वजह से उनका आकार सर्पिल होता है। यह खास कोण क्या है?
ज़रा इस चुनौती के बारे में सोचिए। मान लीजिए, आपको एक ऐसा पौधा बनाना है जिसके सभी नए अंग इतने पास-पास उगें कि उनके बीच ज़रा भी खाली जगह न रहे। आप पौधे की चारों तरफ के घेरे को 5 हिस्सों में बाँट लेते हैं और तय करते हैं कि हर दूसरे हिस्से के बाद एक नया प्राइमोर्डियम दूसरी दिशा में उगे। इससे क्या होगा? इससे यह समस्या होगी कि हर पाँचवाँ प्राइमोर्डियम एक ही जगह से और एक ही दिशा में उगेगा। इस तरह, पौधा सर्पिल आकार में बढ़ने के बजाय कतारों में बढ़ेगा और बीच-बीच में काफी जगह खाली रह जाएगी। (तसवीर नं. 3 देखिए।) सच तो यह है कि किसी भी ‘साधारण भिन्न’ (simple fraction) से पौधा, किरणों के आकार में उगेगा और बीच-बीच में खाली जगह रहेगी-ही-रहेगी। लेकिन एक ऐसा कोण है जिससे काफी हद तक नए अंग पास-पास उगते हैं। यह कोण है, तकरीबन 137.5 डिग्री, जिसे एक “आदर्श कोण” कहा जाता है। (तसवीर नं. 5 देखिए।) आखिर इस कोण की खासियत क्या है?
इसे आदर्श कोण इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसे एक साधारण भिन्न नहीं बताया जा सकता। इस कोण का करीब भिन्न है, 5/8. इससे और करीब है, 8/13. इससे और भी ज़्यादा करीब है, 13/21. मगर ऐसा एक भी साधारण भिन्न नहीं जो इस आदर्श कोण के बिलकुल बराबर हो। इसलिए जब एक नया अंग पिछले अंग से करीब 137.5 डिग्री के कोण में उगता है, तो ऐसा कभी नहीं होगा कि दो अंग एक ही दिशा में उगें। (तसवीर नं. 4 देखिए।) नतीजा, किरणों के आकार में उगने के बजाय, सभी प्राइमोर्डियम सर्पिल आकार में उगेंगे।
गौर करने लायक बात है कि कंप्यूटर पर की गयी परख से भी यही नतीजा निकला। कंप्यूटर पर जब एक ही बिंदु से, प्राइमोर्डियम को उगते दिखाया गया, और अलग-अलग प्राइमोर्डियम के बीच 137.5 डिग्री का ठीक-ठीक कोण रखा गया, तब जाकर सर्पिल आकार बना। लेकिन आदर्श कोण से 1/10 डिग्री हटने पर सर्पिल आकार नहीं बना।—तसवीर नं. 5 देखिए।
एक फूल में कितनी पंखड़ियाँ होती हैं?
दिलचस्पी की बात है कि आदर्श कोण के आधार पर जितने सर्पिल बनते हैं, उनकी गिनती आम तौर पर ‘फीबोनाटची क्रम’ के मुताबिक होती है। इस क्रम के बारे में, 13वीं सदी के इतालवी गणितशास्त्री, लेओनारडो फीबोनाटची ने पहली बार बताया था। इस क्रम में, 1 के बाद का हर नंबर पिछले दो नंबरों का जोड़ होता है। जैसे, 1,1,2,3,5,8,13,21,34,55, वगैरह।
सर्पिली बनावटवाले ज़्यादातर फूलों की पंखड़ियों की गिनती, ‘फीबोनाटची क्रम’ से मेल खाती है। कुछ खोजकर्ताओं के मुताबिक, बटरकप (प्याले के आकार का पीला फूल) में 5 पंखड़ियाँ होती हैं, रक्त-मूली में 8, फायरवीड्स में 13, एस्टेर में 21, खेतों में उगनेवाली डेज़ी में 34 और माइकलमेस डेज़ी में 55 या 89 पंखड़ियाँ होती हैं। (तसवीर नं. 6 देखिए।) फल-सब्ज़ियों में भी अकसर ऐसी खासियतें होती हैं जो ‘फीबोनाटची क्रम’ से मेल खाती हैं। केले को ही लीजिए। उसके छिलके में पाँच किनारे होते हैं।
‘उसने सब कुछ सुन्दर बनाया’
