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सजग होइए!–1999
g99 6/8 पेज 4-9

बच्चों के खून-पसीने से

“बच्चे अब उत्पादन प्रक्रिया का हिस्सा बन गये हैं। उन्हें समाज का भविष्य नहीं बल्कि आर्थिक वस्तु समझा जाता है।”—थाइलैंड में मानव संसाधन इंस्टीट्यूट का निदेशक, चीरा हाँग्लाडरॉम।

अगली बार जब आप अपनी बेटी के लिए गुड़िया खरीदते हैं तो याद कीजिए कि शायद उसे दक्षिणपूर्वी एशिया में छोटे बच्चों ने बनाया है। अगली बार जब आपका बेटा फुटबाल में किक मारता है तो इस सच्चाई पर गौर कीजिए कि शायद उसे तीन साल की लड़की ने सिला हो जो अपनी माँ और चार बहनों के साथ दिन में ३० रुपए कमाती है। अगली बार जब आप कालीन खरीदते हैं तो इस पर विचार कीजिए कि शायद उसे छः साल के लड़कों ने अपनी नाज़ुक उँगलियों से बुना हो जो खराब परिस्थितियों में रोज़-रोज़ देर-देर तक काम करते हैं।

बाल-श्रम कितना व्यापक है? इसका बच्चों पर कैसा प्रभाव पड़ता है? स्थिति को सुधारने के लिए क्या किया जा सकता है?

यह समस्या कितनी बड़ी है

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का अनुमान है कि विकासशील देशों में ५ से १४ साल की उम्र के कामकाजी बच्चों की संख्या २५ करोड़ है।a यह माना जाता है कि उनमें से ६१ प्रतिशत एशिया में, ३२ प्रतिशत अफ्रीका में और ७ प्रतिशत लैटिन अमरीका में हैं। बाल-मज़दूर औद्योगीकृत देशों में भी हैं।

दक्षिणी यूरोप में बहुत से बच्चे सवेतन रोज़गार करते हैं, खासकर वे खेती जैसे मौसमी काम और छोटे वर्कशॉप (कारखानों) में काम करते हैं। हाल के समय में केंद्रीय और पूर्वी यूरोप में साम्यवाद की जगह पूँजीवाद आने के बाद बाल-श्रम बढ़ गया है। अमरीका में बाल श्रमिकों की मान्य संख्या ५५ लाख है, लेकिन इसमें १२ साल से कम उम्र के ऐसे ढेरों बच्चे शामिल नहीं हैं जिनसे गैरकानूनी तौर पर कड़ी मेहनत करायी जा रही है या जो बड़े-बड़े फार्मों पर मौसमी काम और दूसरे देशों से आ बसे मज़दूरों के तौर पर काम कर रहे हैं। ये लाखों बच्चे मज़दूर कैसे बन जाते हैं?

बाल-श्रम के कारण

गरीबी का शोषण। “गरीबी का शोषण वह सबसे ज़बरदस्त ताकत है जो बच्चों से खतरनाक, नुकसानदेह मज़दूरी करवाती है,” दुनिया के बच्चों की दशा १९९७ (अंग्रेज़ी) पुस्तक कहती है। “गरीब परिवारों में बच्चे की थोड़ी-सी आमदनी आये या वह घर में हाथ बँटाये ताकि माता-पिता मज़दूरी कर सकें, तो वे जैसे-तैसे पेट भर पाएँगे वरना उन्हें भूखे रहना पड़ सकता है।” बाल मज़दूरों के माता-पिता अकसर बेरोज़गार होते हैं या उन्हें अपनी योग्यता के अनुसार काम नहीं मिलता। उन्हें बँधी हुई आमदनी की बहुत ज़रूरत होती है। तो ऐसा क्यों है कि उनके बजाय उनके बच्चों को नौकरी दी जाती है? क्योंकि बच्चों को कम पैसे दिये जा सकते हैं। क्योंकि बच्चे ज़्यादा भोले होते हैं और उनसे काम करवाना आसान होता है—बहुत-से बच्चे तो बिना आवाज़ उठाए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। क्योंकि अत्याचार होने पर बच्चे ज़्यादातर एकजुट होकर विरोध नहीं भड़काते। और क्योंकि जब उन्हें मारा-पीटा जाता है तो वे पलटकर वार नहीं करते।

