धर्म और विज्ञान—एक घटिया मिश्रण
ऐसा लगता था कि वैज्ञानिक सत्य के लिए हज़ारों वर्षों की खोज ने अनुवर्ती अनुसंधान के लिए एक ठोस आधार स्थापित किया है। निश्चय ही अतिरिक्त प्रगति के रास्ते में कोई बाधा नहीं आ सकती। और फिर भी, प्रचलित विज्ञान की पुस्तक (The Book of Popular Science) कहती है, “विज्ञान को तीसरी, चौथी और पाँचवी सदी ईसवी सन् के दौरान ज़्यादा सफलता नहीं मिली।”
इस स्थिति को दो घटनाओं ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। पहली शताब्दी के दौरान, यीशु मसीह के साथ एक नए धार्मिक युग ने प्रवेश किया था। और कई दशकों पहले, सा.यु.पू. ३१ में, रोमी साम्राज्य की स्थापना के साथ एक नया राजनैतिक युग उत्पन्न हुआ था।
उनसे पहले आए यूनानी दार्शनिकों से भिन्न, रोमी लोग “दुर्बोध सत्य की खोज करने के बजाय जीवन की प्रतिदिन की समस्याओं को हल करने में ज़्यादा दिलचस्पी रखते थे,” उपर्युक्त संदर्भ रचना कहती है। तर्कसंगत रूप से, तब, “शुद्ध विज्ञान में उनका बहुत थोड़ा योगदान था।”
फिर भी, उस समय तक के संचित किए गए वैज्ञानिक ज्ञान को आगे बढ़ाने में, रोमी लोग सहायक थे। उदाहरण के लिए, प्लाइनी दी ऐल्डर ने पहली शताब्दी के दौरान प्राकृतिक इतिहास (Natural History) नामक एक वैज्ञानिक संग्रह किया। यद्यपि उसमें कुछ त्रुटियाँ थीं, उसने विभिन्न प्रकार की वैज्ञानिक जानकारी को बचाए रखा जो अन्यथा शायद बाद की आनेवाली पीढ़ियों के लिए गुम हो जाती।
जहाँ तक धर्म का संबंध है, तेज़ी से बढ़ती हुई मसीही कलीसिया उस समय की वैज्ञानिक खोज में अन्तर्ग्रस्त नहीं थी। ऐसा नहीं था कि मसीही उसके विरोध में थे, परन्तु जैसे कि मसीह ने स्वयं उदाहरण प्रस्तुत किया, मसीही प्राथमिकता सिर्फ़ धार्मिक सत्य को समझने और फैलाने में ही थी।—मत्ती ६:३३; २८:१९, २०.
पहली शताब्दी की समाप्ति से पहले ही, धर्मत्यागी मसीहियों ने उस धार्मिक सत्य में मिलावट करनी शुरू कर दी थी जिसका प्रचार करने की आज्ञा उन्हें दी गई थी। यह उन्हें बाद में धर्मत्यागी प्रकार की मसीहियत को स्थापित करने की ओर ले गया, जैसे कि पूर्वबताया गया था। (प्रेरितों २०:३०; २ थिस्सलुनीकियों २:३; १ तीमुथियुस ४:१) बाद की घटनाओं ने दिखाया, कि वे धार्मिक सत्य को ठुकराने के साथ-साथ, वैज्ञानिक सत्य के प्रति भी उदासीन—यहाँ तक कि कभी-कभी प्रतिरोध की—मनोवृत्ति रखते थे।
“मसीही” यूरोप अपनी अगुवाई खो देती है
द वर्ल्ड बुक एन्साइक्लोपीडिया व्याख्या करती है कि मध्य युग के दौरान (५वीं शताब्दी से लेकर १५वीं शताब्दी तक), “यूरोप में, प्रकृति का अध्ययन करने की बजाय, विद्वानों को धर्मविज्ञान, या धर्म के अध्ययन में ज़्यादा दिलचस्पी थी।” और कोलियर्स एन्साइक्लोपीडिया दिखाती है कि, “प्रकृति की जाँच करने की बजाय उद्धार पर यह ज़ोर, विज्ञान के लिए प्रेरणा की बजाय एक रुकावट था।”
