क्वालिटी कॉफी का सफर—बागान से लेकर आपके प्याले तक
ब्राज़ील के सजग होइए! संवाददाता द्वारा
फिनलैंड के वासी इसे अपना राष्ट्रीय पेय मानते हैं। कई इतालवी लोग इसे बड़े चाव से तैयार करते हैं। फ्रांस, जर्मनी, मॆक्सिको, अमरीका और कई दूसरे देशों में नाश्ते के साथ इसका होना इतना ज़रूरी है मानो इसके बिना उनका नाश्ता पचता ही नहीं। चाय के बाद, इसे ही दुनिया भर में सबसे ज़्यादा पसंद किया जाता है। मगर यह है क्या? दुनिया के लगभग एक तिहाई लोगों के लिए इसका बस एक ही जवाब हो सकता है और वह है—कॉफी!
चाहे आपको कॉफी पसंद हो या नहीं, मगर आप इस बात से तो इनकार नहीं कर सकते कि यह बहुत ही लोकप्रिय है। क्वालिटी कॉफी बनाने में क्या शामिल है? यह कहाँ उगती है? इसे कैसे उगाया जाता है? क्या वास्तव में कॉफी अलग-अलग किस्म की होती हैं? किन बातों से इसकी क्वालिटी, फ्लेवर और दाम तय होता है?
कॉफी के सफर की शुरुआत
कॉफी के सफर की शुरुआत कॉफी पेड़ के बीजों से होती है। इन बीजों को भूनकर कॉफी बनायी जाती है। कॉफी पेड़ ज़्यादा ऊँचे नहीं होते। ये दरअसल बड़ी-बड़ी, सदाबहार झाड़ियाँ होती हैं जिनके पत्ते चमकीले और गहरे हरे रंग के होते हैं। ये पेड़ ऐसे इलाकों में ही उगते हैं जहाँ न ज़्यादा ठंड पड़ती है ना ही ज़्यादा गर्मी। जब इन पेड़ों पर पूरी बहार आ जाती है, तब ये खूबसूरत सफेद-सफेद फूलों से भर जाते हैं, जिनसे बहुत ही भीनी-भीनी जैस्मिन-जैसी खुशबू निकलती है। कुछ ही दिनों बाद, इन फूलों से चेरी-समान, हरे-हरे फलों के गुच्छे निकलते हैं जो धीरे-धीरे बढ़ते जाते हैं और इसके साथ-साथ इनका रंग भी बदलता जाता है, यानी इन फलों का रंग पहले हलका हरा होता है जो फिर गहरा हो जाता है, बाद में ये सुनहरे-भूरे रंग के हो जाते हैं और पूरी तरह पक जाने पर लाल या पीले रंग के हो जाते हैं।
दुनिया में लगभग ७० अलग-अलग किस्म के कॉफी पेड़ होते हैं, कुछ पेड़ बौने या छोटी झाड़ी होते हैं तो कुछ १२ मीटर ऊँचे। इन सभी किस्मों में से सिर्फ दो किस्मों से ही दुनिया भर में ९८ प्रतिशत कॉफी बनती है। ये दो किस्में हैं कॉफी एरैबिका या महज़ एरैबिका, और कॉफी कैनफोरा जिसे रोबस्टा भी कहा जाता है। सबसे अच्छी कॉफी एरैबिका किस्म से बनती है, खासकर उन कॉफी पेड़ों से जो ऊँचे स्थानों पर उगे हों। हालाँकि इन पेड़ों की ऊँचाई ४ से ६ मीटर तक होती है मगर इन्हें काट-छाँट कर सिर्फ ४ मीटर की ऊँचाई तक ही रखा जाता है। इंस्टैंट कॉफी अकसर रोबस्टा जाति से ही बनायी जाती है जिसमें कैफीन की मात्रा ज़्यादा होती है और इसका स्वाद न्यूट्रल यानी साधारण होता है।
क्वालिटी कॉफी उगाना
