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तालमुद—क्या है?

“तालमुद बेशक अब तक के सभी साहित्यिक प्रकाशनों में से सबसे उल्लेखनीय साहित्य है।” —दी यूनिवर्सल ज्यूइश एनसाइक्लोपीडिया।

“[तालमुद] मानवजाति की एक सबसे महान बौद्धिक उपलब्धि है। यह एक ऐसा दस्तावेज़ है जो इतना गूढ़, इतना अर्थपूर्ण, व इतना दुर्बोध है कि इसने डेढ़ सहस्राब्दी से भी ज़्यादा समय तक कुशाग्र बुद्धिवाले लोगों को व्यस्त रखा है।”—जेकब नोइसनर, यहूदी विद्वान व लेखक।

“यहूदी जीवन के पूरे-के-पूरे आध्यात्मिक व बौद्धिक भवन को सहारा देता हुआ, तालमुद [यहूदी-धर्म का] आधार-स्तंभ है।”—एडॆन स्टाइनसाल्ट्‌स, तालमुदीय विद्वान व रब्बी।

इसमें कोई संदेह नहीं कि तालमुद का सदियों से यहूदी लोगों पर बहुत बड़ा प्रभाव रहा है। लेकिन उपरोक्‍त तारीफों की विषमता में, तालमुद को अवमानित कर “अस्पष्टता व अप्रत्यक्षता का सागर” कहा गया है। इसे शैतान का ईश-निंदक कार्य बताकर बुरा-भला कहा गया है। पोप के आदेश पर, इसे बार-बार सेंसर किया गया, ज़ब्त किया गया, और यहाँ तक कि यूरोप के सार्वजनिक चौकों पर बड़ी तादाद में आग में झोंक दिया गया।

आखिर यह कार्य असल में है क्या जिसने इतना वाद-विवाद खड़ा किया है? कौन-सी बात तालमुद को यहूदी लेखनों में अनोखा बनाती है? इसे क्यों लिखा गया? इसका यहूदी-धर्म पर इतना असर कैसे पड़ा? क्या गैर-यहूदी दुनियावालों के लिए इसके कोई मायने है?

सामान्य युग ७० में यरूशलेम के मंदिर के नष्ट होने के बाद के १५० साल के दौरान, पूरे इस्राएल के रब्बिनी ज्ञानियों की अकादमियों ने यहूदी रिवाज़ों को बरकरार रखने के लिए बड़ी तीव्रता से एक नया आधार ढूँढ़ा। उन्होंने अपने मौखिक नियम की विभिन्‍न परंपराओं पर बहस करके इन मौखिक नियमों को संचित कर दिया। इस नींव पर निर्माण करते हुए, उन्होंने यहूदी-धर्म के लिए नयी सीमाएँ व माँगें तय कीं और मंदिर के बिना ही दैनिक जीवन में पवित्रता के लिए निर्देशन दिए। यह नया आध्यात्मिक ढाँचे का ब्यौरा मिशना में दिया गया था, जिसे जूडाह हा-नॆसी ने सा.यु. तीसरी सदी की शुरूआत में संकलित किया था।a

मिशना अपनी ही बिना पर खड़ा था, और उचित सिद्ध किए जाने के लिए इसने बाइबलीय संदर्भों के आधार का सहारा नहीं लिया। चर्चा करने का इसका अंदाज़, यहाँ तक कि इसकी इब्रानी शैली बेमिसाल थी, जो बाइबल पाठ से बहुत ही भिन्‍न थी। मिशना में दिए गए रब्बियों के फैसले हर जगह यहूदियों के दैनिक जीवन को प्रभावित करते। इसीलिए, जेकब नोइसनर ने टिप्पणी की: “मिशना ने इस्राएल का संविधान प्रदान किया। . . . इसने सहमति तथा इसके नियमों के अनुसार चलने की माँग की।”

