कॉलिज्यिन्ट—बाइबल का अध्ययन करने की वज़ह से अलग
क्या आपने कॉलिज्यिन्ट समूह के बारे में सुना है?
सत्रहवीं सदी में हॉलैंड देश का यह छोटा-सा धार्मिक दल, उस ज़माने के जाने-माने चर्चों से अलग था। यह दल कैसे अलग था और हम उनसे क्या सीख सकते हैं? पता लगाने के लिए आइए हम इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें।
सन् १५८७ में, याकोबूस आर्मिनीअस (या यॉकॉप हारमनसन) एमस्टरडम नगर में आया। उसे नौकरी ढूँढ़ने में कोई परेशानी नहीं हुई क्योंकि वह बहुत काबिल व्यक्ति था। इक्कीस साल की उम्र में उसने हॉलैंड की लाइडिन यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएशन किया था। इसके बाद, उसने छः साल तक स्विट्ज़रलैंड में धर्मविज्ञान का अध्ययन किया। यह अध्ययन उसने तेओडॉर दी बीज़ा की निगरानी में किया, जो प्रोटेस्टंट धर्म-सुधारक, जॉन कैल्विन का उत्तराधिकारी था। इसलिए, इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं कि एमस्टरडम के प्रोटेस्टंट लोग, २७ साल के आर्मिनीअस को अपना एक पादरी बनाकर बहुत खुश हुए! लेकिन, कुछ साल बाद चर्च के कई सदस्य अपने इस चुनाव पर पछताने लगे। क्यों?
नसीब का मसला
आर्मिनीअस के पादरी बनने के कुछ ही समय बाद, एमस्टरडम के प्रोटेस्टंट लोगों में नसीब की शिक्षा को लेकर अनबन पैदा हो गई। यह कैल्विनवाद की बुनियादी शिक्षा थी, लेकिन चर्च के कुछ सदस्यों को लगा कि जो परमेश्वर पहले से ही यह तय कर देता है कि कुछ ही लोगों का उद्धार होगा और बाकी लोगों का विनाश, वह कठोर और अन्यायी है। कैल्विनवादियों को आर्मिनीअस से उम्मीद थी कि बीज़ा का शिष्य होने के नाते, वह इन विरोधियों को सही रास्ते पर ले आएगा। मगर, आर्मिनीअस को विरोधियों का साथ देते देखकर कैल्विनवादी सन्न रह गए। सन् १५९३ तक यह झगड़ा इस हद तक बढ़ चुका था कि नगर के प्रोटेस्टंट दो दलों में बँट गए—एक वे जो नसीब की शिक्षा को माननेवाले थे और दूसरे वे जो इसे नहीं मानते थे और उदारवादी कहलाते थे।
कुछ ही सालों में, एक छोटे-से शहर से शुरू हुआ यह झगड़ा पूरे देश के प्रोटेस्टंट लोगों में फूट का कारण बन गया। आखिरकार, नवंबर १६१८ में इस मसले का हल किए जाने की घड़ी आ पहुँची। कैल्विनवादियों ने जनता और सेना का समर्थन पाकर इन विरोधियों को (जिन्हें तब रिमॉस्ट्रंट्सa कहा जाता था) देश की अदालत यानी डॉरड्रेक्ट की प्रोटेस्टंट धर्म-सभा में हाज़िर होने का हुक्म दिया। सभा के आखिर में, सभी रिमॉस्ट्रंट पादरियों के सामने एक चुनाव रखा गया: यह शपथ लें कि आइंदा कभी-भी प्रचार नहीं करेंगे या फिर देश से निकल जाएँ। ज़्यादातर लोगों ने देशनिकाले का चुनाव किया। कट्टर कैल्विनवादियों ने रिमॉस्ट्रंट पादरियों की जगह ले ली। कैल्विनवाद की जीत हुई—या कम-से-कम धर्मसभा को तो ऐसा ही लगा।
कॉलिज्यिन्ट समूह की शुरूआत और बढ़ोतरी
