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  • वह ‘परमेश्‍वर ही है, जो बढ़ाता है’!

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  • वह ‘परमेश्‍वर ही है, जो बढ़ाता है’!
  • प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—2008
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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—2008
w08 7/15 पेज 12-16

वह ‘परमेश्‍वर ही है, जो बढ़ाता है’!

“न तो लगानेवाला कुछ है, और न सींचनेवाला, परन्तु परमेश्‍वर जो बढ़ानेवाला है।”—1 कुरि. 3:7.

1. हम किस काम में “परमेश्‍वर के सहकर्मी” हैं?

“परमेश्‍वर के सहकर्मी।” इन चंद शब्दों में प्रेरित पौलुस ने बताया कि हमें क्या ही बड़ा सम्मान दिया गया है। (1 कुरिन्थियों 3:5-9 पढ़िए।) मगर हम किस काम में परमेश्‍वर के सहकर्मी हैं? चेला बनाने के काम में। पौलुस ने इस काम की तुलना बीज बोने और सींचने से की। अगर हम इस अहम काम में कामयाब होना चाहते हैं, तो हमें यहोवा की मदद की ज़रूरत है। क्योंकि जैसा पौलुस ने हमें याद दिलाया ‘बढ़ानेवाला परमेश्‍वर ही है।’

2. ‘बढ़ानेवाला परमेश्‍वर है,’ इस बात से हमें अपनी सेवा के बारे में सही नज़रिया रखने में कैसे मदद मिलती है?

2 यह बात हमें नम्र बनाती है और हमें अपनी सेवा के बारे में सही नज़रिया रखने में मदद देती है। प्रचार करने और सिखाने में हम चाहे जितनी भी मेहनत करें, मगर जब कोई नया चेला बनता है, तो इसका सारा श्रेय यहोवा को जाता है। वह क्यों? क्योंकि हम पूरी तरह नहीं समझ सकते कि यहोवा कैसे बढ़ाने का काम करता है और ना ही इस काम पर हमारा कोई बस होता है। राजा सुलैमान ने ठीक ही कहा था: “तू परमेश्‍वर का काम नहीं जानता जो सब कुछ करता है।”—सभो. 11:5.

3. बीज बोने और चेला बनाने में क्या समानता है?

3 यहोवा कैसे बढ़ाता है, यह बात न समझ पाने से क्या चेला बनाने का हमारा काम उबाऊ हो जाता है? बिलकुल नहीं। इसके बजाय, हमारा काम और भी दिलचस्प और मज़ेदार बन जाता है। राजा सुलैमान ने कहा: “भोर को अपना बीज बो, और सांझ को भी अपना हाथ न रोक; क्योंकि तू नहीं जानता कि कौन सुफल होगा, यह या वह, वा दोनों के दोनों अच्छे निकलेंगे।” (सभो. 11:6) यह कितना सच है कि बीज बोने पर हमें यह नहीं पता होता कि वह किस जगह उगेगा या उगेगा भी कि नहीं। ऐसी कई बातों पर हमारा कोई बस नहीं होता। यही बात चेला बनाने के काम के बारे में भी सच है। इसी सच्चाई पर ज़ोर देते हुए यीशु ने दो दृष्टांत दिए थे, जो मरकुस की सुसमाचार की किताब के चौथे अध्याय में दर्ज़ हैं। आइए देखें कि इन दृष्टांतों से हम क्या सबक सीख सकते हैं।

