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उत्पत्ति का सारांश

      • यूसुफ के भाई दोबारा मिस्र गए (1-14)

      • यूसुफ उनसे दोबारा मिला (15-23)

      • उनके साथ दावत की (24-34)

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    या “मैं उसका ज़ामिन बनूँगा।”

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    8/1/1988, पेज 10, 11-12

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पवित्र शास्त्र का नयी दुनिया अनुवाद
उत्पत्ति 43:1-34

उत्पत्ति

43 कनान देश में अकाल ज़ोरों पर था।+ 2 याकूब के घर में जब मिस्र से लाया सारा अनाज खत्म हो गया,+ तो उसने अपने बेटों से कहा, “जाओ, फिर से मिस्र जाओ और हमारे लिए अनाज खरीद लाओ।” 3 तब यहूदा ने उससे कहा, “उस आदमी ने हमसे साफ-साफ कहा है, ‘जब तक तुम अपने भाई को साथ नहीं लाते, मुझे अपना मुँह मत दिखाना।’+ 4 इसलिए अगर तू हमारे भाई को साथ भेजेगा, तो हम मिस्र जाकर अनाज खरीद लाएँगे। 5 लेकिन अगर तू उसे नहीं भेजेगा तो हम नहीं जाएँगे, क्योंकि उस आदमी ने हमसे कहा है, ‘जब तक तुम अपने भाई को साथ नहीं लाते, मुझे अपना मुँह मत दिखाना।’”+ 6 इसराएल+ ने पूछा, “क्या ज़रूरत थी उसे बताने की कि तुम्हारा एक और भाई भी है? तुमने क्यों मुझे संकट में डाल दिया है?” 7 उन्होंने कहा, “उस आदमी ने हमसे सीधे-सीधे पूछा कि हमारे घर में और कौन-कौन है। उसने पूछा, ‘क्या तुम्हारा पिता है? क्या तुम्हारा कोई और भाई है?’ और हमने उसे सबकुछ सच-सच बताया।+ हमें क्या मालूम था वह कहेगा, ‘तुम अपने भाई को यहाँ ले आओ।’”+

8 फिर यहूदा ने यह कहकर अपने पिता इसराएल को मनाया, “मेरी बात मान और लड़के को मेरे साथ भेज दे+ ताकि हम जाएँ, वरना तू और हम और हमारे ये बाल-बच्चे,+ सब भूखे मर जाएँगे।+ 9 मैं यकीन दिलाता हूँ कि लड़के को सही-सलामत वापस ले आऊँगा।*+ उसकी हिफाज़त की ज़िम्मेदारी मैं लेता हूँ। अगर मैं उसे तेरे पास वापस न ला सका, तो मैं ज़िंदगी-भर तेरा गुनहगार रहूँगा। 10 वैसे भी हमने मिस्र जाने में बहुत देर कर दी है, अब तक तो हम दो बार जाकर लौट आते।”

11 तब उनके पिता इसराएल ने उनसे कहा, “अगर ऐसी बात है, तो जाओ। साथ में उस आदमी के लिए कुछ तोहफे ले जाओ।+ इस देश की बढ़िया-बढ़िया चीज़ें अपनी बोरियों में ले लो: थोड़ा बलसाँ,+ थोड़ा शहद, सुगंधित गोंद, रालदार छाल,+ पिस्ता और बादाम। 12 इस बार अनाज के लिए पहले से दुगना पैसा ले जाओ। और वह पैसा भी ले जाओ, जो शायद गलती से तुम्हारी बोरियों में डाल दिया गया था।+ 13 अब सफर के लिए निकलो और अपने भाई को लेकर उस आदमी के पास जाओ। 14 सर्वशक्‍तिमान परमेश्‍वर से मेरी दुआ है कि वह आदमी तुम पर दया करे और तुम्हारे भाई को रिहा कर दे और बिन्यामीन को भी तुम्हारे साथ वापस भेज दे। लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ और मुझे अपने बच्चों को खोना पड़ा, तो यह दुख सहने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं!”+

15 तब उन्होंने तोहफे में देने के लिए वह सारी चीज़ें लीं और दुगना पैसा लिया और बिन्यामीन को साथ लेकर मिस्र के लिए निकल पड़े। वहाँ पहुँचने पर वे एक बार फिर यूसुफ के सामने हाज़िर हुए।+ 16 यूसुफ ने जैसे ही उनके साथ बिन्यामीन को देखा, उसने अपने घर के अधिकारी से कहा, “इन आदमियों को मेरे घर ले जा। वे दोपहर का खाना मेरे साथ खाएँगे। जानवर हलाल कर और बढ़िया-सी दावत तैयार कर।” 17 यूसुफ ने जैसा कहा उस आदमी ने फौरन वैसा ही किया।+ वह उन सबको यूसुफ के घर ले गया। 18 जब उन्हें यूसुफ के घर ले जाया गया, तो वे बहुत डर गए और एक-दूसरे से कहने लगे, “पिछली बार हमारी बोरियों में जो पैसा रख दिया गया था, ज़रूर उसी की वजह से हमें यहाँ लाया गया है। अब देखना, वे हमें पकड़कर गुलाम बना लेंगे और हमारे गधे भी ले लेंगे!”+