शिक्षा की कमी। सुधीर भारत में रहनेवाला ११ साल का लड़का है। वह उन लाखों बच्चों में से एक है जिन्होंने स्कूल छोड़कर काम करना शुरू कर दिया। क्यों? “स्कूल में अध्यापक अच्छी तरह नहीं सिखाते थे,” वह कहता है। “अगर हम उनसे कहते कि हमें वर्णमाला सिखाएँ तो वे हमारी पिटाई कर देते। वे कक्षा में सोते थे। . . . अगर हमें कुछ समझ नहीं आता तो वे सिखाने की कोशिश नहीं करते।” दुःख की बात है कि स्कूल के बारे में सुधीर ने जो कहा वह सही है। विकासशील देशों में, समाज कल्याण के खर्च में की गयी कटौतियों से शिक्षा व्यवस्था को बहुत नुकसान हुआ है। सन्‌ १९९४ में संयुक्‍त राष्ट्र ने संसार के १४ सबसे कम विकसित देशों में एक सर्वेक्षण किया जिससे कुछ दिलचस्प सच्चाइयाँ सामने आयीं। उदाहरण के लिए, इनमें से आधे देशों में पहली कक्षा के कमरों में प्रति १० बच्चों में से केवल ४ के बैठने के लिए सीटें हैं। आधे बच्चों के पास कोई पाठ्य-पुस्तक नहीं है, और आधे कमरों में ब्लैकबोर्ड नहीं हैं। तो यह हैरानी की बात नहीं कि ऐसे स्कूलों के बहुत-से बच्चे पढ़ाई छोड़कर मज़दूरी में लग जाते हैं।

पारंपरिक अपेक्षाएँ। काम जितना ज़्यादा खतरनाक और मुश्‍किल होता है उतनी ही ज़्यादा संभावना होती है कि उसे अल्पसंख्यक जातियों, निम्न वर्गों, पिछड़ी जातियों और गरीबों से करवाया जाएगा। एशिया के एक देश के बारे में संयुक्‍त राष्ट्र बाल निधि कहता है कि वहाँ “यह धारणा रही है कि कुछ लोग राज करने और अपने दिमाग से काम लेने के लिए जन्मे हैं जबकि ज़्यादातर लोग पसीना बहाकर मेहनत करने के लिए जन्मे हैं।” ऐसा नहीं कि पश्‍चिमी देशों में लोगों की मनोवृत्ति हमेशा ही इससे बेहतर होती है। वहाँ भी प्रबल वर्ग के लोग नहीं चाहते कि उनके बच्चे खतरनाक काम करें, लेकिन यदि दूसरी जातियों, अल्पसंख्यकों या गरीबों के बच्चे ऐसा काम करें तो उन्हें कोई चिंता नहीं होती। उदाहरण के लिए, उत्तरी यूरोप में बाल-श्रमिक आम तौर पर तुर्की या अफ्रीकी होते हैं; अमरीका में एशियाई या लैटिन-अमरीकी बच्चे मज़दूरी करते हैं। आधुनिक समाज उपभोक्‍तावाद में उलझा हुआ है जिससे बाल-श्रम बढ़ रहा है। सस्ती चीज़ों की बहुत माँग है। बहुत ही कम लोगों को इसकी परवाह होती है कि इन चीज़ों को शायद करोड़ों गुमनाम, शोषित बच्चों ने बनाया हो।

