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  • यीशु ‘न्याय को पृथ्वी पर स्थिर करता है’

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  • यीशु ‘न्याय को पृथ्वी पर स्थिर करता है’
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    प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1998
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यहोवा के करीब आओ
cl अध्या. 15 पेज 148-157
यीशु, सर्राफों की मेज़ें उलट देता है और उन्हें कड़ाई से हुक्म देता है कि वे अपना कारोबार मंदिर के बाहर करें

अध्याय 15

यीशु ‘न्याय को पृथ्वी पर स्थिर करता है’

1, 2. क्या देखकर यीशु का गुस्सा भड़क उठा, और क्यों?

यीशु का गुस्सा साफ दिखायी दे रहा था, और गुस्सा आना लाज़िमी था। शायद आपके लिए यह कल्पना करना मुश्‍किल हो कि उसके जैसा नर्म स्वभाव का इंसान भी कभी क्रोधित हो सकता है। (मत्ती 21:5, NW) लेकिन, यीशु गुस्से से बेकाबू नहीं था, क्योंकि उसका गुस्सा धार्मिकता की खातिर था।a आखिर ऐसी क्या बात हो गयी जिससे यह शांतिप्रिय इंसान भड़क उठा? सरासर अंधेर हो रहा था।

2 यरूशलेम का मंदिर यीशु को दिलो-जान से प्यारा था। सारी दुनिया में, सिर्फ यही वह पवित्र जगह थी, जो उसके स्वर्गीय पिता की उपासना के लिए समर्पित थी। कई देशों से यहूदी लंबा सफर तय करते हुए यहाँ उपासना के लिए आते थे। यहाँ तक कि अन्यजातियों में से परमेश्‍वर का भय माननेवाले लोग भी, मंदिर के उस आँगन में आकर उपासना करते थे जो उनके लिए ठहराया गया था। मगर जब यीशु अपनी सेवा की शुरूआत में मंदिर के इलाके में दाखिल हुआ तो वहाँ का बुरा हाल देखकर चौंक गया। वह मानो उपासना के भवन में नहीं बल्कि किसी बाज़ार में पहुँच गया था! व्यापारियों और सर्राफों का वहाँ जमघट लगा हुआ था। मगर, इसमें अंधेर की क्या बात थी? वह यह कि इन व्यापारियों और सर्राफों के लिए परमेश्‍वर का भवन उपासना का घर नहीं बल्कि लोगों का खून चूसने, उनकी जेबों पर डाका डालने की जगह बनकर रह गया था। वह कैसे?—यूहन्‍ना 2:14.

3, 4. यहोवा के भवन में लालची व्यापारी, लोगों को कैसे लूट रहे थे और इन हालात को सुधारने के लिए यीशु ने क्या कदम उठाया?

3 धर्म-गुरुओं ने यह नियम बना दिया था कि सिर्फ एक खास किस्म का सिक्का ही मंदिर का कर अदा करने के लिए लिया जाएगा। इसलिए मंदिर में आनेवालों को, अपने पैसे देकर ये सिक्के खरीदने पड़ते थे। सर्राफों ने मंदिर के अंदर ही अपनी मेज़ें जमायी हुई थीं और सिक्के बदलने की हर किसी से फीस लेते थे। जानवरों का व्यापार भी, बहुत मुनाफे का धंधा था। मंदिर में आनेवाले, शहर के किसी भी व्यापारी से बलि के लिए पशु खरीद तो सकते थे, मगर ऐसा करने पर यह तय था कि मंदिर के सरदार उनकी भेंट को अयोग्य बताकर ठुकरा देंगे। लेकिन, अगर आपने मंदिर के इलाके से ही जानवर खरीदा है तो उसका स्वीकार किया जाना पक्का था। जनता के पास इन व्यापारियों से खरीदने के अलावा और कोई चारा न था, इसलिए कई बार ये व्यापारी ऊँचे-से-ऊँचा दाम लगाकर लोगों को ठगते थे।b यह व्यापार नहीं, लूटमार थी। डाका डालना और किसे कहते हैं!

