विश्व-दर्शन
एड्स और एशिया
हालाँकि कुछ पश्चिमी राष्ट्रों में एड्स रोगियों की संख्या में हलकी-सी कमी आयी है, यह महामारी एशिया के अनेक भागों में प्रचंड रूप ले रही है। भारत में एड्स पीड़ितों की संख्या “दशक १९९० के पहले भाग में ७१ गुना बढ़ गयी,” एशियावीक की एक रिपोर्ट में कहा गया है। थाइलैंड, जो १९९० में एड्स पीड़ितों की संख्या के हिसाब से संसार में ५७वें नंबर पर था, दशक १९९० के मध्य तक ५वें नंबर पर आ गया। कम्बोडिया १७३वें नंबर से उछलकर ५९वें नंबर पर आ गया। और फिलीपींस में उसी अवधि में १३१ प्रतिशत वृद्धि हुई है। अनेक लोग जानते हैं कि इनमें से कई राष्ट्रों में फल-फूल रहा बाल-वेश्यावृत्ति उद्योग अंशतः इसका ज़िम्मेदार है, लेकिन एशियावीक कहती है कि ऐसे कुछ राजनीतिज्ञ जिनके देश “सैलानियों से मिले डॉलरों पर बहुत निर्भर हैं . . . [इसके विरुद्ध] प्रभावकारी क़दम उठाने से हिचकिचाते हैं।”
बाल दुर्व्यवहार और प्रतिरक्षा तंत्र
जापान में मीये यूनिवर्सिटी के अनुसंधायकों के अनुसार, जब एक बच्चे के साथ लंबे समय तक दुर्व्यवहार किया जाता है, तब उसका प्रतिरक्षा तंत्र बिगड़ने लगता है, और बच्चा रोग के प्रति अरक्षित हो जाता है। इस विश्वविद्यालय ने एक महीने से लेकर नौ साल तक की उम्र के ऐसे ५० बच्चों के शरीरों का अध्ययन किया जो प्रमस्तिष्कीय रक्तस्राव या शारीरिक दुर्व्यवहार द्वारा उत्पन्न अन्य अवस्थाओं के कारण मरे थे। बच्चों की थाइमस ग्रंथियाँ, “जो प्रतिरक्षा तंत्र के कार्यों को नियंत्रित करती हैं, सामान्य वज़न से सिकुड़कर आधी रह गयी थीं,” माइनीची डेली न्यूज़ रिपोर्ट करता है। जितने ज़्यादा अरसे तक दुर्व्यवहार हुआ, उतनी ज़्यादा सिकुड़न। असल में, “उस बच्चे की ग्रंथि का वज़न, जिसके साथ छः महीने से ज़्यादा समय तक दुर्व्यवहार किया गया था, दुर्व्यवहार न किये गये बच्चे से सोलह अंश कम था,” अख़बार ने कहा। अनुसंधायकों ने उन बच्चों में भी समान ग्रंथि सिकुड़न देखी है जो मानसिक दुर्व्यवहार या माता-पिता द्वारा भोजन देने से चूकने के कारण कुपोषण से पीड़ित रहे हैं।
अपने हाथ धोइए!
“अपने हाथ धोना अनेक संक्रमणों के फैलाव को रोकने का सबसे प्रभावकारी, सबसे आसान, और सबसे सस्ता तरीक़ा है,” इतालवी अख़बार कोरीऎरे डेला सेरा कहता है। फिर भी, “प्रति १० इतालवियों में से ३ से अधिक जन शौच जाने के बाद अपने हाथ नहीं धोते, चाहे वे उसके तुरंत बाद भोजन ही क्यों न करने जा रहे हों।” इस सर्वेक्षण के परिणाम दूसरे देशों में किये गये मिलते-जुलते सर्वेक्षणों से प्राप्त परिणामों के लगभग एकसमान हैं। “हाथ कीटाणुओं को भोजन तक पहुँचा सकते हैं और संक्रमण का सिलसिला शुरू कर सकते हैं,” सूक्ष्मजीवविज्ञानी एनरीको माल्यानो समझाता है। यह सिलसिला कैसे तोड़ा जा सकता है? साबुन और गरम या गुनगुने पानी से कम-से-कम ३० सॆकॆंड तक (बैक्टीरिया को दूर करने के लिए ज़रूरी कम-से-कम समय) अपने हाथ धोइए—नाखूनों के नीचे भी धोइए। इसमें उन्हें १० से १५ सॆकॆंड तक एकसाथ रगड़ना शामिल है। हाथ अच्छी तरह धोकर पोंछिए, बाँहों से शुरू करके उँगलियों तक आइए, लेख कहता है।
हॆपाटाइटिस-बी मृत्युसंख्या
विश्व स्वास्थ्य संगठन अनुमान लगाता है कि हर साल दस लाख से अधिक लोग हॆपाटाइटिस-बी से मरते हैं। बालचिकित्सक जगदीश चिनप्पा कहता है कि इनमें से क़रीब १,५०,००० मौतें भारत में होती हैं। एक बहुराष्ट्रीय औषधीय कंपनी द्वारा आयोजित सम्मेलन में, उसने बताया कि भारत में “३.५ से ४ करोड़ एच.बी.वी. [हॆपाटाइटिस-बी विषाणु] रोगी हैं जो कि विश्व भर में ऐसे रोगियों का १० प्रतिशत है,” द टाइम्स ऑफ़ इंडिया रिपोर्ट करता है। यह अख़बार आगे कहता है कि “जीर्ण लिवर रोग के दो पीड़ितों में से एक और प्राथमिक लिवर कैंसर के दस पीड़ितों में से आठ का कारण हॆपाटाइटिस बी संक्रमण है।”