बाल-श्रम के रूप

बाल-श्रम कौन-कौन से रूप अपनाता है? मोटे तौर पर, अधिकतर बाल मज़दूर घरेलू नौकरी करते हैं। ऐसे मज़दूरों को “दुनिया के सबसे भूले-बिसरे बच्चे” कहा गया है। घरेलू नौकरी खतरनाक तो नहीं होनी चाहिए, लेकिन अकसर यह खतरनाक होती है। घरेलू नौकरी करनेवाले बच्चों को अकसर कम पैसा दिया जाता है—या बिलकुल भी नहीं दिया जाता। उनके काम की शर्तें पूरी तरह से उनके मालिकों की मनमर्ज़ी पर होती हैं। उन्हें स्नेह, शिक्षा, खेलने और समाज में मेल-जोल बढ़ाने का मौका नहीं मिलता। उनके साथ शारीरिक और लैंगिक दुर्व्यवहार किये जाने की संभावना भी ज़्यादा रहती है।

कुछ बच्चों को बेगारी और बंधुवा मज़दूर बनाया जाता है। दक्षिण एशिया में और दूसरे स्थानों में भी माता-पिता थोड़े-से कर्ज़ के बदले में अकसर अपने आठ-नौ साल के बच्चों को फैक्ट्री मालिकों या उनके दलालों के पास गिरवी रख देते हैं। बच्चे ज़िंदगी भर गुलामी करते हैं फिर भी कर्ज़ नहीं चुका पाते।

बच्चों के व्यापार-रूपी लैंगिक शोषण के बारे में क्या? यह अनुमान लगाया गया है कि हर साल दुनिया भर में कम-से-कम दस लाख लड़कियों को लुभाकर सॆक्स के धँधे में लगाया जाता है। अकसर लड़कों का भी लैंगिक शोषण किया जाता है। इस किस्म के दुर्व्यवहार से जो शारीरिक और भावात्मक हानि पहुँचती है—एच.आई.वी. संक्रमण की बात अलग रही—वह इसे सबसे खतरनाक किस्म का बाल-श्रम बना देती है। “समाज में हमारा वही स्थान है जो खानाबदोशों का होता है,” सॆनॆगल की एक १५-वर्षीय वेश्‍या कहती है। “कोई हमसे न तो जान-पहचान करना चाहता है और न ही हमारे साथ नज़र आना चाहता है।”b

औद्योगिक और बागान मज़दूरी करवा के ढेरों बाल मज़दूरों का शोषण किया जाता है। ये बच्चे खदानों में वह काम करते हैं जो बड़ों के लिए बहुत जोखिम-भरा समझा जाता है। बहुत-से बच्चों को टीबी, श्‍वासनली-शोथ (ब्रॉन्काइटिस) और दमा की बीमारी हो गयी है। बागानों में काम करनेवाले बाल-श्रमिकों को कीटाणुनाशकों, साँप के काटने और कीड़े-मकोड़ों के डंक मारने का खतरा रहता है। हँसिये से गन्‍ना काटते समय कुछ बच्चों ने अपने ही अंग काट लिये हैं। करोड़ों अन्य बच्चों ने सड़कों पर अपना रोज़गार ढूँढ़ लिया है। दस-वर्षीया शिरीन का उदाहरण लीजिए। वह पेशेवर कूड़ा बीननेवाली है। वह कभी स्कूल नहीं गयी, लेकिन उसे इतना अच्छी तरह पता है कि पेट पालने के लिए कितना पैसा चाहिए। यदि वह १२ से २० रुपयों तक का रद्दी कागज़ और प्लास्टिक की थैलियाँ बेच लेती है तो वह दोपहर का भोजन कर पाती है। यदि वह इससे कम कमाती है तो उसे भूखा रहना पड़ता है। सड़कों पर रहनेवाले बच्चे अकसर घर पर हुए दुर्व्यवहार या लापरवाही से बचने के लिए घर से भागे होते हैं, लेकिन सड़कों पर उन्हें ज़्यादा दुर्व्यवहार सहना पड़ता है और उनका शोषण होता है। “हर दिन मैं प्रार्थना करती हूँ कि किसी दुष्ट के हाथों में न पड़ूँ,” दस-वर्षीया जोज़ी कहती है। वह एक एशियाई शहर के चौराहों पर मिठाई बेचती है।