“इन्हें यहां से ले जाओ”!

4 यीशु ऐसे अन्याय को बरदाश्‍त नहीं कर सका। आखिरकार, यह उसके अपने पिता का घर था! उसने रस्सियाँ मिलाकर एक कोड़ा बनाया और गाय-बैल और भेड़ों के झुंडों को मंदिर से खदेड़ दिया। फिर वह लंबे-लंबे डग भरता हुआ सर्राफों की तरफ बढ़ा और उनकी मेज़ें उलट दीं। कल्पना कीजिए कि संगमरमर के फर्श पर ढेरों सिक्के कैसे खनखनाते हुए बिखर गए होंगे! इतना ही नहीं, कबूतर बेचनेवालों को उसने कड़ाई से हुक्म दिया: “इन्हें यहां से ले जाओ”! (यूहन्‍ना 2:15, 16) किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि इस साहसी इंसान का सामना कर सके।

“जैसा बाप, वैसा बेटा”

5-7. (क) यीशु के न्याय के जज़्बे पर स्वर्ग में बीती उसकी ज़िंदगी का कैसा असर हुआ था, और उसकी मिसाल पर ध्यान देने से हम क्या सीख सकते हैं? (ख) यहोवा की हुकूमत और उसके नाम को लेकर जो-जो अन्याय हुआ उसके खिलाफ यीशु कैसे लड़ा?

5 बेशक, ये व्यापारी फिर अपनी जगहों पर आ बैठे। करीब तीन साल बाद, यीशु ने इसी अन्याय के खिलाफ फिर कार्यवाही की। इस बार उसने यहोवा के वचनों का हवाला देते हुए उन लोगों के कामों को घृणित करार दिया, जिन्होंने परमेश्‍वर के भवन को “डाकुओं की खोह” बना दिया था। (मत्ती 21:13; यिर्मयाह 7:11) जी हाँ, जब यीशु ने देखा कि ये लालची व्यापारी, कैसे लोगों को लूट रहे हैं और परमेश्‍वर के मंदिर को अपवित्र कर रहे हैं, तो उसे वैसा ही लगा जैसे उसके पिता को लगा था। और क्यों न हो! आखिर लाखों-लाख साल यीशु के स्वर्गीय पिता ने उसे शिक्षा जो दी थी। इसलिए उसमें भी न्याय का वैसा ही जज़्बा था जैसा यहोवा में है। वह इस कहावत की जीती-जागती मिसाल बना, “जैसा बाप, वैसा बेटा।” अगर हम यहोवा के न्याय के गुण की सही तसवीर पाना चाहते हैं, तो इसका सबसे बेहतरीन तरीका है यीशु मसीह की मिसाल पर ध्यान देना।—यूहन्‍ना 14:9, 10.

6 जब शैतान ने यहोवा परमेश्‍वर को झूठा कहा और यह इलज़ाम लगाया कि उसके हुकूमत करने का तरीका सही नहीं है, तब यहोवा का एकलौता पुत्र यह सब देख-सुन रहा था। परमेश्‍वर को बदनाम करने के लिए शैतान ने क्या ही घिनौना झूठ बोला था! इसके बाद, परमेश्‍वर के इस पुत्र ने शैतान की यह चुनौती भी सुनी कि कोई भी प्राणी बिना किसी स्वार्थ के, सिर्फ प्रेम की खातिर यहोवा की सेवा नहीं करेगा। इन झूठे इलज़ामों को सुनकर इस बेटे का सच्चा दिल सचमुच तड़प उठा होगा। लेकिन जब उसने जाना कि इन सारे इलज़ामों को गलत साबित करने में अहम भूमिका निभाने के लिए उसी को चुना गया है, तो बेशक उसकी खुशी का ठिकाना न रहा होगा! (2 कुरिन्थियों 1:20) वह यह कैसे करता?