अलग-अलग किस्म की भूमि

4, 5. मरकुस 4:1-9 में दिए दृष्टांत का निचोड़ बताइए।

4 मरकुस 4:1-9 में यीशु बीज बोनेवाले के बारे में बताता है, जिसके बीज अलग-अलग किस्म की भूमि पर जा गिरते हैं। यीशु कहता है: “सुनो: देखो, एक बोनेवाला, बीज बोने के लिये निकला! और बोते समय कुछ तो मार्ग के किनारे गिरा और पक्षियों ने आकर उसे चुग लिया। और कुछ पत्थरीली भूमि पर गिरा जहां उस को बहुत मिट्टी न मिली, और गहरी मिट्टी न मिलने के कारण जल्द उग आया। और जब सूर्य निकला, तो जल गया, और जड़ न पकड़ने के कारण सूख गया। और कुछ तो झाड़ियों में गिरा, और झाड़ियों ने बढ़कर उसे दबा लिया, और वह फल न लाया। परन्तु कुछ अच्छी भूमि पर गिरा, और वह उगा, और बढ़कर फलवन्त हुआ; और कोई तीस गुणा, कोई साठ गुणा और कोई सौ गुणा फल लाया।”

5 कुछ देशों में आम तौर पर बीज छितराकर बोया जाता है। बीज बोनेवाला अपने कपड़े में या किसी थैले में बीज लाता है और मुट्ठी में भर-भरके उन्हें दूर-दूर तक बिखेरता है। ध्यान दीजिए कि इस दृष्टांत में बीज बोनेवाला जानबूझकर अलग-अलग किस्म की भूमि पर बीज नहीं बोता। इसके बजाय, जब वह बीज बिखेरता है, तो वे अलग-अलग भूमि पर जा गिरते हैं।

6. यीशु ने बीज बोनेवाले के दृष्टांत को कैसे समझाया?

6 यीशु के इस दृष्टांत का क्या मतलब है, इस बारे में हमें अटकलें लगाने की ज़रूरत नहीं। क्योंकि मरकुस 4:14-20 में यीशु इसे समझाते हुए कहता है: “बोनेवाला वचन बोता है। जो मार्ग के किनारे के हैं जहां वचन बोया जाता है, ये वे हैं, कि जब उन्हों ने सुना, तो शैतान तुरन्त आकर वचन को जो उन में बोया गया था, उठा ले जाता है। और वैसे ही जो पत्थरीली भूमि पर बोए जाते हैं, ये वे हैं, कि जो वचन को सुनकर तुरन्त आनन्द से ग्रहण कर लेते हैं। परन्तु अपने भीतर जड़ न रखने के कारण वे थोड़े ही दिनों के लिये रहते हैं; इस के बाद जब वचन के कारण उन पर क्लेश या उपद्रव होता है, तो वे तुरन्त ठोकर खाते हैं। और जो झाड़ियों में बोए गए ये वे हैं जिन्हों ने वचन सुना। और संसार की चिन्ता, और धन का धोखा, और और वस्तुओं का लोभ उन में समाकर वचन को दबा देता है। और वह निष्फल रह जाता है। और जो अच्छी भूमि में बोए गए, ये वे हैं, जो वचन सुनकर ग्रहण करते और फल लाते हैं, कोई तीस गुणा, कोई साठ गुणा, और कोई सौ गुणा।”

7. बीज और अलग-अलग किस्म की भूमि का क्या मतलब है?

7 गौर कीजिए कि यीशु ने यह नहीं कहा कि अलग-अलग किस्म के बीज बोए गए हैं। इसके बजाय उसने कहा कि एक ही किस्म का बीज अलग-अलग किस्म की भूमि पर जा गिरता है और उसके नतीजे भी अलग-अलग निकलते हैं। पहली किस्म की भूमि बहुत सख्त है, दूसरी ज़्यादा गहरी नहीं, तीसरी में झाड़ियाँ उगती हैं और चौथी अच्छी भूमि है जिसमें अच्छी पैदावार होती है। (लूका 8:8) इस दृष्टांत में बीज का क्या मतलब है? यह परमेश्‍वर के वचन में दिया राज्य का संदेश है। (मत्ती 13:19) और अलग-अलग भूमि किसे दर्शाती है? यह अलग-अलग लोगों की दिल की हालत को दर्शाती है।—लूका 8:12, 15 पढ़िए।

8. (क) बीज बोनेवाला किसे दर्शाता है? (ख) प्रचार काम की तरफ लोगों का एक-जैसा रवैया क्यों नहीं होता?