बरबाद बचपन

अलग-अलग रूप में करवाये गये बाल-श्रम का नतीजा यह है कि करोड़ों बच्चे भारी खतरे में रहते हैं। या तो काम ही खतरनाक होता है या फिर जिन परिस्थितियों में वे काम करते हैं उनसे उन्हें नुकसान पहुँचता है। काम से जुड़ी गंभीर दुर्घटनाएँ अकसर बड़ों की तुलना में बच्चों और दूसरे युवा मज़दूरों के साथ ज़्यादा होती हैं। ऐसा इसलिए है कि बच्चे की शरीर-रचना बड़ों से फर्क होती है। भारी काम करने से उसकी रीढ़ या श्रोणि आसानी से टेढ़ी हो सकती है। साथ ही, हानिकारक रासायनिक तत्त्वों या विकिरण के संपर्क में आने पर बड़ों की तुलना में बच्चों को ज़्यादा नुकसान पहुँचता है। इसके अलावा, बच्चों का शरीर देर-देर तक मेहनत करने और एक-जैसा काम करते रहने के लिए नहीं बना है, लेकिन अकसर उन्हें ऐसा ही करना पड़ता है। आम तौर पर बच्चे खतरों से अनजान होते हैं और उन्हें इसके बारे में भी ज़्यादा जानकारी नहीं होती कि कौन-से एहतियात बरतें।

बच्चे के मनोवैज्ञानिक, भावात्मक और बौद्धिक विकास पर भी बाल-श्रम का गहरा असर पड़ता है। इन बच्चों को प्यार नहीं मिलता। उनकी पिटाई करना, अपमान करना, भूखा रखकर सज़ा देना और उनके साथ लैंगिक दुर्व्यवहार करना आम बात है। एक अध्ययन के अनुसार, लगभग २५ करोड़ बाल-श्रमिकों में से तकरीबन आधे बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया है। यह भी देखा गया है कि जो बच्चे देर-देर तक काम करते हैं उनके सीखने की क्षमता घट जाती है।

इस सब का क्या अर्थ है? यही कि अधिकतर बाल-श्रमिक जीवन-भर गरीबी, दुर्दशा, बीमारी झेलते हैं, अनपढ़ रहते हैं और समाज में घुल-मिल नहीं पाते। या जैसा पत्रकार रॉबिन राइट ने कहा, “इतनी वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के बावजूद, २०वीं सदी के अंत में संसार में करोड़ों ऐसे बच्चे बढ़ते जा रहे हैं जिन्हें सामान्य जीवन जीने की शायद ही कोई आशा है, अगुवा बनकर दुनिया को २१वीं सदी में ले जाने की बात तो दूर रही।” ये गंभीर विचार कुछ प्रश्‍न खड़े करते हैं: बच्चों के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए? बाल-श्रम दुर्व्यवहार की समस्या का क्या कोई समाधान दिखायी पड़ता है?

[फुटनोट]

a मोटे तौर पर, ILO ने बच्चों से मज़दूरी करवाने की न्यूनतम आयु १५ साल निर्धारित की है—बशर्ते उनकी अनिवार्य स्कूल-शिक्षा १५ साल से पहले पूरी हो जाए। यह निर्धारित करते समय कि आज दुनिया भर में कितने बच्चे मज़दूरी कर रहे हैं इसी पैमाने को सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है।

b बच्चों के लैंगिक शोषण के बारे में अधिक जानकारी के लिए, सजग होइए! के मई ८, १९९७ अंक में पृष्ठ ११-१५ देखिए।

[पेज 5 पर बक्स]

बाल-श्रम क्या है?