क्वालिटी कॉफी बनाने में क्या-क्या शामिल है? एक शब्द में कहें तो, मेहनत! नर्सरी में उगाए गए खास बीजों को बोने के साथ ही कॉफी के सफर की शुरूआत होती है। नर्सरी का वातावरण बीजों के लिए उम्दा होता है यानी यहाँ सही मात्रा में धूप और छाँव होती है। लगभग छः महीनों के बाद, इन पौधों को नर्सरी से निकालकर खास खेतों में बोया जाता है जिनकी मिट्टी को फर्टिलाइज़र और मिनरल डालकर तैयार किया जाता है। कॉफी के इन पौधों को सीढ़ीनुमा खेतों यानी ढलानों पर पंक्तियों में बोया जाता है। बोते वक्त इन पौधों के बीच काफी फासला रखा जाता है ताकि इन्हें बढ़ने के लिए जगह मिले और पेड़ों और मिट्टी की देखभाल करने में, साथ ही कटनी करने में आसानी भी हो।
अच्छी फसल पाने के लिए साल भर इन पौधों पर लगातार नज़र रखनी पड़ती है। इनके आस-पास जंगली घास-फूस उग आने पर उन्हें उखाड़कर फेंकना पड़ता है, नहीं तो ये घास-फूस मिट्टी में डाली गयी खास खादों को सोख लेते हैं। साथ ही, बोरर या रंध्रक जीव जैसे कीटाणुओं और कॉफी रस्ट जैसी बीमारियों से इन पेड़ों को बचाने के लिए इन पर लगातार फंगस-नाशी और कीटनाशक दवाइयाँ छिड़कनी पड़ती हैं।
इन छोटे-छोटे पौधों में फल लगने के लिए कम-से-कम दो साल लग जाते हैं। जब कटनी का समय आता है, तब काम बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है। कटनी के वक्त आम तौर पर कॉफी के सभी पके हुए दानों को एक-एक करके तोड़ा जाता है। ऐसा कोलम्बिया और कोस्टा रीका जैसे देशों में किया जाता है।
इस तरह इकट्ठी की गयी चेरियों को आम तौर पर वेट प्रॉसॆस नामक प्रक्रिया से तैयार किया जाता है। इस प्रक्रिया में चेरियों को एक गूदा-मशीन में डाला जाता है, जो बीजों से सारे गूदे को निकाल देता है। इसके बाद, बीजों को एक से तीन दिन तक टैंकों में रखा जाता है जिस दरमियान इनमें से एन्ज़ाइम निकलता है और किण्व (fermentation) होता है। इससे इन बीजों पर बचा-कुचा गूदा सड़-गल जाता है। इसके बाद पूरी तरह से गूदे को निकाल देने के लिए इन बीजों को धोया जाता है। कुछ बीजों को कंक्रीट सीढ़ीदार चबूतरों पर या खास टेबलों पर डालकर धूप में सुखाया जाता है और कुछ को गर्म-हवावाले ड्राइयरों से सुखाया जाता है। फिर मशीनों के ज़रिए इन बीजों की सूखी हुई ऊपरी परत और सिल्वर स्किन को हटाया जाता है। इस वेट प्रॉसॆस में फर्मॆन्टेशन किया जाता है और इसमें सिर्फ अच्छी तरह से पकी हुईं चेरियों का ही इस्तेमाल किया जाता है। तब जाकर ही उच्च कोटि की हलकी कॉफी बनती है।
दुनिया का सबसे बड़ा कॉफी उत्पादक देश ब्राज़ील है। वहाँ कॉफी उगानेवाले लोग कटनी के समय डेरीसा नामक तरीका अपनाते हैं। इसमें लोग हाथों से सारी की सारी चेरियों को एक साथ ही तोड़ लेते हैं, चाहे वे पके हों या नहीं। हाल ही के समय से, कुछ कॉफी उत्पादक क्वालिटी और उत्पादन बढ़ाने के इरादे से पूरी तरह मशीनों से कटनी करने लगे हैं या कटनी करने के लिए मशीनों और मज़दूरों दोनों का इस्तेमाल करने लगे हैं। इनमें से एक तरीके में हाथ से चलाया जानेवाला न्यूमाटिक यंत्र इस्तेमाल होता है जिसका लंबा हाथ होता है और इसके आगे कंपनशील “उँगलियाँ” होती हैं जो शाखाओं को हिलाकर सिर्फ पकी हुई चेरियाँ ज़मीन पर गिराती हैं।