8 बीज बोनेवाला किसे दर्शाता है? वह परमेश्‍वर के सहकर्मियों को दर्शाता है, जो राज्य का सुसमाचार सुनाते हैं। पौलुस और अपुल्लोस की तरह वे बीज बोने और सींचने का काम करते हैं। लेकिन जी-तोड़ मेहनत करने के बाद भी उन्हें एक-जैसे नतीजे नहीं मिलते। ऐसा क्यों? क्योंकि राज्य का संदेश सुननेवालों के दिल की हालत अलग-अलग होती है। दृष्टांत में अलग-अलग भूमि पर जो नतीजे निकलते हैं, उन पर बीज बोनेवाले का कोई बस नहीं होता। इस बात से हमारे उन वफादार भाई-बहनों को कितना ढाढ़स मिलता है, जो बरसों से ऐसे इलाकों में प्रचार करते आए हैं, जहाँ उन्हें ज़्यादा कामयाबी नहीं मिली है।a लेकिन इस बात से ढाढ़स क्यों मिलता है?

9. प्रेरित पौलुस और यीशु ने किस सच्चाई पर ज़ोर दिया जिससे हमें ढाढ़स मिलता है?

9 बीज बोनेवाले की वफादारी इस बात से नहीं आँकी जाती कि उसके काम से क्या नतीजे मिलते हैं। पौलुस ने इसी बात की तरफ इशारा करते हुए कहा: “हर एक व्यक्‍ति अपने ही परिश्रम के अनुसार अपनी मजदूरी पाएगा।” (1 कुरि. 3:8) गौर कीजिए कि एक व्यक्‍ति अपने परिश्रम के अनुसार प्रतिफल पाएगा न कि उस परिश्रम से मिलनेवाले नतीजे के अनुसार। इसी बात पर यीशु ने भी ज़ोर दिया था। एक मौके पर जब उसके चेले प्रचार से लौटे, तो वे इस बात से फूले नहीं समा रहे थे कि उन्होंने यीशु के नाम से दुष्टात्माओं को वश में किया था। इस कामयाबी से भले ही वे रोमांचित थे, मगर यीशु ने उनसे कहा: “इस से आनन्दित मत हो, कि आत्मा तुम्हारे वश में हैं, परन्तु इस से आनन्दित हो कि तुम्हारे नाम स्वर्ग पर लिखे हैं।” (लूका 10:17-20) लेकिन अगर एक बीज बोनेवाला मेहनत करने के बाद भी चेले न बना पाए, तो इसका यह मतलब नहीं कि वह दूसरों के मुकाबले कम मेहनती या कम वफादार है। दरअसल अच्छे नतीजे काफी हद तक सुननेवाले के दिल की हालत पर निर्भर करते हैं। लेकिन आखिरकार परमेश्‍वर ही है, जो उसे बढ़ाता है।

वचन को सुननेवाले की ज़िम्मेदारी

10. वचन को सुननेवाले अच्छी भूमि साबित होंगे कि नहीं, यह किस बात पर निर्भर करता है?

10 जो वचन सुनते हैं, उनके बारे में क्या? क्या यह पहले से मुकर्रर होता है कि वे कैसा रवैया दिखाएँगे? जी नहीं। ऐसे लोग अच्छी भूमि साबित होंगे या नहीं, यह उन्हीं पर निर्भर करता है। वाकई, एक इंसान के दिल की हालत बदल सकती है, अच्छे या बुरे के लिए। (रोमि. 6:17) यीशु ने अपने दृष्टांत में कहा कि ‘जब कुछ लोग वचन को सुनते हैं, तो शैतान तुरन्त’ आकर वचन को उठा ले जाता है। मगर इससे बचा जा सकता है। याकूब 4:7 में मसीहियों को बढ़ावा दिया गया है कि वे “शैतान का साम्हना” करें, जिससे वह उनके पास से भाग निकलेगा। यीशु ने दृष्टांत में कुछ ऐसे लोगों की भी बात की, जो पहले-पहल वचन को खुशी-खुशी कबूल करते हैं, मगर “अपने भीतर जड़ न रखने” की वजह से तुरंत ठोकर खाते हैं। लेकिन परमेश्‍वर के सेवकों को सलाह दी गयी है कि वे मज़बूती से “जड़ पकड़ के और बुनियाद” (हिन्दुस्तानी बाइबल) पर खड़े रहें, ताकि वे समझ पाएँ कि “उसकी चौड़ाई, और लम्बाई, और ऊंचाई, और गहराई कितनी है। और मसीह के उस प्रेम को जान स[कें] जो ज्ञान से परे है।”—इफि. 3:17-19; कुलु. 2:6, 7.