लेकिन तब क्या यदि कोई व्यक्‍ति यह सवाल करे कि मिशना में दिए गए ज्ञानियों का अधिकार वास्तव में प्रकट शास्त्र के बराबर था या नहीं? रब्बियों को दिखाना पड़ता था कि मिशना में पायी जानेवाली तानाइम (मौखिक नियम के शिक्षक) की शिक्षाओं का इब्रानी शास्त्र के साथ पूरा-पूरा तालमेल है। अतिरिक्‍त टिप्पणियाँ अनिवार्य बन गयीं। उन्हें मिशना को समझाने व इसकी पुष्टि करने तथा यह साबित करने की ज़रूरत महसूस हुई कि इसकी शुरूआत सीनै पर मूसा को दी गयी व्यवस्था से हुई थी। रब्बियों ने यह साबित करने के लिए विवश महसूस किया कि मौखिक व लिखित नियम की भावना व उद्देश्‍य एक ही है। फिर यहूदी-धर्म पर अंतिम कथन होने के बजाय, मिशना धार्मिक चर्चाओं व बहसा-बहसी के लिए नयी नींव बन गया।

तालमुद की रचना

जिन रब्बियों ने इस नयी चुनौती को स्वीकारा, वे आमोराइम—मिशना के “भाष्यकार,” या “व्याख्याता”—के नाम से जाने जाते थे। हर अकादमी की धुरी एक प्रमुख रब्बी था। विद्वानों व विद्यार्थियों का एक छोटा समूह साल-भर चर्चाएँ आयोजित करता। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण चर्चा-सत्र साल में दो बार, अदार व इलुल के महीनों में आयोजित होते, जब खेती का काम मंद होता और सैकड़ों-हज़ारों जन उपस्थित हो सकते थे।

एडॆन स्टाइनसाल्ट्‌स समझाता है: “अकादमी का प्रमुख, एक कुर्सी पर या फिर खास चटाइयों पर बैठकर अध्यक्षता करता। उसके सामने, आगे की पंक्‍ति में खास विद्वान बैठते, जिनमें उसके सहयोगी या उत्कृष्ट शिष्य शामिल होते, और इनके पीछे बाकी के सारे विद्वान बैठते। . . . बैठने की व्यवस्था का क्रम सुस्पष्ट रूप से निर्धारित श्रेणीबद्ध तरीके पर [प्रमुखता के मुताबिक] आधारित था।” मिशना का एक भाग पढ़ा जाता। फिर इसकी तुलना तानाइम द्वारा इकट्ठी की गयी, लेकिन जो मिशना में सम्मिलित नहीं थीं, समानांतर या संपूरक सामग्री से की जाती। विश्‍लेषण की प्रक्रिया शुरू होती। सवाल खड़े किए जाते, और शिक्षाओं के बीच आंतरिक तालमेल तलाशने के लिए खंडनों का विश्‍लेषण किया जाता। रब्बिनी शिक्षाओं का समर्थन करने के लिए इब्रानी शास्त्र से परिपुष्ट करनेवाले पाठ ढूँढ़े जाते।

हालाँकि ये बड़े ध्यान से की जाती हैं, फिर भी ये चर्चे बड़ी गंभीर, कभी-कभी कोलाहलपूर्ण होती थीं। तालमुद में उद्धृत एक ज्ञानी ने कहा कि बहसा-बहसी के दौरान रब्बियों के मुख से “आग की चिंगारियाँ” निकलती थीं। (हुल्लिन १३७ख, बैबिलोनीय तालमुद) इन घटनाओं के बारे में स्टाइनसाल्ट्‌स कहता है: “अकादमी का प्रमुख, या भाषण देनेवाला ज्ञानी समस्याओं की अपनी व्याख्या देता। श्रोतागण के विद्वान तब उस पर अन्य स्रोतों, अन्य टीकाकारों के विचारों, या अपने तर्कसंगत निष्कर्षों के आधार पर सवालों की बमवर्षा करते। कभी-कभार बहस बहुत जल्द खत्म हो जाती और यह किसी खास सवाल के सुस्पष्ट व निर्णायक जवाब तक सीमित थी। अन्य मामलों में दूसरे विद्वान वैकल्पिक हल पेश करते और लंबी-चौड़ी बहस छिड़ जाती।” उपस्थित सभी लोगों को भाग लेने की छूट थी। सत्रों में स्पष्ट किए गए वाद-विवादों को दूसरी अकादमियों तक पहुँचाया जाता ताकि दूसरे विद्वान इन पर पुनर्विचार करें।

