बड़ा व्यवसाय और युद्ध
हथियारों का अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बिक्री १९वीं शताब्दी में बड़ा व्यवसाय बन गयी। इस्पात का उत्पादक, जैसे जर्मनी की क्रुप्प कम्पॅनी और इंगलैन्ड की विकर्स और आर्मस्ट्राँग कम्पनियाँ बड़ी मात्रा में हथियार बनाने लगी। जब उनकी अपनी सरकारें और ज्यादा हथियार नहीं खरीदती या नहीं खरीद सकती, तो इन कम्पनियों ने बाहरी देशों से अपना व्यवसाय बढ़ा लिया और विशाल बहुराष्ट्रीय संस्थाएँ बन गई।
इसके शुरू के दिनों से ही, हथियार के उत्पादन और निर्यात की नैतिकता पर शक किया जा रहा था। स्वीडेन के अलफ्रेड नोबेल ने एक प्रकार का कोरडाईट (धुमहीन बारूद जिये बॅलिस्टाईट कहा जाता है) को बन्दूकों के लिए बनाया और, साठ साल की उम्र में, उसने स्वीडेन की बोफर्स नाम की बन्दूक की कम्पनी को खरीद लिया। फिर भी उसने शांतिवाद में दिलचस्पी लेने का दावा किया और वसीयतनामें पर लिखा कि प्रसिद्ध नोबेल पीस प्राइज़ को, उन्हें दिया जाए जो राष्ट्रों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध को बहुत ज्यादा बढ़ावा देंगे। १९०० में जब विलियम आर्मस्ट्राँग की मृत्यु हुई, तो एक अंग्रेज़ी समाचार पत्रिका ने यह टिप्पणी की: “कुछ बातें हैं जो कल्पनाशक्ति को भयभीत कर देती है कि कैसे लॉर्ड आर्मस्ट्राँग जैसे ठण्डे और शान्त दिमाग को विनाश के विज्ञान के तरफ लागू किया गया।”
फिर भी किसी आशंका पर जल्दी ही, देशभक्ति या लाभ को ध्यान में रखते हुए, काबू पा लिया गया। प्रथम विश्वयुद्ध के शुरू होने तक, लड़ाई के हथियार विक्रेता संसार के अधिकतर राजधानियों में एकत्र हो चुके थे, और अपने हथियारों को बेच रहे थे। फिर भी उस युद्ध ने हथियारों के व्यापार में गम्भीर नैतिक समस्या दिखाई थी।
युद्ध के दौरान, इंगलैन्ड और फ्रांस के द्वारा बनाए हुए हथियार युद्ध के मैदान में अंग्रेज और फ्रांस के सैनिकों पर ही उपयोग में लाए गए। जर्मनी ने रूस और बेलजियम के विरुद्ध लड़ाई की जिनके पास क्रुप्प के बने हथियार थे। अधिकतर नौसेना जो युद्ध में सम्मिलित थी वह भी क्रुप्प के बनाए हुए हथियारों से थी, और जटलैन्ड की लड़ाई में, दोनों तरफ से क्रुप्प के बनाए हुए फ़्यूज़ों से एक दूसरों पर गोलों का वार किया गया।
युद्ध से हथियार बनाने वाली कम्पनियों का बड़ा लाभ हुआ है—यहाँ तक कि बहुतों ने यह अन्दाज़ा भी लगाया था कि उन्होंने अपने फायदे के लिए युद्ध को ज्यादा लम्बा करने की कोशिश की थी। १९३४ की एक पत्रिका के लेख में यह हिसाब लगाया गया था कि उस युद्ध में एक सैनिक को मारने में $२५,००० (यू.एस.) खर्च हुआ, “जिसका बड़ा हिस्सा हथियार बनाने वालों की जेब में चला गया।”—दी आर्म्स बाज़ार, एन्थनी सैम्पसन के द्वारा।
उसी युद्ध के समय से हथियारों का व्यापार बना हुआ है, और आज वह इतना समृद्ध हो गया है जितना पहले कभी नहीं था। अब भी कुछ मृत्यु के हथियारों के लेन-देन की नैतिकता पर प्रश्न करते हैं, परन्तु कोई भी इस के लाभ का इन्कार नहीं करता। वॉल स्ट्रीट के एक विश्लेषक ने कहा है, “युद्ध फिर से एक अच्छा व्यवसाय हो गया है।” आधुनिक उच्च-शिल्प-वैज्ञानिक हथियारों के बारे में उल्लेख करते हुए दि न्यू यॉर्क टाइम्स ने यह कहा है: “आश्चर्यजनक शिल्प विज्ञान से कहीं अधिक, इलेक्ट्रॉनिक युद्ध लाभदायक व्यवसाय है।”
एक अंग्रेज़ी पत्रिका न्यू साइन्टिस्ट ने इस बात की पुष्टि की कि “हथियारों का व्यापार . . . तेजी से बढ़ रहा है जिसमें सोवियत संघ मुख्य हथियारों के निर्यात में अमेरिका से आगे निकल गया है” और यह भी लिखा था कि: “इसमें कोइ शक नहीं कि आप एक या दो साल में अंग्रेज़ी हथियारों को भी विदेशों में पाएँगे जैसे उन्हें फोकलैन्ड द्वीपों में प्रदर्शन किया गया।”
वास्तव में, आधुनिक हथियार उत्पादक कम्पनियों के प्रधानों के लिए फोकलैंन्ड और लेबनॅन की युद्ध मानो एक इश्वरीय देन थी। द गारडियन इस पर टिप्पणी करती है: “यूरोप और अमेरिका की कम्पनियाँ (फोकलैन्ड में) युद्ध के बाद एक उत्तेजक आशा रखती है क्योंकि उनके माल ने उत्कृष्ट प्रदर्शन किया।”