11. एक व्यक्‍ति क्या कर सकता है जिससे कि संसार की चिंता और धन का धोखा वचन को दबा न दें?

11 दृष्टांत में कुछ दूसरे लोगों के बारे में भी बताया गया है, जिन पर “संसार की चिन्ता और धन का धोखा” इस कदर हावी हो जाते हैं कि ये वचन को दबा देते हैं। (1 तीमु. 6:9, 10) ऐसी नौबत न आए, इसके लिए वे लोग क्या कर सकते हैं? इसका जवाब प्रेरित पौलुस देता है: “तुम्हारा स्वभाव लोभरहित हो, और जो तुम्हारे पास है, उसी पर सन्तोष करो; क्योंकि उस ने आप ही कहा है, मैं तुझे कभी न छोड़ूंगा, और न कभी तुझे त्यागूंगा।”—इब्रा. 13:5.

12. अच्छी भूमि को दर्शानेवाले किस वजह से अलग-अलग फल लाते हैं?

12 दृष्टांत के आखिर में यीशु कहता है कि जो अच्छी भूमि में बोए जाते हैं, वे “फल लाते हैं, कोई तीस गुणा, कोई साठ गुणा, और कोई सौ गुणा।” यह दिखाता है कि वचन को कबूल करनेवाले कुछ लोगों के दिल की हालत अच्छी होती है और वे फल लाते हैं। लेकिन वे सुसमाचार सुनाने में कितना कर पाते हैं, यह उनके अलग-अलग हालात पर निर्भर करता है। मिसाल के लिए, कुछ लोग ढलती उम्र या बीमारी की वजह से प्रचार में ज़्यादा नहीं कर पाते। (मरकुस 12:43, 44 से तुलना कीजिए।) शायद ऐसे हालात पर उनका कोई बस न हो, लेकिन बीज बोने के काम में वे जितना भी करते हैं, उसे यहोवा बढ़ाता है। और यह देखकर वे खुशी से झूम उठते हैं।—भजन 126:5, 6 पढ़िए।

बीज बोनेवाला, जो सो जाता है

13, 14. (क) मरकुस 4:26-29 में दर्ज़ यीशु के दृष्टांत का सार बताइए। (ख) बीज बोनेवाला किसे दर्शाता है और बीज क्या है?

13 मरकुस 4:26-29 (NHT) में बीज बोनेवाले के बारे में एक दूसरा दृष्टांत दिया गया है। वहाँ हम पढ़ते हैं: “परमेश्‍वर का राज्य ऐसा है जैसे कोई मनुष्य भूमि पर बीज डाले, और रात को सो जाए और दिन को जाग जाए और वह बीज अंकुरित होकर बढ़े-वह व्यक्‍ति स्वयं नहीं जानता कि यह कैसे होता है। भूमि अपने आप फसल उपजाती है, पहले अंकुर, तब बालें, और तब बालों में तैयार दाने। परन्तु जब फसल पक जाती है, तो वह तुरन्त हंसिया लगाता है, क्योंकि कटनी आ पहुंचती है।”

14 यहाँ बीज बोनेवाला किसे दर्शाता है? ईसाईजगत के कुछ लोगों का मानना है कि यह यीशु को दर्शाता है। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि यीशु सो जाए और उसे पता न हो कि बीज कैसे बढ़ता है? यीशु अच्छी तरह जानता है कि बीज कैसे बढ़ता है। तो फिर पहलेवाले दृष्टांत की तरह, यह बीज बोनेवाला भी राज्य के प्रचारकों को दर्शाता है, जो जोश के साथ प्रचार करके राज्य का बीज बोते हैं। और बीज क्या है? वह वचन है, जिसका वे प्रचार करते हैं।b

15, 16. यीशु ने अपने दृष्टांत में एक बीज के बढ़ने और एक इंसान के चेला बनने के बारे में क्या सच्चाई बतायी?