मसीह की शिक्षाएँ ऐसी रुकावट के अभिप्राय से काम करने के लिए नहीं थीं। फिर भी, मसीह जगत की झूठी धार्मिक धारणाओं की भूल-भुलैया, जिसमें काल्पनिक अमर आत्मा के उद्धार पर अत्यधिक बल देना शामिल था, ने इस विकास को प्रोत्साहित किया। अधिकांश गहन अध्ययन गिरजे के नियंत्रण में था और मुख्यत: मठों में विकसित किया गया। इस धार्मिक मनोवृत्ति ने विज्ञानिक सत्य की खोज को धीमा कर दिया।
सामान्य युग की शुरूआत से ही धर्मविज्ञान की तुलना में वैज्ञानिक मामले दूसरे स्थान पर थे। व्यावहारिक रूप से सिर्फ़ दवाइयों के क्षेत्र में एक वैज्ञानिक प्रगति उल्लेख करने के योग्य है। उदाहरण के लिए, सा.यु. पहली शताब्दी का रोमी चिकित्सक लेखक आउलुस केल्सुस, जो “रोमियों का हिपोक्रटीज़” (Hippocrates of the Romans) कहलाता था, ने जो लिखा था अब एक चिकित्सा श्रेष्ठ माना जाता है। नीरो की रोमी सेना में एक शल्य चिकित्सक, यूनानी औषध विज्ञानी पडेनियस डायोस्कोरिडीज़ ने एक उत्कृष्ट औषध पाठ्य-पुस्तक को पूरा किया जो कि शताब्दियों से व्यापक रूप में प्रयोग हुई। दूसरी शताब्दी के एक यूनानी, गेलेन ने प्रयोगिक शरीर-विज्ञान की स्थापना करके, अपने समय से लेकर मध्य युग तक चिकित्सा सिद्धांत और अभ्यास को प्रभावित किया।
वैज्ञानिक स्थिरता की अवधि १५वीं शताब्दी के बाद तक भी जारी रही। यह सच है कि यूरोपीय वैज्ञानिकों ने इस समय के दौरान खोज की, परन्तु अधिकतर खोज नई नहीं थीं। टाईम पत्रिका कहती है: “[चीनी लोग] विश्व में विज्ञान के प्रथम गुरु थे। यूरोपियों से भी बहुत पहले, वे कंपास का प्रयोग करना, काग़ज और बारूद बनाना, [और] चल टाइप से छापना जानते थे।”
इसलिए, “मसीही” यूरोप में वैज्ञानिक विचार की आम रिक्तता की वजह से, ग़ैर-मसीही संस्कृतियों ने अगुवाई ली।
वैज्ञानिक प्रगति
नौवीं शताब्दी तक, अरबी वैज्ञानिक तीव्रता से विज्ञान के मामलों में अगुए बन रहे थे। ख़ासकर १०वीं और ११वीं शताब्दियों के दौरान—जब मसीहीजगत अनुत्पादक तरीके से क्रियाशील था—उन्होंने उपलब्धि के स्वर्ण युग का आनंद उठाया। उन्होंने चिकित्सा, रसायन, वनस्पति-विज्ञान, भौतिकी, खगोलिकी, और सबसे बढ़कर, गणित में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। (पृष्ठ १८ पर दिए बक्स को देखिए.) कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अरबी भाषा का संगी प्राध्यापक, माएन ज़ी. माडिना, कहता है कि “आधुनिक त्रिकोणमिति के साथ ही साथ बीजगणित और रेखागणित काफ़ी हद तक अरबी रचनाएँ हैं।”
इस वैज्ञानिक ज्ञान का काफ़ी भाग नया था। परन्तु इसमें से कुछ तो यूनानी तत्त्वज्ञान के विस्तृत नींव पर आधारित था और आश्चर्य की बात है कि यह धार्मिक अन्तर्ग्रस्तता के द्वारा हुआ था।
