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सजग होइए!–1999
g99 7/8 पेज 28-29

विश्‍व दर्शन

बच्चे कम पैदा होने से चिंता

पैरिस का इंटरनैशनल हैरॆल्ड ट्रिब्यून रिपोर्ट करता है, ‘लोग कम बच्चे पैदा कर रहे हैं जिसे देखकर कई विकसित देशों को चिंता हो रही है।’ मगर क्यों? क्योंकि इसका मतलब यह है कि आगे चलकर, जब आज के लोग बूढ़े हो जाएँगे, उस समय उनकी देखरेख करने के लिए जवानों की कमी हो जाएगी। उदाहरण के लिए, आज कई यूरोपीय देशों में कुल मिलाकर देखा जाए तो, २० से कम आयु के लोग बहुत कम है जबकि ६० और इससे ज़्यादा आयु के लोग काफी हैं। आबादी में बूढ़े लोग ज़्यादा होने का एक कारण यह है कि दंपतियों में जल्दी बच्चे पैदा न करने का चलन है। और वे शायद ऐसा इसलिए करते हैं ताकि वे यात्रा कर सकें, नौकरी में तरक्की कर सकें, या ज़्यादा शिक्षा हासिल कर सकें। दूसरा कारण है पैसों की कमी, जिसकी वज़ह से बच्चे पैदा करना और उन्हें सँभालना एक “बोझ” या “असुविधा” लगता है। साथ ही आज, बच्चे न पैदा करने की वज़ह से लोगों की आयु पहले की तुलना में ज़्यादा है।

कम सोने की समस्या बढ़ रही है

न्यूज़वीक पत्रिका कहती है कि अमरीकी लोग “इस सदी की शुरूआत में औसतन जितने घंटे सोते थे, उससे [वे] आज हर रात डेढ़ घंटा कम सोते हैं, और शायद यह समस्या बढ़ती ही जाए।” क्यों? विस्कॉनसन की यूनिवर्सिटी में रोग-निवारक चिकित्सा के प्रॉफॆसर टेरी यंग इसके जवाब में कहते हैं, “क्योंकि लोगों ने नींद को ऐसी चीज़ समझ लिया है जिसके बिना वे काम चला सकते हैं। बहुत कम नींद लेने की बात को कड़ी मेहनत और तरक्की की निशानी समझी जाती है।” लेकिन कम घंटे सोने से कई नुकसान भी हो सकते हैं जिनमें हताशा से लेकर दिल की बीमारी शामिल है। चूहों पर इसे आज़माया गया और देखा गया कि जिन चूहों को सोने नहीं दिया गया, वे ढाई हफ्ते बाद मर गए। न्यूज़वीक कहती है, “आप शायद उनकी तरह अचानक नहीं मरेंगे, लेकिन जब कोई और व्यक्‍ति काफी दिनों से कम सोता आया हो, तो यह आपकी जान पर आ बन सकता है। खासकर तब जब कोई थकाहारा डॉक्टर आपको गलत दवा लिखकर दे देता है, या फिर कोई उँनींदा ड्राइवर आपकी गाड़ी के आगे, आड़ा-तिरछा गाड़ी चलाता है।” नींद पर शोध करनेवाले जेम्स्‌ वाल्श कहते हैं: “लोगों को यह सिखाया जाना ज़रूरी है कि पर्याप्त नींद लेना और समय-समय पर झपकियाँ लेना ही सबसे भरोसेमंद तरीका है, जिससे आप गाड़ी चलाते वक्‍त और काम करते वक्‍त सतर्क रह सकते हैं।”

