कमीनीयस—आधुनिक शिक्षा का जन्मदाता
चॆक गणराज्य में सजग होइए! संवाददाता द्वारा
शिक्षक होने के नाते, जॉन कमीनीयस को १७वीं-सदी स्कूल प्रणाली की कमियाँ अच्छी तरह मालूम थीं। सच है कि कोई शिक्षा प्रणाली कभी सिद्ध नहीं थी, लेकिन १७वीं-सदी यूरोप की स्कूल प्रणाली तो एकदम बेकार थी।
बैठे-बैठे शिकायतें करने या आरोप लगाने के बजाय कमीनीयस ने उसके बारे में कुछ करने का फैसला किया। उसने क्या किया और क्यों किया? इसके अलावा, हम उस व्यक्ति से क्या सीख सकते हैं जिसे आधुनिक शिक्षा का जन्मदाता कहा जाता है?
पालन-पोषण और शिक्षा
जॉन एमस कमीनीयस (यान आमॉस कॉमॆनस्की, उसकी अपनी चॆक भाषा में) का जन्म मार्च २८, १५९२ में मरेवीया में हुआ। यह प्रांत उस देश में है जो आज चॆक गणराज्य कहलाता है। वह किसान वर्ग के एक संपन्न दंपति के पाँच बच्चों में सबसे छोटा और एकलौता बेटा था।
उसके माता-पिता यूनिटी ऑफ ब्रॆदरॆन के सदस्य थे (जो बाद में बोहिमियन ब्रॆदरॆन या मोरेवियन चर्च कहलाया)। यह धार्मिक समूह वॉलडॆनसीज़ और पीटर खॆलचीडज़्की जैसे अन्य धर्म-सुधारकों के प्रभाव में आकर १५वीं सदी के मध्य में बना। जर्मनी में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद, कमीनीयस अपने देश लौट आया। बाद में, २४ साल की उम्र में उसे यूनिटी ऑफ ब्रॆदरॆन का पादरी नियुक्त किया गया।
क्यों उसे अपना देश छोड़ना पड़ा
सन् १६१८ में, कमीनीयस ने फूलनॆक नगर में एक छोटे-से गिरजे का कार्य-भार सँभाला, जो प्राग शहर से करीब २४० किलोमीटर पूरब की ओर है। उस समय यूरोप में प्रोटॆस्टॆंटवाद के विरुद्ध कैथोलिक चर्च धर्म-सुधार आंदोलन चला रहा था। कैथोलिकों और प्रोटॆस्टॆंटों के बीच तनाव बढ़ता गया और फिर अंत में तीस वर्षीय युद्ध (१६१८-४८) छिड़ गया।
एक दशक तक लड़ने के बाद, रोमन कैथोलिक धर्म को मरेवीया का एकमात्र वैध धर्म घोषित किया गया। कमीनीयस और उच्च वर्गों के लोगों से फैसला करने को कहा गया—कैथोलिक धर्म स्वीकार करें या देश छोड़ दें। कमीनीयस तो अपना धर्म बदलनेवाला था नहीं, सो वह अपने परिवार को लेकर छोटे-से नगर लॆशनॉ में जा बसा। लॆशनॉ पोलॆंड में यूनिटी ऑफ ब्रॆदरॆन की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था। यह उसके देश-निकाले की शुरूआत थी जो ४२ साल तक चला। इसके बाद वह फिर कभी अपने देश में नहीं बसा।
“दिमाग के बूचड़खाने”
कमीनीयस को लॆशनॉ जिमनेज़ियम में लैटिन पढ़ाने का काम मिल गया। जिमनेज़ियम ऐसा स्कूल था जहाँ छात्रों को कॉलॆज के लिए तैयार किया जाता था। लेकिन कुछ ही समय बाद, सिखाने के बेढंगे तरीकों से उसका मन उचट गया और ऐसा होने का उचित कारण भी था।
कमीनीयस के समय की स्कूल प्रणाली का हाल बहुत खराब था। उदाहरण के लिए, सिर्फ लड़कों को शिक्षा पाने के योग्य समझा जाता था। लेकिन गरीबों के लड़कों को शिक्षा नहीं दी जाती थी। स्कूल में मुख्य रूप से बच्चों के दिमाग में लैटिन शब्द, वाक्य और व्याकरण ठूँस-ठूँसकर शिक्षा दी जाती थी। सिर्फ लैटिन क्यों? क्योंकि मध्ययुग के अधिकतर स्कूलों पर कैथोलिक चर्च का नियंत्रण था जो अपनी धर्म-सभाएँ लैटिन में चलाता था। इसलिए लैटिन सिखाना ज़रूरी था ताकि पादरी बनने के लिए लोगों की कमी न हो।
