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  • जाति-गर्व के बारे में क्या?

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  • जाति-गर्व के बारे में क्या?
  • सजग होइए!–1998
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सजग होइए!–1998
g98 3/8 पेज 25-27

युवा लोग पूछते हैं . . .

जाति-गर्व के बारे में क्या?

“मेरा एक स्कूल-साथी हमेशा दूसरों की जाति और रंग के बारे में बात करता है,” १७-वर्षीया टान्या आह भरती है। “कई बार बात करते समय, वह दावा करता है कि वह उनसे श्रेष्ठ है।”

अपने परिवार, संस्कृति, भाषा, या मूलस्थान पर गर्व करना स्वाभाविक है। “मैं वियतनामी हूँ,” १५-वर्षीया फॉन्ग कहती है, “और मुझे अपनी संस्कृति पर गर्व है।”

लेकिन, जाति-गर्व अकसर जाति-भेद से जुड़ा होता है। अतः यह गर्व ऐसा कैंसर हो सकता है जो अंदर-ही-अंदर संबंधों को खा जाता है, तब भी जब यह शिष्टता का मुखौटा पहने होता है। यीशु मसीह ने कहा: “जो मन में भरा है, वही मुंह पर आता है।” (मत्ती १२:३४) और श्रेष्ठता—या अनादर—की भावनाएँ जो अंदर तक बैठी होती हैं अकसर बाहर आ ही जाती हैं। इससे चोट और पीड़ा पहुँचती है।

कभी-कभी जाति-गर्व हिंसा में बदल जाता है। हाल के सालों में यह युद्धों, दंगों, और खूनी “नृजातीय सफाई” का ईंधन रहा है। लेकिन, जाति-गर्व का भौंडा रूप देखने के लिए आपको खून-खराबा ही देखने की ज़रूरत नहीं। उदाहरण के लिए, क्या आप स्कूल में, कार्यस्थल पर, या अपने आस-पड़ोस में इसका प्रमाण देखते हैं? “हाँ, ज़रूर देखते हैं,” मॆलिसा नाम की एक मसीही युवा कहती है। “मेरे कुछ स्कूल-साथी उन बच्चों की हँसी उड़ाते हैं जो अलग-से लहज़े में बोलते हैं। वो कहते हैं कि हम उनसे बेहतर हैं।” इसी तरह टान्या बताती है: “स्कूल में मैंने बच्चों को दूसरों के मुँह पर कहते सुना है: ‘मैं तुम से अच्छा हूँ।’” अमरीका के एक सर्वेक्षण में, लगभग आधे मतदाताओं ने कहा कि पिछले साल के दौरान उन्होंने व्यक्‍तिगत रूप से किसी-न-किसी तरह की जातीय पूर्वधारणा का अनुभव किया है। “मेरे स्कूल में काफी जातीय तनाव है,” नताशा नाम की युवती ने कहा।

अब मान लीजिए कि आप ऐसे देश या इलाके में रहते हैं जहाँ दूसरी जाति के बहुत-से लोग आकर बस गये हैं, जिससे आपके स्कूल, आस-पड़ोस, या मसीही कलीसिया का पूरा रूप ही बदल गया है। क्या आपको इससे थोड़ी-बहुत बेचैनी होती है? तो शायद आपके सोच-विचार में जाति-गर्व का अंश कुछ ज़्यादा ही हो, जितना आपने सोचा भी न हो।

उचित बनाम अनुचित गर्व

क्या इसका यह अर्थ है कि गर्व अपने आपमें गलत है? ऐसा ज़रूरी नहीं। बाइबल दिखाती है कि उचित किस्म के गर्व का अपना स्थान है। जब प्रेरित पौलुस ने थिस्सलुनीकिया के मसीहियों को लिखा, तब उसने कहा: “हम आप परमेश्‍वर की कलीसिया में तुम्हारे विषय में घमण्ड करते हैं।” (२ थिस्सलुनीकियों १:४) उसी तरह, थोड़ा-बहुत आत्म-सम्मान तो होना ही चाहिए, यह स्वास्थ्यकर और सामान्य है। (रोमियों १२:३) सो अपनी जाति, परिवार, भाषा, रंग, या मूलस्थान पर थोड़ा-बहुत गर्व करना अपने आपमें गलत नहीं। निश्‍चित ही परमेश्‍वर यह माँग नहीं करेगा कि हम इन बातों के बारे में लज्जित हों। जब प्रेरित पौलुस को गलती से मिस्री अपराधी समझा गया, तब उसे यह कहने में झिझक नहीं हुई: “मैं तो तरसुस का यहूदी मनुष्य हूं! किलिकिया के प्रसिद्ध नगर का निवासी हूं।”—प्रेरितों २१:३९.