मुद्दतों से कलाकारों ने कबूल किया है कि आदर्श कोण में बढ़नेवाले फूल-पौधों की खूबसूरती का वाकई कोई जवाब नहीं। क्या वजह है कि पौधों का हर नया अंग एकदम इसी कोण में निकलता है? बहुत-से लोग कहते हैं कि यह एक और मिसाल है कि सभी जीवों की रचना, एक कुशल दिमाग की कारीगरी है।
कई लोग जब इस बात पर गहराई से सोचते हैं कि पौधों और जानवरों में कैसी कमाल की रचना है और हम इंसानों में उनकी खूबसूरती का मज़ा लेने की काबिलीयत है, तो उन्हें यह समझते देर नहीं लगती कि यह सब एक ऐसे सिरजनहार के हाथ की कारीगरी है जो चाहता है कि हम ज़िंदगी का पूरा लुत्फ उठाएँ। इसी सिरजनहार के बारे में बाइबल कहती है: “उस ने सब कुछ ऐसा बनाया कि अपने अपने समय पर वे सुन्दर होते हैं।”—सभोपदेशक 3:11. (g 9/06)
[फुटनोट]
a सूरजमुखी एक बहुत ही अनोखा फूल है। उसमें पाए जानेवाले पुष्पक, जो बीज बन जाते हैं, बीच से नहीं बल्कि बाहर से अंदर की तरफ, सर्पिल आकार बनाते हैं।
[पेज 24, 25 पर रेखाचित्र]
Figure 1
(See publication)
Figure 2
(See publication)
Figure 3
(See publication)
Figure 4
(See publication)
Figure 5
(See publication)
Figure 6
(See publication)
[पेज 24 पर तसवीर]
मेरीस्टेम की करीब से खींची तसवीर
[चित्र का श्रेय]
R. Rutishauser, University of Zurich, Switzerland
[पेज 25 पर चित्र का श्रेय]
सफेद फूल: Thomas G. Barnes @ USDA-NRCS PLANTS Database
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मैं सृष्टि पर अपने विश्वास की पैरवी कैसे कर सकता हूँ?सजग होइए!—2006 | अक्टूबर
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युवा लोग पूछते हैं . . .
मैं सृष्टि पर अपने विश्वास की पैरवी कैसे कर सकता हूँ?
“जब मेरी क्लास में विकासवाद पर चर्चा हुई, तो यह उन सभी बातों से बहुत ही अलग थी जो मुझे सिखायी गयी थीं। विकासवाद को इस तरह पेश किया गया मानो यह सच हो और इस बात से मुझे डर लगने लगा।”—18 साल का रायन।
“जब मैं 12 साल का था, तब मेरी टीचर एक कट्टर विकासवादी थी। उसने अपनी कार पर एक स्टिकर भी चिपकाया था जिस पर डार्विन का चिन्ह था! इसलिए मैं सृष्टि पर अपने विश्वास के बारे में खुलकर बताने से हिचकिचाता था।”—19 साल का टायलर।
“जब सामाजिक अध्ययन सिखानेवाली मेरी टीचर ने कहा कि अगली बार हम विकासवाद पर चर्चा करेंगे, तो डर के मारे मेरे पसीने छूटने लगे। मुझे मालूम था कि अपनी क्लास में मुझे समझाना होगा कि विवादों से घिरे इस विषय पर मेरा क्या विश्वास है।”—14 साल की राकैल।
जब आपकी क्लास में विकासवाद का विषय उठता है, तो शायद आप भी रायन, टायलर और राकैल की तरह बेचैन हो जाएँ। वह क्यों? क्योंकि आप विश्वास करते हैं कि परमेश्वर ने ही “सब वस्तुएं सृजीं” हैं। (प्रकाशितवाक्य 4:11) आप अपने चारों तरफ इस बात का सबूत भी देखते हैं कि कुदरत की रचनाएँ एक कुशल दिमाग की कारीगरी हैं। मगर स्कूल की किताबें कहती हैं कि हम इंसानों की शुरूआत विकास से हुई। यहाँ तक कि आपके टीचर भी यही सिखाते हैं। ऐसे में, आप शायद सोचें कि मैं कौन होता हूँ “जानकारों” से बहस करनेवाला? और अगर मैं परमेश्वर के बारे में बात करूँगा तो क्लास के दूसरे बच्चे मेरे बारे में क्या सोचेंगे?
