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  • “समुद्र के जोखिमों में”
  • प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1999
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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1999
w99 3/15 पेज 29-31

“समुद्र के जोखिमों में”

अंधेरी रात में २७६ लोगों को लेकर एक जहाज़ भूमध्य सागर के एक टापू के पास पहुँचता है। चौदह दिन तक समुद्री तूफान के थपेड़े खा-खाकर जहाज़ के कर्मचारी और यात्री दोनों थककर पस्त हो गए हैं। सुबह होते ही उन्हें एक खाड़ी नज़र आती है और वे जहाज़ को किनारे लगाने की कोशिश करते हैं। लेकिन जहाज़ के आगे का हिस्सा रेत में इस तरह धँस जाता है कि जहाज़ आगे नहीं बढ़ पाता और समुद्र की लहरें जहाज़ से टकराकर उसके पिछले हिस्से को टुकड़े-टुकड़े कर देती हैं। इसलिए जहाज़ को छोड़कर सभी लोग तैरते हुए या फिर तख्तों पर या जहाज़ की बाकी चीज़ों के सहारे किसी तरह माल्टा के समुद्रतट पर पहुँच जाते हैं। वे समुद्र की अशांत लहरों से खुद को किसी तरह घसीटकर बाहर ले आते हैं। ठंड के मारे वे काँप रहे हैं और थककर चूर हो चुके हैं। इन यात्रियों में से एक यात्री है मसीही प्रेरित पौलुस, जिसे एक मुकद्दमे के लिए रोम ले जाया जा रहा है।—प्रेरितों २७:२७-४४.

माल्टा के टापू के पास हुआ यह हादसा, पौलुस के लिए कोई नई बात नहीं थी। वह पहले भी इस तरह के खतरों से गुज़र चुका था। कुछ ही साल पहले उसने लिखा था: “तीन बार जहाज जिन पर मैं चढ़ा था, टूट गए; एक रात [और एक] दिन मैं ने समुद्र में काटा।” उसने यह भी कहा कि वह “समुद्र के जोखिमों” से गुज़र चुका है। (२ कुरिन्थियों ११:२५-२७) समुद्र से यात्रा करके पौलुस, परमेश्‍वर की आज्ञा के मुताबिक “अन्यजातियों के लिये प्रेरित” के तौर पर काम कर सका था।—रोमियों ११:१३.

पहली सदी में क्या बहुत-से लोग समुद्री यात्राएँ करते थे? मसीहियत को फैलाने में समुद्री यात्राओं का कितना हाथ था? यह यात्रा कितनी सुरक्षित होती थी? किस तरह के जहाज़ों से यात्रा की जाती थी? यात्रियों के लिए जहाज़ में क्या इंतज़ाम होता था?

रोम के व्यापार में समुद्री यात्राओं की अहमियत

रोम के लोग भूमध्य सागर को मारे नोस्त्रुम कहते थे जिसका मतलब है, हमारा सागर। दूसरे देशों से सुरक्षा के लिए ही नहीं, बल्कि और भी कई वज़हों से रोम को समुद्री मार्ग को अपने कब्ज़े में रखना बेहद ज़रूरी था। रोमी साम्राज्य के कई शहरों में बंदरगाह थे या फिर कई शहरों का माल दूसरे बंदरगाहों के ज़रिए आता-जाता था। मिसाल के तौर पर रोम, पास के नगर ऑस्टीया का बंदरगाह इस्तेमाल करता था। वहीं कुरिन्थ के बंदरगाह लेकाउम और किंख्रिया में थे और सूरिया के अन्ताकिया के लिए सिलूकिया बंदरगाह काम आता था। इन बंदरगाहों के बीच जहाज़ लगातार आते-जाते थे, जिसकी वज़ह से मुख्य नगरों के बीच बड़ी आसानी से संपर्क हो पाता था और रोम की सरकार का काम-काज भी अच्छी तरह चलता था।

रोम के लिए भोजन-सामग्री भी जहाज़ों से आती थी। रोम की जनसंख्या करीब दस लाख थी, इसलिए बड़ी मात्रा में अनाज की खपत होती थी। हर साल २,५०,००० से लेकर ४,००,००० टन खपत होती थी। इतना सारा अनाज कहाँ से आता था? फ्लेवियस जोसीफस, हेरोद अग्रिप्पा द्वितीय के शब्द दोहराते हुए कहता है कि साल के आठ महीने उत्तर अफ्रीका रोम को खिलाता था जबकि बाकी चार महीनों के लिए उसे मिस्र (इजिप्ट) से अनाज मिलता था। हज़ारों समुद्री जहाज़ उस शहर में अनाज पहुँचाते थे।