हर समाज में अधिकतर बच्चे एक-न-एक तरह से काम करते हैं। अलग-अलग समाज और ­समयकाल में बच्चों ने अलग-अलग काम किये हैं। काम करना बच्चों की शिक्षा का ज़रूरी हिस्सा हो सकता है और काम के माध्यम से माता-पिता उन्हें ज़रूरी कौशल सिखा सकते हैं। कुछ देशों में, बच्चे अकसर वर्कशॉप में हाथ बँटाते और छोटी-मोटी सेवाएँ प्रदान करते हैं और धीरे-धीरे उस काम को अच्छी तरह सीख जाते हैं और आगे चलकर उसी को अपना पेशा बना लेते हैं। दूसरे देशों में, युवा हफ्ते में कुछ घंटे काम करते हैं ताकि जेबखर्च मिल जाए। संयुक्‍त राष्ट्र बाल निधि का मानना है कि ऐसा काम “लाभदायक है, यह बच्चे के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, नैतिक अथवा सामाजिक विकास में योग देता या तेज़ी लाता है, साथ ही स्कूल-शिक्षा, मनोरंजन और आराम में भी बाधा नहीं डालता।”

दूसरी ओर, बाल-श्रम में बच्चों को थोड़े-से पैसों के लिए देर-देर तक काम करना पड़ता है और वह भी अकसर ऐसी परिस्थितियों में जो उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती हैं। इस किस्म का काम “स्पष्ट रूप से नुकसानदेह या शोषणकारी है,” दुनिया के बच्चों की दशा १९९७ कहती है। “खुलेआम कोई नहीं कहेगा कि बच्चों को वेश्‍या बनाकर उनका शोषण करना किसी भी हालत सही है। यही बात ‘बंधुवा बाल-श्रम’ के बारे में भी कही जा सकती है। माता-पिता या दादा-दादी ने जो कर्ज़ लिया है उसे चुकाने के लिए जिन बच्चों को एकदम गुलाम-जैसा बनाया जाता है उनके लिए यह नाम व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाता है। यह उन उद्योगों पर भी लागू होता है जहाँ उनके स्वास्थ्य और सुरक्षा को बहुत खतरा रहता है . . . खतरनाक काम सभी बच्चों के लिए एकदम असहनीय है।”

[पेज 8, 9 पर बक्स/तसवीर]

“अभी-भी बहुत कुछ करना बाकी है”

अंतर्राष्ट्रीय म संगठन (ILO) ऐसे कदम उठा रहा है कि बाल-श्रम के सबसे बुरे रूप दूर किये जा सकें। ILO सरकारों को उकसाता है कि ऐसे कानून बनाएँ जिनमें १५ साल से कम उम्र के बच्चों से मज़दूरी करवाना मना हो। यह ऐसे नये समझौते भी करने की प्रेरणा देता है जिनमें १२ साल से छोटे बाल मज़दूरों पर प्रतिबंध लगाया जाए और शोषण के सबसे खतरनाक रूपों पर रोक लगायी जाए। ऐसे प्रयास कितने सफल हुए हैं इसके बारे में ज़्यादा जानने के लिए सजग होइए! ने अमरीकी श्रम विभाग में अंतर्राष्ट्रीय बाल श्रम कार्यक्रम की निदेशक, सोनया रोज़न से बातचीत की। वह ILO के कई कार्यक्रमों में सक्रिय रही है। यहाँ उस बातचीत के कुछ अंश दिये गये हैं।

प्र: बाल-श्रम से लड़ने का सबसे ­प्रभावकारी तरीका क्या है?

उ: हमारे पास कोई एकमात्र सही समाधान नहीं है। लेकिन, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमने जिन मुद्दों पर चर्चा की है वे मुख्य मुद्दे हैं, जैसे कानून को ठीक तरह से लागू करना साथ ही सभी को प्राइमरी शिक्षा देना, हो सके तो यह अनिवार्य और मुफ्त होनी चाहिए। निश्‍चित ही यह भी ज़रूरी है कि माता-पिता के पास अच्छी नौकरी हो।

प्र: बाल-श्रम से लड़ने में जो सफलता मिली है क्या आप उससे संतुष्ट हैं?