क्या आप भी इस तरह के सवालों को लेकर परेशान हैं? अगर हाँ, तो चिंता मत कीजिए! सृष्टि पर विश्वास करनेवाले आप अकेले नहीं हैं। असल में, बहुत-से वैज्ञानिक भी विकासवाद के सिद्धांत को कबूल नहीं करते। यही नहीं, कई टीचर भी इस सिद्धांत को नहीं मानते। मिसाल के लिए, अमरीका में हर 5 में से 4 विद्यार्थी यह विश्वास करते हैं कि एक सिरजनहार है, इसके बावजूद कि उनकी स्कूल की किताबें सिखाती हैं कि इंसान का विकास हुआ है!
लेकिन आप शायद पूछें, ‘अगर मुझे सृष्टि पर अपने विश्वास की पैरवी करनी पड़े, तो मैं क्या कहूँगा/गी?’ इत्मीनान रखिए, आप चाहे कितने भी शर्मीले और घबराए हुए क्यों न हों, आप अपने विश्वास के बारे में बड़ी हिम्मत के साथ बात कर सकते हैं। मगर हाँ, इसके लिए आपको कुछ तैयारियाँ करने की ज़रूरत है।
अपने विश्वास को परखिए!
अगर आपके माता-पिता मसीही हैं, तो ज़ाहिर है कि उन्होंने आपको बचपन से यही सिखाया होगा कि ज़िंदगी की शुरूआत सृष्टि से हुई है। इसलिए आप सृष्टि पर विश्वास करते हैं। मगर अब जैसे-जैसे आप बड़े होते हैं, आप चाहेंगे कि अपनी “तर्क-शक्ति” से परमेश्वर की उपासना करें और आपके विश्वास की बुनियाद मज़बूत हो। (रोमियों 12:1, NW) पौलुस ने पहली सदी के मसीहियों को उकसाया था कि वे ‘सब बातों को परखें।’ (1 थिस्सलुनीकियों 5:21) आप सृष्टि पर अपने विश्वास को कैसे परख सकते हैं?
सबसे पहले, ध्यान दीजिए कि पौलुस ने परमेश्वर के बारे में क्या लिखा: “उसके अनदेखे गुण . . . जगत की सृष्टि के समय से उसके कामों के द्वारा देखने में आते हैं।” (रोमियों 1:20) इन शब्दों को मन में रखते हुए, आइए इंसान के शरीर, इस धरती, विशाल अंतरिक्ष और गहरे महासागरों पर गौर करें। मन को मोह लेनेवाले तरह-तरह के कीड़े-मकोड़ों, पेड़-पौधों और जानवरों की, जी हाँ जिस किसी में आपको दिलचस्पी है, उसकी जाँच कीजिए। फिर अपनी “तर्क-शक्ति” का इस्तेमाल करके खुद से पूछिए, ‘क्या बात मुझे यकीन दिलाती है कि एक सिरजनहार है?’
इस सवाल का जवाब देने के लिए, 14 साल के सैम ने इंसान के शरीर की मिसाल दी। उसने कहा: “इंसान का शरीर इतना जटिल और छोटे-छोटे अंगों से बना है, साथ ही इन अंगों का आपस में इतना बढ़िया तालमेल है कि यह हो ही नहीं सकता कि इसका विकास हुआ हो!” सोलह साल की हौली का भी यही मानना है। वह कहती है: “जब से मुझे पता चला कि मुझे डायबिटीज़ है, तब से मैंने शरीर के अलग-अलग अंगों के बारे में बहुत कुछ सीखा है कि ये कैसे काम करते हैं। मिसाल के लिए, मैं यह देखकर हैरान रह गयी कि पेट के पीछे छिपा एक छोटा-सा अंग, पैंक्रियाज़ कमाल का अंग है और यह क्या ही बड़ा काम करता है।”
दूसरे जवानों के पास सिरजनहार के वजूद पर विश्वास करने की अलग ही वजह हैं। उन्नीस साल का जेरड कहता है: “मेरे लिए सबसे बड़ा सबूत यह है कि हममें परमेश्वर की उपासना करने की काबिलीयत, खूबसूरती की कदर करने की चाहत और ज़्यादा सीखने की ललक है, जबकि विकासवाद के मुताबिक, ये बातें ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी नहीं। इसलिए मुझे सिर्फ यही दलील सही लगती है कि हमें एक ऐसी हस्ती ने बनाया है जो चाहता है कि हम ज़िंदगी का मज़ा लें।” टायलर भी, जिसका ज़िक्र लेख की शुरूआत में किया गया था, इसी नतीजे पर पहुँचा। वह कहता है: “जब मैंने जाना कि ज़िंदगी को कायम रखने में पौधे कितनी अहम भूमिका निभाते हैं और उनकी रचना कितनी जटिल है, तो मैं यह मानने के लिए कायल हो गया कि एक सिरजनहार है।”