लेकिन, जाति-गर्व भौंडा हो जाता है जब इसके कारण व्यक्‍ति को कुछ ज़्यादा ही आत्म-सम्मान का बोध होता है या व्यक्‍ति दूसरों को नीचा समझने लगता है। बाइबल कहती है: “यहोवा का भय मानना बुराई से बैर रखना है। घमण्ड अहंकार और बुरी चाल से, और उलट फेर की बात से भी मैं बैर रखती हूं।” (नीतिवचन ८:१३) और नीतिवचन १६:१८ कहता है: “विनाश से पहिले गर्व, और ठोकर खाने से पहिले घमण्ड होता है।” इसलिए यह डींग मारना कि हम श्रेष्ठ जाति के हैं यहोवा के समक्ष घृणित है।—याकूब ४:१६ से तुलना कीजिए।

जाति-गर्व के कारण

किस कारण लोग अपनी जाति पर ज़्यादा ही गर्व करते हैं? लीज़ा फुंडरबुर्ग की पुस्तक अश्‍वेत, श्‍वेत, अन्य (अंग्रेज़ी) कहती है: “जाति के बारे में अनेक लोगों पर सबसे-पहला (और सबसे-स्थायी) प्रभाव माता-पिता और परिवार का होता है।” दुःख की बात है कि कुछ माता-पिता जो प्रभाव डालते हैं वो ज़्यादातर असंतुलित या विकृत होते हैं। कुछ युवाओं को सीधे ही बताया जाता है कि उनकी जाति के लोग श्रेष्ठ हैं और दूसरी जातियों के लोग भिन्‍न या निम्न हैं। लेकिन, आम तौर पर युवा खुद यह देखते हैं कि उनके माता-पिता दूसरी जाति के लोगों से कोई लेना-देना नहीं रखते। इसका भी उनके सोच-विचार पर प्रबल प्रभाव पड़ सकता है। सर्वेक्षण दिखाते हैं कि जबकि कपड़ों अथवा संगीत की बात पर युवा और माता-पिता सहमत नहीं होते, लेकिन जाति के बारे में अधिकांश युवा अपने माता-पिता के विचारों से सहमत होते हैं।

जाति के बारे में असंतुलित मनोवृत्ति दमन और दुर्व्यवहार के कारण भी विकसित हो सकती है। (सभोपदेशक ७:७) उदाहरण के लिए, शिक्षकों ने नोट किया है कि तथाकथित अल्पसंख्यक समूहों के बच्चों में प्रायः आत्म-सम्मान की कमी होती है। स्थिति को सुधारने की कोशिश में, कुछ शिक्षकों ने ऐसे स्कूल पाठ्यक्रम तैयार किये हैं जिनमें बच्चों को अपनी जाति का इतिहास सिखाया जाता है। दिलचस्पी की बात है, आलोचक बहस करते हैं कि जाति-गर्व पर इस प्रकार ज़ोर देना जाति-भेद उत्पन्‍न करता है।

जाति-भेद की अहितकर मनोवृत्ति विकसित होने में व्यक्‍तिगत अनुभव की भी भूमिका हो सकती है। दूसरी जाति के किसी व्यक्‍ति के साथ कड़ुवा अनुभव होने पर व्यक्‍ति यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि उस जाति के सभी लोग घृणित या आपत्तिजनक हैं। उसी तरह नकारात्मक भावनाएँ उभर सकती हैं जब समाचार माध्यम जातीय संघर्षों, पुलिस क्रूरता, और विरोध प्रदर्शनों पर ध्यान खींचते हैं या जब वे नृजातीय समूहों के बारे में नकारात्मक बात करते हैं।

जाति श्रेष्ठता की मिथ्या

कुछ लोगों के इस दावे के बारे में क्या कि उनकी जाति को दूसरों से श्रेष्ठ महसूस करने का अधिकार है? यह विचार ही विवादास्पद है कि लोगों को विशिष्ट जातियों में विभाजित किया जा सकता है। न्यूज़वीक में एक लेख ने कहा: “जिन वैज्ञानिकों ने इस विषय पर अध्ययन किया है, उन्होंने जाति को बहुत-ही पेचीदा मत पाया है जिसको परिभाषित करने के कोई भी गंभीर प्रयास सफल नहीं होते।” सच है, “त्वचा के रंग, बालों के प्रकार और व्यक्‍ति की आँखों या नाक के आकार में प्रत्यक्ष भिन्‍नताएँ” हो सकती हैं। लेकिन, न्यूज़वीक ने कहा कि “ये भिन्‍नताएँ केवल ऊपरी हैं—और वैज्ञानिक चाहे जितनी भी कोशिश करें, वे मूलतः ऐसी निश्‍चित भिन्‍नताएँ बताने में समर्थ नहीं हुए हैं जो एक जातीय समूह को दूसरे से अलग करें। . . . इन विषयों पर अध्ययन कर रहे अधिकांश वैज्ञानिकों के लिए निचोड़ यह है कि जाति मात्र ‘सामाजिक रचना’ है—पूर्वधारणा, अंधविश्‍वास और मिथ्या का [दूषित] मिश्रण है।”