7 हमने 14वें अध्याय में जैसे सीखा, शैतान ने यहोवा के प्राणियों की खराई पर सवाल उठाकर उन पर इलज़ाम लगाया था। और हमने यह भी सीखा कि यीशु मसीह ने कैसे इसका ऐसा पक्का और अचूक जवाब दिया कि इस बारे में फिर कभी कोई सवाल उठने की गुंजाइश ही न रहती। इस तरह यीशु ने उस वक्‍त की बुनियाद डाली जब यहोवा की हुकूमत को हमेशा-हमेशा के लिए बुलंद करने और उसके नाम को पवित्र करने के लिए आखिरी कार्यवाही की जाती। इतना ही नहीं, यहोवा का अधिनायक बनकर, यीशु सारे जहान में परमेश्‍वर के न्याय को स्थिर करेगा। (प्रेरितों 5:31) धरती पर अपनी ज़िंदगी से भी उसने दिखाया कि परमेश्‍वर का न्याय क्या होता है। यहोवा ने उसके बारे में यह कहा: “मैं अपना आत्मा उस पर डालूंगा; और वह अन्यजातियों को न्याय का समाचार देगा।” (मत्ती 12:18) यीशु ने न्याय का समाचार कैसे दिया, या दूसरे शब्दों में, “न्याय” क्या है यह कैसे समझाया?

यीशु समझाता है कि “न्याय” क्या है

8-10. (क) यहूदी धर्मगुरुओं की ज़बानी परंपराओं ने कैसे गैर-यहूदियों और स्त्रियों के खिलाफ घृणा को बढ़ावा दिया? (ख) ज़बानी नियमों ने कैसे यहोवा के सब्त के नियम को बोझ बना दिया था?

8 यीशु को यहोवा की व्यवस्था से प्यार था और उसने इसके हर नियम का पालन किया। जबकि उसके समय के धर्मगुरुओं ने इस कानून-व्यवस्था को तोड़-मरोड़कर इसका गलत अर्थ समझाया। यीशु ने उनसे कहा: “हे कपटी शास्त्रियो, और फरीसियो, तुम पर हाय; . . . तुम ने व्यवस्था की गम्भीर बातों को अर्थात्‌ न्याय, और दया, और विश्‍वास को छोड़ दिया है।” (मत्ती 23:23) ज़ाहिर है कि परमेश्‍वर की व्यवस्था के ये शिक्षक “न्याय” की सही और साफ तसवीर पेश नहीं कर रहे थे। इसके बजाय, वे इस पर परदा डाल रहे थे। वह कैसे? आइए कुछ मिसालों पर गौर करें।

9 यहोवा ने अपने लोगों को आस-पास की गैर-यहूदी जातियों से अलग रहने की आज्ञा दी थी। (1 राजा 11:1, 2) लेकिन, उनके कुछ कट्टर धर्मगुरुओं ने उन्हें सभी गैर-यहूदियों से नफरत करना सिखाया। मिशना में तो यह नियम भी था: “अपने मवेशियों को अन्यजाति के लोगों की सराय में नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि माना जाता है कि वे पशुगामी होते हैं।” सभी गैर-यहूदियों को एक ही लाठी से हाँकने की ऐसी दुर्भावना, अन्याय था और मूसा की कानून-व्यवस्था के असली मकसद के बिलकुल खिलाफ था। (लैव्यव्यवस्था 19:34) उनके बनाए दूसरे नियमों में, स्त्रियों को तुच्छ ठहराया गया था। उनके एक ज़बानी नियम के मुताबिक, पत्नी को कभी-भी अपने पति के साथ-साथ नहीं बल्कि उसके पीछे चलना चाहिए था। लोगों के सामने एक आदमी किसी स्त्री से बात नहीं कर सकता था, अपनी पत्नी से भी नहीं। जैसे दासों के साथ था, वैसे ही स्त्रियों को भी अदालत में गवाही देने की इजाज़त नहीं थी। एक ऐसी प्रार्थना भी बनायी गयी थी, जिसमें आदमी सरेआम परमेश्‍वर का धन्यवाद करते थे कि उन्हें स्त्रियाँ नहीं बनाया गया।