रोम के लोगों को महँगी चीज़ें बहुत पसंद थी। इस पसंद को पूरा करने के लिए जहाज़ों से हर तरह की कीमती चीज़ें लाई जाती थीं। कुप्रुस (साइप्रस), यूनान (ग्रीस) और मिस्र से खनिज पदार्थ, खास किस्म के पत्थर और संगमरमर लाए जाते थे और लबनॉन से लकड़ी मँगाई जाती थी। स्मिरना से दाखमधु, दमिश्‍क से मेवा और इस्राएल से खजूर लाए जाते थे। किलिकिया से तरह-तरह के तेल और रबर, मीलेतुस और लौदीकिया से ऊन, सूरिया और लबनॉन से कपड़े और सूर और सैदा से बैंजनी कपड़ा मँगाया जाता था। थुआतीरा से रंग और सिकन्दरिया (अलेक्जान्ड्रिया) और सैदा से काँच भेजा जाता था। चीन और भारत से रेशम, कपास, हाथी दाँत और मसाले मँगाए जाते थे।

जिस जहाज़ में पौलुस यात्रा कर रहा था और जो माल्टा के पास टूट गया था, उसके बारे में क्या कहा जा सकता है? यह “सिकन्दरिया का एक जहाज” था जो अनाज लेकर “इतालिया” जा रहा था। (प्रेरितों २७:६) यूनान, फीनीके और सूरिया के कुछ लोग अनाज ले जानेवाले इन जहाज़ों के मालिक थे। वे खुद इन्हें चलाते थे और इनका रख-रखाव करते थे। लेकिन सरकारी माल लाने ले-जाने के लिए रोमी सरकार इन जहाज़ों का किराया भरती थी। इतिहासकार विलयम एम. रैमसे कहता है, “आयात करने के इस भारी काम के लिए कई कर्मचारियों को काम पर लगाने और जहाज़ों का रख-रखाव करने की ज़रूरत पड़ती, इसलिए सरकार ने जैसे कर वसूली का काम ठेकेदारों को दे दिया था वैसे ही आयात का काम भी ठेकेदारों को सौंप देना ठीक समझा।”

पौलुस ने रोम की यात्रा एक जहाज़ से की जिसके सामने “दियुसकूरी” चिन्ह लगा हुआ था। यह जहाज़ भी सिकन्दरिया का ही था। यह जहाज़ नेपल्स की खाड़ी में पुतियुली नाम के बंदरगाह पर रुका जहाँ मालवाहक जहाज़ आम-तौर पर रुकते थे। (प्रेरितों २८:११-१३) पुतियुली में—जो आज पोज़ूओली कहलाता है—या तो जहाज़ का माल उतारकर ज़मीन के रास्ते से पहुँचाया जाता था या फिर छोटी-छोटी नावों में डालकर तट के किनारे-किनारे उत्तर की तरफ यानी टाइबर नदी से रोम ले जाया जाता था।

मालवाहक जहाज़ों में यात्री?

पौलुस और उसका पहरा देनेवाले सैनिकों ने क्यों मालवाहक जहाज़ में यात्रा की? इसका जवाब पाने के लिए हमें यह जानने की ज़रूरत है कि उन दिनों जहाज़ से यात्रा करने का मतलब क्या था।

सामान्य युग पहली सदी में यात्रियों के लिए कोई अलग जहाज़ नहीं होता था। व्यापारियों के मालवाहक जहाज़ों में ही लोग यात्रा करते थे। उनमें शायद हर तरह के लोग यात्रा करते थे—सरकारी अफसर, विद्वान, धर्म-प्रचारक, जादूगर, कलाकार, खिलाड़ी, व्यापारी, पर्यटक और तीर्थयात्री।