रिमॉस्ट्रंट पादरियों के चले जाने से उनकी किसी भी कलीसिया में पादरी नहीं रहे और लाइडिन नगर के पास वॉरमान्त गाँव की कलीसिया के साथ भी ऐसा ही हुआ। धर्म-सभा ने अपनी तरफ से इन कलीसियाओं में पादरी भेजे। मगर, सिर्फ वॉरमान्त गाँव की कलीसिया ने धर्म-सभा के पादरी को स्वीकार नहीं किया। इतना ही नहीं, जब एक रिमॉस्ट्रंट पादरी खुद अपनी जान जोखिम में डालकर सन् १६२० में वॉरमान्त वापस लौटा कि कलीसिया की देखभाल कर सके, तो कलीसिया के सदस्यों ने उसे भी ठुकरा दिया। ये सदस्य अब अपनी धार्मिक सभाएँ गुप्त रूप से और बिना किसी पादरी की मदद के चलाते थे। बाद में, ये सभाएँ कॉलेज कहलाने लगीं और इनमें हाज़िर होनेवाले कॉलिज्यिन्ट।
कॉलिज्यिन्ट समूह की शुरूआत किसी धार्मिक उसूल की वज़ह से नहीं बल्कि हालात की वज़ह से हुई, लेकिन जल्द ही उनका विचार बदल गया। उनकी कलीसिया के एक सदस्य खाइसबर्ट वान दर कोद ने दावा किया कि पादरियों के बिना सभा चलाने से, यह समूह उस वक्त के स्थापित चर्चों से ज़्यादा अच्छी तरह बाइबल के उसूलों और पहली सदी के मसीहियों की मिसाल के मुताबिक काम कर रहा है। उसने कहा कि पादरी वर्ग, प्रेरितों की मौत के बाद शुरू किया गया है, ताकि ऐसे लोगों के लिए नौकरियाँ पैदा हों जो कोई काम-धंधा नहीं करना चाहते।
सन् १६२१ में, वान दर कोद और उसकी जैसी सोच रखनेवाले सदस्यों ने सभाओं की जगह बदली और पास के एक गाँव राइन्सबर्खb में सभाएँ चलाने लगे। कुछ साल बाद, जब लोगों में कोई और धर्म माननेवालों को सताने के बजाय सभी धर्मों के लिए सहनशीलता आ गयी, तब कॉलिज्यिन्ट समूह की सभाएँ सारे देश में मशहूर हो गयीं और जैसा इतिहासकार ज़िखफ्रीड ज़िलवरबर्ख कहता है, “अलग-अलग किस्म के लोग” इन सभाओं में आने लगे। इनमें से कई लोग रिमॉस्ट्रंट, मेननाइट और सॉसिनियन दल के थे और कुछ लोग तो धर्म का अध्ययन करनेवाले भी थे। कुछ किसान थे। कुछ और कवि, छपाई का काम करनेवाले, डॉक्टर और व्यापारी थे। विद्वान स्पिनोज़ा (बेनेडिकटुस डॆ स्पिनोज़ा) और शिक्षक योहान आमोस कमीनियस (या, यान कामेन्सकी) साथ ही मशहूर चित्रकार रेमब्रान्ट वान राइन ने भी इस अभियान को समर्थन दिया। इन श्रद्धालुओं के अलग-अलग विचारों से कॉलिज्यिन्ट समूह के विश्वासों पर असर पड़ा।
सन् १६४० के बाद यह जोशीला समूह बहुत तेज़ी से बढ़ता गया। रॉटरडम, एमस्टरडम, लेवारडेन और दूसरे शहरों में कॉलेज बनते गए। इतिहास का प्रोफेसर एन्ड्रू सी. फिक्स कहता है कि सन् १६५० और १७०० के बीच, “सत्रहवीं सदी के हॉलैंड में कॉलिज्यिन्ट समूह . . . बहुत ही मशहूर और प्रभावशाली धार्मिक दल बन गया था।”
कॉलिज्यिन्ट समूह के विश्वास