इसके अलावा, इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था कि शिक्षा हासिल करने में कुछ लक्ष्य रखे जाएँ, न ही शिक्षा इस प्रकार दी जाती थी कि छात्रों को पहले सरल बातें और फिर धीरे-धीरे जटिल बातें सिखायी जाएँ। अनुशासन सख्त था, कभी-कभी बहुत क्रूरता की जाती थी और नैतिक वातावरण भी गंदा था।
तो फिर यह हैरानी की बात नहीं कि एक बार स्कॉटिश शिक्षक साइमन लॉरी ने १७वीं सदी के स्कूलों को “एकदम अव्यवस्थित” और “नीरस” कहा। कमीनीयस और भी बेबाक था। उसने स्कूलों को “दिमाग के बूचड़खाने” कहा।
सिखाने का एक नया तरीका निकला
कमीनीयस पहला व्यक्ति नहीं था जिसने शैक्षिक सुधार की ज़रूरत के बारे में आवाज़ उठायी। इंग्लॆंड में फ्रांसिस बेकन ने लैटिन पर ज़ोर दिये जाने की निंदा की और सुझाव दिया कि प्रकृति के अध्ययन की ओर लौटना चाहिए। जर्मनी में वॉल्फगांग राटका और योहान वालॆनटीन आन्ड्रे ने और दूसरों ने भी सुधार करने के प्रयास किये। लेकिन अधिकारियों ने इनमें से किसी के भी विचारों का समर्थन नहीं किया।
कमीनीयस ने ऐसी प्रणाली बनाने का प्रस्ताव रखा जिसमें शिक्षा हासिल करना दिलचस्प हो, बोझ नहीं। उसने अपनी शैक्षिक योजना को पाम्पॆदीआ कहा जिसका अर्थ है “सर्वसामान्य शिक्षा।” उसका लक्ष्य था शिक्षा की एक प्रगतिशील प्रणाली बनाना जिसका आनंद सभी उठा सकें। उसने कहा कि बच्चों को एक-एक कदम बढ़ाकर सिखाया जाना चाहिए, पहले बुनियादी बातें और फिर धीरे-धीरे ज़्यादा जटिल बातें। कमीनीयस ने यह बढ़ावा भी दिया कि स्कूल के शुरूआती सालों में लैटिन के बजाय मातृभाषा का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
लेकिन एक व्यक्ति को सिर्फ किशोरावस्था में ही शिक्षा नहीं लेनी चाहिए बल्कि जीवन भर लेते रहनी चाहिए और उसके अनुसार चलना चाहिए। कमीनीयस ने लिखा कि पढ़ाई “एकदम व्यावहारिक, एकदम मज़ेदार और ऐसी होनी चाहिए कि स्कूल सचमुच एक खेल लगे, यानी हमारे पूरे जीवन की खुशहाल शुरूआत।” उसका यह भी मानना था कि स्कूल में न सिर्फ दिमाग को बल्कि समूचे व्यक्तित्व को शिक्षित करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए—नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा भी दी जानी चाहिए।
जॉन कमीनीयस की रचनाएँ
शिक्षा के क्षेत्र में कमीनीयस की पहली रचना द स्कूल ऑफ इनफॆंसी १६३० में प्रकाशित हुई।a यह माताओं और आयाओं को मदद देने के लिए बनायी गयी थी कि घर में बच्चों को शिक्षा देते समय इस्तेमाल करें। इसके बाद १६३१ में द गेट ऑफ लैंगुएज़ॆस अनलॉक्ड आयी, जिसने लैटिन सिखाने का मानो पूरा तरीका ही बदल डाला। इसमें विषय को आमने-सामने दो खानों में रखा गया था, एक खाने में चॆक भाषा और दूसरे में लैटिन। इस तरह दोनों भाषाओं की तुलना आसानी से की जा सकती थी, जिससे सीखना बहुत आसान हो गया। इस पुस्तक का संशोधित संस्करण लोगों को इतना पसंद आया कि आगे चलकर १६ भाषाओं में उसका अनुवाद किया गया।