19 इसलिए वे यूसुफ के घर के द्वार पर उसके अधिकारी के पास गए और उन्होंने उससे बात की। 20 उन्होंने कहा, “माफ करना मालिक, हम कुछ कहना चाहते हैं। हम पहले भी एक बार यहाँ अनाज खरीदने आए थे।+ 21 मगर यहाँ से लौटते वक्‍त जब हमने मुसाफिरखाने में अपनी बोरियाँ खोलीं, तो देखा कि हरेक की बोरी में उसका पूरा पैसा रखा हुआ है।+ हम यह पैसा वापस करना चाहते हैं। 22 इस बार अनाज खरीदने के लिए हम ज़्यादा पैसा लाए हैं। पिछली बार वह पैसा हमारी बोरियों में कैसे आ गया, हम नहीं जानते।”+ 23 तब उस अधिकारी ने कहा, “डरने की कोई बात नहीं। तुमने अनाज के लिए जो रकम दी थी वह मुझे मिली थी। जो पैसा तुम्हारी बोरियों में मिला वह तुम्हारे और तुम्हारे पिता के परमेश्‍वर ने तुम्हें दिया है।” इसके बाद वह शिमोन को बाहर उनके पास लाया।+

24 तब वह अधिकारी उन्हें यूसुफ के घर के अंदर ले गया और उन्हें पैर धोने के लिए पानी दिया और उनके गधों के लिए चारा दिया। 25 उन्होंने सुना कि यूसुफ दोपहर को घर आएगा और उनके साथ खाना खाएगा,+ इसलिए उन्होंने यूसुफ के लिए वह तोहफा तैयार किया जो वे अपने साथ लाए थे।+ 26 दोपहर को जब यूसुफ घर आया, तो उन्होंने वह तोहफा उसके सामने पेश किया और फिर ज़मीन पर गिरकर उसे प्रणाम किया।+ 27 इसके बाद उसने उनकी खैरियत पूछी और उनसे कहा, “तुम्हारा पिता कैसा है जिसके बारे में तुमने मुझे बताया था? तुमने कहा था कि वह बहुत बूढ़ा हो चुका है, उसके क्या हाल-चाल हैं?”+ 28 उन्होंने कहा, “तेरा दास खैरियत से है।” फिर उन्होंने ज़मीन पर गिरकर उसे प्रणाम किया।+

29 जब यूसुफ ने नज़र उठाकर अपने सगे भाई बिन्यामीन+ को देखा तो उसने कहा, “क्या यही तुम्हारा सबसे छोटा भाई है, जिसके बारे में तुमने मुझे बताया था?”+ फिर उसने बिन्यामीन से कहा, “परमेश्‍वर की कृपा तुझ पर बनी रहे मेरे बेटे।” 30 अपने भाई को देखकर उसका दिल भर आया और वह खुद को रोक नहीं पाया। वह हड़बड़ाकर वहाँ से निकल गया और अकेले एक कमरे में जाकर बहुत रोया।+ 31 इसके बाद उसने अपना मुँह धोया और कमरे से बाहर आया। उसने अपने आपको सँभाला और फिर अपने आदमियों से कहा, “हम सबके लिए खाना लगाओ।” 32 उन्होंने यूसुफ के लिए एक अलग मेज़ लगायी और उसके भाइयों के लिए एक अलग मेज़। और उसके घर में जो मिस्री थे उन्होंने भी अलग खाना खाया, क्योंकि मिस्री लोग इब्री लोगों के साथ बैठकर खाना घिनौनी बात समझते हैं।+

33 उसके भाइयों को उसके सामने ही बिठाया गया। सबसे बड़े से लेकर, जिसे पहलौठे का हक था,+ सबसे छोटे तक सबको उनकी उम्र के हिसाब से बिठाया गया। उसके भाई बड़ी हैरानी से एक-दूसरे को देखते रहे। 34 और वह अपनी मेज़ से उनके पास खाना भिजवाता रहा और उसने बिन्यामीन को बाकियों से पाँच गुना ज़्यादा खाना दिया।+ इस तरह उन्होंने उसके साथ जी-भरकर खाया-पीया।

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