“बच्चे सुकुमार हैं”
‘बच्चे सुकुमार हैं; मैं बच्चों की चाल के अनुसार धीरे-धीरे चलता हुआ आऊँगा।’—याकूब, कई बच्चों का पिता, सा.यु.पू. १८वीं सदी।
बच्चों के साथ दुर्व्यवहार कोई नयी बात नहीं है। प्राचीन सभ्यताएँ—जैसे ऎज़टॆक, कनानी, इंका और फिनिशियाई—बच्चों की बलि चढ़ाने की प्रथा के लिए बदनाम हैं। फिनिशिया के कारथिज नगर (अब ट्यूनिस का उपनगर, उत्तर अफ्रीका) में हुई खुदाई से पता चला है कि सा.यु.पू. पाँचवीं से तीसरी सदी के बीच, वहाँ करीब २०,००० बच्चों को बाल देवता और टानिट देवी की बलि चढ़ाया गया था! यह संख्या और भी ज़्यादा भयंकर जान पड़ती है जब हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि अपने समृद्धि-काल में भी कारथिज की जनसंख्या बस २,५०,००० के करीब बतायी जाती है।
लेकिन, प्राचीन समय में एक ऐसी जाति थी जो फर्क थी। ऐसे लोगों के बीच रहते हुए भी जो अपने बच्चों के साथ क्रूरता करते थे, इस्राएल जाति अपने बच्चों के साथ बहुत ही अलग व्यवहार करती थी। उस जाति के पिता, कुलपिता याकूब ने इसका उदाहरण रखा। बाइबल की उत्पत्ति नामक पुस्तक के अनुसार, स्वदेश लौटते समय याकूब ने पूरे काफिले को ऐसी रफ्तार से चलाया कि बच्चों को सफर बहुत मुश्किल न लगे। “बच्चे सुकुमार हैं,” उसने कहा। उस समय उसके बच्चों की उम्र ५ से १४ साल के आस-पास थी। (उत्पत्ति ३३:१३, १४, NHT) उसके वंशज, इस्राएलियों ने बच्चों की ज़रूरतों और गरिमा के लिए वैसा ही आदर दिखाया।
निश्चित ही बाइबल समय में बच्चों के पास करने के लिए बहुत कुछ था। जैसे-जैसे लड़के बड़े होते, उनका पिता उन्हें खेती या किसी व्यवसाय, जैसे बढ़ईगिरी में प्रशिक्षण देता। (उत्पत्ति ३७:२; १ शमूएल १६:११) माँ घर में लड़कियों को घरेलू कौशल सिखाती जो आगे चलकर उनके काम आता। याकूब की पत्नी, राहेल जब छोटी थी तो चरवाहिन थी। (उत्पत्ति २९:६-९) जवान लड़कियाँ कटनी के समय खेतों में और दाख की बारियों में काम करती थीं। (रूत २:५-९; श्रेष्ठगीत १:६)a ये काम आम तौर पर माता-पिता की प्रेममय देखरेख में किये जाते थे और साथ के साथ शिक्षा दी जाती थी।
इस्राएल में छोटे बच्चे मनबहलाव और मौज-मस्ती भी करते थे। भविष्यवक्ता जकर्याह ने “नगर के चौक खेलनेवाले लड़कों और लड़कियों से भरे” होने की बात की। (जकर्याह ८:५) और यीशु मसीह ने बाज़ारों में बैठे बच्चों का ज़िक्र किया जो बांसली बजाते और नाचते थे। (मत्ती ११:१६, १७) किस कारण बच्चों के साथ ऐसा गरिमापूर्ण व्यवहार किया जाता था?