ज़मीन पर गिरायी गयी इन चेरियों को लोग या मशीन इकट्ठा करके छाँटते हैं ताकि इनमें पत्ते, धूल या तिनके न हों। फिर चेरियों को ६० लीटर की क्षमतावाली बड़ी-बड़ी टोकरियों में डाला जाता है। छाँटकर अलग की गयी इन चेरियों को कंक्रीट की टंकियों में या इसके लिए बनी किसी मशीन से धोया जाता है। धोने की प्रक्रिया से पकी हुई चेरियों को सूखकर सड़ रही चेरियों से अलग किया जाता है।
धोने के बाद कॉफी को १५ से २० दिन तक बड़े-से कंक्रीट के सीढ़ीदार चबूतरे पर धूप में सूखने के लिए रख दिया जाता है। इस दरमियान इन बीजों को हर २० मिनट में पलट दिया जाता है ताकि सारे बीज बराबर सूख जाएँ। अगर इन्हें जल्दी सुखाना हो तो ड्रायरों का इस्तेमाल किया जाता है। सुखाते वक्त कॉफी के इन बीजों की नमी को ध्यान में रखना पड़ता है नहीं तो ये बहुत ज़्यादा सूख जाएँगे। ज़्यादा सूख जाने पर ये बीज बहुत कड़क और भुरभुरे होकर टूट सकते हैं जिससे इनकी क्वालिटी घट जाती है। ११ और १२ प्रतिशत नमी, सही नमी है और इसे पा लेने पर, मशीनों की सहायता से इन कॉफी के बीजों के छिलकों को निकाल दिया जाता है। इसके बाद इन्हें ६० किलोवाली बोरियों में डाल दिया जाता है। ऐसा करने के बाद आम तौर पर इन्हें किसी कोऑपरेटिव कंपनी को भेज दिया जाता है जहाँ इन्हें छाँटकर अलग-अलग वर्गों में बाँटा जाता है और आगे की प्रक्रियाएँ की जाती हैं।
अलग-अलग वर्गों में डालना
कोऑपरेटिव पर, इन बोरियों को एक-एक करके ट्रक से उतारा जाता है। माल ले जानेवाला हर कर्मचारी एक व्यक्ति के पास से गुज़रता है जो एक लंबे, नुकीले औज़ार से हर बोरी में से कुछ-कुछ बीज नमूने के तौर पर निकाल लेता है। एक ही ट्रक से, नमूने के तौर पर लिए गए सारे बीजों को मिलाकर एक नमूना बनाया जाता है और इन पर लेबल लगाकर वर्गीकृत किया जाता है।
नमूने ले लेने के बाद, अलग-अलग ट्रकों से ली गयी कॉफियों के बीजों को मिला दिया जाता है और इनकी क्वालिटी बढ़ाने के लिए इन्हें कुछ विशेष प्रक्रियाओं से गुज़ारा जाता है। सबसे पहले इन्हें एक ऐसी मशीन में डाला जाता है जो अशुद्धताओं को हटा देती है, फिर इसे मशीन की एक छलनी से छाना जाता है ताकि बीज अपने आकार के मुताबिक छँट जाएँ। इसके बाद इन्हें एक कंपनशील मेज़ पर डाला जाता है जिससे ये वज़न के मुताबिक छँट जाते हैं। इसके बाद, इन बीजों को एक इलॆक्ट्रॉनिक सेपरेटर में डाला जाता है जहाँ सारे काले या हरे बीज अलग किए जाते हैं क्योंकि ये कॉफी बनाने पर उसके स्वाद को किरकिरा कर देते हैं। अब बचे हुए बीजों को भंडार-घर में डालकर इन्हें बाद में थैलियों में भरा जाता है। इन थैलियों के सारे के सारे दाने एक ही आकार और क्वालिटी के होते हैं जो अब आयात-निर्यात करनेवालों को या स्थानीय खरीदारों को बेचने के लिए तैयार है।