स्लीपिंग सिकनॆस की वापसी

सन्‌ १९७४ में, एंगोला में तीन लोगों को स्लीपिंग सिकनॆस (निद्रा-रोग) हुआ। हाल ही में, विश्‍व स्वास्थ्य संगठन ने अनुमान लगाया कि कम-से-कम ३,००,००० लोग इस रोग से पीड़ित हैं। और शायद लाखों-हज़ारों लोगों को यह रोग लग जाने का खतरा है। यह रोग सीसी मक्खी (tsetse fly) के काटने पर होता है। किसी परजीवी से संक्रमित व्यक्‍ति का खून चूसने के बाद यह मक्खी दूसरे व्यक्‍ति को संक्रमित करने चल देती है। खासकर, खेती में काम करनेवाले लोगों को या नदी में कपड़े धोनेवाले लोगों को—यहाँ तक कि माँ की पीठ पर बँधे बच्चों को—यह रोग लग जाने का खतरा बना रहता है। जिन्हें यह बीमारी हो जाती है, उन्हें शुरू-शुरू में सिरदर्द, बुखार और उल्टियाँ होती हैं। रात को नींद नहीं आने की वज़ह से वे दिन में झपकियाँ लेते रहते हैं। यह परजीवी अब केंद्रीय स्नायु-तंत्र में प्रवेश करता है और आखिर में दिमाग में प्रवेश करता है जिससे व्यक्‍ति पागल होकर कॉमा में पड़ जाता है और आखिर में मर जाता है। इस संक्रमण को फैलने से रोकना और रोगियों का इलाज करना बहुत महँगा तो है ही, साथ ही साथ बहुत मुश्‍किल भी है। एक इलाज के लिए तकरीबन ९० डॉलर [३,६०० रुपए] लगते हैं, जो “एंगोला के लोगों के लिए बहुत ही महँगा है,” लंदन का द डेली टॆलेग्राफ रिपोर्ट करता है।

जैसा चाहा वैसा न हुआ

शहर के ट्रैफिक की वज़ह से ड्राइवर अधीर हो जाते हैं और इससे उन्हें काफी तनाव होता है। रोम के ला साप्येनसा यूनिवर्सिटी में मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चला कि जितना ज़्यादा ट्रैफिक बढ़ता है, लोग उतनी ही ज़्यादा गालियाँ बकते हैं और ज़्यादातर वे धर्म को गालियाँ देते हैं। कोरीरे देल्ला सेरा अखबार के मुताबिक, हाइवे पर “५४ प्रतिशत गालियाँ और गंदी हरकतें” ट्रैफिक की समस्याओं की वज़ह से होती हैं। लेकिन, बड़े शहरों में ट्रैफिक समस्याओं की वज़ह से, “संतों और कुँवारी मरियम को गाली देना” आम बात है। अखबार ने कहा कि “बड़े-बड़े शहरों में इन दिनों, ७८ प्रतिशत अनाप-शनाप और गंदी बातें जिन्हें आम तौर पर गाली या बुरा-भला कहना कहा जाता है, ट्रैफिक की वज़ह से ही होती हैं।” रोम में, सन्‌ २००० को कैथोलिक जुबली इयर घोषित किया गया है, और उसकी तैयारी में निर्माण कार्य चल रहा है, और इस निर्माण कार्य की वज़ह से ही वहाँ हाल में ट्रैफिक की समस्या काफी बढ़ गयी है। दिलचस्पी की बात है कि सन्‌ २००० में इंडलजॆन्सस [यानी, चर्चों द्वारा इंतज़ाम जिसमें उसके सदस्यों को माफी मिलती है] दिया जाएगा। इस जुबली से संबंधित एक दल के अध्यक्ष ने टिप्पणी की: “मज़े की बात तो यह है कि रोम में इस जुबली की वज़ह से इंडलजॆन्सस की याचनाएँ बढ़ने के बजाय गाली-गलौज दिन-दूनी रात-चौगुनी हो जाएँगी।”