कॉलिज्यिन्ट समूह की खासियत यह थी कि वे किसी भी बात को सही लगने पर ही मानते थे, दूसरे धर्मों के लिए सहनशीलता दिखाते थे और खुलकर अपने विचार बताते थे। इसलिए उनके सदस्यों को अलग-अलग विश्वास मानने की आज़ादी थी। फिर भी, कुछ ऐसे विश्वास थे जिन्हें सब मानते थे और इसलिए वे एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। मिसाल के तौर पर, सभी कॉलिज्यिन्ट निजी रूप से बाइबल का अध्ययन करने की अहमियत समझते थे। एक कॉलिज्यिन्ट ने लिखा कि हर सदस्य को “खुद जाँच करके परमेश्वर को जानना चाहिए न कि किसी और की बात सुनकर।” हाँ, उन्होंने खुद जाँच की। उन्नीसवीं सदी के चर्च के इतिहासकार याकोबूस सी. वान स्ले के मुताबिक, उस समय के धार्मिक दलों में सबसे ज़्यादा बाइबल का ज्ञान कॉलिज्यिन्ट लोगों में पाया जाता था। उनके विरोधी भी इस बात की तारीफ करते थे कि कॉलिज्यिन्ट बाइबल का इस्तेमाल बहुत ही कुशलता से करते हैं।
लेकिन, कॉलिज्यिन्ट जितना ज़्यादा बाइबल का अध्ययन करते, उतना ही ज़्यादा वे उस वक्त के जाने-माने चर्चों की शिक्षाओं से दूर होते जाते। १७वीं से २०वीं सदी की अलग-अलग किताबों और लेखों में उनके विश्वास समझाए गए हैं:
प्राचीनकाल का चर्च। सन् १६४४ में कॉलिज्यिन्ट और धर्मविज्ञानी अदाम बोरेल ने लिखा कि जब प्राचीनकाल का चर्च, सम्राट कॉन्सटनटाइन के समय राजनीति में उलझ गया, तब चर्च ने मसीह के साथ अपनी वाचा को तोड़ दिया और पवित्र आत्मा से मिलनेवाली प्रेरणा भी खो बैठा और इसका नतीजा यह हुआ कि झूठी शिक्षाएँ बढ़ गयीं और उसके समय तक सिखायी जाती थीं।
धर्म-सुधार। १६वीं सदी में लूथर, कैल्विन और कुछ और लोगों ने धर्म-सुधार आंदोलन के ज़रिए चर्च में बदलाव लाने की कोशिश की। लेकिन कोई खास बदलाव नहीं हुआ। इसके बजाय एक विख्यात कॉलिज्यिन्ट और डॉक्टर, खेलेनस आब्राहामज़ोन (१६२२-१७०६) के मुताबिक इस धर्म-सुधार से धार्मिक स्थिति और भी बिगड़ गई जिसकी वज़ह से झगड़े और नफरत की आग भड़क उठी। सही मायनों में किए जानेवाले सुधार से दिल में बदलाव आना चाहिए लेकिन यह धर्म-सुधार ऐसा नहीं कर सका।
चर्च और पादरी वर्ग। स्थापित चर्च भ्रष्ट, दुनियावी हैं और परमेश्वर की ओर से नहीं हैं। जो कोई सच्चाई से धर्म का पालन करना चाहता है उसके लिए एक ही रास्ता रह जाता है कि वह अपना चर्च छोड़ दे, ताकि उसके पापों में सहभागी न हो। कॉलिज्यिन्ट लोगों ने कहा कि पादरी का पद बाइबल के विरुद्ध है और “मसीही कलीसिया की आध्यात्मिक भलाई के लिए नुकसानदेह है।”
राज्य और परादीस। एमस्टरडम कॉलेज (सभा) के एक संस्थापक, डॉनीएल डे ब्रेन (१५९४-१६६४) ने लिखा कि मसीह का राज्य किसी के दिल में बसनेवाला एक आत्मिक राज्य नहीं है। रॉटरडम के एक कॉलिज्यिन्ट, शिक्षक जेकब आस्टन्स् ने कहा कि “प्राचीनकाल के कुलपिताओं को पृथ्वी पर जीने की उम्मीद थी।” उसी तरह, कॉलिज्यिन्ट समूह हमेशा उस वक्त का इंतज़ार करता था जब पृथ्वी पूरी तरह बदलकर एक सुंदर बगीचा या परादीस बन जाएगी।
