धरती से मेरा लगाव हमेशा के लिए पूरा हो जाएगा
डॉरथी कॉनली की ज़बानी
बचपन में मुझसे कहा गया था कि मैं नरक में जाऊँगी क्योंकि मैं एबरिजनी आदिवासी हूँ। सालों बाद १९३६ में, मैंने एक बाइबल भाषण की रिकॉर्डिंग सुनी जिसने नरक की शिक्षा पर पानी फेर दिया और मेरे दिल में एक लौ जलायी। वह लौ आज धधकती आग बन गयी है। इसका कारण बताने से पहले मैं आपको अपने बारे में कुछ बताना चाहती हूँ।
मेरा जन्म १९११ के करीब हुआ था। मैं “करीब” इसलिए कह रही हूँ क्योंकि उन दिनों एबरिजनी आदिवासी तारीखों और जन्म प्रमाण-पत्रों की परवाह नहीं करते थे। मेरे माता-पिता मेहनती और परमेश्वर का भय माननेवाले लोग थे। हम केंद्रीय क्वीन्सलॆंड, ऑस्ट्रेलिया में उबड़-खाबड़ और सुंदर कार्नारवन पर्वतमाला के पास स्प्रिंगशुर नामक छोटे-से नगर में रहते थे।
मेरे पिता का पालन-पोषण श्वेत लोगों के एक परिवार ने रोमन कैथोलिक धर्म के अनुसार किया था। लेकिन, मेरे आदिवासी माता-पिता ने मेरे अंदर अपनी स्थानीय प्रथाएँ बिठायी थीं और धरती से लगाव पैदा किया था। हम कंगारू, ईम्यू पक्षी, कछुए और साँप का शिकार करते थे और मछलियाँ तथा खाने लायक बड़ी इल्लियाँ पकड़ते थे। लेकिन मैं ईम्यू को कभी नहीं खाती थी। हमारे परिवार में सिर्फ मुझे इसकी मनाही थी क्योंकि यह मेरा व्यक्तिगत टोटॆम था। आदिवासी परंपरा या “ड्रीमटाइम” के अनुसार, जाति के हर सदस्य का अपना टोटॆम होता है। उस वस्तु पर परिवार और जाति द्वारा प्रतिबंध लगाया जाता है।
हालाँकि टोटॆमवाद की जड़ें अंधविश्वास में हैं, लेकिन यह प्रतिबंध इस बात की याद दिलाता था कि जीवन पवित्र है। आदिवासी मौज-मस्ती के लिए शिकार नहीं करते थे। मुझे याद है कि बचपन में एक बार पिताजी ने मुझे ज़िंदा टिड्डों के पंख तोड़ते हुए देख लिया था और बहुत डाँट लगायी थी। “यह बहुत बुरी बात है!” उन्होंने कहा। “पता नहीं कि परमेश्वर क्रूरता से नफरत करता है? अगर कोई तुम्हारे साथ ऐसा करे तो तुम्हें कैसा लगेगा?”