कमीनीयस की सबसे मशहूर और शायद सबसे आसान रचना थी द विज़िबल वर्ल्ड, जिसमें बच्चों को समझाने के लिए तसवीरें भी थीं। यह भी शिक्षा के इतिहास में एक मील-पत्थर था। बीसवीं सदी में शिक्षा का प्रोफॆसर, ऎलवुड कबरली कहता है कि ‘एक सौ पंद्रह साल तक यूरोप में इसकी टक्कर की पुस्तक नहीं आयी; और करीब दो सौ साल तक इसे शुरूआती पाठ्य-पुस्तक के रूप में इस्तेमाल किया गया।’ असल में, आज भी अनेक सचित्र पाठ्य-पुस्तकें कमीनीयस की रचना की नकल करती हैं, यानी अच्छी तरह सिखाने के लिए चित्रों का इस्तेमाल करती हैं।
जल्द ही लोग कमीनीयस की प्रतिभा की दाद देने लगे। पूरे यूरोप के विद्वान उसे गुरु मानकर उसकी सलाह लेते थे। पुस्तक मागनाल्या क्रिस्ती आमॆरीकाना के अनुसार कमीनीयस इतना मशहूर हो गया कि १६५४ में उसे केम्ब्रिज, मैसाचूसॆट्स की हावर्ड यूनिवर्सिटी का अध्यक्ष बनने के लिए आमंत्रित किया गया। लेकिन कमीनीयस ने इनकार कर दिया क्योंकि वह प्रसिद्धि, प्रशंसा और पद की तलाश में नहीं था।
किस बात ने उसे प्रेरित किया?
कमीनीयस के जीवन पर विचार करने के बाद, व्यक्ति के अंदर यह जानने की उत्सुकता ज़रूर होगी कि किस बात ने उसे प्रेरित किया। कमीनीयस का मानना था कि शिक्षा मानवजाति को एकता में बाँधने की शक्ति रखती है। उसका दावा था कि विश्व शांति को बनाए रखने के लिए सारी दुनिया के लोगों को शिक्षा दी जानी चाहिए।
कमीनीयस ने ज्ञान का संबंध धर्म-परायणता के साथ भी जोड़ा। उसका विश्वास था कि ज्ञान लेने के द्वारा मनुष्य आगे चलकर परमेश्वर को जान पाते हैं। और शायद यही उसका मूल उद्देश्य रहा हो।
शिक्षा के बारे में कमीनीयस के विचार आज तक सही माने जाते हैं। उसकी सुव्यवस्थित शिक्षा पद्धतियाँ, जिनमें चित्रों का प्रयोग शामिल था, दुनिया भर में अपनायी जाती हैं—उदाहरण के लिए, वॉच टावर बाइबल एण्ड ट्रैक्ट सोसाइटी द्वारा प्रकाशित साहित्य में। व्यक्तिगत रूप से, हम सभी अपना व्यक्तिगत बाइबल अध्ययन या पारिवारिक बाइबल अध्ययन करते समय उसके तरीके अपनाकर लाभ उठा सकते हैं। कैसे?
“विद्यार्थी पर वह जानकारी नहीं थोपनी चाहिए जो उसकी उम्र, समझ और वर्तमान दशा के लिए उचित न हो,” कमीनीयस ने लिखा। सो अपने बच्चों को बाइबल या कोई दूसरा विषय सिखाते समय, पाठ को उनके हिसाब से ढालने की कोशिश कीजिए। औपचारिक प्रश्न-उत्तर का तरीका इस्तेमाल करने के बजाय, क्यों न उन्हें बाइबल के पात्रों की कहानियाँ सुनाएँ? उन्हें शामिल कीजिए, उनसे बाइबल घटनाओं की तसवीरें बनाने के लिए कह सकते हैं या फिर उन्हें प्रोत्साहित कर सकते हैं कि बाइबल नाटक करके दिखाएँ। नये-नये तरीके सोचिए! आपकी मेहनत बेकार नहीं जाएगी।—नीतिवचन २२:६.