त्रिएक। सॉसिनियन समूह की शिक्षाओं से प्रभावित होकर कॉलिज्यिन्ट समूह के कुछ खास लोगों ने त्रिएक की शिक्षा को ठुकरा दिया।c मिसाल के तौर पर, डैनियल ज़्विकर (१६२१-७८) ने लिखा कि त्रिएक जैसी कोई भी शिक्षा जो समझ से परे है कभी “सच हो ही नहीं सकती।” कॉलिज्यिन्ट रेन्यिर रोलेओ द्वारा अनुवाद की गई बाइबल को सन् १६९४ में प्रकाशित किया गया था। इसमें यूहन्ना १:१ के दूसरे भाग का अनुवाद यूँ किया गया था: “और वचन एक ईश्वर था,” जबकि उस वक्त की बाइबलों में इसे आम तौर पर यूँ अनुवाद किया जाता था: “और वचन परमेश्वर था।”d
साप्ताहिक सभाएँ
हालाँकि कॉलिज्यिन्ट अपने विश्वासों में एकमत नहीं थे, फिर भी अलग-अलग शहरों में होनेवाली उनकी सभाएँ (कॉलेज) लगभग एक ही तरीके से चलती थीं। इतिहासकार वान स्ले रिपोर्ट करता है कि कॉलिज्यिन्ट अभियान के शुरूआत के दिनों में, सभाओं की तैयारी पहले से नहीं की जाती थी। कॉलिज्यिन्ट मानते थे कि सभी पुरुष सदस्य बेहिचक सभा (कॉलेज) में भाषण दे सकते हैं क्योंकि प्रेरित पौलुस ने बताया था कि “भविष्यद्वाणी” करना ज़रूरी है। (१ कुरिन्थियों १४:१, ३, २६) इसका नतीजा यह होता था कि सभाएँ अकसर देर रात तक चलती थीं और वहाँ हाज़िर कुछ लोग “गहरी नींद में डूब” जाते थे।
बाद में, सभाओं के लिए अच्छे इंतज़ाम किए जाते थे। कॉलिज्यिन्ट न सिर्फ रविवार के दिन बल्कि दूसरे दिनों में भी शाम के वक्त मिलते थे। भाषण देनेवाले और कलीसिया के बाकी लोग साल की सारी सभाओं की तैयारी पहले से ही कर सकें, इसके लिए एक कार्यक्रम छापा जाता था। इस कार्यक्रम में चर्चा के लिए बाइबल की आयतें दी जाती थीं साथ ही उन आयतों पर भाषण देनेवाले का संक्षिप्त नाम भी होता था। गीत और प्रार्थना से सभा शुरू करने के बाद, भाषण देनेवाला बाइबल की आयतों को समझाता था। अपना भाषण खत्म करने के बाद, वह कलीसिया के पुरुषों से चर्चा किए गए विषय पर अपने विचार बताने के लिए कहता। फिर दूसरा व्यक्ति समझाता कि इन्हीं आयतों को कैसे लागू करना चाहिए। इसके बाद प्रार्थना और गीत से सभा समाप्त की जाती थी।
फ्रीसलैंड प्रांत के हारलिंजन नगर के कॉलिज्यिन्ट समूह ने अपनी सभाओं को समय पर शुरू और खत्म करने के लिए एक नया तरीका ढूँढ़ निकाला। अगर भाषण देनेवाला वक्त पर अपना भाषण खत्म नहीं करता तो उसे एक छोटा-सा जुर्माना भरना पड़ता था।
राष्ट्रीय स्तर पर सम्मेलन
कॉलिज्यिन्ट समूह को लगा कि बड़ी सभाओं का इंतज़ाम करना भी ज़रूरी है। इसलिए सन् १६४० से, सारे देश के कॉलिज्यिन्ट साल में दो बार (वसंत और गर्मियों में) राइन्सबर्ख आया करते थे। इतिहासकार फिक्स लिखता है कि इन सम्मेलनों के ज़रिए वे “देश के कोने-कोने से आए अपने भाइयों के विचारों, उनकी भावनाओं, उनके विश्वासों और कामों से वाकिफ” हो सकते थे।