10 धर्मगुरुओं के बनाए नियमों और रस्मो-रिवाज़ के ढेर तले, परमेश्‍वर की कानून-व्यवस्था दबकर रह गयी थी। मिसाल के लिए, सब्त के नियम में बस इतना बताया गया था कि उस दिन काम न किया जाए बल्कि उस दिन को परमेश्‍वर की उपासना करने, आध्यात्मिक तरीके से ताज़गी पाने और आराम करने के लिए अलग रखा जाए। मगर फरीसियों ने उस नियम को एक भारी बोझ बना दिया था। उन्होंने खुद यह फैसला करने की ज़िम्मेदारी ले ली कि किसे “काम” कहा जाना चाहिए, किसे नहीं। उन्होंने कामों को 39 वर्गों में बाँट दिया जिनमें कटनी और शिकार करना भी शामिल था। इन वर्गों की वजह से ढेरों सवाल उठ खड़े हुए। जैसे, अगर एक आदमी सब्त के दिन एक पिस्सू मारता है, तो क्या वह शिकार कर रहा है? अगर वह चलते-चलते खेत से अनाज के मुट्ठी भर दाने तोड़कर अपने मुँह में डालता है, तो क्या वह कटनी कर रहा है? अगर वह किसी बीमार को ठीक करता है, तो क्या वह काम कर रहा है? ऐसे हर सवाल के जवाब में, इसके हर छोटे-से-छोटे पहलू पर ब्यौरेदार, सख्त नियम बना दिए गए।

11, 12. यीशु ने फरीसियों की उन परंपराओं के खिलाफ अपना विरोध कैसे ज़ाहिर किया जो परमेश्‍वर के वचन में नहीं पायी जातीं?

11 इस तरह के माहौल में, यीशु लोगों को कैसे समझा पाता कि न्याय किसे कहते हैं? अपनी शिक्षाओं और जीने के तरीके से यीशु ने बड़े साहस के साथ यह ज़ाहिर किया कि वह इन धर्मगुरुओं के खिलाफ है। आइए सबसे पहले उसकी कुछ शिक्षाओं पर ध्यान दें। उसने धर्मगुरुओं के बनाए हज़ारों-हज़ार नियमों की सीधे-सीधे निंदा की: “तुम अपनी रीतियों से, जिन्हें तुम ने ठहराया है, परमेश्‍वर का वचन टाल देते हो।”—मरकुस 7:13.

12 यीशु ने ज़बरदस्त शब्दों में सिखाया कि सब्त के नियम के बारे में फरीसी गलत हैं—दरअसल, वे इस नियम के असली मायने समझने से पूरी तरह चूक गए थे। यीशु ने समझाया कि मसीहा “सब्त के दिन का भी प्रभु है” और इसलिए सब्त के दिन उसे बीमारों को चंगा करने का पूरा-पूरा अधिकार है। (मत्ती 12:8) इस बात पर ज़ोर देने के लिए, उसने सब्त के दिन खुलेआम चमत्कार करके लोगों को चंगा किया। (लूका 6:7-10) यह उस महान चंगाई की एक झलक थी, जो वह अपने हज़ार साल के राज्य के दौरान सारी धरती पर करेगा। वही हज़ार साल का राज्य सबसे बड़ा सब्त होगा, जब सभी वफादार इंसान पाप और मौत की सदियों से चली आ रही गुलामी के बोझ से आज़ाद होकर विश्राम पाएँगे।

13. धरती पर मसीह की सेवा की वजह से कौन-सी नयी व्यवस्था अस्तित्त्व में आयी और यह पिछली व्यवस्था से कैसे अलग थी?