हमारे बहुत-से अंधविश्वास थे। उदाहरण के लिए, यदि विली वैगटेल (एक छोटी चिड़िया) हमारे डेरे के सामने फुदकती तो बुरी खबर थी; या यदि एक उल्लू दिन के समय पास ही पेड़ की ठूँठ पर बैठता तो हम मानते थे कि कोई मरनेवाला है। अमुक सपनों को भी अपशकुन माना जाता था। उदाहरण के लिए, सपने में मटमैला पानी देखने का मतलब था कि घर में कोई बीमार है। लेकिन यदि पानी में ढेर सारी मिट्टी हो, तो शायद कोई मर गया है। सच है कि हम कैथोलिक थे, लेकिन हमने अपने सभी आदिवासी अंधविश्वासों को नहीं छोड़ा था।
मेरे परिवार ने अपनी एबरिजनी भाषा भी नहीं छोड़ी थी। लेकिन अब हमारी भाषा उन अनेक भाषाओं में से है जो लुप्त हो रही हैं। फिर भी दूसरों से बाइबल के बारे में बात करते समय मुझे आज भी कभी-कभार अपनी भाषा इस्तेमाल करने का मौका मिल जाता है। लेकिन अधिकतर मैं अंग्रेज़ी या यहाँ की मिली-जुली भाषा ही बोलती हूँ।
बचपन में प्राप्त मूल्यवान प्रशिक्षण
जब मैं करीब दस साल की थी तो हम एक पशु फार्म पर रहते थे जो स्प्रिंगशुर से करीब ३० किलोमीटर दूर था। हर दिन मैं कुछ किलोमीटर चलकर फार्म हाउस जाती थी और घर का काम करती थी। दूध का एक छोटा डिब्बा और एक बड़ी ब्रॆड मेरी दिन भर की मज़दूरी थी। हम पेड़ की छाल से बनी झोपड़ी में रहते थे जो कि आदिवासियों का परंपरागत घर होता है। जब बारिश होती थी तो हम पास की गुफाओं में रात गुज़ारते थे। उस वक्त वह सादा जीवन क्या मुझे कठिन जान पड़ता था? नहीं। सदियों से आदिवासी ऐसा ही जीवन जीते थे और हमने भी इसे स्वीकार कर लिया था।
असल में, मैं खुश हूँ कि मैंने रईसी का जीवन नहीं जीया, मेरे माता-पिता ने मुझे अनुशासन में रखा, मुझसे मेहनत करवायी और मुझे धरती की देन से पेट भरना सिखाया। जब हम क्वीन्सलॆंड में वूराबिन्दा के पास आरक्षित-क्षेत्र में रहने के लिए गये तो उसके कुछ ही समय बाद, १९३४ में पशुशाला और भेड़शाला में नौकरानी और मज़दूरी का काम करने के लिए मैंने पहली बार घर छोड़ा और पश्चिम की ओर गयी। बाद में काम के सिलसिले में ही मैं पूरब की ओर तटीय नगर रॉकहैम्पटन की ओर गयी। वहाँ मेरी मुलाकात मेरे दिवंगत पति, मार्टिन कॉनली से हुई। उनके पिता आइरिश थे। हमारी शादी १९३९ में हुई।
बाइबल सत्य सीखना
मैं हमेशा से बाइबल का गहरा आदर करती थी। जब मैं छोटी थी, तो पशु फार्म की मालकिन हमें—आदिवासी और श्वेत बच्चों को—इकट्ठा करके यीशु की कहानियाँ सुनाती थी। एक बार उसने यीशु के इन शब्दों का अर्थ समझाया: ‘बालकों को मेरे पास आने दो: और उन्हें मना न करो।’ (मत्ती १९:१४) जबसे मुझे कहा गया था कि मैं नरक में जाऊँगी तब से पहली बार मुझे आशा की एक किरण दिखायी दी।
बाद में मैंने रिकॉर्ड किया हुआ वह भाषण सुना, जिसका ज़िक्र मैंने शुरू में किया था, कि नरक गरम भट्टी नहीं है। हालाँकि तभी से मैं सोचने लगी थी, लेकिन १९४९ तक यहोवा के साक्षियों के साथ मेरा कोई संपर्क नहीं हुआ था। उस समय हम ऎमरल्ड में रहते थे जो रॉकहैम्पटन से करीब २५० किलोमीटर पश्चिम की ओर था। आर. बॆनॆट ब्रिकलa ने हमसे आकर बाइबल के बारे में बात की। उसके बाद, जब कभी बॆन हमारे इलाके में आता तो वह हमारे ही घर ठहरता। हम सब, मार्टिन और हमारे चारों बच्चे भी उसका बहुत आदर करते थे। मार्टिन ने बाइबल के संदेश में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी, हालाँकि वह साक्षियों के साथ और खासकर बॆन के साथ हमेशा बड़ी शिष्टता और उदारता से पेश आता था।
बॆन ने मुझे बाइबल को समझानेवाली अनेक पुस्तकें दी, लेकिन एक बड़ी समस्या थी—मैं पढ़ना नहीं जानती थी। इसलिए, बॆन बच्चों को और मुझे बड़े धीरज के साथ बाइबल और बाइबल-आधारित साहित्य से पढ़कर सुनाता था और साथ-साथ उसका अर्थ भी समझाता जाता था। कितनी अच्छी बात थी कि वह पादरियों से एकदम अलग था जो धार्मिक औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद पाँच मिनट भी नहीं निकालते थे कि हमें पढ़ना सिखा दें! बॆन ने बाइबल से दिखाया कि शैतान और उसके पिशाच उन अनेक अंधविश्वासों का स्रोत हैं जिन्होंने मानवजाति को जकड़ रखा है और जिसमें मेरी जाति के लोग भी फँसे हैं। यीशु के इन शब्दों से मुझे बहुत प्यारे हो गया है: “[तुम] सत्य को जानोगे, और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा”!—यूहन्ना ८:३२.