15 यीशु कहता है कि बीज बोनेवाला ‘रात को सो जाता है और दिन को जागता है।’ इसका यह मतलब नहीं कि बीज बोनेवाला लापरवाह है। दरअसल यह ज़्यादातर लोगों की दिनचर्या को दर्शाता है। इस आयत में इस्तेमाल किए गए शब्द इशारा करते हैं कि लोग आम तौर पर दिन में काम करते हैं और रात में सोते हैं। यीशु समझाता है कि इस दौरान क्या होता है: ‘बीज अंकुरित होकर बढ़ता है।’ फिर वह आगे कहता है: “वह व्यक्‍ति स्वयं नहीं जानता कि यह कैसे होता है।” दृष्टांत में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि बीज “अपने आप” बढ़ता है।c

16 इस दृष्टांत से यीशु क्या बताना चाहता था? यही कि बीज धीरे-धीरे बढ़ता है। “भूमि अपने आप फसल उपजाती है, पहले अंकुर, तब बालें, और तब बालों में तैयार दाने।” (मर. 4:28, NHT) गौर कीजिए यह बीज चरणों में बढ़ता है। इसमें जबरन तेज़ी नहीं लायी जा सकती। यही बात चेला बनाने के बारे में भी सच है। सही मन रखनेवाला एक इंसान धीरे-धीरे चेला बनता है और इस दौरान यहोवा उसके दिल में सच्चाई का बीज बढ़ाता है।—प्रेरि. 13:48; इब्रा. 6:1.

17. जब सच्चाई का बीज फल लाता है, तो कौन आनंद करते हैं?

17 ‘फसल पकने पर’ बीज बोनेवाला कटनी में कैसे हिस्सा लेता है? जब यहोवा नए लोगों में सच्चाई का बीज बढ़ाता है, तो वे तरक्की करते जाते हैं। फिर उनकी ज़िंदगी में ऐसा मुकाम आता है जब यहोवा के लिए प्यार उन्हें उभारता है कि वे उसे अपना समर्पण करें। उस समर्पण की निशानी में वे बपतिस्मा लेते हैं। इसके बाद जो भाई आध्यात्मिक रूप से प्रौढ़ बनते जाते हैं, उन्हें धीरे-धीरे कलीसिया में ज़िम्मेदारियाँ दी जाती हैं। जब एक व्यक्‍ति नया चेला बनता है, तो न सिर्फ बीज बोनेवाले को खुशी होती है, बल्कि उन राज्य प्रचारकों को भी जिन्होंने उस बीज को बोने में कोई-न-कोई मदद दी थी। (यूहन्‍ना 4:36-38 पढ़िए।) इस तरह “बोनेवाला और काटनेवाला दोनों मिलकर आनन्द” करते हैं।

हमारे लिए सबक

18, 19. (क) यीशु के दृष्टांतों की चर्चा से आपको क्या बढ़ावा मिला है? (ख) अगले लेख में किस बात की जाँच की जाएगी?