ऊँचे सिद्धांत
जब तक इस्राएलियों ने परमेश्वर के नियमों का पालन किया, तब तक उन्होंने अपने बच्चों के साथ कभी दुर्व्यवहार नहीं किया अथवा उनका शोषण नहीं किया। (व्यवस्थाविवरण १८:१० की तुलना यिर्मयाह ७:३१ से कीजिए।) वे अपने बेटे-बेटियों को ‘यहोवा की दी हुई मीरास,’ एक ‘प्रतिफल’ समझते थे। (भजन १२७:३-५, NHT फुटनोट) पिता अपने बच्चों को ‘अपनी मेज़ के चारों ओर जैतून के पौधों’ के समान समझता था—और उस कृषि-प्रधान समाज में जैतून के पेड़ बहुत अनमोल थे! (भजन १२८:३-६, NHT) इतिहासकार ऎलफ्रॆड ऎडरशाइम कहता है कि प्राचीन इब्रानी में बेटे और बेटी के लिए जो शब्द थे उसके अलावा बच्चों के लिए नौ शब्द थे और हर शब्द जीवन के अलग-अलग चरण के लिए था। वह अंत में कहता है: “निश्चित है कि जिन्होंने बाल-जीवन को इतने ध्यान से देखा कि उसके अस्तित्त्व के हर क्रमिक चरण को एक चित्रात्मक नाम दिया, उन्हें अपने बच्चों से बहुत लगाव रहा होगा।”
मसीही युग में, माता-पिताओं को सलाह दी गयी कि अपने बच्चों के साथ गरिमा और आदर से व्यवहार करें। यीशु ने दूसरों के बच्चों के साथ व्यवहार करते समय बहुत ही बढ़िया उदाहरण रखा। उसकी पार्थिव सेवकाई खत्म होने से कुछ ही समय पहले की बात है कि लोग अपने बच्चों को उसके पास लाने लगे। लेकिन चेलों ने लोगों को रोकने की कोशिश की। शायद उन्होंने यह समझा कि यीशु बहुत व्यस्त है और उसे परेशान नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन यीशु ने अपने चेलों को डाँटा: “बालकों को मेरे पास आने दो और उन्हें मना न करो।” यहाँ तक कि यीशु ने “उन्हें गोद में लिया।” इसमें कोई संदेह नहीं कि यीशु ने बच्चों को अनमोल और अच्छे व्यवहार के योग्य समझा।—मरकुस १०:१४, १६; लूका १८:१५-१७.
बाद में प्रेरित पौलुस ने पिताओं से कहा: “अपने बालकों को तंग न करो, न हो कि उन का साहस टूट जाए।” (कुलुस्सियों ३:२१) इस आज्ञा को मानते हुए उस समय के और आज के मसीही माता-पिता अपने बच्चों से बुरी परिस्थितियों में कभी काम नहीं करवाते। उन्हें एहसास है कि यदि बच्चों को शारीरिक, भावात्मक और आध्यात्मिक रूप से फलना-फूलना है तो उन्हें ऐसे माहौल की ज़रूरत है जहाँ प्रेम, परवाह और सुरक्षा हो। माता-पिता का सच्चा प्रेम साफ-साफ दिखना चाहिए। इसमें यह शामिल है कि वे अपने बच्चों को ऐसी जगह काम करने से बचाएँ जहाँ उन्हें नुकसान पहुँच सकता है।
आधुनिक सच्चाइयाँ
जी हाँ, हम इन “अन्तिम दिनों में कठिन समय” का सामना कर रहे हैं। (२ तीमुथियुस ३:१-५) आज आर्थिक तंगहाली के कारण अनेक देशों में मसीही परिवारों के लिए भी यह ज़रूरी हो सकता है कि वे अपने बच्चों से काम करवाएँ। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, ऐसे काम में कोई बुराई नहीं जो बच्चों के लिए लाभकारी हो और जिससे उन्हें कुछ सीखने को मिले। ऐसा काम बच्चे के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, नैतिक अथवा सामाजिक विकास में योग देता या तेज़ी लाता है, साथ ही अनिवार्य स्कूल-शिक्षा, संतुलित मनोरंजन और ज़रूरी आराम में बाधा नहीं डालता।
इसमें संदेह नहीं कि मसीही माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे उन्हीं की निगरानी में काम करें जहाँ वे उनका ध्यान रख सकें, न कि क्रूर, निर्दयी या बेलिहाज़ मालिकों के गुलाम बनकर काम करें। मसीही माता-पिता यह निश्चित करना चाहते हैं कि उनके बच्चे ऐसा कोई काम न करें जिसमें उनके साथ शारीरिक, लैंगिक या भावात्मक दुर्व्यवहार का खतरा हो। साथ ही, वे चाहते है कि उनके बच्चे उनके आस-पास रहें। इस तरह वे अपनी बाइबल-आधारित भूमिका निभाते हुए बच्चों को आध्यात्मिक शिक्षा दे सकते हैं: “तू [परमेश्वर के वचन] अपने बालबच्चों को समझाकर सिखाया करना, और घर में बैठे, मार्ग पर चलते, लेटते, उठते, इनकी चर्चा किया करना।”—व्यवस्थाविवरण ६:६, ७.