तुलनात्मक रूप से सामान्य युग की शुरूआत में, मसीहीजगत फ़ारस में और उसके बाद अरब और भारत में फैला। पाँचवीं शताब्दी के दौरान, नेस्टोरियस, कौंस्टैंटिनोपोल का कुलपिता, एक विवाद में उलझ गया जो पूर्वी गिरजे में फूट की तरफ ले गया। इसके कारण एक विद्रोह समूह, अर्थात् नेस्टोरियस मतानुयायी बना।
सातवीं शताब्दी में, जब इसलाम का नया धर्म विश्व दृश्य में अचानक प्रकट हुआ और अपने फैलाव अभियान को शुरू किया, तो नेस्टोरियस मतानुयायियों ने अपने अरबी विजेताओं को जल्दी से अपना ज्ञान दे दिया। द एन्साइक्लोपीडिया ऑफ़ रिलीजन के अनुसार, “यूनानी मूल-पाठों को सीरियाई और उसके बाद अरबी भाषा में अनुवाद करने के द्वारा नेस्टोरियस मतानुयायी, यूनानी विज्ञान और दर्शनशास्त्र को आगे बढ़ाने में प्रथम थे।” वे “यूनानी दवाइयों को बग़दाद में चलाने में [भी] प्रथम थे।” अरबी वैज्ञानिकों ने जो नेस्टोरियस मतानुयायियों से सीखा था उन पर आगे कार्य करना शुरू किया। अरब साम्राज्य में विज्ञान की भाषा को सीरियाई से अरबी में बदल दिया गया और वैज्ञानिक लेखन के लिए यह बहुत सुविधाजनक प्रमाणित हुआ।
परंतु अरबियों ने ज्ञान लेने के साथ-साथ इसे दिया भी। जब मौरेटेनियावासी स्पेन द्वारा यूरोप में आए—७०० वर्षों से भी ज़्यादा समय रहने के लिए—तो वे अपने साथ एक ज्ञानसंपन्न मुसलिम संस्कृति लाए। और आठ मसीही धर्मयुद्धों (Christian Crusades) के दौरान, १०९६ और १२७२ के मध्य, पश्चिमी धर्मयोद्धा इस उन्नत इस्लामी सभ्यता से प्रभावित हुए जिसके संपर्क में वे आए। जैसे एक लेखक कहता है, वे “ढेर सारी नई धारणाओं” के साथ वापस गए।
अरबी गणितीय सरलीकरण
एक महत्त्वपूर्ण योगदान जो अरबियों ने यूरोप को दिया वह था रोमन अक्षरों के बदले में अरबी अंकों के प्रयोग का प्रवेश। वास्तव में, “अरबी अंक” एक अनुपयुक्त नाम है। एक ज़्यादा सही नाम शायद “हिन्दू-अरबी अंक” है। सच है, नौवीं शताब्दी के अरबी गणितज्ञ और खगोलज्ञ अल-ख़्वारिज़मी ने इस प्रणाली के बारे में लिखा, परन्तु उसने इस प्रणाली को भारत के हिन्दू गणितज्ञों से प्राप्त किया था, जिन्होंने उसे हज़ार वर्षों से भी पहले, सा.यु.पू. तीसरी शताब्दी में बनाया था।
विख्यात गणितज्ञ लिओनार्डो फ़ीबोनाटची (जिसे पीसा का लिओनार्डो भी कहा जाता है) द्वारा इसे १२०२ में लीबर आबाकी (Liber Abaci) (गिनतारा की पुस्तक) में परिचित कराने से पहले यह प्रणाली यूरोप में कम जानी जाती थी। इस प्रणाली के लाभ का प्रदर्शन करते हुए, उसने समझाया: “नौ भारतीय अंक हैं: ९ ८ ७ ६ ५ ४ ३ २ १. इन नौ अंकों के साथ और ० चिन्ह के साथ . . . कोई भी संख्या लिखी जा सकती है।” शुरू में यूरोपीय लोग प्रतिक्रिया दिखाने में धीमे थे। परन्तु मध्य युग के अन्त तक, उन्होंने नई संख्या प्रणाली स्वीकार कर ली थी, और इसकी सरलता ने वैज्ञानिक प्रगति को प्रोत्साहित किया।
यदि आप इस बात पर संदेह करते हैं कि हिन्दू-अरबी अंक पिछले रोमी अंकों का सरलीकरण है, तो MCMXCIII में से LXXIX को घटाने की कोशिश कीजिए। चकरा गए? शायद १,९९३ में से ७९ थोड़ा आसान हो।