18 अभी हमने मरकुस के चौथे अध्याय में दिए दो दृष्टांतों पर चर्चा की है। इनसे हमने क्या सीखा? हमने सीखा कि हमारा काम है, बीज बोना। हमें इस काम से जी नहीं चुराना चाहिए और ना ही आनेवाली मुश्‍किलों और समस्याओं से डरकर इससे पीछे हटना चाहिए। (सभो. 11:4) हमने यह भी सीखा कि हमें परमेश्‍वर के सहकर्मी होने का बड़ा सम्मान मिला है। और यहोवा ही बढ़ानेवाला है यानी एक इंसान को सच्चाई में लाने के पीछे उसी का हाथ होता है। वही हमारी और उन लोगों की मेहनत पर आशीष देता है, जो राज्य के संदेश को कबूल करते हैं। साथ ही, हमने यह भी सीखा कि हम ज़बरदस्ती किसी को चेला नहीं बना सकते। इसके अलावा, जब एक व्यक्‍ति धीरे-धीरे तरक्की करता है या उसमें तरक्की के कोई आसार नज़र नहीं आते, तो हमें निराश नहीं होना चाहिए। हमारी कामयाबी इस बात से आँकी जाती है कि हम यहोवा के कितने वफादार हैं। और इस बात से भी कि हम ‘सब जातियों पर गवाही देने के लिए राज्य का सुसमाचार’ सुनाने के काम को कितनी वफादारी से पूरा कर रहे हैं। (मत्ती 24:14) क्या यह जानकर हमें तसल्ली नहीं मिलती? बिलकुल मिलती है!

19 नए चेलों के बढ़ने और राज्य के प्रचार काम के बारे में यीशु हमें और क्या सिखाता है? इस सवाल का जवाब सुसमाचार की किताबों में दर्ज़ दूसरे दृष्टांतों से मिलता है। अगले लेख में हम इन दृष्टांतों की गहराई से जाँच करेंगे।

[फुटनोट]

a भाई गेऑर्ग फ्यूलनीर लिंडाल की मिसाल पर गौर कीजिए, जिन्हें आइसलैंड में अपनी सेवा के कई सालों के दौरान अच्छे नतीजे नहीं मिले, फिर भी वे प्रचार में लगे रहे। उनके बारे में सन्‌ 2005 की यहोवा के साक्षियों की इयरबुक (अँग्रेज़ी) के पेज 210-211 पर बताया गया है। इसके अलावा, आयरलैंड के साक्षियों के बारे में पढ़िए जिन्होंने ऐसी ही वफादारी दिखायी। उनके अनुभव सन्‌ 1988 की यहोवा के साक्षियों की इयरबुक (अँग्रेज़ी) के पेज 82-99 पर दिए गए हैं।

b इस पत्रिका में पहले समझाया गया था कि बीज एक व्यक्‍ति के गुणों को दर्शाता है, जिन्हें उसे निखारने की ज़रूरत होती है। और इस दौरान इन गुणों पर माहौल का असर होता है। लेकिन ध्यान दीजिए कि यीशु के दृष्टांत में बताया गया बीज खराब नहीं होता और ना ही उससे सड़े फल पैदा होते हैं। इसके बजाय, यीशु सिर्फ इतना बताता है कि बीज बढ़ता जाता है।—15 जून, 1980 की प्रहरीदुर्ग (अँग्रेज़ी) के पेज 17-19 देखिए।

c इस तरह के शब्द एक और आयत में इस्तेमाल किए गए हैं। वह है प्रेरितों 12:10, जहाँ बताया गया है कि लोहे का फाटक “आप से आप” खुल गया।

क्या आपको याद है?

• बीज बोने और राज्य का संदेश सुनाने में क्या समानताएँ हैं?

• यहोवा राज्य प्रचारकों की वफादारी किस बात से आँकता है?

• यीशु ने एक बीज के बढ़ने और एक इंसान के चेला बनने के बारे में क्या बात बतायी?

• किस तरह “बोनेवाला और काटनेवाला दोनों मिलकर आनन्द” करते हैं?

[पेज 13 पर तसवीरें]

यीशु ने राज्य प्रचारकों की तुलना बीज बोनेवाले से क्यों की?

[पेज 15 पर तसवीरें]

जो लोग अच्छी भूमि को दर्शाते हैं, वे अपने हालात के मुताबिक तन-मन से राज्य का प्रचार करते हैं

[पेज 16 पर तसवीरें]

वह परमेश्‍वर ही है, जो बढ़ाता है

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