इसके अलावा, मसीहियों से कहा गया है कि हमदर्दी दिखाएँ, प्रीति रखें और अति करुणामय बनें। (१ पतरस ३:८) उन्हें प्रोत्साहन दिया गया है कि “सब के साथ भलाई करें।” (गलतियों ६:१०) यदि आम लोगों के प्रति ऐसे ईश्वरीय गुण दिखाए जाने हैं तो अपने बच्चों के प्रति कितना अधिक किया जाना है! सुनहरे नियम पर चलते हुए—“जो कुछ तुम चाहते हो, कि मनुष्य तुम्हारे साथ करें, तुम भी उन के साथ वैसा ही करो”—मसीही कभी दूसरों के बच्चों का शोषण नहीं करेंगे, चाहे वे संगी मसीही हों या न हों। (मत्ती ७:१२) इसके अलावा, क्योंकि मसीही लोग कानून का पालन करनेवाले नागरिक हैं, वे इस बात का ध्यान रखना चाहते हैं कि जो लोग उनके यहाँ काम करते हैं उनकी आयु सीमा के बारे में वे सरकार का कोई नियम न तोड़ें।—रोमियों १३:१.
असली समाधान
भविष्य के बारे में क्या? बच्चों और बड़ों दोनों के लिए अच्छा समय आनेवाला है। सच्चे मसीहियों को विश्वास है कि आनेवाली विश्व सरकार जिसे बाइबल “स्वर्ग का राज्य” कहती है, बाल-श्रम की समस्या का स्थायी समाधान है। (मत्ती ३:२) परमेश्वर का भय माननेवाले लोगों ने सदियों से इसी राज्य के आने के लिए प्रार्थना की है जब-जब उन्होंने कहा है: “हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है; तेरा नाम पवित्र माना जाए। तेरा राज्य आए; तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे पृथ्वी पर भी हो।”—मत्ती ६:९, १०.
यह राज्य उन परिस्थितियों को भी दूर करेगा जिनके कारण बाल-श्रम को बढ़ावा मिलता है। वह गरीबी को दूर करेगा। “भूमि ने अपनी उपज दी है, परमेश्वर जो हमारा परमेश्वर है, उस ने हमें आशीष दी है।” (भजन ६७:६) परमेश्वर का राज्य यह निश्चित करेगा कि सभी को ईश्वरीय गुणों पर आधारित उचित शिक्षा मिले। “जब [परमेश्वर के] न्याय के काम पृथ्वी पर प्रगट होते हैं, तब जगत के रहनेवाले धर्म को सीखते हैं।”—यशायाह २६:९.
परमेश्वर की सरकार उन आर्थिक व्यवस्थाओं को हटा देगी जो अमीरी-गरीबी का भेद बढ़ाती हैं। उस समय जाति, समाज, आयु या लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा, क्योंकि उस सरकार का प्रमुख नियम होगा प्रेम का नियम, जिसमें यह आज्ञा भी शामिल है: “तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख।” (मत्ती २२:३९) ऐसी धर्मी विश्व सरकार के अधीन बाल-श्रम की समस्या पूरी तरह से दूर कर दी जाएगी!