यूरोप में दिलचस्पी की लौ को फिर से सुलगाना
बारहवीं शताब्दी से, ज्ञान की आग जो मुसलमान देशों में तेज़ी से जल रही थी मद्धिम होनी शुरू हो गयी। लेकिन, उसे फिर से यूरोप में सुलगाया गया जब, विद्वानों के समूहों ने आधुनिक विश्वविद्यालयों का पूर्वगामी बनना शुरू किया। बारहवीं शताब्दी के मध्य में, पेरिस और ऑक्सफॉर्ड के विश्वविद्यालय अस्तित्व में आए। केमब्रिज़ का विश्वविद्यालय १३वीं शताब्दी के शुरू में आरम्भ हुआ, और प्रेग और हीडेलबर्ग के विश्वविद्यालय दोनों १४वीं में खुले। उन्नीसवीं शताब्दी तक, विश्वविद्यालय विज्ञानिक अनुसंधान के मुख्य केंद्र बन गए थे।
प्रारंभ में, ये विद्यालय धर्म द्वारा प्रबलता से प्रभावित थे, अधिकांश अध्ययन धर्म पर केंद्रित या उसकी ओर प्रवृत्त थे। परन्तु साथ ही साथ, विद्यालयों ने यूनानी दर्शनशास्त्र, ख़ासकर अरस्तू के लेखों को स्वीकार किया। द एन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन के अनुसार, “पूरे मध्य युग के दौरान . . . शैक्षिक तरीका . . . अरस्तू तर्क के अनुसार परिभाषा, विभाजन और पाठ की उसकी व्याख्या पर तर्क और मुश्किलों के उसके समाधान करने के आधार पर बनाया गया था।”
तेरहवीं शताब्दी का एक विद्वान, जो अरस्तू के ज्ञान को मसीही धर्मविज्ञान से जोड़ने की कोशिश कर रहा था, थॉमस अक्वीनॉस था, जो बाद में “मसीही अरस्तू” कहलाया। परन्तु कुछ मुद्दों पर वह अरस्तू से सहमत नहीं था। उदाहरण के लिए, अक्वीनॉस ने शास्त्रवचनों से सहमत होते हुए कि संसार को सृष्ट किया गया है, इस सिद्धांत को अस्वीकार किया कि संसार हमेशा से अस्तित्व में रहा है। प्रचलित विज्ञान की पुस्तक (The Book of Popular Science) कहती है: “हमारा एक व्यवस्थित विश्वमंडल है जो तर्क के प्रकाश से समझा जा सकता है, इस विश्वास को दृढ़ता में” पकड़े रहने से, उसने “आधुनिक विज्ञान के विकास में एक महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।”
फिर भी, अरस्तू, टालेमी, और गेलन की अधिकतर शिक्षाओं को अचूक सत्य के जैसे, यहाँ तक कि गिरजा के द्वारा भी स्वीकार किया गया। उपर्युक्त संदर्भ रचना व्याख्या करती है: “मध्य युग में, जब वैज्ञानिक प्रयोग और प्रत्यक्ष प्रेक्षण की दिलचस्पी उतार पर थी, तब अरस्तू का शब्द ही नियम था। इप्से दीक्सित (‘स्वयं उसने कहा’) एक तर्क था जिसे मध्यकालीन दार्शनिकों ने अनेक ‘वैज्ञानिक’ प्रेक्षणों की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए प्रयोग किया। इन परिस्थितियों के अधीन अरस्तू की ग़लतियों ने, ख़ासकर भौतिकी और खगोलिकी में, वैज्ञानिक प्रगति को शताब्दियों तक रोके रखा।”