बेशक, ऐसी छोटी-छोटी नाव हुआ करती थीं जो तट के किनारे-किनारे चलती हुईं यात्रियों और माल को उनकी मंज़िल तक पहुँचाती थीं। ऐसी ही एक नाव से पौलुस त्रोआस से “मकिदुनिया में” आया होगा। कई बार अथेने (एथेन्स) से आने-जाने के लिए पौलुस ने छोटी नाव में यात्रा की होगी। जब बाद में पौलुस, एशिया माइनर के तट के पास के टापुओं से गुज़रते हुए त्रोआस से पतरा को गया तब भी उसने एक छोटी नाव में यात्रा की होगी। (प्रेरितों १६:८-११; १७:१४, १५; २०:१-६, १३-१५; २१:१) ऐसे छोटी नावों में यात्रा करने से वक्‍त तो बचता था पर ये नाव गहरे सागर में नहीं जा सकती थीं। इसलिए हम कह सकते हैं कि जिन जहाज़ों से पौलुस कुप्रुस और उसके बाद पंफूलिया गया और जिनमें उसने इफिसुस से कैसरिया तक और पतरा से सूर तक यात्रा की, वे काफी बड़े रहे होंगे। (प्रेरितों १३:४, १३; १८:२१, २२; २१:१-३) पौलुस का जो जहाज़ माल्टा के पास टूट गया था वह भी काफी बड़ा रहा होगा। ये जहाज़ कितने बड़े रहे होंगे?

इसके बारे में साहित्यों की जाँच-पड़ताल करने के बाद एक विद्वान कहता है: “पुराने ज़माने में सबसे छोटे जहाज़ आम तौर पर इस्तेमाल किए जाते थे, जिनमें ७० से ८० टन माल ढोया जा सकता था। यूनानी साम्राज्य में १३० टन माल ढो सकनेवाले जहाज़ आम थे। २५० टन माल ढोनेवाला जहाज़ आम जहाज़ों से बड़ा होता था और यह भी अकसर इस्तेमाल किया जाता था। रोम के ज़माने में सरकारी माल और कर्मचारियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचानेवाले जहाज़ और भी बड़े हुआ करते थे जो ३४० टन माल ढो सकते थे। इस्तेमाल किया गया सबसे बड़ा जहाज़ १३०० टन या शायद उससे भी ज़्यादा माल ढो सकता था। सामान्य युग दूसरी सदी की एक किताब, सिकंदरिया के एक जहाज़ आइसिस के बारे में बताती है। वह ५५ मीटर लंबा और करीब १४ मीटर चौड़ा था। उसका मालकक्ष करीब १३ मीटर गहरा था, जिसमें एक हज़ार से ज़्यादा टन अनाज भरा जा सकता था और सौ से ज़्यादा यात्री आ सकते थे।

मालवाहक जहाज़ों में यात्रियों की देखभाल कैसे की जाती थी? जहाज़ खासकर माल ढोने के लिए होते थे इसलिए यात्रियों की खास देखभाल नहीं की जाती थी। उन्हें खाना या दूसरी सहूलियतें नहीं दी जाती थीं, सिर्फ पानी दिया जाता था। उन्हें जहाज़ के डेक पर ही तंबू बनाकर सोना पड़ता था। इन तंबुओं को हर सुबह निकाल दिया जाता था। यात्रियों को जहाज़ के रसोईघर में पकाने की इज़ाज़त तो दी जाती थी मगर उन्हें पकाने का सारा सामान अपने साथ लाना होता था। इसके अलावा, खाने, नहाने और सोने के लिए उनको सारा सामान अपने साथ लाना पड़ता था, यहाँ तक कि बरतन और बिस्तर भी।

समुद्री यात्राएँ—कितनी सुरक्षित?

पहली सदी में जहाज़ चलानेवालों के पास यंत्रों की कमी थी—उनके पास कंपास भी नहीं था जो उन्हें दिशा बताता—जहाज़ चलाने के लिए उन्हें अपनी नज़र पर ही भरोसा करना पड़ता था। इसलिए यात्रा तभी सुरक्षित होती जब मौसम अच्छा रहता—यानी ज़्यादातर मई के आखिरी दिनों से लेकर सितंबर महीने के बीच तक। इससे पहले के दो महीनों या इसके बाद के दो महीनों में व्यापारी समुद्री यात्रा करने का जोखिम उठा सकते थे। लेकिन सर्दियों के मौसम में कोहरे और बादलों की वज़ह से ज़मीन और सूरज नज़र नहीं आते थे और रात के वक्‍त तारे नहीं दिखते थे। नवंबर ११ से मार्च १० के बीच समुद्री यात्राएँ पूरी तरह बंद (लातीनी में, मारे क्लाउसम) की जाती थीं। बहुत ज़रूरी काम पड़ने पर ही जहाज़ चलते थे। जो इस मौसम में यात्रा करते उन्हें सर्दी के दिन काटने के लिए किसी दूसरे बंदरगाह में ठहरना पड़ सकता था।—प्रेरितों २७:१२; २८:११.