क्लासिकल संगीत से यात्रियों को शांत करना

रियो डॆ जनॆरो में कुछ १८ सबवे यानी सुरंग-रेल के स्टेशनों पर ट्रेन का इंतज़ार करते वक्‍त यात्रियों को अब स्ट्राउस, वीवाल्डी, शोपैन, चाईकोफस्की, मोत्सार्ट, बाक, बीज़े, शूबर्ट, और ब्राहम्ज़ जैसे संगीतकारों के क्लासिकल संगीत सुनाए जाते हैं। इस तरह से, सुरंग-रेलों के अधिकारी आशा करते हैं कि “अगली ट्रेन आने तक यात्री बेचैन नहीं होंगे बल्कि शांत रह सकेंगे,” अखबार ओ ग्लोबू कहता है। इन स्टेशनों के लिए क्लासिकल संगीत के गाने चुनते वक्‍त “ऐसे गीत चुने जाते थे जो सवारियों को तनाव-मुक्‍त तो करेंगे ही, साथ ही उन्हें ऐसा भी महसूस नहीं कराएँगे कि वे प्लैटफार्म पर नाच रहे हों।” रियो डॆ जनॆरो के सबवे सिस्टम के मार्केटिंग डायरेक्टर लूईश मार्यो मीरान्डा कहते हैं, “हमने जितनी उम्मीद की थी, उससे कहीं ज़्यादा यह लोगों को पसंद आया है।”

हर व्यक्‍ति की ज़िम्मेदारी

द गार्डियन वीकली अखबार के एक लेख में लिखा था, “सन्‌ १९७० से इंसान ने प्रकृति के ३० से भी ज़्यादा प्रतिशत भाग को बरबाद कर दिया है, जिससे बड़े पैमाने पर जंगल नष्ट हो रहे हैं, और नदी-नाले, दरिया और समुद्र बरबाद हो रहे हैं। ये सब जीवन के लिए बेहद ज़रूरी चीज़ें हैं।” यह लेख तीन ऐसे संगठनों की हालिए रिपोर्ट पर आधारित था, जिन्हें इस बारे में चिंता है, और इसमें वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (WWF) भी शामिल है। इस लेख ने कहा कि आम तौर पर देखा जाए तो पश्‍चिम के देश कुदरत की देन की सबसे ज़्यादा खपत करते रहे हैं, लेकिन अब विकासशील देश भी “बहुत तेज़ दर से अपने कुदरत की देन को नष्ट कर रहे हैं।” WWF का एक अधिकारी कहता है: “हम जानते थे कि हालात बहुत गंभीर है, लेकिन यह रिपोर्ट तैयार करने पर ही हमें एहसास हुआ कि समस्या वास्तव में कितनी नाज़ुक है।” अखबार में दी गयी रिपोर्ट के मुताबिक, इस चलन को न रोक पाने के लिए सरकारें तो ज़िम्मेदार हैं ही लेकिन “दुनिया की कुदरती देन को लापरवाही से इस्तेमाल करने के लिए हम में से हर व्यक्‍ति भी ज़िम्मेदार है।”

धूम्रपान करने की भारी कीमत

हालाँकि कई देशों में धूम्रपान करनेवालों की संख्या में उतार-चढ़ाव हो रहा है मगर स्विट्‌ज़रलैंड में यह संख्या न तो कम होती है, ना ही बढ़ती है, यह खबर बरना ओबॆरलाडे अखबार ने दी। वहाँ की आबादी के लगभग एक-तिहाई जन सिग्रॆट पीते हैं। हर साल तकरीबन ८,००० लोग इस वज़ह से मरते हैं और यह संख्या एड्‌स, हिरोइन, कोकेन, शराब, आग से मरनेवालों, वाहन-दुर्घटनाओं, कतल, या खुदकुशी से मरनेवालों की कुल संख्या से ज़्यादा है। स्विट्‌ज़रलैंड के फॆडरल डिपार्टमेंट ऑफ पब्लिक हैल्थ ने एक अध्ययन किया और निष्कर्ष निकाला कि सन्‌ १९९५ में तंबाकू खरीदने में दस अरब स्विस फ्रांक खर्च हुए थे यानी २४० खरब रुपए से भी ज़्यादा। अध्ययन ने चिकित्सा और अस्पताल के खर्च, नौकरी पर कार्य-क्षमता में गिरावट, धूम्रपान करनेवाले बीमार लोगों और उन पर आश्रित लोगों की ज़िंदगी के दर्जे में गिरावट और मृत व्यक्‍ति के परिवार के सदस्यों की दुःख-तकलीफों का अनुमान लगाने की कोशिश की।