मैं यह जानकर बहुत खुश हुई कि परमेश्वर उनके लिए एक पार्थिव परादीस का उद्देश्य रखता है जो उसकी आज्ञा मानते हैं। सबसे बढ़कर, मैं मृतकों के पुनरुत्थान की आस देखने लगी; माँ की मृत्यु १९३९ में हो गयी थी और पिताजी की १९५१ में। मैं अकसर उस दिन की आस देखती हूँ जब मैं उन्हें गले लगा सकूँगी और इस धरती पर फिर से उनका स्वागत कर सकूँगी जो उन्हें इतनी प्यारी थी। और उन्हें यहोवा परमेश्वर और उसके राज्य के बारे में सिखाना कितना रोमांचक होगा!
अनपढ़ प्रचारक
जैसे-जैसे मेरा बाइबल ज्ञान बढ़ा, मैं उसे दूसरों के साथ बाँटना चाहती थी। मैं रिश्तेदारों और दोस्तों से बात करती थी लेकिन फिर मैं अपनी सेवा को और भी बढ़ाना चाहती थी। सो अगली बार जब बॆन ऎमरल्ड आया तो मैंने बच्चों को साथ लिया और हम सब उसके साथ प्रचार करने निकल पड़े। उसने मुझे आसान प्रस्तुतियाँ करके दिखायीं और प्रार्थना के द्वारा यहोवा पर भरोसा करना सिखाया। मैं मानती हूँ कि मेरी प्रस्तुति अच्छी नहीं थी, लेकिन वह मेरे दिल से निकलती थी।
पहले मैं गृहस्वामी को बताती कि मैं पढ़ना नहीं जानती; और फिर उन्हें कुछ बाइबल परिच्छेद दिखाकर पढ़ने के लिए कहती। मैंने इन परिच्छेदों को रट रखा था। उस नगर में ज़्यादातर श्वेत लोग रहते थे और कुछ लोग बड़ी हैरानी से मेरी तरफ देखते थे, लेकिन शायद ही कभी कोई रुखाई से पेश आता था। समय के बीतने पर मैंने पढ़ना सीख लिया। इससे मेरा आत्म-विश्वास और मेरी आध्यात्मिकता बहुत बढ़ गयी!
मेरा पहला अधिवेशन
मार्च १९५१ में यहोवा को अपना जीवन समर्पित करने के बाद मुझे अपने जीवन में दो बड़े कदम उठाने थे: पानी में बपतिस्मा लेना और यहोवा के साक्षियों के अधिवेशन में पहली बार उपस्थित होना। लेकिन इसका अर्थ था सफर करके सिडनी जैसे बड़े शहर जाना—जो एक देहाती लड़की के लिए बड़ा भारी काम था। उससे भी बड़ी बात यह थी कि मेरे पास ट्रेन का किराया नहीं था। अब मैं क्या करती?
मैंने तय किया कि किराया निकालने के लिए मैं जूआ खेलूँगी। ‘मैं यहोवा के लिए ऐसा कर रही हूँ,’ मैंने तर्क किया, ‘सो पक्का है कि वह मुझे जिताएगा।’ दो-चार हाथ पत्ते खेलने के बाद मुझे लगा कि यहोवा ने मेरी मदद की है क्योंकि मेरे पास इतना पैसा हो गया था कि आने-जाने का किराया निकल गया।
बॆन को पता था कि मैं सिडनी जाने की सोच रही हूँ, सो अगली बार जब वह आया तो उसने मुझसे पूछा कि क्या मेरे पास पूरे पैसे हैं। “हाँ, हैं!” मैंने जवाब दिया। “मैंने जूआ खेलकर ट्रेन का किराया निकाल लिया है।” इस पर गुस्से से उसका रंग टमाटर की तरह लाल हो गया और मुझे तुरंत पता चल गया कि मैंने कोई गलत बात कह दी है। सो जल्दी से मैंने सफाई दी: “आपको क्या हुआ? मैंने चोरी तो नहीं की!”