सम्मेलन में आए कुछ कॉलिज्यिन्ट, गाँववालों से कमरे किराए पर लेते थे और दूसरे ख्रोते होस या बड़े मकान में ठहरते थे। यह ३० कमरोंवाला एक बड़ा बंगला था जिसके मालिक कॉलिज्यिन्ट समूह के सदस्य थे। ६० से ७० लोगों को वहाँ खाना खिलाया जाता था। रात के खाने के बाद, मेहमान उस बंगले के लंबे-चौड़े बगीचे में घूम सकते थे ताकि ‘परमेश्वर की रचना को देखने, गुफ्तगू करने या कुछ देर तक मनन’ करने का आनंद उठा सकें।
कॉलिज्यिन्ट समूह के ज़्यादातर सदस्य मानते थे कि बपतिस्मा लेना ज़रूरी है। इसलिए बपतिस्मा बड़े-बड़े सम्मेलनों की एक खासियत बन गया। इतिहासकार वान स्ले कहता है कि बपतिस्मे का कार्यक्रम आम तौर पर शनिवार की सुबह होता था। गीत और प्रार्थना के बाद, बपतिस्मा लेना क्यों ज़रूरी है इस पर एक भाषण दिया जाता था। इसके बाद भाषण देनेवाला उन बालिग लोगों को अपने विश्वास का अंगीकार करने के लिए कहता था जो बपतिस्मा लेना चाहते हैं, यानी सबके सामने यह स्वीकार करना कि “मैं विश्वास करता हूँ कि यीशु मसीह जीवते परमेश्वर का पुत्र है।” प्रार्थना से भाषण को समाप्त करने के बाद, मौजूद सभी लोग बपतिस्मे के तालाब की ओर जाते थे। वहाँ बपतिस्मा लेनेवाले घुटनों के बल पानी में बैठते और पानी उनके कंधों तक आता था। फिर बपतिस्मा देनेवाला धीरे-से उस नए विश्वासी के सिर को आगे की ओर झुकाता ताकि वह पूरी तरह पानी के नीचे चला जाए। इस कार्यक्रम के बाद, अगला भाषण सुनने के लिए सभी अपनी जगहों पर आकर बैठ जाते थे।
शनिवार की शाम को ५ बजे, कुछ देर तक बाइबल की पढ़ाई और गीत और प्रार्थना से सभा शुरू की जाती थी। यह ध्यान रखने के लिए कि भाषण देने के लिए कोई-न-कोई व्यक्ति ज़रूर मौजूद हो, रॉटरडम, लाइडिन, एमस्टरडम और उत्तरी हॉलैंड के कॉलेज बारी-बारी से हर सम्मेलन के लिए भाषण देनेवालों का इंतज़ाम करते थे। रविवार की सुबह प्रभु का संध्या भोज मनाने के लिए होती थी। भाषण, प्रार्थना और गीत के बाद, पहले पुरुष और फिर स्त्रियाँ रोटी और दाखरस खाते-पीते थे। रविवार की शाम को और भी कई भाषण होते थे और सोमवार की सुबह आखिरी भाषण सुनने के लिए सभी लोग इकट्ठा होते थे। वान स्ले के मुताबिक, इन सम्मेलनों में दिए जानेवाले ज़्यादातर भाषण, रोज़मर्रा ज़िंदगी में लागू करने के लिए होते थे और इनमें इस बात पर ज़ोर दिया जाता था कि दूसरों को समझाने से ज़्यादा खुद की ज़िंदगी में इन बातों को लागू करें।
राइन्सबर्ख का गाँव खुशी-खुशी ऐसे सम्मेलनों का आयोजन करता था। १८वीं सदी के एक प्रेक्षक ने लिखा कि ऐसे ढेरों मेहमानों का आना जो खाने-पीने की चीज़ों पर काफी खर्च करते थे, उस गाँव के लिए कमाई का अच्छा ज़रिया था। इसके अलावा, हर अधिवेशन के बाद कॉलिज्यिन्ट राइन्सबर्ख के गरीबों के लिए कुछ रकम दान देते थे। जब १७८७ में ये सभाएँ बंद कर दी गयीं तो बेशक इस गाँव को नुकसान का एहसास हुआ। उस साल के बाद कॉलिज्यिन्ट समूह धीरे-धीरे मिटता गया। क्यों?
