शान्ति इसकी संभावनाएँ क्या है?
अख़बार के शीर्षकों के बावजूद, सच्चाई तो यह है, जैसा कि हम में से अनेक लोग जानते हैं, मनुष्यजाति अब भी सच्ची शान्ति से बहुत दूर है। अफ़गानिस्तान से विदेशी सेनाओं के हटने से उस देश में शान्ति नहीं आयी। और अगर कुछ ही देशों का उल्लेख किया जाए तो, फिलिप्पीन्स, सुडान, इस्राएल, उत्तर आयरलैंड, लेबनॉन तथा स्री लंका में किसी न किसी प्रकार का संघर्ष अब भी जारी है।
चूँकि अधिकांश स्वस्थचित्त लोग युद्ध की अपेक्षा शान्ति पसन्द करते हैं, तो फिर शान्ति इतनी दुर्ग्राह्य क्यों है? अनेक सदियों से राजनीतिज्ञों ने कई तरीक़ों से शान्ति लाने की कोशिश की है, परन्तु उनके प्रयत्न हमेशा विफ़ल हुए हैं। क्यों? आइए हम कुछेक उदाहरणों पर विचार करके देखें।
धर्म और क़ानून के ज़रिए शान्ति
कुछ लोग रोमी साम्राज्य का विचार शान्ति क़ायम करने की एक सफ़ल कोशिश के तौर से करते हैं। उसके अधीन, संस्थापित क़ानून, एक नमनीय सरकार, दुर्जेय सेना, और अच्छी रीति से डिज़ाइन की गयी सड़कों के एक संयोजन ने कुछ सदियों तक मग़रिबी एशिया, आफ्रिका, और यूरोप के विस्तृत इलाकों में एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय स्थिरता को बनाए रखा, जो पॅक्स रोमाना (रोमी शान्ति) के नाम से जाना जाता था। यद्यपि, आख़िर में, रोमी साम्राज्य भीतरी भ्रष्टाचार और बाहर से आनेवाले आक्रमणों से परास्त हो गया, और रोमी शान्ति समाप्त हो गयी।
यह मानवी कोशिशों के बारे में एक दुःखद सत्य चित्रित करता है। प्रारम्भ में एक आशाजनक शुरुआत के बाद, वे आम तौर से बिगड़ जाती हैं। स्वयं परमेश्वर ने कहा: “मनुष्य के मन में बचपन से जो कुछ उत्पन्न होता है सो बुरा ही होता है,” और आम तौर से अन्त में यह बुरी प्रवृत्ति जीत जाती है। (उत्पत्ति ८:२१) इसके अतिरिक्त, भविष्यवक्ता यिर्मयाह ने कहा: “मन तो सब वस्तुओं से अधिक धोखा देनेवाला होता है, उस में असाध्य रोग लगा है; उसका भेद कौन समझ सकता है?” (यिर्मयाह १७:९) मानव तरंगी होते हैं। एक व्यक्ति के अच्छे इरादे, दूसरों की ईर्ष्या और स्वार्थी आकांक्षाओं से उलट दिए जा सकते हैं। या उच्च सिद्धान्तों पर चलनेवाला शासक खुद भ्रष्ट बन सकता है। इसको ध्यान में रखते हुए, किस तरह मानव कभी शान्ति ले आ सकते हैं?