घर के अंदर वायु प्रदूषण
नई दिल्ली, भारत में टाटा ऎनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट (TERI) द्वारा किया गया एक हालिया अध्ययन दिखाता है कि २२ लाख भारतीय हर साल वायु प्रदूषण से संबंधित बीमारियों के कारण मरते हैं। दी इंडियन ऎक्सप्रॆस रिपोर्ट करता है कि अध्ययन के अनुसार, घर के अंदर का वायु प्रदूषण मुख्य तत्त्व है। इसका सबसे ज़्यादा ख़तरा बस्तियों में रहनेवाली स्त्रियों को है जो कोयले, लकड़ी और उपलों के ईंधन पर खाना पकाती हैं। जबकि बाहरी वायु प्रदूषण को नियंत्रण में करने के लिए क़दम उठाये जा रहे हैं, फिर भी विशेषज्ञों को लगा कि करोड़ों लोगों को अपने ही घरों में इसका ख़तरा है जिसे कम करने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं किया जा रहा। “चोरी-चोरी एक संकट बढ़ रहा है जिसके लिए कोई तात्कालिक उपाय संभव नहीं दिखता,” TERI के निदेशक, आर. के. पचाउरी ने कहा।
स्वास्थ्यकर जीवन-शैली को बढ़ावा देना
अपनी विश्व स्वास्थ्य रिपोर्ट १९९७ में, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) चिताता है कि मानवजाति “दुःख-तकलीफ़ों की” बढ़ती “संकट-स्थिति” का सामना कर रही है। हर साल, जीर्ण स्वास्थ्य समस्याओं के साथ-साथ, कैंसर और हृदय रोग २.४ करोड़ से अधिक लोगों की जान लेते हैं और अन्य करोड़ों की मुसीबतें बढ़ाने का ख़तरा खड़ा करते हैं। अगले २५ सालों के दौरान, अधिकांश देशों में कैंसर पीड़ितों की संख्या दोगुनी होने का अनुमान है। अमीर राष्ट्रों में मुख्य जानलेवा, हृदय रोग और पक्षाघात, ग़रीब देशों में काफ़ी अधिक बढ़ जाएँगे। इन संभावनाओं की प्रतिक्रिया में, WHO स्वास्थ्यकर जीवन-शैलियों को बढ़ावा देने और जोखिम-भरे तत्त्वों को घटाने के लिए एक “तीव्र और दीर्घ” विश्वव्यापी अभियान की गुहार लगा रहा है। अस्वास्थ्यकर आहार, धूम्रपान, मोटापा, और व्यायाम की कमी जैसे जोखिम-भरे तत्त्व प्रायः घातक रोग में परिणित होते हैं।
वैज्ञानिकों का परमेश्वर में विश्वास
वर्ष १९१६ में, अमरीकी मनोविज्ञानी जेम्स लबा ने मनमर्ज़ी से चुने १,००० वैज्ञानिकों से पूछा कि क्या वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। उनका उत्तर? जिन वैज्ञानिकों ने उत्तर दिया, उनमें से ४२ प्रतिशत ने परमेश्वर में विश्वास व्यक्त किया, द न्यू यॉर्क टाइम्स रिपोर्ट करता है। लबा ने पूर्वानुमान लगाया कि जैसे-जैसे शिक्षा फैलेगी परमेश्वर में विश्वास कम होता जाएगा। अब, ८० से अधिक सालों बाद, यूनिवर्सिटी ऑफ़ जॉर्जिया के ऎडवर्ड लारसन ने लबा के विख्यात सर्वेक्षण को दोहराया है। उन्हीं प्रश्नों और तरीक़ों को इस्तेमाल करते हुए, लारसन ने जीवविज्ञानियों, भौतिकविज्ञानियों, और गणितज्ञों से पूछा कि क्या वे एक ऐसे परमेश्वर में विश्वास करते हैं जो सक्रिय रूप से मानवजाति के साथ संचार करता है। नतीजे दिखाते हैं कि आज भी लगभग उतने ही वैज्ञानिक, क़रीब ४० प्रतिशत, परमेश्वर में विश्वास व्यक्त करते हैं। डॉ. लारसन के अनुसार, “लबा ने या तो मानव मस्तिष्क का या मनुष्य की सभी ज़रूरतों को पूरा करने की विज्ञान की क्षमता का ग़लत अनुमान लगाया।”
निराशा-भरी पीढ़ी