अपने दिल की रक्षा कीजिए

ओन्टॆरीयो, कनाडा के हार्ट एण्ड स्ट्रोक फाउंडेशन के कार्डिऑलॉजिस्ट और प्रवक्‍ता, डॉ. एन्थोनी ग्राहैम कहते हैं, “हमें तो पहले से ही पता था कि गर्मी के मौसम की वज़ह से दिल का दौरा पड़ने का खतरा बढ़ता है, लेकिन अभी हमें यह पता चला है कि ठण्ड के मौसम से भी ऐसा होता है।” द ग्लोब एण्ड मेल अखबार में जैसा रिपोर्ट किया गया है, फ्रांस के २,५०,००० लोगों पर दस साल तक अध्ययन किया गया और इससे पता चला कि औसत तापमान से दस डिग्री सॆलसियस ज़्यादा या कम होने पर “दिल का पहला दौरा पड़ने की गुंजाइश १३ प्रतिशत बढ़ जाती है।” जब तापमान गिर जाता है, तब हृदय पर ज़्यादा ज़ोर पड़ता है और वह तेज़ी से काम करता है क्योंकि उष्मा की बचत करने के लिए खून त्वचा से हटकर शरीर के अंदरूनी भागों में चला जाता है। खतरा और भी बढ़ जाता है जब लोग परिश्रम करके अपने आपको ज़्यादा थकाते हैं या मौसम के अनुरूप सही कपड़े नहीं पहनते। डॉ. ग्राहैम आगाह करते हैं: “पाँच-छः महीने बिस्तरे पर पड़े रहकर आराम करने के बाद, अचानक से आप बाहर निकलकर ठण्डे मौसम में, फावड़े से रास्ते का हिम साफ करने का काम नहीं कर सकते। आपको पहले से ही आहिस्ते-आहिस्ते अपने शरीर को ऐसे कामों की आदत डालनी चाहिए।”

अपने बच्चे से बात कीजिए

छोटे बच्चों से रोज़ाना कम-से-कम ३० मिनट बात करने से उनकी बुद्धि और भाषा का ज्ञान काफी बढ़ सकता है, ऐसा लंदन के डेली टॆलेग्राफ ने रिपोर्ट किया। शोध करनेवालों ने नौ-महीने के १४० शिशुओं का अध्ययन किया। इस समूह के आधे माता-पिताओं को अपने शिशुओं से कैसे बात करें, इस पर अच्छे सुझाव दिए गए और बाकी के आधे माता-पिताओं को इस बारे में कोई सुझाव नहीं दिया गया। रिपोर्ट कहती है कि सात साल के बाद, “जिन माता-पिताओं को अपने शिशुओं से बात करने के बेहतरीन तरीके बताए गए थे, उनके बच्चों की बुद्धि बाकी के बच्चों से, जिनके माता-पिता को कोई सुझाव नहीं दिया गया था, औसतन पंद्रह महीने ज़्यादा थी।” और भाषा का उनका ज्ञान भी “स्पष्ट रूप से बहुत ज़्यादा था।” शोधकर्ता डॉ. सैली वार्ड मानती हैं कि पहले ज़माने के माता-पिताओं की तुलना में, आजकल के माता-पिता अपने शिशुओं से कम बातें करते हैं। इसकी वज़ह? समाज में हुए बड़े-बड़े बदलाव। उदाहरण के लिए, ज़्यादातर माताएँ आज नौकरी करती हैं, और वीडियोटेप के बोल-बाले की वज़ह से कई घरों में बातचीत कम हो गयी है।

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