सचित्र साहित्य का भी पूरा लाभ उठाइए जो खास तौर पर बच्चों को ध्यान में रखकर उन्हें धीरे-धीरे सिखाने के लिए बनाया गया है, जैसे बाइबल कहानियों की मेरी पुस्तक और युवाओं के प्रश्न—व्यावहारिक उत्तर।b और किसी भी उम्र के बाइबल विद्यार्थियों को सिखाते समय कोशिश कीजिए कि उनके लिए यह “एकदम व्यावहारिक, एकदम मज़ेदार” अनुभव हो।
अमिट विरासत
सन् १६५६ में जब लॆशनॉ नगर में आग लगी तो कमीनीयस का करीब-करीब सब कुछ मिट गया। लेकिन शुक्र है कि वह हमारे लिए दूसरे किस्म का धन छोड़ गया। पुस्तक शिक्षा का संक्षिप्त इतिहास (अंग्रेज़ी) कहती है: “कमीनीयस . . . ने शिक्षा देने के लिए पूरा ज़ोर शब्दों से हटाकर चीज़ों पर डाला और वैज्ञानिक ज्ञान तथा विश्व के बारे में उपयोगी जानकारी देना अपने काम का मुख्य-विषय बनाया।”
सचमुच, कमीनीयस को इसका श्रेय दिया जा सकता है कि उसने शिक्षा को बदलकर विज्ञान के जैसा बना दिया। उसकी शिक्षा पद्धतियों ने स्कूल में बच्चों को सिखाने का तरीका ही बदल डाला। अमरीकी शिक्षक निकलस बटलर ने कहा: “शिक्षा के इतिहास में कमीनीयस का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राथमिक और सॆकॆंडरी शिक्षा के क्षेत्र में जो आधुनिक क्रांति आयी वह उसी ने शुरू की और उसमें उसी का ज़्यादा हाथ रहा।” यहोवा के साक्षी बाइबल के उत्साही विद्यार्थी हैं। उनके पास भी आधुनिक शिक्षा के जन्मदाता का आभार मानने का कारण है।
[फुटनोट]
a सन् १६५७ में कमीनीयस ने लैटिन भाषा में ऑपॆरा डाइडैक्टिका ऑमनिया के भाग के रूप में द चॆक डाइडैक्टिक प्रकाशित की। यह अलग से १८४९ तक नहीं छापी गयी।
b वॉच टावर बाइबल एण्ड ट्रैक्ट सोसाइटी द्वारा प्रकाशित।
[पेज 16 पर बक्स/तसवीरें]
जॉन कमीनीयस के कुछ शिक्षा सिद्धांत
कितना सिखाना चाहिए इस विषय में: “शिक्षक को उतना नहीं सिखाना चाहिए जितना वह सिखा सकता है, बल्कि उतना ही जितना कि सीखनेवाला समझ सकता है।”
सिखाने के तरीकों के विषय में: “अच्छी तरह सिखाने का अर्थ है किसी को जल्दी से, सहमति के साथ और अच्छी तरह से सीखने में मदद देना।”
“कुशल शिक्षक वह [है] जो अपने विद्यार्थियों की अज्ञानता को धीरज के साथ सहना जानता है और यह भी जानता है कि कैसे उस अज्ञानता को प्रभावकारी तरीके से दूर किया जाए।”
“सिखाने का बस यही अर्थ है कि अपने उद्देश्य, रूप और उद्गम में अलग-अलग चीज़ें कैसे एक-दूसरे से भिन्न हैं, यह समझाएँ। . . . इसलिए, जो इस भिन्नता को अच्छी तरह समझाता है वह अच्छी तरह सिखाता है।”
तर्कसंगत संबंध के विषय में: “जिस बात का अर्थ नहीं निकलता उसे न तो समझा और न ही आँका जा सकता है और इसलिए उसे याद भी नहीं रखा जा सकता।”
“जब कोई बात विस्तार से नहीं बतायी जाती, तो उसे समझना या उसके बारे में कोई राय बनाना असंभव-सा होता है और उसे याद रखना भी उतना ही असंभव होता है।”
समझने के विषय में: “किसी चीज़ को समझना काफी हद तक यह देख पाने की बात है कि क्यों और कैसे उस चीज़ का कोई-भी एक हिस्सा किसी दूसरी चीज़ से संबंध रखता है और कैसे तथा किस हद तक वह दूसरी चीज़ों से फर्क है जो उससे मिलती-जुलती हैं।”
“ठीक ही कहा गया है कि हमें किसी विषय को पहली बार पढ़ना चाहिए यह जानने के लिए कि उसमें क्या है; दूसरी बार उसे समझने के लिए; तीसरी बार उसे अपने दिमाग में बिठाने के लिए; चौथी बार हमें उसे अपने मन में दोहराना चाहिए यह जाँचने के लिए कि हम उसमें पूरी तरह कुशल हो गये हैं या नहीं।”
[तसवीर]
“द विज़िबल वर्ल्ड” का एक पन्ना, १८८३ संस्करण
[पेज 17 पर तसवीर]
सन् १७७५ में एक जर्मन नर्सरी-पुस्तक, जिसमें कमीनीयस के सिखाने के तरीके इस्तेमाल किये गये