आज के १५-से-२४ वर्षीय युवाओं की मनोवृत्तियों की तुलना दो पीढ़ी पहले के युवाओं से करने पर सर्वेक्षणों ने दिखाया है कि नशीले पदार्थों के दुरुपयोग, अपराध दर, और आत्महत्या में वृद्धि हुई है, दी ऑस्ट्रेलियन रिपोर्ट करता है। नीति विश्लेषक और विज्ञान लेखक, रिचर्ड ऎकर्ज़ली ने यह कहते हुए आज के अनेक युवाओं की भावनाओं का सार दिया: “युवा मानते हैं कि जीवन को रोमांचक और मनोरंजक होना चाहिए, कि उन्हें अपना गुज़ारा आप करना है, कि जीवन-शैली विकल्प खुले रखे जाने चाहिए, कि सरकारें समाज की समस्याओं का हल करने में असमर्थ हैं, और कि स्वयं उनके पास सामाजिक स्थिति को बदलने की शक्ति नहीं।” शानू नाम की एक १५-वर्षीय लड़की ने कहा: “जनसंख्या बढ़ रही है और हमें नौकरियों की कमी, मकानों की कमी, हर चीज़ की कमी के कारण होड़ाहोड़ी करनी पड़ती है।”
दुनिया-घूमनेवाले विषाणु
विमान मलजल टंकियों में ऐसे रसायन होते हैं जिनसे विषाणुओं को मर जाना चाहिए, लेकिन कुछ विषाणु इन रोगाणुनाशी रसायनों के संपर्क में आकर भी बच जाते हैं, न्यू साइंटिस्ट पत्रिका रिपोर्ट करती है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ नॉर्थ कैरोलाइना के पर्यावरण-विज्ञानी, मार्क सॉबसी ने पाया कि अमरीका में उतरनेवाली अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों में से उसने जितने भी मलजल जाँचे, उनमें से लगभग आधों में जीवित विषाणु थे। अमरीका में, विमान से निकले कचरे को आम तौर पर सार्वजनिक मल-गृहों में अपघटित किया जाता है और बाद में वातावरण में फेंक दिया जाता है। अतः, इस बात का ख़तरा बना रहता है कि इनमें से कुछ विषाणु हॆपाटाइटिस ए और ई, मॆनिनजाइटिस, और पोलियो जैसी बीमारियाँ फैला सकते हैं। सॉबसी आगे कहता है: “दुनिया की विमान सेवाओं द्वारा तरह-तरह की बीमारियाँ फैल सकती हैं जो काफ़ी चिंताजनक है।”
छुटपुट खाना और दाँत सड़ना
यह कोई नयी बात नहीं कि मीठी चीज़ें कम खाने से दाँत जल्दी नहीं सड़ते। लेकिन, ख़ासकर महत्त्वपूर्ण है इस बात का ध्यान रखना कि आप छुटपुट चीज़ें कब और कितनी बार खाते हैं, पारिवारिक दंत मार्गदर्शक अपने परिवार को मुस्कराता हुआ कैसे रखें (अंग्रेज़ी) रिपोर्ट करता है। जब मिठाइयाँ या परिशुद्ध कार्बोहाइड्रेट आपके दाँत में लगे प्लाक के संपर्क में आते हैं, तब अम्ल बनता है। क्रमशः, यह अम्ल तक़रीबन २० मिनट तक आपके दाँतों के इनैमल (दंतवल्क) पर हमला करता है, ब्रोशर कहता है। इस समय के दौरान गड्ढे होने लग सकते हैं। इसके अलावा, “जब-जब आप कोई मीठी या मंडमय चीज़ खाते हैं, तब-तब यह हो सकता है।” सो यदि आप कोई छुटपुट चीज़ खाने जा रहे हैं, तो “उसे एक ही बार में पूरा खा लेना बेहतर है,” इस प्रकार आपके दाँतों में एक ही बार अम्ल लगेगा। नहीं तो, उसी चीज़ को लंबे समय तक टूँगते रहने से अम्ल का हमला ज़्यादा समय तक होता है। दाँतों को सड़ने से बचाने के लिए, दंत-चिकित्सक सिफ़ारिश करते हैं कि आपको दिन में कम-से-कम दो बार अपने दाँतों को ब्रश करना चाहिए। साथ ही, हर दिन धागे से अपने दाँतों के बीच में सफ़ाई करना मत भूलिए।
लुप्त होती गंगा
भारत की गंगा नदी को करोड़ों हिंदू पवित्र मानते हैं। गंगा के आस-पास के क्षेत्रों में यह खेती की जान भी है। लेकिन अब इसका पानी तेज़ी से कम होता जा रहा है, और नदी तथा इसके पुराने तटों के बीच सूखी भूमि बढ़ती जा रही है, इंडिया टुडे रिपोर्ट करती है। समझा जा रहा है कि पानी में हुई इतनी बड़ी कमी का कारण है अपर्याप्त वर्षा और नदी के ऊपरी भाग में सिंचाई के लिए पानी का अधिक इस्तेमाल। क्षेत्र में खेती को ख़तरे में डालने के अलावा, पानी की कमी के कारण आया गाद कलकत्ता के बंदरगाह को नौका चलाने के लिए अयोग्य बना सकता है, रिपोर्ट कहती है।