अगर आपने खुद सृष्टि में पायी जानेवाली रचनाओं की अच्छी तरह जाँच की है, जिससे आपको पूरा यकीन हो गया है कि ज़िंदगी की शुरूआत सृष्टि से हुई है, तो आप अपने इस विश्वास के बारे में दूसरों को आसानी से बता पाएँगे। इसलिए सैम, हौली, जेरड और टायलर की तरह कुछ वक्त निकालिए और परमेश्वर की कमाल की कारीगरी पर गौर कीजिए। फिर ये चीज़ें जो “कहती” हैं, उसे “ध्यान से सुनिए।” तब आप बेशक, प्रेरित पौलुस की तरह इसी नतीजे पर पहुँचेंगे कि न सिर्फ परमेश्वर वजूद में है, बल्कि उसके गुण “उसके कामों के द्वारा देखने में आते हैं।”a
जानिए कि बाइबल असल में क्या सिखाती है
सृष्टि पर अपने विश्वास की पैरवी करने के लिए, परमेश्वर की बनायी चीज़ों की करीबी से जाँच करना ही काफी नहीं। आपको यह भी जानने की ज़रूरत है कि इस बारे में बाइबल असल में क्या सिखाती है। मगर याद रखिए कि ऐसे मसलों पर बहस करने की कोई ज़रूरत नहीं जिनके बारे में बाइबल सीधे-सीधे कुछ नहीं बताती। आइए इसकी कुछ मिसालों पर ध्यान दें।
◼ मेरी विज्ञान की किताब कहती है कि पृथ्वी और सौर-मंडल, अरबों सालों से वजूद में हैं। बाइबल, यह नहीं बताती कि पृथ्वी और सौर-मंडल कितने साल पुराने हैं। मगर इनके बारे में बाइबल जो कहती है वह इस बात से मेल खाती है कि विश्व, सृष्टि के पहले “दिन” के शुरू होने से अरबों साल पहले ही वजूद में आ चुका था।—उत्पत्ति 1:1,2.
◼ मेरा टीचर कहता है कि पृथ्वी को सिर्फ छः दिनों में नहीं बनाया जा सकता। बाइबल यह नहीं कहती है कि सृष्टि के छः “दिन” का एक-एक दिन 24 घंटों का था। ज़्यादा जानकारी के लिए, इस पत्रिका के पेज 18-20 देखिए।
◼ हमारी क्लास में ऐसे कई उदाहरणों पर चर्चा की गयी कि कैसे समय के गुज़रते, जानवरों और इंसानों का विकास हुआ है। बाइबल कहती है कि परमेश्वर ने “जाति जाति” के जीवित प्राणियों को बनाया। (उत्पत्ति 1:20,21) बाइबल में इस धारणा का कोई आधार नहीं कि ज़िंदगी की शुरूआत एक बेजान पदार्थ से हुई या परमेश्वर ने एक कोशिका के ज़रिए विकासवाद की शुरूआत की थी। फिर भी, एक “जाति” में कई किस्में हो सकती हैं। इसलिए बाइबल के मुताबिक, हरेक “जाति” में बदलाव हो सकते हैं मगर एक जाति से कोई नयी जाति नहीं बनती।
अपने विश्वासों पर पक्का यकीन रखिए
सृष्टि पर विश्वास करने की वजह से, आपको झिझक या शर्मिंदा महसूस करने की कोई ज़रूरत नहीं। सबूतों की जाँच करने के बाद, यह विश्वास करना न सिर्फ पूरी तरह जायज़ है बल्कि विज्ञान के मुताबिक बिलकुल सही भी है कि हम इंसान, एक कुशल दिमाग की कारीगरी हैं। हकीकत में देखा जाए तो आपको सृष्टि से ज़्यादा विकासवाद पर यकीन करने के लिए ढेर सारे विश्वास की ज़रूरत है। यही नहीं, विकासवाद पर विश्वास करना, इस बात पर यकीन करने के बराबर है कि जादूगर के बिना जादू भी हो सकते हैं। दरअसल, सजग होइए! के इस अंक के दूसरे लेखों को पढ़कर और उनमें दिए सबूतों पर गौर करने से, आपको यकीन हो जाएगा कि कुदरत में पायी जानेवाली हरेक चीज़ की सृष्टि हुई थी। इस तरह, जब आप एक बार अपनी तर्क-शक्ति का इस्तेमाल करके बारीकी से मामले की जाँच करेंगे, तो इससे आपको क्लास के सामने अपने विश्वास की पैरवी करने का और भी हौसला मिलेगा।
