क्या किसी को सचमुच परवाह है?
‘अन्धेर सहनेवालों के आंसुओं’ की धारा बहते-बहते अब प्रचंड धारा बन गयी है। यह आँसुओं की धारा उन लोगों की आँखों से बही है जिन पर अनगिनत “अन्धेर” किए गए हैं। और जिन लोगों पर अंधेर किया जाता है, वे अकसर यही महसूस करते हैं कि उन्हें “शान्ति देनेवाला” कोई भी नहीं है। वे यही सोचते हैं कि किसी को उनकी ज़रा-सी भी परवाह नहीं है।—सभोपदेशक ४:१.
चाहे लोग कितना भी आँसू क्यों न बहाए, लेकिन कुछ लोगों का दिल तो उन्हें तड़पता हुआ देखकर बिलकुल भी नहीं पसीजता। दूसरों को तकलीफ में देखकर भी वे अपनी आँखों पर उसी तरह पट्टी बाँध लेते हैं जैसे यीशु मसीह के दृष्टांत के याजक और लेवी ने बाँध ली थी। इन दोनों ने रास्ते में एक व्यक्ति को मुसीबत में पड़ा हुआ देखा जिसे लुटेरों ने लूट लिया था और मार-पीटकर अधमरा छोड़ दिया था, फिर भी उन्होंने अपनी आँखें फेर लीं और चलते बने। (लूका १०:३०-३२) इससे यही ज़ाहिर होता है कि जब तक खुद की और अपने परिवार की ज़िंदगी मज़े में बीत रही होती है तब तक लोग दूसरों की फिक्र नहीं करते। दरअसल वे यही कहते हैं, “मुझे कोई फरक नहीं पड़ता!”
हमें इससे तज्जुब नहीं होना चाहिए क्योंकि प्रेरित पौलुस ने पहले से ही बताया था कि “अंतिम दिनों” में कई लोग “मयारहित” होंगे। (२ तीमुथियुस ३:१, ३) ऐसे लोगों को देखकर जो दूसरों की परवाह बिलकुल नहीं करते, आयरलैंड के एक व्यक्ति ने दुःखी होकर कहा, “दूसरों की फिकर करने और मिल-बाँट कर खाने का जो विचार और परंपरा थी, उसका ज़माना गया, अब इसकी जगह ‘अपना स्वार्थ’ पूरा करने का नया ज़माना आ गया है।” दुनिया भर में लोग जो भी करते हैं बस अपने लिए करते हैं और दूसरों को कुछ देना तो दूर उनकी भी चीज़ें ले लेते हैं। चाहे इसके लिए उन्हें दूसरों को रौंदना ही क्यों न पड़े, उन्हें इससे कोई फरक नहीं पड़ता।
परवाह करनेवाले की ज़रूरत है
इसमें कोई दो राय नहीं कि परवाह करनेवाला कोई तो होना ही चाहिए। मिसाल के लिए, जर्मनी के उस आदमी की ही बात ले लेजिए जिसे “मृत अवस्था में अपने टीवी के सामने बैठा हुआ पाया गया। मगर असल में उसकी मौत पाँच साल पहले क्रिसमस के समय हुई थी।” और किसी को इस बात की भनक भी नहीं पड़ी थी, क्योंकि किसी को उसकी परवाह ही नहीं थी। वह बिलकुल “अकेला, तलाकशुदा और अपाहिज” था। ज़िंदगी में उसने काफी दुःख झेले थे। लोगों को उसकी परवाह बस तब तक थी जब तक उसके बैंक में पैसा था और वह अपना किराया खुद चुकाया करता था। उसका पैसा खत्म होते ही लोग उसे भूल गए।
उन बेचारे, बेबस लोगों के बारे में भी सोचिए जो ताकतवर, लालची ठाकुरों के हाथों शिकार हो जाते हैं। एक इलाके में, ठाकुरों ने ज़ोर-ज़बरदस्ती करके लगभग २,००,००० लोगों (आबादी के एक तिहाई लोग) की ज़मीन ज़ब्त कर ली थी और इसकी वज़ह से वे लोग “दमन और अकाल के कारण मारे गए।” और उन बच्चों के बारे में सोचिए जिनके साथ बड़ी बेरहमी और वहशाना तरीके से सलूक किया गया था। एक रिपोर्ट ने कहा: “[एक देश] में इतने सारे बच्चों ने अपनी आँखों से कतल, मार-पीट, और बलात्कार होते हुए देखा है कि कलेजा काँप उठता है और कभी-कभी तो इन बच्चों ने ये सभी ज़ुर्म दूसरे नौजवान को करते हुए देखा है।” अब आप समझ सकते हैं कि जिस पर ऐसे अन्याय हुए हैं वह क्यों बिलखते हुए नहीं पूछेगा, “क्या किसी को मेरी थोड़ी-सी भी परवाह है?”
युनाइटॆड नेशन्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, विकासशील देशों में करीब १३० करोड़ लोगों को प्रतिदिन लगभग ४० रुपए से भी कम में अपना गुज़ारा चलाना पड़ता है। उनके मन में यह ख्याल ज़रूर आता होगा कि क्या किसी को उनकी परवाह है। इसी तरह का ख्याल उन हज़ारों रेफ्यूजियों को भी आता होगा जिनके बारे में दी आयरिश टाइम्स कहता है, उन्हें “मज़बूरन, अपनी इच्छा के विरुद्ध किसी रेफ्यूजी कैम्प में या ऐसे देश में रहना पड़ता है जहाँ उन्हें पसंद नहीं किया जाता है। या फिर उन्हें मज़बूरन अपने देश को लौटना पड़ता है जहाँ जंग या जाति-भेदभाव की वज़ह से फूट पड़ी हुई है।” उसी रिपोर्ट में एक तरीका बताया गया है जिससे रोंगटे खड़े हो जाते हैं: “अपनी आँखें बंद कीजिए, तीन तक गीनिए, और इतने में एक बच्चा मर जाता है। यह उन ३५,००० बच्चों में से एक है जो आज कुपोषण या किसी ऐसी बीमारी से मरेगा जिसे रोका जा सकता है।” इसीलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि कई लोग दुःख-तकलीफ और कष्ट के मारे चीखते-चिल्लाते हैं!—अय्यूब ७:११ से तुलना कीजिए।
क्या इसी का नाम ज़िंदगी है? क्या ऐसा कोई व्यक्ति है जिसे न सिर्फ इंसानों की परवाह हो बल्कि उसके पास सभी दुःख-तकलीफों को खत्म करने और लोगों की मुसीबतों को दूर करने की शक्ति भी हो?
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Cover and page 32: Reuters/Nikola Solic/Archive Photos
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A. Boulat/Sipa Press