जब बॆन अपने आपे में आया तो उसने प्यार से समझाया कि मसीही लोग जूआ क्यों नहीं खेलते और मुझे ढाढ़स दिलाते हुए कहा: “इसमें आपकी गलती नहीं है। मैंने ही आपको नहीं बताया था।”
अच्छा स्वागत हुआ
मार्च २२-२५, १९५१ तक वह चार-दिवसीय अधिवेशन में इतने सारे साक्षियों के साथ मेरी पहली मुलाकात थी। मैं सिर्फ बॆन और दूसरे मुट्ठी भर लोगों को जानती थी। मैं सोच में थी कि न जाने मेरा कैसा स्वागत होगा। आप कल्पना कर सकते हैं कि मुझे कितनी खुशी मिली होगी जब मेरे भावी आत्मिक भाई-बहनों ने मेरा हार्दिक स्वागत किया और ऊँच-नीच की बू तक नहीं आने दी। मुझे ऐसा लगा कि मैं अपने ही घर में आराम से हूँ।
उस अधिवेशन की याद मेरे मन में अभी तक ताज़ा है, खासकर इसलिए कि बॉटनी बे में बपतिस्मा लेनेवाले १६० जनों में से एक मैं भी थी। लगता है कि यहोवा के साक्षी बननेवाले पहले चंद ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों में से एक मैं भी थी। मेरी तसवीर रविवार के अखबार में छपी और सिनेमा घरों में भी समाचार-फिल्म में दिखायी गयी।
नगर में एकमात्र साक्षी
सिडनी से लौटने के एक महीने बाद हम माउंट आइज़ा में जा बसे। यह उत्तर-पश्चिम क्वीन्सलॆंड में एक खदान नगर था। छः साल तक हम एक झोपड़ी में रहते थे और नगर के बाहर ज़मीन के एक बड़े-से टुकड़े की पट्टे पर रखवाली का काम करते थे। हमने अपनी झोपड़ी की दीवारें पास के जंगल से लकड़ी काटकर बनायीं। डामर के ड्रमों को काटकर और चपटा करके हमने छत बनायी। मार्टिन को रेलवे में नौकरी मिल गयी लेकिन उसकी शराब की लत ने आखिरकार उसकी सेहत बरबाद कर दी। फिर, घर चलाने का पूरा भार मेरे कंधों पर आ गया। १९७१ में मार्टिन की मृत्यु हो गयी।
शुरू में माउंट आइज़ा में मैं ही अकेली साक्षी थी। बॆन हर छः महीने बाद मिलने आता था क्योंकि माउंट आइज़ा उसके विशाल प्रचार क्षेत्र का हिस्सा था। यदि यीशु मसीह की मृत्यु के स्मारक के समय—जो उसके लिए बहुत ही खास अवसर था क्योंकि उसे स्वर्गीय जीवन की आशा थी—बॆन नगर में होता तो वह हमारे परिवार के साथ कभी-कभी एक पेड़ के नीचे स्मारक मनाता था।
आम तौर पर बॆन ज़्यादा समय तक हमारे घर नहीं ठहरता था, सो मैं और मेरे बच्चे अधिकतर प्रचार का काम अपने आप ही करते थे। सच है कि हम अकेले थे; लेकिन यहोवा की आत्मा ने और उसके प्रेममय संगठन ने हमें शक्ति दी। वफादार सफरी ओवरसियर और उनकी पत्नियाँ चिलचिलाती धूप, मक्खियों, धूल और ऊबड़-खाबड़ सड़कों से जूझते हुए माउंट आइज़ा आते और हमें प्रोत्साहन देते थे जबकि सालों तक हमारा समूह बहुत छोटा-सा था। साथ ही, १,२०० से ज़्यादा किलोमीटर दूर डार्विन में नयी-नयी बनी हमारी पड़ोसी कलीसिया के साक्षी कभी-कभी हमसे मिलने आते थे।
एक कलीसिया बनती है