13 यीशु ने न्याय की समझ इस तरह भी दी कि जब धरती पर उसकी सेवा पूरी हुई तो एक नयी व्यवस्था, यानी “मसीह की व्यवस्था” अस्तित्त्व में आयी। (गलतियों 6:2) यह व्यवस्था, मूसा की कानून-व्यवस्था जैसी नहीं थी, जिसके ज़्यादातर नियम और आदेश लिखित रूप में दिए गए थे, बल्कि यह नयी व्यवस्था सिद्धांतों पर आधारित थी। बेशक, इसमें कुछ स्पष्ट आज्ञाएँ भी थीं जिनमें से एक को यीशु ने “नई आज्ञा” कहा। यीशु ने सिखाया कि उसके चेले एक-दूसरे से वैसा ही प्रेम करें जैसा उसने उनसे किया था। (यूहन्‍ना 13:34, 35) जी हाँ, “मसीह की व्यवस्था” के मुताबिक जीनेवाले हर इंसान की पहचान, उसका वह प्रेम होता जो दूसरों की खातिर खुद को कुरबान करने के लिए तैयार रहता है।

न्याय की जीती-जागती मिसाल

14, 15. यीशु ने कैसे दिखाया कि वह अपने अधिकार की हद जानता था, और इससे किस बात पर हमारा भरोसा बढ़ता है?

14 यीशु ने प्रेम के बारे में सिर्फ सिखाया ही नहीं, बल्कि वह “मसीह की व्यवस्था” के मुताबिक जीया भी। उसकी ज़िंदगी इसका साकार रूप थी। आइए हम उन तीन तरीकों पर गौर करें जिनसे यीशु की मिसाल हमें समझाती है कि न्याय क्या है।

15 पहला तरीका, यीशु ने हर छोटी-से-छोटी बात में यह ख्याल रखा कि वह कोई अन्याय न करे। शायद आपने देखा होगा कि ज़्यादातर अन्याय तब होते हैं जब असिद्ध इंसान, घमंडी हो जाते हैं और अपने अधिकार की हद पार कर जाते हैं। लेकिन यीशु ने कभी ऐसा नहीं किया। एक बार जब किसी ने यीशु के पास आकर कहा: “हे गुरु, मेरे भाई से कह, कि पिता की संपत्ति मुझे बांट दे।” यीशु का जवाब क्या था? “हे मनुष्य, किस ने मुझे तुम्हारा न्यायी या बांटनेवाला नियुक्‍त किया है?” (लूका 12:13, 14) क्या यह सचमुच कमाल की बात नहीं? यीशु के पास जो बुद्धि, समझ, यहाँ तक कि परमेश्‍वर से उसे जो अधिकार मिला था, वह दुनिया के किसी भी इंसान से बढ़कर था; तो भी उसने दखल देने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसे इस मामले में फैसला करने का खास तौर से अधिकार नहीं दिया गया था। इस तरह, यीशु ने कभी-भी अपनी हद पार नहीं की बल्कि वह हमेशा अपनी मर्यादा में रहा। और ऐसा उसने न सिर्फ धरती पर बल्कि उससे पहले स्वर्ग में हज़ारों सालों की ज़िंदगी के दौरान भी किया था। (यहूदा 9) यह दिखाता है कि यीशु ने नम्रता से, फैसला यहोवा पर छोड़ दिया क्योंकि उसे पूरा भरोसा था कि वह न्याय करेगा। यीशु का यह बढ़िया गुण वाकई तारीफ के काबिल है।

16, 17. (क) यीशु ने परमेश्‍वर के राज्य का सुसमाचार प्रचार करने से कैसे न्याय ज़ाहिर किया? (ख) यीशु ने कैसे दिखाया कि उसके न्याय के जज़्बे में दया की गहरी भावना भी है?