सामान्य युग पूर्व की तीसरी सदी में, भारत के उपमहाद्वीप से उल्लेखनीय शान्ति क़ायम करने की एक कोशिश पर रिपोर्ट किया गया। वहाँ, अशोक नाम के एक ताक़तवर शासक ने युद्ध और रक्तपात के बल से एक विशाल साम्राज्य बनाया। फिर, इतिहास के अनुसार, उसका धर्मपरिवर्तन हुआ और वह बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों पर मानने लगा। युद्ध का परित्याग करके, उसने अपने राज्य में स्मारक खड़ा किए जिन पर ऐसी उक्तियाँ अंकित की गयी थीं, जिन से उसकी प्रजा को बेहतर जीवन बिताने में मदद होती। और प्रत्यक्ष रूप से उसका साम्राज्य शान्तिमय और समृद्ध था।
क्या अशोक का रास्ता वह मार्ग था जो शान्ति की ओर ले जाता? दुःखद रूप से, नहीं। जब सम्राट् मर गया, तब उसके साथ उसकी शान्ति भी समाप्त हो गयी, और उसके साम्राज्य के टुकड़े-टुकड़े हुए। यह इस बात को स्पष्ट करता है कि किसी नेकनीयत और क़ाबिल शासक की कोशिशें भी आख़िरकार इसलिए व्यर्थ कर दी जाती हैं, कि उसे मरना पड़ता है। सभोपदेशक के लेखक ने इस समस्या का उल्लेख किया जब उसने लिखा: “मैं ने अपने सारे परिश्रम के प्रतिफल से . . . घृणा की . . . जो मैं उस मनुष्य के लिए छोड़ जाउँगा जो मेरे बाद आएगा। यह कौन जानता है कि वह मनुष्य बुद्धिमान होगा वा मूर्ख? तौभी धरती पर जितना परिश्रम मैं ने किया, और उसके लिए बुद्धि प्रयोग की, उस सब का वही अधिकारी होगा। यह भी व्यर्थ ही है।”—सभोपदेशक २:१८, १९, न्यू.व.
जी हाँ, मनुष्य की मर्त्यता उसके स्थायी शान्ति लाने में एक अलंघ्य बाधा है। इस संबंध में भजनकार की सलाह सचमुच ही बुद्धिमान है: “तुम प्रधानों पर भरोसा न रखना, न किसी आदमी पर, क्योंकि उस में उद्धार करने की भी शक्ति नहीं। उसका भी प्राण निकलेगा, वह भी मिट्टी में मिल जाएगा, उसी दिन उसकी सब कल्पनाएँ नाश हो जाएगी।”—भजन १४६:३, ४.
शान्ति लाने की अतिरिक्त कोशिशें
अन्य मानवी कोशिशें उसी तरह चित्रित करती हैं कि क्यों मनुष्य शान्ति लाने के लिए अपनी कोशिश में विफ़ल हो जाता है। उदाहरणार्थ, दसवीं सदी में, यूरोप में परमेश्वर की शान्ति नामक आन्दोलन प्रवर्तित किया गया। गिरजा की सम्पत्ति की रक्षा करने के लिए रचा गया, यह आन्दोलन एक क़िस्म के अनाक्रमण समझौता में विकसित हो गया, जो कि १२वीं सदी के मध्य भाग तक अधिकांश यूरोप में फैल गया था।
एक और धारणा को “शक्ति-सन्तुलन” कहा गया है। इस नीति के अनुसार चलते हुए, राष्ट्रों का एक समुदाय—जैसे यूरोप—राज्यों के बीच ताक़त के एक प्रायः सन्तुलित बंटन से युद्ध में बाधा उपस्थित करता है। अगर कोई ताक़तवर राष्ट्र किसी कमज़ोर राष्ट्र को धमकाता है, तो एक और ताक़तवर राष्ट्र, उस होनेवाले आक्रामक के रास्ते में बाधा डालने के लिए अस्थायी रूप से उस कमज़ोर राष्ट्र के साथ अपने आप को जोड़ता है। इसी नीति ने नेपोलियनी युद्धों की समाप्ति से लेकर १९१४ में पहले विश्व युद्ध की शुरुआत तक यूरोपीय संबंधों को निर्देशित किया।