राकैल, जिसका ज़िक्र पहले भी किया गया था, उसके साथ यही हुआ। वह कहती है: “कुछ दिनों बाद जाकर मुझे एहसास हुआ कि मुझे अपने विश्वास को अपने तक ही नहीं रखना चाहिए। मैंने अपनी टीचर को जीवन—इसकी शुरूआत कैसे हुई? विकास से या सृष्टि से? किताब दी। मैंने किताब के कुछ खास भागों पर निशान भी लगाए जो मैं चाहती थी कि वह पढ़े। बाद में, उसने मुझे बताया कि उस किताब ने विकासवाद के बारे में उसका नज़रिया ही बदल दिया है। और उसने यह भी बताया कि आगे जब भी वह विकासवाद के बारे में पढ़ाएगी, तो उस किताब से मिली जानकारी का ज़रूर इस्तेमाल करेगी।” (g 9/06)
“युवा लोग पूछते हैं . . .” के और भी लेख, वेब साइट www.watchtower.org/ype पर उपलब्ध हैं
इस बारे में सोचिए
◼ ऐसे कुछ तरीके क्या हैं जिनसे आप बेझिझक अपने स्कूल में सृष्टि पर अपने विश्वास के बारे में समझा सकते हैं?
◼ सब चीज़ों के बनानेवाले के लिए आप अपनी कदरदानी कैसे ज़ाहिर कर सकते हैं?—प्रेरितों 17:26,27.
[फुटनोट]
a बहुत-से जवानों को इन किताबों में दी जानकारी से बहुत फायदा हुआ है: जीवन—इसकी शुरूआत कैसे हुई? विकास से या सृष्टि से? (अँग्रेज़ी) और क्या एक सिरजनहार है जो आपकी परवाह करता है? (अँग्रेज़ी) इन्हें यहोवा के साक्षियों ने प्रकाशित किया है।
[पेज 27 पर बक्स]
“बेशुमार सबूत मौजूद हैं”
“आप एक ऐसे जवान से क्या कहेंगे जिसे बचपन से सिरजनहार पर विश्वास करना सिखाया गया है, मगर अब स्कूल में उसे विकासवाद की शिक्षा दी जा रही है?” यह सवाल एक सूक्ष्म-जीव वैज्ञानिक से पूछा गया था जो यहोवा की एक साक्षी है। उसका जवाब क्या था? उसने कहा: “आपको इस मौके का फायदा उठाकर खुद को यह यकीन दिलाना चाहिए कि परमेश्वर सचमुच वजूद में है। आपको परमेश्वर पर सिर्फ इसलिए विश्वास नहीं कर लेना चाहिए क्योंकि आपके माँ-बाप ने आपको यह सिखाया है, बल्कि इसलिए कि आपने खुद सबूतों की जाँच की है। कभी-कभी जब टीचरों से विकासवाद को सच साबित करने के लिए ‘सबूत’ माँगा जाता है, तो वे कोई भी सबूत पेश नहीं कर पाते हैं। और तब उन्हें एहसास होता है कि वे यह सिद्धांत सिर्फ इसलिए मानते हैं क्योंकि उन्हें यही मानना सिखाया गया था। जब सिरजनहार पर विश्वास करने की बात आती है, तो आपके साथ भी यही हो सकता है। इसलिए खुद को यकीन दिलाने का यह बहुत ही सुनहरा मौका है कि परमेश्वर सचमुच वजूद में है। इसके बेशुमार सबूत मौजूद हैं। और उन्हें ढूँढ़ निकालना मुश्किल नहीं।”
[पेज 28 पर बक्स/तसवीर]
क्या बात आपको यकीन दिलाती है?
नीचे ऐसी तीन बातें लिखिए जिनसे आपको यकीन हुआ है कि एक सिरजनहार है:
1. .......................
2. .......................
3. .......................
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आप जो विश्वास करते हैं, क्या उससे कोई फर्क पड़ता है?सजग होइए!—2006 | अक्टूबर
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आप जो विश्वास करते हैं, क्या उससे कोई फर्क पड़ता है?