16 दूसरा, यीशु ने जिस तरह परमेश्‍वर के राज्य का सुसमाचार प्रचार किया उससे भी न्याय ज़ाहिर किया। उसने पक्षपात नहीं किया। इसके बजाय, उसकी पूरी कोशिश रहती थी कि वह हर किस्म के लोगों तक पहुँच पाए, चाहे वे अमीर हों या गरीब। इसके उलटे फरीसी, गरीब और आम लोगों का तिरस्कार करते थे और उन्हें आमहारेट्‌स्‌ यानी “ज़मीन के लोग” कहकर उनको ज़लील करते थे। यीशु ने पूरी हिम्मत के साथ इस अन्याय के खिलाफ कार्यवाही की। जब उसने लोगों को सुसमाचार के बारे में सिखाया, यहाँ तक कि जब उसने उनके साथ भोजन किया, भूखों को खिलाया, रोगियों को चंगा किया और मरे हुओं का पुनरुत्थान किया, सभी मामलों में उसने परमेश्‍वर के न्याय को बुलंद किया जिसकी यह इच्छा है कि “सब मनुष्यों” में से हर कोई उसे जाने।c—1 तीमुथियुस 2:4.

17 तीसरा, यीशु के न्याय के जज़्बे में दया की गहरी भावना भी थी। उसने पापियों की मदद करने के लिए हर तरह का यत्न किया। (मत्ती 9:11-13) वह उन लोगों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता था जिनमें खुद अपना बचाव करने की ताकत नहीं थी। मिसाल के लिए, यीशु ने धर्मगुरुओं के जैसे काम नहीं किया, जो लोगों के मन में सभी गैर-यहूदियों के खिलाफ नफरत भरते रहते थे। उसने दया दिखाकर अन्यजाति के कुछ लोगों को सिखाया, हालाँकि उसे खास तौर पर यहूदियों के लिए भेजा गया था। वह एक रोमी सूबेदार की खातिर चमत्कार करने के लिए राज़ी हो गया, और उसके बारे में कहा: “मैं ने इस्राएल में भी ऐसा विश्‍वास नहीं पाया।”—मत्ती 8:5-13.

18, 19. (क) किन तरीकों से यीशु ने स्त्रियों की इज़्ज़त बढ़ायी? (ख) यीशु की मिसाल कैसे दिखाती है कि साहस और न्याय के बीच नाता है?

18 उसी तरह, यीशु ने स्त्रियों के बारे में लोगों की आम राय की पैरवी नहीं की। इसके बजाय, उसने बड़ी हिम्मत के साथ वही किया जो न्याय के हिसाब से सही था। सामरी स्त्रियों को अन्यजाति के लोगों जितना ही अशुद्ध समझा जाता था। फिर भी, यीशु ने सूखार के एक कूँए पर आयी सामरी स्त्री को प्रचार करने में कोई झिझक महसूस नहीं की। दरअसल, यही वह स्त्री थी जिसके सामने यीशु ने पहली बार खुलकर कबूल किया कि वही वादा किया हुआ मसीहा है। (यूहन्‍ना 4:6, 25, 26) फरीसी कहते थे कि स्त्रियों को परमेश्‍वर की कानून-व्यवस्था नहीं सिखानी चाहिए, मगर यीशु ने स्त्रियों को सिखाने के लिए अपना बहुत वक्‍त लगाया और मेहनत की। (लूका 10:38-42) हालाँकि परंपरा यह थी कि स्त्रियों की गवाही पर भरोसा नहीं किया जाता था, मगर यीशु ने कई स्त्रियों को यह खास सम्मान देकर उनकी इज़्ज़त बढ़ायी कि उसके पुनरुत्थान की वही सबसे पहली गवाह हों। उसने उनसे यह भी कहा कि वे जाकर उसके पुरुष चेलों को इस सबसे अहम घटना की खबर दें!—मत्ती 28:1-10.