दिसंबर १९५३ में माउंट आइज़ा में एक कलीसिया बनी। बॆन को ओवरसियर नियुक्त किया गया। बॆन के अलावा उस समय सेवकाई में बस मैं और मेरी बेटी ऐन ही हिस्सा लेती थी। लेकिन जल्द ही दूसरे साक्षी इस नगर में आ बसे। हमारे क्षेत्र में भी शिष्यों की संख्या बढ़ने लगी और कुछ समय बाद कई आदिवासी लोग भी आए।
कलीसिया बढ़ती गयी और जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि हमें अपनी सभाएँ आयोजित करने के लिए एक राज्यगृह की ज़रूरत है। मई १९६० में बहुत मेहनत करने के बाद हमने अपना नया राज्यगृह बना लिया। अगले १५ सालों के दौरान उसे दो बार बढ़ाया गया। लेकिन दशक १९७० के मध्य तक करीब १२० लोग जन-सेवकाई में हिस्सा ले रहे थे और राज्यगृह फिर से छोटा पड़ गया था। सो २५० सीटोंवाला, एक बढ़िया-सा राज्यगृह बनाया गया और उसे १९८१ में समर्पित किया गया। उस भवन में काफी जगह है इसलिए उसे सर्किट सम्मेलन नाम की बड़ी सभाओं के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।
आदिवासियों के बीच बढ़ोतरी
मैं बहुत खुश हुई जब १९९६ में माउंट आइज़ा कलीसिया से संगति कर रहे लोगों का एक आदिवासी और द्वीपवासी समूह बनाया गया। उन आदिवासियों को द्वीपवासी कहा जाता है जो ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप के आस-पास के द्वीपों से आए हैं। इस समूह का मुख्य उद्देश्य है आदिवासियों को ज़्यादा अच्छी तरह साक्षी देना क्योंकि उनमें से कुछ लोग श्वेत लोगों के साथ अटपटा-सा महसूस करते हैं।
ऑस्ट्रेलिया में यहाँ-वहाँ आदिवासियों के ऐसे करीब २० और समूह हैं। साथ ही, ऐडिलेड, कार्न्ज़, इप्सविच, पर्थ और टाउंज़विल में आदिवासियों की कलीसियाएँ बनायी गयी हैं। करीब ५०० लोग—जिनमें से कुछ मेरे अपने परिवार के हैं—इन समूहों और कलीसियाओं में उपस्थित होते हैं। आदिवासी प्रकाशकों में से करीब १० प्रतिशत पायनियर या पूर्ण-समय सेवक हैं!
मुझे १९७५ में मधुमेह की बीमारी हो गयी थी और इतने सालों तक इस बीमारी ने बड़ा परेशान किया है। यह बीमारी बहुत-से आदिवासियों को है। इसकी वज़ह से पढ़ना मुश्किल होता जा रहा है। फिर भी, यहोवा मुझे सहारा देता और मेरा आनंद बनाए रखता है।
मैं उन साहसी सेवकों की आभारी हूँ जिन्होंने मेरे परिवार की और मेरी सेवा की है। उन्होंने अदम्य उत्साह और प्रेम दिखाया, वे क्वीन्सलॆंड देहात की धूल-भरी सुनसान सड़कों और पगडंडियों से होते हुए साइकिलों पर लादकर आत्मिक खज़ाना लाए, यही कारण है कि हम बाइबल सच्चाई सीख सके। अब मैं विश्वास के साथ उस समय का इंतज़ार कर रही हूँ जब धरती से मेरा लगाव हमेशा के लिए पूरा हो जाएगा।
[फुटनोट]
a बॆन ब्रिकल की उल्लेखनीय जीवनकथा अंग्रेज़ी प्रहरीदुर्ग के सितंबर १, १९७२ अंक में पृष्ठ ५३३-३६ पर छपी थी।
[पेज 13 पर नक्शा/तसवीर]
(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)
पर्थ
डॉरथी आज
डार्विन
कार्न्ज़
टाउंज़विल
माउंट आइज़ा
रॉकहैम्पटन
ऎमरल्ड
स्प्रिंगशुर
वूराबिन्दा
इप्सविच
ऐडिलेड
सिडनी
[पेज 11 पर तसवीर]
दशक १९५० के मध्य में बॆन के साथ अभ्यास सत्र