उ: मैं कभी संतुष्ट नहीं होती। हम कहते हैं कि एक भी बच्चे को बुरी परिस्थितियों में काम नहीं करना चाहिए। ILO के कार्यक्रमों के द्वारा हमने काफी सफलता पायी है। लेकिन अभी-भी बहुत कुछ करना बाकी है।

प्र: बाल-श्रम को दूर करने के प्रयासों के प्रति अंतर्राष्ट्रीय समुदाय कैसा रुख अपना रहा है?

उ: अब मुझे नहीं सूझता कि इस प्रश्‍न का उत्तर कैसे दूँ। दुनिया भर में अब एक हद तक इस बात पर सहमति हुई है कि बाल-श्रम के बारे में कुछ किया जाना चाहिए। मेरे खयाल से इस समय हमारे सामने असल में ये प्रश्‍न हैं: कैसे और कितनी जल्दी? बाल-श्रम के अमुक रूपों से लड़ने के लिए हमारे पास कौन-से सबसे अच्छे हथियार हैं? मेरे खयाल से यही हमारी असल चुनौती है।

प्र: बाल मज़दूर भविष्य में क्या आस देख सकते हैं?

उ: इस साल दुनिया के सभी देशों के प्रतिनिधि फिर से जनीवा आनेवाले हैं ताकि बाल-श्रम के सबसे बुरे रूपों के बारे में एक नया समझौता कर सकें। इससे बहुत आस बँधती है—सभी देशों, साथ ही मज़दूर संगठनों और मालिक संगठनों का एकसाथ आना। आशा है कि एक नया ढाँचा तैयार हो सकेगा जिसका लक्ष्य होगा बाल-श्रम के सबसे बुरे रूपों को दूर करना।

सभी जन सोनया रोज़न की तरह आशावादी नहीं हैं। ‘बच्चों को बचाओ’ (Save the Children) का अध्यक्ष, चार्ल्स मकॉर्मक उतना उत्साही नहीं है। वह कहता है, “सरकारों को इस समस्या का हल करने की इच्छा नहीं है और आम जनता इससे बेखबर है।” क्यों? संयुक्‍त राष्ट्र बाल निधि टिप्पणी करता है: “बाल-श्रम एक जटिल मुद्दा है। बड़ी ताकतें इसे जारी रखती हैं, जिनमें अनेक मालिक और ऐसे समूह शामिल हैं जिन्हें इससे फायदा होता है और ऐसे अर्थशास्त्री हैं जो कहते हैं कि हर हालत में बाज़ार में खुली स्पर्धा रहनी चाहिए, और फिर परंपरावादी हैं जो मानते हैं कि अमुक बच्चे अपनी जाति या वर्ग के कारण अधिकारों से वंचित रहते हैं।”

[तसवीर]

सोनया रोज़न

[पेज 5 पर तसवीर]

खदानों और सूत की मिलों में कड़ी मेहनत बाल-श्रम के दुःखद इतिहास का एक पन्‍ना है

[चित्र का श्रेय]

U.S. National Archives photos

[पेज 7 पर तसवीर]

जलाऊ-लकड़ी बटोरने के लिए कड़ी मेहनत

[पेज 7 पर तसवीर]

धागे की फैक्ट्री में नौकरी

[चित्र का श्रेय]

UN PHOTO 148046/ J. P. Laffont - SYGMA

[पेज 7 पर तसवीर]

कूड़ा बीनना

[चित्र का श्रेय]

CORBIS/Dean Conger

[पेज 8 पर तसवीर]

दिन भर में बस २ रुपए ४० पैसे कमाने के लिए बच्चे सड़कों पर चीज़ें बेचते हैं

[चित्र का श्रेय]

UN PHOTO 148027/Jean Pierre Laffont

[पेज 8 पर तसवीर]

बढ़ई की दुकान में मज़दूरी

[चित्र का श्रेय]

UN PHOTO 148079/J. P. Laffont - SYGMA

[पेज 9 पर तसवीर]

रोज़ी-रोटी के लिए संघर्ष

[चित्र का श्रेय]

UN PHOTO 148048/J. P. Laffont - SYGMA

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