19 जी हाँ, यीशु ने सब जातियों पर यह ज़ाहिर किया कि न्याय क्या होता है। कई मामलों में तो उसने अपनी जान जोखिम में डालकर ऐसा किया। यीशु की मिसाल हमें यह समझने में मदद देती है कि सच्चा न्याय करने के लिए साहस की ज़रूरत होती है। यीशु को सही मायनों में “यहूदा के गोत्र का . . . सिंह” कहा गया है। (प्रकाशितवाक्य 5:5) याद कीजिए कि सिंह, साहस से न्याय करने का प्रतीक है। लेकिन, आनेवाले वक्‍त में जल्द ही यीशु इससे भी बड़े पैमाने पर न्याय करेगा। तब जाकर सही मायनों में वह “न्याय को पृथ्वी पर स्थिर” करेगा।—यशायाह 42:4.

मसीहाई राजा ‘न्याय को पृथ्वी पर स्थिर करता है’

20, 21. हमारे समय में, मसीहाई राजा ने सारी धरती पर और मसीही कलीसिया के अंदर न्याय को कैसे बढ़ाया है?

20 सन्‌ 1914 से मसीहाई राजा बनने के बाद, यीशु ने पृथ्वी पर न्याय को बढ़ाया है। वह कैसे? उसने मत्ती 24:14 में लिखी अपनी भविष्यवाणी को पूरा करने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ली है। धरती पर यीशु के चेलों ने सब देशों के लोगों को यहोवा के राज्य के बारे में सच्चाई सिखायी है। यीशु की तरह, उन्होंने बिना किसी का पक्षपात किए न्याय से सबको प्रचार किया है। उनकी कोशिश रही है कि चाहे बूढ़े हों या जवान, अमीर या गरीब, स्त्री या पुरुष, सबको न्याय के परमेश्‍वर यहोवा को जानने का मौका मिले।

21 यीशु, मसीही कलीसिया में भी न्याय को बढ़ावा दे रहा है क्योंकि वह खुद इसका सिर या मुखिया है। जैसे भविष्यवाणी की गयी थी, वह वफादार मसीही प्राचीनों को “मनुष्यों [के रूप में] दान” देता है और वे कलीसिया में अगुवाई करते हैं। (इफिसियों 4:8-12) परमेश्‍वर के बेशकीमती झुंड की चरवाही करते वक्‍त, ऐसे पुरुष न्याय को बढ़ाने में यीशु मसीह की मिसाल पर चलते हैं। वे हमेशा इस बात का ध्यान रखते हैं कि यीशु अपनी भेड़ों के साथ न्याय होते देखना चाहता है—फिर चाहे उनका ओहदा कुछ भी क्यों न हो, चाहे वे इज़्ज़तदार हों या मामूली इंसान, चाहे अमीर हों या गरीब।

22. आज संसार में हर तरफ फैले अन्याय के बारे में यहोवा कैसा महसूस करता है, और उसने इस बारे में अपने बेटे को क्या करने के लिए नियुक्‍त किया है?

22 मगर, आनेवाले वक्‍त में बहुत जल्द यीशु इस पृथ्वी पर न्याय को ऐसे स्थिर करेगा जैसे पहले कभी नहीं हुआ। इस भ्रष्ट संसार में हर तरफ अन्याय-ही-अन्याय है। यह सोचकर कि युद्ध के हथियार बनाने और सुख-विलास के मतवाले लोगों के लिए ऐयाशी का सामान जुटाने में किस कदर पानी की तरह पैसा बहाया जाता है और वक्‍त बरबाद किया जाता है, वहीं जब हम बच्चों को भूखा मरते देखते हैं तो यह सरासर अन्याय लगता है, जिसे माफ नहीं किया जा सकता। हर साल लाखों लोग जो बेवजह मारे जाते हैं, इस संसार में होनेवाले अन्याय की सिर्फ एक मिसाल हैं और ऐसे तमाम अन्याय देखकर यहोवा का धर्मी क्रोध भड़क उठता है। उसने अपने बेटे को इस दुष्ट संसार के खिलाफ एक धर्मी युद्ध लड़ने और अन्याय का नामो-निशान मिटाने की ज़िम्मेदारी सौंपी है।—प्रकाशितवाक्य 16:14, 16; 19:11-15.