एक व्यक्ति जिसने पिछले दृष्टिकोणों से अन्धे लगाव को चुनौती दी, वह था १३वीं शताब्दी का ऑक्सफॉर्ड पादरी रॉजर बेकन। वह “मध्ययुगी विज्ञान में सर्वश्रेष्ठ हस्ती” कहलाया जानेवाला, बेकन, वैज्ञानिक सत्य को सीखने के साधन के तौर पर परीक्षण का समर्थन करने में तक़रीबन अकेला था। यह कहा गया है कि १२६९ में ही, अन्य लोगों द्वारा इन तत्त्वों को पहचानने से शताब्दियों पहले, वह स्वचालित वाहनों, विमानों, और मोटर वाले जहाज़ों के बारे में भविष्यवाणी कर चुका था।
फिर भी, दूरदर्शिता और एक प्रतिभाशाली मस्तिष्क होते हुए भी, बेकन को तथ्यों का सीमित ज्ञान था। वह ज्योतिष, जादू, और कीमिया में दृढ़ता से विश्वास करता था। यह प्रदर्शित करता है कि विज्ञान वास्तव में सत्य के लिए एक निरंतर खोज है, जिसका हमेशा संशोधन हो सकता है।
यद्यपि प्रतीत हुआ कि १४वीं शताब्दी में वैज्ञानिक जाँच निष्क्रिय पड़ी थी, जैसे ही १५वीं शताब्दी अपनी समाप्ति तक पहुँची, मनुष्यजाति की वैज्ञानिक सत्य की खोज समाप्ति से बहुत दूर थी। वास्तव में, आनेवाले ५०० वर्ष पिछले वर्षों से अधिक महत्त्वपूर्ण होंगे। संसार वैज्ञानिक क्रांति की दहलीज़ पर खड़ा था। और जैसे प्रत्येक क्रांति के बारे में सच है, इसके अपने नायक, खलनायक, और इन सबसे बढ़कर, अपने शिकार होंगे।
[पेज 18 पर बक्स]
अरबी विज्ञान का स्वर्ण युग
अल-ख़्वारिज़मी (आठवीं-नौवीं शताब्दी), ईराकी गणितज्ञ और खगोलज्ञ; अलजीब्रा से आए, शब्द “ऐलजबरा” की उत्पत्ति के लिए प्रसिद्ध, अरबी में अलजीब्रा का मतलब “टूटे हुए भागों का जोड़” है।
अबू मूसा जबीर इबेनहियान (आठवीं-नौवीं शताब्दी), कीमियागर; अरबी रसायन का पिता कहलाता है।
अल-बत्तेनी (नौवीं-दसवीं शताब्दी), खगोलज्ञ और गणितज्ञ; टालेमी की खगोलीय परिकलन में सुधार किया, इस प्रकार वर्ष और ऋतुओं की लम्बाई जैसी बातों को अधिक यथार्थता से निर्धारित किया।
अर-राज़ी (राज़ीज़) (नौवीं-दसवीं शताब्दी), फ़ारस में जन्मे सबसे विख्यात चिकित्सकों में से एक; चेचक और खसरे के बीच में भेद करने और सब पदार्थों का पशु, वनस्पति, या खनिज के रूप में वर्गीकरण करनेवाला प्रथम व्यक्ति।
बासरा का अबू अली अल-हसन इब्न अल-हायथम (अलहाज़ेन) (१०वीं-११वीं शताब्दी), गणितज्ञ और भौतिक-विज्ञानी; प्रकाशिकी के सिद्धांत में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, जिसमें अपवर्तन, प्रतिबिम्ब, द्विनेत्री दृष्टि, और वायुमंडलीय अपवर्तन भी शामिल थे; दृष्टि की सही व्याख्या करने में प्रथम था कि यह एक वस्तु का आँखों तक आए प्रकाश का प्रभाव है।
उमर ख़य्याम (११वीं-१२वीं शताब्दी), विख्यात फ़ारसी गणितज्ञ, भौतिक-विज्ञानी, खगोलज्ञ, चिकित्सक, और दार्शनिक; पश्चिम में अपनी काव्य रचना के लिए सबसे ज़्यादा विख्यात।
[पेज 16 पर तसवीरें]
अरस्तू (ऊपरी) और प्लैटो (निचला) ने शताब्दियों से वैज्ञानिक विचारों को प्रबलता से प्रभावित किया
[चित्रों का श्रेय]
National Archaeological Museum of Athens
Musei Capitolini, Roma