यदि जातियों के बीच वैज्ञानिक भिन्‍नताएँ की जा सकतीं, तो भी “शुद्ध” जाति का विचार तो कल्पना ही है। द न्यू एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका कहती है: “कोई शुद्ध जाति नहीं; अभी मौजूद सभी जातीय समूह पूरी तरह मिश्रित हैं।” बात जो भी हो, बाइबल सिखाती है कि परमेश्‍वर ने “एक ही मूल से मनुष्यों की सब जातियां . . . बनाई हैं।” (प्रेरितों १७:२६) त्वचा का रंग, बालों का प्रकार, अथवा नाक-नक्शा चाहे जैसा भी हो, असल में मात्र एक जाति है—मानवजाति। हमारे पूर्वज आदम के द्वारा सभी मनुष्यों में संबंध है।

प्राचीन यहूदी अच्छी तरह जानते थे कि सभी जातियों का एक ही मूल है। लेकिन, मसीही बनने के बाद भी कुछ लोग इस विश्‍वास को पकड़े रहे कि वे गैर-यहूदियों से श्रेष्ठ हैं—जिनमें उनके गैर-यहूदी संगी विश्‍वासी भी शामिल थे! प्रेरित पौलुस ने जातीय श्रेष्ठता की धारणा को कुचल दिया। जैसा रोमियों ३:९ में अभिलिखित है, उसने कहा: ‘यहूदी और यूनानी सब के सब पाप के वश में हैं।’ इसलिए कोई जातीय समूह यह डींग नहीं मार सकता कि परमेश्‍वर के समक्ष उनका कोई खास स्थान है। वास्तव में, यीशु मसीह में विश्‍वास करने से ही व्यक्‍ति परमेश्‍वर के साथ संबंध बना सकते हैं। (यूहन्‍ना १७:३) और यह परमेश्‍वर की इच्छा है कि “सब मनुष्यों का उद्धार हो; और वे सत्य को भली भांति पहचान लें।” (तिरछे टाइप हमारे।)—१ तीमुथियुस २:४.

यदि आप स्वीकार करते हैं कि सभी जातियाँ परमेश्‍वर की दृष्टि में समान हैं तो अपने और दूसरों के प्रति आपके विचार पर उल्लेखनीय प्रभाव हो सकता है। यह आपको प्रेरित कर सकता है कि दूसरों के साथ गरिमा और आदर से व्यवहार करें, उनकी भिन्‍नताओं की कदर और सराहना करें। उदाहरण के लिए, युवा मॆलिसा, जिसका ज़िक्र पहले किया गया है, उन युवाओं की हँसी उड़ाने में अपने स्कूल-साथियों का साथ नहीं देती जो विदेशी लहज़े में बोलते हैं। वह कहती है: “जो दो भाषाएँ बोल सकते हैं उन्हें मैं अकलमंद मानती हूँ। जबकि मैं चाहती हूँ कि एक और भाषा बोल सकूँ, पर मैं एक ही भाषा बोल पाती हूँ।”

यह भी याद रखिए कि जबकि आपकी जाति और संस्कृति के लोगों के पास निश्‍चित ही बहुत कुछ है जिस पर गर्व किया जाए, लेकिन यही बात दूसरी जातियों के बारे में भी सच है। और जबकि अपनी संस्कृति और अपने पूर्वजों की उपलब्धियों पर थोड़ा-बहुत गर्व करना तर्कसंगत हो सकता है, परंतु उससे कहीं अधिक संतोषदायी है अपने प्रयास और परिश्रम से आपने स्वयं जो उपलब्धि की है उस पर गर्व करना! (सभोपदेशक २:२४) असल में, ऐसी एक उपलब्धि है जिस पर गर्व करने के लिए बाइबल आपसे आग्रह करती है। जैसे यिर्मयाह ९:२४ में बताया गया है, परमेश्‍वर स्वयं कहता है: “जो घमण्ड करे वह इसी बात पर घमण्ड करे, कि वह मुझे जानता और समझता है, कि मैं ही . . . यहोवा हूं।” क्या आप इस बात का घमंड कर सकते हैं?

[पेज 26 पर तसवीर]

जाति के बारे में परमेश्‍वर का दृष्टिकोण जानना हमें दूसरी जातियों के लोगों की संगति का मज़ा लेने में मदद देता है

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