फिर भी, ये सत्र केवल बेअंत कानूनी बहस नहीं थे। यहूदी धार्मिक जीवन के विधि-नियमों के बारे में कानूनी मसलों को हालाकाह कहा जाता है। यह पद इब्रानी मूल शब्द “जाना” से आता है और ‘जिस रास्ते से व्यक्‍ति को जाना चाहिए’ इसे सूचित करता है। बाकी सारी बातों—रब्बियों व बाइबल पात्रों के बारे में किस्से-कहानियों, बुद्धिमान कहावतों, आस्था व तत्त्वज्ञान की धारणाओं—को हागादाह कहा जाता है, जो इब्रानी मूल शब्द “कहना” से आता है। रब्बिनी बहसा-बहसी के दौरान हालाकाह व हागादाह को परस्पर मिला दिया जाता था।

अपनी पुस्तक तालमुद की दुनिया (अंग्रेज़ी) में मोरिस एडलर टिप्पणी करता है: “एक बुद्धिमान शिक्षक लंबी-चौड़ी व कठिन कानूनी बहस में हस्तक्षेप कर, बातों की दिशा को मोड़ कर उसे हलका व ज़्यादा प्रोत्साहक बनाएगा। . . . अतः हम कल्प-कथा व इतिहास, समसामयिक विज्ञान व लोक-कथा, बाइबलीय व्याख्या व जीवन-कहानियाँ, प्रवचन व धर्मशास्त्र को एक दूसरे के साथ कुछ ऐसा पिरोया हुआ पाते हैं, जो अकादमी के तौर-तरीकों से अपरिचित व्यक्‍ति को अव्यवस्थित जानकारी का विचित्र बेसिर-पैर का मिश्रण लगेगा।” अकादमियों के विद्वानों के लिए ऐसी सभी दिशा-मोड़नेवाली बातों का एक मकसद था और विचाराधीन मुद्दे से ताल्लुक रखता था। रब्बिनी अकादमियों में बन रहे इन नए ढाँचों में हालाकाह व हागादाह निर्माण-पत्थर थे।

दो तालमुदों की रचना

आखिरकार, पलिश्‍तीन का मुख्य रब्बिनी केंद्र टाइबिरिअस को स्थानांतरित हुआ। दूसरी महत्त्वपूर्ण अकादमियाँ सॆफोरस, सिज़ॆरिआ, व लिड्डा में स्थित थीं। लेकिन बिगड़ती आर्थिक स्थिति, सतत राजनैतिक अस्थिरता, और अंततः धर्मत्यागी मसीहियत के दबाव व सताहट की वज़ह से बड़े पैमाने पर लोगों ने पूर्व की ओर एक और बड़े यहूदी आबादीवाले केंद्र—बैबिलोनिया—को आप्रवास किया।

सदियों से, बैबिलोनिया से विद्यार्थी पलिश्‍तीन को अकादमियों में बड़े-बड़े रब्बियों के अधीन अध्ययन करने आते थे। ऐसा एक विद्यार्थी था आबा बेन इबो, जिसे आबा आरीका—लंबे कदवाले आबा—भी पुकारा जाता है, लेकिन बाद में उसे बस राब पुकारा जाने लगा। जूडाह हा-नॆसी के अधीन अध्ययन करने के बाद, लगभग सा.यु. २१९ में वह बैबिलोनिया को वापस आया और इसकी वज़ह से बैबिलोनीय यहूदी समाज के आध्यात्मिक महत्त्व को एक नया मोड़ मिला। राब ने सुरा में एक अकादमी खोली। सुरा एक ऐसी जगह थी जहाँ कई यहूदी थे लेकिन बहुत कम विद्वान थे। उसकी प्रतिष्ठा की वज़ह से उसकी अकादमी में कुछ १,२०० नियमित विद्यार्थी खिंचे चले आए और अदार व इलुल नामक यहूदी महीनों के दौरान हज़ारों-हज़ार विद्यार्थी उपस्थित होते थे। राब के प्रमुख समकालीन, सैमुएल ने नेहरदिया में एक अकादमी खोली। अन्य महत्त्वपूर्ण अकादमियाँ पुमबॆदिथा व मेहोज़ा में खुलने लगीं।

अब पलिश्‍तीन तक यात्रा करने का कोई दरकार नहीं था, क्योंकि कोई भी व्यक्‍ति बैबिलोनिया में ही बड़े-बड़े विद्वानों के अधीन रहकर अध्ययन कर सकता था। एक अलग पाठ के रूप में मिशना की रचना ने बैबिलोनीय अकादमियों की पूरी-पूरी आज़ादी के लिए मार्ग तैयार कर दिया। हालाँकि अभी पलिश्‍तीन व बैबिलोनिया में अध्ययन के भिन्‍न-भिन्‍न ढंग व तौर-तरीके विकसित हुए, निरंतर संचार व शिक्षकों के अंतर्बदल ने अकादमियों की एकता को बरकरार रखा।