उस युद्ध के बाद, राष्ट्र संघ को एक ऐसी जनसभा के रूप में संस्थापित किया गया, जिस में राष्ट्र लड़ने के बजाय, अपने मतभेदों पर बातचीत कर सकते थे। जब दूसरा विश्व युद्ध शुरु हुआ, तब राष्ट्र संघ ने काम करना बन्द कर दिया, लेकिन युद्ध के बाद, उसकी आत्मा को संयुक्त राष्ट्र संघ के रूप में पुनरुज्जीवित किया गया, जो कि अब भी विद्यमान है।
बहरहाल, ये सभी कोशिशें सच्ची या स्थायी शान्ति लाने में असमर्थ रहीं। जबकि ‘परमेश्वर की शान्ति’ आन्दोलन यूरोप में विद्यमान था, यूरोपीय लोग मुस्सलमानों से निष्ठुर क्रूसेड् युद्धों में लड़ रहे थे। और जब राजनीतिज्ञ यूरोप में शक्ति-सन्तुलन के द्वारा शान्ति बनाए रखने की कोशिश कर रहे थे, वे यूरोप के बाहर के देशों में युद्ध लड़ रहे थे और साम्राज्यों का निर्माण कर रहे थे। राष्ट्र संघ दूसरे विश्व युद्ध को रोकने में असमर्थ था, और संयुक्त राष्ट्र संघ ने कॅम्पूचिआ के क्रूर हत्याकाण्डों को नहीं रोका और न कोरिया, नाइजीरिया, वियतनाम और ज़ाइएर जैसी जगहों में संघर्षों को रोका।
जी हाँ, अब तक राजनीतिज्ञों के शान्ति क़ायम करने की सबसे अच्छी कोशिशें विफ़ल रही हैं। शासक बिल्कुल ही नहीं जानते कि किस तरह स्थायी शान्ति बनाएँ, चूँकि वे अपनी और दूसरों की मर्त्यता और मानवीय कमियों से अटकाए गए हैं। परन्तु, अगर मामला वैसा नहीं था, तो भी राजनीतिज्ञ शान्ति नहीं ला सकते। क्यों नहीं? इसलिए कि एक और बाधा है जो सचमुच ही दुर्जेय है।
शान्ति को रोकनेवाली एक अप्रत्यक्ष ताक़त
बाइबल इस बाधा के बारे में बताती है, जब यह कहती है: “सारा संसार उस दुष्ट के वश में पड़ा है।” (१ यूहन्ना ५:१९) वह दुष्ट शैतान इब्लीस, एक अतिमानवीय आत्मिक प्राणी है, जो हम से बहुत ही अधिक ताक़तवर है। शुरुआत से ही, शैतान विद्रोह, झूठ बोलने और हत्या में उलझा रहा है। (उत्पत्ति ३:१-६; यूहन्ना ८:४४) विश्व मामलों पर उसके ताक़तवर, परन्तु अप्रत्यक्ष प्रभाव की सच्चाई अन्य उत्प्रेरित टीकाकारों द्वारा प्रमाणित की गयी है। पौलुस ने उसे “इस संसार का ईश्वर,” और ‘आकाश के अधिकार का हाकिम’ कहा। (२ कुरिन्थियों ४:४; इफिसियों २:२) यीशु ने उसे कई बार “इस संसार का सरदार” कहा।—यूहन्ना १२:३१; १४:३०; १६:११.
चूँकि दुनिया शैतान के वश में है, इसलिए बिल्कुल ही कोई सम्भावना नहीं कि मानवी राजनीतिज्ञ स्थायी शान्ति लाएँगे। क्या इसका मतलब है कि शान्ति कभी नहीं आएगी? क्या कोई भी मनुष्यजाति को शान्ति की ओर ले जा सकता है?
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एक शासक चाहे कितना ही बुद्धिमान और उच्च चरित्र वाला क्यों न हो, वह अन्त में मर जाता है और अक्सर कोई और जो कम क़ाबिल तथा कम चरित्रवान् हैं, उसकी जगह ले लेता है
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शान्ति में सबसे बड़ा एकल बाधा शैतान इब्लीस है
[पेज 5 पर चित्र का श्रेय]
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