क्या आपको लगता है कि ज़िंदगी का एक मकसद है? अगर विकासवाद का सिद्धांत सच होता, तो फिर साइंटिफिक अमेरिकन पत्रिका की यह बात भी सच होती: “विकासवाद के बारे में आज हमारी जो समझ है, उसके मुताबिक . . . ज़िंदगी का कोई मकसद नहीं है।”
गौर कीजिए कि इन शब्दों के क्या मायने हैं। अगर ज़िंदगी का कोई मकसद ही नहीं होता, तो आपके जीने का बस यही मतलब होता कि आप कुछ नेक काम करें और शायद अपनी खूबियाँ अपनी आनेवाली पीढ़ी को विरासत में दें। फिर मौत आने पर, आपका वजूद हमेशा के लिए मिट जाता। इसका यह भी मतलब होता कि आपका मस्तिष्क, जो ज़िंदगी के मकसद के बारे में सोचने, तर्क करने और मनन करने की काबिलीयत रखता है, अपने आप वजूद में आया है।
इतना ही नहीं, विकासवाद पर विश्वास करनेवाले बहुत-से लोग दावा करते हैं कि परमेश्वर नहीं है, या अगर वह है तो इंसान के मामलों में दखल नहीं देता। उनका दावा चाहे जो भी हो, इसका बस यही मतलब होता कि हमारा भविष्य टीचर-प्रोफेसरों, राजनीति और धर्म के अगुवों के हाथ में है। उन्होंने बीते समय में खलबली मचाकर, लड़ाई-झगड़ों की आग भड़काकर और भ्रष्टाचार फैलाकर इंसानी समाज को जिस तरह बरबाद किया है, उससे पता चलता है कि ऐसा आगे भी जारी रहेगा। वाकई, अगर विकासवाद सच होता तो इंसान के लिए यह रवैया रखना गलत नहीं होता: “आओ, खाएं और पीएं, क्योंकि कल तो मरना ही है।”—1 कुरिन्थियों 15:32, NHT.
लेकिन यकीन रखिए कि यहोवा के साक्षी ऊपर बतायी बातों को कतई नहीं मानते। और ना ही वे उन बातों के आधार, यानी विकासवाद के सिद्धांत को मानते हैं। इसके बिलकुल उलट, साक्षी मानते हैं कि बाइबल में लिखी बातें एकदम सच हैं। (यूहन्ना 17:17) इसलिए हम वजूद में कैसे आए, इस बारे में बाइबल जो कहती है, उस पर वे विश्वास करते हैं। और बाइबल कहती है: “जीवन का सोता तेरे [परमेश्वर के] ही पास है।” (भजन 36:9) इन शब्दों में गहरा अर्थ छिपा है।
इसका मतलब है कि हमारे जीने का एक मकसद है। हमारे सिरजनहार ने प्यार से उन सभी के लिए एक उद्देश्य ठहराया है जो उसकी मरज़ी के मुताबिक जीने का चुनाव करते हैं। (सभोपदेशक 12:13) इस उद्देश्य में उसका यह वादा भी शामिल है कि इंसान एक ऐसी दुनिया में जीएगा जहाँ खलबली, लड़ाई-झगड़े और भ्रष्टाचार का नामो-निशान तक नहीं होगा, यहाँ तक कि मौत भी नहीं रहेगी। (यशायाह 2:4; 25:6-8) दुनिया-भर में लाखों यहोवा के साक्षी इस बात की गवाही दे सकते हैं कि परमेश्वर के बारे में सीखना और उसकी मरज़ी पर चलना ही ज़िंदगी का सबसे बढ़िया मकसद है!—यूहन्ना 17:3.
तो फिर, आप जो विश्वास करते हैं, क्या उससे कोई फर्क पड़ता है? ज़रूर पड़ता है। इसका असर न सिर्फ आपकी मौजूदा ज़िंदगी और खुशियों पर पड़ता है, बल्कि आपके आनेवाले कल पर भी पड़ता है। तो क्या आप ऐसे सिद्धांत पर विश्वास करेंगे जो यह समझाने में नाकाम रहा है कि कुदरत में पायी जानेवाली चीज़ों की रचना कैसे हुई है? या क्या आप बाइबल पर विश्वास करेंगे जो कहती है कि पृथ्वी और इस पर रहनेवाले जीवित प्राणी एक बेमिसाल रचनाकार, यहोवा परमेश्वर के हाथ की कारीगरी हैं और कि उसी ने “सब वस्तुएं सृजी” हैं? (प्रकाशितवाक्य 4:11) फैसला आपके हाथ में है। (g 9/06)
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