सामान्य युग चौथी सदी के अंत व पाँचवीं सदी की शुरूआत में, पलिश्‍तीन के यहूदियों के लिए स्थिति खासकर कठिन हो गयी। धर्मत्यागी मसीहियत के बढ़ रहे अधिकार तले बंदिशों व सताहट की लहरें सा.यु. ४२५ के लगभग, यहूदी महासभा व नासी (कुलपिता) के पद दोनों का नामो-निशान मिटाने में अंतिम वार साबित हुईं। सो पलिश्‍तीनी आमोराइम ने अकादमियों में हुई बहस के सारांशों को एक ही संबद्ध रचना में संचित करना शुरू किया, ताकि इनकी सुरक्षा निश्‍चित हो जाए। यह कार्य-परिणाम जिसे सा.यु. चौथी सदी के पिछले भाग में हड़बड़ी में संकलित किया गया था, पलिश्‍तीनी तालमुद के नाम से जाना जाने लगा।b

जबकि पलिश्‍तीन की अकादमियाँ घटने लगी थीं, बैबिलोनीय आमोराइम की क्षमताएँ गगन को छू रही थीं। आबाये व राबा ने बहस के स्तर को ऐसी जटिल व दुर्बोध बहसबाज़ी में विकसित किया जो बाद में तालमुदीय विश्‍लेषण का नमूना बन गया। इसके बाद, सुरा की अकादमी के प्रमुख, आशी (सा.यु. ३७१-४२७) ने वाद-विवाद के सारांशों को संकलित करना व संपादित करना चालू किया। स्टाइनसाल्ट्‌स के मुताबिक, उसने ऐसा किया क्योंकि “इसके अव्यवस्थित ढंग को देखते हुए, उसे इस खतरे का डर था कि मौखिक विषय के विशाल भाग को सालों के गुज़रते भुला दिया जाएगा।”

विषय की मात्रा इतनी ज़्यादा थी कि इसे व्यवस्थित करना किसी एक व्यक्‍ति या यहाँ तक कि एक पीढ़ी के बस की बात नहीं थी। आमोराइम का काल सा.यु. पाँचवीं सदी में बैबिलोनिया में समाप्त हुआ, लेकिन बैबिलोनीय तालमुद के अंतिम संपादन के कार्य को साबोराइम नामक एक समूह ने सा.यु. छठी सदी तक जारी रखा। साबोराइम एक आरामी पद है जिसका मतलब है “व्याख्याता” या “मत रखनेवाले।” इन अंतिम संपादकों ने छोटे-मोटे हज़ारों अधूरे कामों को व सदियों से चल रही रब्बिनी बहस को पूरा किया और बैबिलोनीय तालमुद को एक ऐसी शैली व संरचना दी जिसने इसे अतीत के बाकी सारे यहूदी लेखनों से अलग कर दिया।

तालमुद क्या कर पाया?

तालमुद के रब्बी यह साबित करने निकले कि मिशना उसी स्रोत से था जिस स्रोत से इब्रानी शास्त्र था। लेकिन क्यों? जेकब नोइसनर टिप्पणी करता है: “कथित वाद-विवाद मिशना की मान्यता थी। लेकिन खुद ज्ञानी का अधिकार ही समस्या की जड़ निकली।” इस अधिकार को बल देने के लिए, मिशना की हरेक पंक्‍ति, कभी-कभी तो हरेक शब्द को जाँचा जाता, उस पर सवाल उठाया जाता, उसे समझाया जाता, व किसी खास ढंग से तालमेल बिठाया जाता। नोइसनर ने नोट किया कि इस तरह रब्बी “मिशना की दिशा को एक राह से हटाकर दूसरी राह की ओर ले गए।” हालाँकि मिशना को अपने आप में एक संपूर्ण रचना के तौर पर बनाया गया था, अब इसे बारीकी से जाँचा गया। इस प्रक्रिया के दौरान, इसे फिर से रचा गया, फिर से जाँचा गया था।