वे क्यों मिट गए
सत्रहवीं सदी के आखिर तक, धार्मिक मामलों में अपनी समझ से काम करने की बात पर झगड़ा पैदा हो गया था। कुछ कॉलिज्यिन्ट लोग मानते थे कि इंसानी सोच-विचार को परमेश्वर के उपदेशों से ज़्यादा महत्त्व दिया जाना चाहिए, मगर कुछ लोग इस बात से सहमत नहीं थे। आखिरकार, इस झगड़े ने पूरे कॉलिज्यिन्ट समुदाय में फूट पैदा कर दी। जब दोनों तरफ के मुख्य विरोधियों की मौत हो गयी, तब जाकर कहीं कॉलिज्यिन्ट फिर से एक हुए। मगर फिर भी, इस फूट के बाद यह अभियान “पहले जैसा नहीं रहा,” जैसा कि इतिहासकार फिक्स कहता है।
कॉलिज्यिन्ट समूह का महत्त्व घटने की एक और वज़ह थी, अठारहवीं सदी के प्रोटेस्टंट चर्चों में सभी धर्मों के लिए बढ़ती सहनशीलता। समझ और सहनशीलता से काम करने के कॉलिज्यिन्ट समूह के उसूलों को जब समाज में आम तौर पर स्वीकार किया जाने लगा, तो “कॉलिज्यिन्टवाद का अकेला दीपक, ज्ञान-दान की उजली सुबह की रोशनी में गुम हो गया।” १८वीं सदी के आखिर तक ज़्यादातर कॉलिज्यिन्ट, मेननाइट या दूसरे धार्मिक दलों में चले गए थे।
कॉलिज्यिन्ट समूह अपने सदस्यों के बीच विचारों की एकता पर ज़ोर नहीं देता था, इसलिए जितने कॉलिज्यिन्ट सदस्य थे उतने ही अलग-अलग विचार भी थे। वे खुद इस बात को समझते थे इसलिए उन्होंने कभी यह दावा नहीं किया कि वे ‘एक ही मत होकर मिले रहते’ हैं जैसे कि पौलुस ने मसीहियों से रहने के लिए कहा था। (१ कुरिन्थियों १:१०) लेकिन, ऐसा होते हुए भी कॉलिज्यिन्ट उस समय का इंतज़ार कर रहे थे जब बुनियादी मसीही शिक्षाओं को सभी लोग मानने लगेंगे जैसे मसीहियों के विचारों में एकता।
कॉलिज्यिन्ट समूह के दिनों में सच्चे ज्ञान में बढ़ोतरी नहीं हुई, पर फिर भी उन्होंने ज्ञान हासिल करने में एक अच्छी मिसाल रखी, जो आज के कई धर्मों के लिए एक सबक है। (दानिय्येल १२:४ से तुलना कीजिए।) वे बाइबल का अध्ययन करने की ज़रूरत पर ज़ोर देते थे जो प्रेरित पौलुस की सलाह के मुताबिक ही था: “सब बातों को परखो।” (१ थिस्सलुनीकियों ५:२१) निजी बाइबल अध्ययन से याकोबूस आर्मिनीअस और दूसरों ने यह सीखा कि कुछ प्राचीन धार्मिक शिक्षाएँ और रीति-रिवाज़ बाइबल से बिलकुल भी नहीं हैं। जब उन्होंने यह जाना, तो उनमें इतनी हिम्मत थी कि वे जाने-माने धर्मों से अलग हों। अगर आप उस वक्त होते तो क्या यही करते?
[फुटनोट]
a सन् १६१० में इन विरोधियों ने हॉलैंड के शासकों को एक रिमॉस्ट्रंस (एक दस्तावेज़ जिसमें विरोध की वज़हें बतायी गयी थीं) भेजा। इसके बाद से, वे रिमॉस्ट्रंट्स् कहलाए जाने लगे।
b इस जगह की वज़ह से कॉलिज्यिन्ट लोगों को राइन्सबर्खर्स् भी कहा जाता था।
c नवंबर २२, १९८८ सजग होइए! (अंग्रेज़ी) का पेज १९ देखिए, “सॉसिनियन समूह ने त्रिएक को क्यों ठुकरा दिया?”
d हमारे प्रभु यीशु मसीह का नया नियम (डच भाषा में) रेन्यिर रोलेओ (एम.डी.) द्वारा यूनानी से अनुवादित।
[पेज 24 पर तसवीर]
रेमब्रान्ट वान राइन
[पेज 26 पर तसवीर]
वॉरमान्त गाँव जहाँ कॉलिज्यिन्ट दल सबसे पहले शुरू हुआ था और दे व्लीट नदी जहाँ बपतिस्मे होते थे
[पेज 23 पर चित्र का श्रेय]
Background: Courtesy of the American Bible Society Library, New York