लेकिन, शुरू में लिए गए उन नमूनों का क्या किया जाता है? उन नमूनों को वर्गों में बाँटा जाता है ताकि हर कॉफी उत्पादक को उसकी कॉफी की क्वालिटी के मुताबिक कीमत चुकायी जाए। वर्गों में बाँटने के लिए सबसे पहले, इन नमूनों को उनकी किस्म के मुताबिक छाँटा जाता है। इनका किस्म जानने के लिए नमूनों में से ३०० ग्राम लिया जाता है और यह देखा जाता है कि उसमें कितनी खामियाँ हैं। इनमें पायी जानेवाली खामियाँ कुछ इस तरह की होती हैं: काले, हरे या टूटे-फूटे कॉफी के दाने होना, या भूसी, तिनकों और कंकड़ों का मिला होना। इसके बाद, इन दानों को कई छलनियों से छाना जाता है ताकि वे आकार के मुताबिक छँट जाएँ।
आखिर में, इनके स्वाद को चखकर देखा जाता है। इसके लिए, नमूनों को हलका-सा भूनकर पीसा जाता है, और वहाँ रखे हुए कई ग्लासों में, हर नमूने में से नापकर कॉफी डाली जाती है। फिर इनमें खौलता पानी डालकर हिलाया जाता है और एक अनुभवी टेस्टर या चखनेवाला व्यक्ति हर नमूने की खुशबू लेता है। इन्हें ठंडा होने के लिए छोड़ दिया जाता है, तब कॉफी के चूरे ग्लास के तल पर बैठ जाते हैं। फिर टेस्टर एक छोटा चम्मच लेकर हर नमूने को चखता है और चखते के साथ ही थूक भी देता है। फिर वह फौरन दूसरे ग्लास की ओर बढ़ जाता है और फिर से वैसा ही करता है। सभी नमूनों को चख लेने के बाद, वह हर कॉफी की श्रेणी बताता है, कुछ का स्वाद हलका (जायकेदार, अच्छा, कुछ-कुछ मीठा) होता है तो कुछ बहुत ही कड़क (कड़वा, आयोडीन जैसा स्वाद)।
चखनेवाले व्यक्ति को स्वाद का अच्छा अंदाज़ा होना चाहिए, साथ ही उसे इसका काफी ज्ञान और अनुभव भी होना चाहिए ताकि वह कॉफी में अलग-अलग और हलका-सा फरक होने पर भी सही-सही बता सके। इससे कॉफी की कीमत तय करने में मदद तो मिलती ही है, साथ ही यह क्वालिटी कॉफी तैयार करने के अगले चरण के लिए भी ज़रूरी है।
ब्लॆन्डिंग और भूनना
आम तौर पर ब्लॆन्डिंग तब की जाती है जब ये बीज कोऑपरेटिव में लाए जाते हैं। दरअसल, ब्लॆन्डिंग या मिश्रण बनाना एक ऐसी कला है जिससे कॉफी का स्वाद, खुशबू और गाढ़ापन बढ़ता है और यह देखने में भी अच्छी लगती है। इसके लिए इनमें कुछ खास चीज़ें मिलायी जाती हैं जिससे कॉफी का स्वाद पूरी तरह उभर आए। हर बार इन्हीं मिश्रणों से वही खुशबूदार स्वादवाली कॉफी बनाना इन ब्लॆन्डरों के लिए एक चुनौती है।
इसका अगला चरण है रोस्टिंग या भूनना। यह भी कॉफी की क्वालिटी के लिए बहुत ज़रूरी है। इस चरण में दानों के अंदर ही काफी जटिल रसायनिक बदलाव होते हैं, जिससे कॉफी की असली खुशबू उभर आती है। कॉफी के इन बीजों को हलका, मध्यम या गाढ़ा भूना जा सकता है जो इस बात पर निर्भर करता है कि किस तरह का स्वाद चाहिए और किस तरीके से कॉफी बनायी जाएगी। लेकिन, अगर इन्हें ज़्यादा भून दिया जाए तो बीज का खुशबूदार तेल चला जाता है और इस वज़ह से बीज चमकीला हो जाता है। इससे कॉफी का स्वाद कड़वा लगेगा और वह ज़्यादा खुशबूदार भी नहीं होगी।