यह उन लोगों के लिए भी स्पष्ट है जो अपने धन को एक सुरक्षित जगह में लगाना चाहते हैं। हथियारों में धन लगाने वाले नए व्यक्ति भी “खुले आम आ रहे हैं”। न्यू यॉर्क टाईम्स ने एक रक्षा-विश्लेषक के द्वारा कहे गए शब्दों को इस प्रकार लिखा है: “इन घटनाओं (फॉकलैन्ड और लेबनॅन के युद्धों) के शुरु होने से भण्डारों का अच्छा प्रदर्शन हुआ है। स्पष्ट रूप से इसने बहुत से धन लगाने वालों का ध्यान आकृष्ट किया है।”
उन वर्षों में जो १९७० से शुरू हुए, जब युद्ध दक्षिण-पूर्वी एशिया में भड़का हुआ था, प्रोटेस्टेन्ट गिरजा—जिनमें से कुछ ने युद्ध और अमेरिका की बढ़ती हुई सैन्य शक्ति की विरुद्ध विरोध किया था—खुद ही हथियारों के लाभ दायक बाज़ार से फायदा उठा रहे थे। नेशनल काउन्सल ऑफ चर्चेस ने अपनी एक छोटी पुस्तिका में इस प्रकार कहा: “जो धन यहाँ लगाया गया है वह ‘बड़े व्यवसाय’ की पहचान को दिखाता है जो सेना के सामान को बनाने और उसे प्राप्त करने के लिए है। गिरजों ने जो धन लगाया है वह लगभग २० करोड़ ३० लाख डॉलर है . . . यह लगाया हुआ धन गिरजों के लिए एक बड़ा व्यवसाय है, जो उनकी पूँजी के एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।”
हथियार बनानेवाली कम्पनियों के निगम प्रधान अपने हाथों को एक विशेष उल्लास से इसलिए मलते हैं क्योंकि ज्यादा व्यवसाय सेना के साथ करते हैं न कि व्यापारिक ग्राहकों के साथ। इस लिए उनके फायदे बहुत हैं। अधिकांश बड़े राष्ट्रों ने रक्षा पर पहले ही करोडों डॉलर लगा रखा है, इस लिए हथियार के निर्माताओं को पैसा निश्चित है। चूँकि लड़ाई के इन सामानों को सेना के स्तर के अनुसार होना चाहिए, इसलिए उनका भाव व्यापारिक ग्राहकों से चार या पाँच गुण अधिक होता है। साधारणतः सेना अपने देश में बनी हुई चीज़ों को ही खरीदती है बजाय इसके कि बाहर से खरीदे, ऐसा करने से वह बाहरी प्रतिस्पर्धा के धमकी को कम कर देती है। खास कर अमेरिकन कम्पनियाँ, सेना के ठीकों के लिए अपनी खोज में ऐसी असाधारण स्थिति में है कि जापान से कोई भी प्रतिस्पर्धा नहीं देख सकती है। हथियार निश्चय ही लाभदायक व्यवसाय है।
युद्ध के इस बड़े व्यवसाय के बीच में हथियार विक्रेता सीधे खडे हैं और इन विनाशकारी हथियारों को घर-घर जानेवाले विक्रेता के समान बेचते है। एक व्यक्ति ने इस प्रकार कहा है “हथियार बनाने और कार बनाने की तुलना में एक बड़ी बात यह है कि हथियार हमेशा पुराने होते हैं या थका-माँदा हो जाते है: इस में विस्तरण के लिए असीम अवसर है।”
हथियारों की प्रदर्शनी, जहाँ विक्रेता और खरीदार एक केन्द्र में मिलकर हथियारों के नए नमूनों को देखते हैं, पूरे संसार में एक फैशन की प्रदर्शनी के समान बढ़ती जा रही है। उत्पादक हथियारों की तीसरी पीढ़ी को बना रहे हैं—ऊंची शिल्प-विज्ञान की योजनाएँ जिसमें खोज और विकास के लिए सैनिक खर्च में वृद्धि भी अन्तर्ग्रस्त है। ख्रिस्टोफर पेन, जो अमरिकी वैज्ञानिक संघ से सम्बन्धित है, इसे “हथियार उत्पादकों द्वारा किया गया खतरनाक छल बताते हैं, जो उन्हें इस व्यापार में बनाए रख सकता है।”
हथियारों के व्यापार की नैतिक समस्याएँ अभी तक बदली नहीं है। फॉकलैन्ड के युद्ध से तीन वर्ष पहले, ब्रिटेन ने २० करोड़ डॉलर किमत के युद्धपोत और इलेक्ट्रॉनिक अस्त्र अर्जेन्टिना को बेचे थे, जिसमें से अधिकतर उन्ही के खिलाफ उपयोग में लाए गए जब युद्ध छिड़ा। राष्ट्रों और बड़े व्यवसाय यह संयोग चुनते हैं। हथियारों की अन्तरराष्ट्रीय बिक्री पर निन्दा की आवाजें उठाई जाती हैं। फिर भी बिक्री होती जा रही है, जिसे अक्सर राष्ट्रीय सरकारों के द्वारा उत्साह मिलता है। और इसी बीच संसार रहने के लिए और अधिक खतरनाक जगह बनता जा रहा है।
[पेज 18 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
ब्रिटेन ने अर्जेन्टिना को करोडों डॉलर कीमत के लड़ाई के हथियार बेचे, जिसमें से अधिकतर उन्ही के खिलाफ चलाए गए
[पेज 17 पर तसवीरें]
हथियार बेचने के नैतिकता पर जो संदेह थे, वे लाभ आने पर जल्द ही परास्त हो गए