खतरों से भरी और मौसम पर निर्भर रहनेवाली समुद्री यात्रा क्या ज़मीन पर की गई यात्रा से बेहतर थी? बेशक, बेहतर थी! जहाज़ से यात्रा करने में थकावट कम होती थी, ज़्यादा खर्च नहीं होता था और उसमें कम वक्‍त लगता था। जब मौसम ठीक रहता तो एक जहाज़ दिन में करीब १५० किलोमीटर तक सफर कर सकता था। जबकि पैदल लंबी यात्रा करनेवाले दिन में २५-३० किलोमीटर से ज़्यादा सफर नहीं कर पाते थे।

जहाज़ की रफ्तार लगभग पूरी तरह हवा की गति पर निर्भर होती थी। मिस्र से इटली जानेवाले जहाज़ को अच्छे मौसम में भी विपरीत दिशा से आनेवाली हवा का हमेशा सामना करना पड़ता था। रुदुस या मूरा से होकर या एशिया माइनर में लूसिया के किसी और बंदरगाह से होकर इटली जाने में सबसे कम वक्‍त लगता था। एक बार अनाज ले जानेवाला जहाज़ आइसिस, तूफानों में घिर गया और अपना रास्ता खो बैठा और सिकंदरिया से निकलने के ७० दिन बाद ही वह पिरीयस बंदरगाह पहुँचा। इटली से अपनी वापसी यात्रा के समय उस जहाज़ पर उत्तर-पश्‍चिम दिशा से आनेवाली हवाओं का दबाव रहता इसलिए उसे वापस सिकंदरिया पहुँचने में शायद २०-२५ दिन लगे होंगे। यही यात्राएँ अगर ज़मीन पर की जातीं तो अच्छे मौसम में भी एक-तरफा सफर के लिए १५० दिन लग जाते।

समुद्रपार कई देशों में सुसमाचार पहुँचाया गया

ज़ाहिर है कि पौलुस खराब मौसम में जहाज़ से यात्रा करने के खतरों से वाकिफ था। उसने यह सलाह भी दी कि सितंबर महीने के आखिरी दिनों या अक्‍तूबर महीने की शुरूआत में यात्रा नहीं करनी चाहिए। उसने कहा: “हे सज्जनो मुझे ऐसा जान पड़ता है, कि इस यात्रा में बिपत्ति और बहुत हानि न केवल माल और जहाज की बरन हमारे प्राणों की भी होनेवाली है।” (प्रेरितों २७:९, १०) लेकिन सेना-नायक ने उसकी बात नहीं मानी इसलिए जहाज़ माल्टा के पास टूट गया।

अपनी पूरी मिशनरी सेवा में, कम-से-कम चार बार ऐसा हुआ कि पौलुस जिन जहाज़ों पर चढ़ा वे टूट गए। (प्रेरितों २७:४१-४४; २ कुरिन्थियों ११:२५) इसके बावजूद भी, पहली सदी में सुसमाचार के प्रचारक ऐसे खतरों के बारे में हद से ज़्यादा चिंता करके चुप नहीं बैठे रहे। उन्होंने दूर-दूर तक सुसमाचार फैलाने के लिए समुद्री यात्राएँ भी कीं। राज्य का समाचार फैलाने के लिए उन्होंने यात्रा करने के हर मौजूदा तरीके का पूरा-पूरा इस्तेमाल किया। इस तरह यीशु की आज्ञा के मुताबिक दूर-दूर तक राज्य के बारे में गवाही दी गई। (मत्ती २८:१९, २०; प्रेरितों १:८) उनके जोश की वज़ह से और उनके नक्शे-कदम पर चलनेवालों के विश्‍वास की वज़ह से, साथ ही यहोवा की पवित्र आत्मा की मदद से आज सुसमाचार पृथ्वी के कोने-कोने तक फैल गया है।

[पेज 31 पर चित्र का श्रेय]

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