अच्छी क्वालिटी की कॉफी उत्पन्न करने के लिए इन बीजों को सही तरह से पीसना भी बहुत ज़रूरी है। इन्हें कितना महीन पीसना है यह इस बात पर निर्भर करता है कि किस तरह से कॉफी बनायी जाएगी। उदाहरण के लिए, कपड़े या कागज़ के फिल्टरों का इस्तेमाल करके बनायी जानेवाली कॉफी को न तो बहुत ज़्यादा महीन पीसा जाता है ना ही बहुत कम। मगर, टर्किश कॉफी को बहुत महीन पीसा जाता है क्योंकि इसे फिल्टर नहीं किया जाता।
कॉफी के बीजों को पीसने के बाद इन्हें पैक करके दुकानों पर भेज दिया जाता है। प्लास्टिक में पैक की गयी कॉफी लगभग ६० दिन तक टिकती है, मगर वैक्यूम-पैक यानी पूरी तरह हवा निकालकर पैक की गयी कॉफी साल भर टिक सकती है। कॉफी के पैकट को खोलने के बाद उन्हें ऐसी बोतल में रखना चाहिए जिसमें हवा अंदर नहीं जा सकती। इन्हें फ्रिज में रखना भी ज़्यादा अच्छा होगा।
‘लाजवाब कॉफी’ तैयार करना
बोने, उगाने, फसल काटने, अलग-अलग प्रक्रियाओं से गुज़ारने, वर्गों में बाँटने, ब्लॆन्ड करने, भूनने और पीसने के सभी कामों के बाद, हम आखिर में उस भाग पर आते हैं जिसका आप बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं—यानी ‘लाजवाब कॉफी’ तैयार करना! कॉफी बनाने के कई अलग-अलग तरीके होते हैं। टर्किश, ऑटोमैटिक ड्रिप, और इटैलियन मोका इन तरीकों में से कुछ हैं। इन सभी में कॉफी बनाने का तरीका अलग-अलग है। मगर आम तौर पर यही सुझाव दिया जाता है कि आप एक लीटर पानी के लिए छः से आठ चम्मच कॉफी पाउडर डालें। सिर्फ उतनी ही कॉफी बनाइए जितनी कि आप उसी समय परोसना चाहती हैं। इस्तेमाल किए गए पाउडर को दोबारा इस्तेमाल मत कीजिए। हर बार कॉफी बनाने के बाद, इस्तेमाल किए गए सारे बरतनों को तुरंत पानी से धो दीजिए।
अगली बार जब आप अपनी मनपसंद कॉफी का स्वाद और खुशबू का मज़ा लूटने के लिए बैठते हैं, चाहे यह ब्रज़ेलियन कॉफीज़ीन्यो हो, कॉलमबियन टिन्टो हो, इटैलियन ऎस्प्रॆसो हो या आपके खास अंदाज़ से बनायी हुई कॉफी हो, तो थोड़ा रुककर उस क्वालिटी कॉफी को बनाने में लगी सारी मेहनत के बारे में सोचिए, जिसने बागान से लेकर आपके प्याले तक का सफर तय किया है।
[पेज 24 पर तसवीर]
नर्सरी में, बीजों को सही मात्रा में धूप और छाँव मिलती है
[पेज 24 पर तसवीर]
कॉफी के पेड़ों के बागान
[पेज 25 पर तसवीर]
यहाँ शाखाओं से कॉफी के चेरियों को तोड़ा जा रहा है यानी उनकी कटनी हो रही है
[पेज 25 पर तसवीर]
ब्राज़ील में कटनी करनेवाले लोग, हाथों से चेरियों को छाँटकर पत्ते और धूल हटा रहे हैं
[पेज 26 पर तसवीर]
नमूनों की किस्म जानने के लिए ३०० ग्राम बीज लिए जाते हैं और उनमें मिलनेवाली खामियों को गिना जाता है
[पेज 26 पर तसवीर]
चखनेवाले या टेस्टर का काफी अनुभवी होना बहुत ज़रूरी है