23. हरमगिदोन के बाद, मसीह कैसे हमेशा-हमेशा तक न्याय को बढ़ावा देता रहेगा?

23 लेकिन, यहोवा का न्याय सिर्फ दुष्टों के विनाश की माँग नहीं करता। उसने अपने बेटे को “शान्ति का शासक” बनकर राज करने के लिए भी ठहराया है। हरमगिदोन के युद्ध के बाद, यीशु के राज से सारी धरती पर शांति कायम होगी और वह “न्याय” से शासन करेगा। (यशायाह 9:6, 7, नयी हिन्दी बाइबिल) तब यीशु सारे अन्याय को मिटाने में बड़ी खुशी पाएगा, जिसकी वजह से अब तक लोगों ने अनगिनित विपत्तियाँ और दुःख-तकलीफें झेली हैं। आनेवाले भविष्य में हमेशा-हमेशा तक यीशु, पूरी वफादारी के साथ यहोवा के सिद्ध न्याय को बुलंद करता रहेगा। इसलिए, यह बेहद ज़रूरी है कि हम आज और अभी यहोवा की तरह न्याय दिखाएँ। आइए देखें कि हम ऐसा कैसे कर सकते हैं।

a यीशु ने यहोवा की तरह धार्मिकता की खातिर गुस्सा दिखाया, क्योंकि यहोवा किसी भी तरह की दुष्टता देखकर “जलजलाहट” से भर उठता है। (नहूम 1:2) मिसाल के लिए, यहोवा ने अपने भटके हुए लोगों को यह बताने के बाद कि उन्होंने उसके भवन को “डाकुओं की खोह” बना दिया है, आगे कहा: “मेरा क्रोध और मेरे रोष की अग्नि इस स्थान [पर] भड़क उठेगी।”—यिर्मयाह 7:11, 20, NHT.

b मिशना के मुताबिक, कुछ सालों बाद मंदिर में बिकनेवाले कबूतरों के दामों को लेकर आम लोगों ने विरोध किया। जवाब में, फौरन दामों को लगभग 99 प्रतिशत घटा दिया गया! तो सवाल यह है कि सोना उगलनेवाले इस व्यापार से सबसे ज़्यादा फायदा किसे होता था? कुछ इतिहासकारों का कहना है कि महायाजक हन्‍ना का घराना मंदिर के बाज़ारों का मालिक था। इस व्यापार ने हन्‍ना के याजकीय परिवार के पास दौलत के अंबार लगा दिए थे।—यूहन्‍ना 18:13.

c फरीसी मानते थे कि निचले दर्जे के ये लोग “स्रापित” थे, जिन्हें व्यवस्था की कोई जानकारी नहीं थी। (यूहन्‍ना 7:49) उन्होंने कहा कि ऐसे लोगों को न तो कोई शिक्षा देनी चाहिए, न उनके साथ व्यापार करना चाहिए, न ही भोजन करना चाहिए और न ही उनके साथ प्रार्थना करनी चाहिए। उनके मुताबिक इनमें से किसी के साथ अपनी बेटी को ब्याहना, उसे जंगली जानवरों के आगे बेसहारा छोड़ देने से भी बदतर है। उनका मानना था कि ऐसे लोगों के लिए तो पुनरुत्थान की आशा भी नहीं है।

मनन के लिए सवाल

  • भजन 45:1-7 हम क्यों यह भरोसा रख सकते हैं कि मसीहाई राजा सिद्ध न्याय को बढ़ावा देगा?

  • मत्ती 12:19-21 भविष्यवाणी के मुताबिक, मसीहा निचले दर्जे के लोगों के साथ कैसा व्यवहार करेगा?

  • मत्ती 18:21-35 यीशु ने कैसे सिखाया कि सच्चे न्याय में दया की भावना होती है?

  • मरकुस 5:25-34 यीशु ने कैसे दिखाया कि परमेश्‍वर का न्याय एक इंसान के हालात को ध्यान में रखता है?

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