[फुटनोट]
a इसने स्त्रियों को परिवार में दूसरा दर्जा नहीं दिया कि वे सिर्फ घर और खेत में काम करने के लायक हैं। नीतिवचन में “भली पत्नी” का वर्णन दिखाता है कि विवाहित स्त्री न सिर्फ अपना घर सँभाल सकती थी बल्कि भू-संपत्ति के सौदे करना, खेत को उपजाऊ बनाना और छोटा कारोबार करना भी जानती थी।—नीतिवचन ३१:१०, १६, १८, २४.
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कोठेवाली बाई ने अपनी लौंडियों को आज़ाद किया
पंद्रह साल तक एक कैरिबियन द्वीप पर सॆसील्याb के कोठे चलते थे। वह एक बार में १२ से १५ लड़कियाँ खरीद लेती थी। ज़्यादातर लड़कियों की उम्र १८ साल से कम होती थी। लड़कियों को उनकी मर्ज़ी के खिलाफ उठा लिया जाता था क्योंकि उनके परिवारों ने कर्ज़ लिया होता था। सॆसील्या उनका कर्ज़ चुकाकर धँधा करवाने के लिए लड़कियों को रख लेती थी। लड़कियाँ जो कुछ कमाती थीं उसमें से वह उनके खाने और रहने का खर्च काटती थी और फिर जितने पैसों में उसने उन्हें खरीदा होता था उसके लिए भी थोड़ा-थोड़ा काटती रहती थी। लड़कियों को फिर से आज़ाद होने में सालों लग जाते थे। लड़कियों को पहरेदार के बिना कोठे से बाहर निकलने नहीं दिया जाता था।
सॆसील्या को एक किस्सा अच्छी तरह याद है। एक लड़की की माँ हर हफ्ते राशन लेने के लिए आती थी—वह राशन जो उसकी बेटी की “कमाई” का था। उस लड़की का एक बेटा था। वह अपना कर्ज़ नहीं चुका पा रही थी और उसे आज़ाद ज़िंदगी की कोई आस नहीं थी। सो एक दिन उसने आत्महत्या कर ली और एक चिट्ठी छोड़ गयी जिसमें उसने अपने बेटे को सॆसील्या-बाई के सुपुर्द कर दिया था। सॆसील्या ने अपने चार बच्चों के साथ-साथ उस लड़के को भी पाला।
सॆसील्या की एक बेटी यहोवा के साक्षियों के मिशनरियों के साथ बाइबल का अध्ययन करने लगी। सॆसील्या से भी अध्ययन में हिस्सा लेने को कहा गया, लेकिन शुरू-शुरू में उसने इनकार कर दिया क्योंकि उसने कभी पढ़ना-लिखना नहीं सीखा था। लेकिन, बाइबल से हुई चर्चा को वह एक कान से सुनती और धीरे-धीरे उसने परमेश्वर के प्रेम और धीरज को समझा और जाना कि परमेश्वर कितना क्षमाशील है। (यशायाह ४३:२५) उसमें खुद भी बाइबल अध्ययन करने की इच्छा जागी और जल्द ही वह पढ़ना-लिखना सीखने लगी। जैसे-जैसे उसका बाइबल ज्ञान बढ़ा, उसने देखा कि उसे परमेश्वर के ऊँचे नैतिक स्तरों के अनुसार चलने की ज़रूरत है।
एक दिन लड़कियाँ चौंक गयीं जब सॆसील्या ने उनसे कहा कि वे आज़ाद हैं! उसने बताया कि जो काम वे कर रही हैं उससे यहोवा बहुत दुःखी होता है। एक भी लड़की ने कभी अपना कर्ज़ नहीं चुकाया। लेकिन, दो लड़कियाँ उसी के साथ रहने लगीं। एक और लड़की आगे चलकर बपतिस्मा-प्राप्त साक्षी बनी। सॆसील्या पिछले ११ सालों से बाइबल सिखानेवाली पूर्ण-समय सेवक है और परमेश्वर का अपमान करनेवाले कामों को छोड़ने में दूसरों की मदद करती है।
[फुटनोट]
b उसका असली नाम नहीं है।