इस नयी रचना—तालमुद—ने रब्बियों के उद्देश्‍य को पूरा किया। उन्होंने विश्‍लेषण के नियमों को स्थापित किया, और इसीलिए इसने लोगों को रब्बियों की तरह विचार करना सिखाया। रब्बी विश्‍वास करते थे कि अध्ययन व विश्‍लेषण करने का उनका तरीका परमेश्‍वर के मन को दर्शाता है। तालमुदीय अध्ययन स्वयं ही एक लक्ष्य बन गया, उपासना का एक रूप—मानो परमेश्‍वर की नकल में मन का इस्तेमाल। आनेवाली कई पीढ़ियों में, खुद तालमुद को इसी तरीके से विश्‍लेषित किया जाता। अंजाम? इतिहासकार सिसॆल रोत लिखता है: “तालमुद . . . ने [यहूदियों] को वह विशिष्ट छाप दी जिसने उसे दूसरों से अलग दिखाया, साथ ही उसने उन्हें एक लोग के तौर पर बदलने की अनोखी क्षमता भी दी। उसके वाद-विवाद करने के तरीके ने उनकी परख-शक्‍ति बढ़ा दी, और उन्हें . . . मानसिक कुशाग्रता दी। . . . तालमुद ने मध्य युग के पीड़ित यहूदी को एक और जगत दिया जहाँ वह आसरा पा सकता है। . . . इसने उसे एक लाक्षणिक पितृभूमि दी है, जिसे वह अपनी भूमि हार जाने पर अपने साथ लिए फिर सकता है।”

दूसरों को रब्बियों के सोच-विचार सिखाने के द्वारा, तालमुद के पास निश्‍चय ही शक्‍ति रही है। लेकिन सभी के लिए एक सवाल—चाहे यहूदी हो या गैर-यहूदी—यह है, क्या तालमुद सचमुच परमेश्‍वर के मन को दर्शाता है?—१ कुरिन्थियों २:११-१६.

[फुटनोट]

a मिशना के विकास व विषय-वस्तु पर अधिक जानकारी के लिए, नवंबर १५, १९९७ की प्रहरीदुर्ग में “मिशना और मूसा को दी गयी परमेश्‍वर की व्यवस्था” लेख देखिए।

b पलिश्‍तीनी तालमुद जरूसलॆम तालमुद के नाम से ज़्यादा लोकप्रिय है। लेकिन, यह नाम अनुपयुक्‍त है, चूँकि अधिकांश आमोराई काल के दौरान यहूदियों को यरूशलेम में प्रवेश करने की मनाही थी।

[पेज 31 पर बक्स]

दो तालमुद—वे कैसे भिन्‍न हैं?

इब्रानी शब्द “तालमुद” का अर्थ है “अध्ययन” या “शिक्षा।” पलिश्‍तीन व बैबिलोनिया के आमोराइम मिशना का अध्ययन, यानि विश्‍लेषण करने निकले थे। दोनों ही तालमुद (पलिश्‍तीनी व बैबिलोनीय) ऐसा विश्‍लेषण करते हैं, लेकिन वे कैसे भिन्‍न हैं? जेकब नोइसनर लिखता है: “पहला तालमुद प्रमाण का विश्‍लेषण करता है, दूसरा तालमुद पूर्वाधार की तहकीकात करता है; पहला पूरी तरह से अपने विषय की सीमाओं के अंदर रहता है, दूसरा इसकी सीमाओं को कुछ ज़्यादा ही लाँघता है।”

बैबिलोनीय तालमुद को दिए गए ज़्यादा गहन व संपूर्ण संपादन ने सोच-विचार व विश्‍लेषण के तरीके में न सिर्फ इसे और भी ज़्यादा बड़ा बनाया बल्कि इसे और भी गहन व ज़्यादा कुशाग्र बनाया है। जब शब्द “तालमुद” का ज़िक्र होता है, तो इसका मतलब ज़्यादातर बैबिलोनीय तालमुद ही होता है। यही वह तालमुद है जिसका सदियों से सबसे ज़्यादा अध्ययन किया गया और जिस पर सबसे ज़्यादा टिप्पणी की गयी है। नोइसनर की राय में, पलिश्‍तीनी तालमुद “कार्य-क्षमता का परिणाम है,” जबकि बैबिलोनीय तालमुद “प्रतिभा का परिणाम है।”

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