युवा लोगों को क्या हो रहा है?
ख़ुशी की ख़बर या बुरी ख़बर—आप पहले किसे सुनना चाहेंगे? जब लोगों से यह सवाल पूछा जाता है तो अनेक लोग इस उम्मीद से बुरी ख़बर पहले सुनना चाहते हैं कि बाद में ख़ुशी की ख़बर उनके मन में बनी रहेगी।
युवा लोगों को क्या हो रहा है इसे जाँचने से पहले आज के हालात पर ग़ौर कीजिए। बुज़ुर्ग आम तौर पर कहते हैं कि आज के नौजवान पहले के नौजवानों जैसे नहीं रहे। दूसरी तरफ़, युवा लोग ऐसी किसी भी बात से चिढ़ खाते हैं कि वे पुराने ज़माने के स्तरों के मुताबिक़ नहीं चल रहे। फिर भी, मानवजाति का क़रीबी जायज़ा रखनेवाले इस बात से सहमत हैं कि आज के युवक फ़रक़ हैं।
कितने फ़रक़?
हालाँकि आम राय में युवा लोगों को शिष्टाचार, ज़िम्मेदारी का एहसास और दूसरों के लिए आदर होना चाहिए, लेकिन सच्चाई अकसर इन आदर्शों से कोसों दूर होती है। लंदन के अख़बार दी इन्डिपॆंडॆंट में छपे एक सर्वेक्षण के मुताबिक़, युवा लोग “इस दुनिया के ख़िलाफ़ ‘विद्रोह की नई आत्मा पैदा’ कर रहे हैं जिसने उनके मुताबिक़ ज़्यादातर उन्हें ना-उम्मीद किया है।” यह “विद्रोह की नई आत्मा” इस जाँच से प्रकट होती है कि आज बहुत ही कम युवा “समझदार और ज़िम्मेदार” कहलाना चाहते हैं। इसके बजाय वे “खूँख़ार और सनकी” कहलाना पसंद करेंगे।
उदाहरण के लिए ब्रिटॆन में दर्ज अपराध—जिनमें से ज़्यादातर युवा लोगों ने किए थे—१९५० से १९९३ के बीच दस गुना बढ़ गए। नशीले पदार्थों और शराब का बढ़ता दुरुपयोग भी इसकी बराबरी कर रहा है। साथ ही, लंदन का द टाइम्स् बताता है कि ज़्यादातर सभी विकसित देशों ने “द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से युवाओं में मनोसामाजिक विकारों की भारी वृद्धि” देखी है। अपराध-विज्ञान के प्रोफ़ॆसर, डेविड जे. स्मिथ के मुताबिक़, ये विकार “ग़रीबी या बढ़ती अमीरी से ज़ाहिर तौर पर संबंधित नहीं हैं।” अनुसंधान बताता है कि युवा लोगों और बड़ों के बीच का फ़ासला अब साफ़-साफ़ नज़र आता है।
बच्चे और किशोर आज बढ़ते तनाव का सामना करते हैं। आत्महत्या या इसे करने की कोशिशें आम हो गई हैं। स्कॉटलैंड का ग्लासगो हैरल्ड ख़बर देता है कि १२ साल से कम उम्र के बच्चों में आत्महत्या की कोशिशें दस से भी कम सालों में दुगनी हो गई हैं। बड़े बच्चे भी अपनी निराशा की वज़ह से यह रुख़ अपनाते हैं। समाचार-पत्र कहता है कि “युवाओं में मनोविकृति का सबसे गंभीर नतीजा आत्महत्या की कोशिशें हैं। यह मनोविकृति इतनी ज़्यादा बढ़ती जा रही है कि आगे जाकर मदद दे पाना मुश्किल हो सकता है।”
किसे दोषी कहें?
“भ्रष्ट” सोच-विचार के लिए बड़े युवा लोगों पर दोष लगाना आसान पाते हैं। फिर भी, क्या यह सच्चाई नहीं कि युवाओं के बीच आज जो हो रहा है उसके लिए बड़े काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार हैं? धौंस जमाना, माँ-बाप की लापरवाही, ऐसे अच्छे उदाहरणों की कमी जिन पर युवा भरोसा कर सकें, सभी अकसर इन कारणों में से बताएँ जाते हैं। ब्रिटॆन के मॆडिकल रिसर्च काउंसिल चाइल्ड साइकेट्री यूनिट के प्रमुख, प्रोफ़ॆसर सर माइकल रटर दावा करते हैं “आज आम आदमी में जितनी हताशा पायी जाती है उतनी ही आज से ३० साल पहले थी।” “लेकिन,” वे आगे कहते हैं, “इसकी मात्रा किशोरों और नौजवानों में बहुत ज़्यादा बढ़ी है। . . . इसमें कोई शक नहीं कि परिवारों का टूटना इसकी एक वज़ह है; न सिर्फ़ तलाक़, बल्कि बड़ों के बीच आम तौर पर पाया जानेवाला मन-मुटाव और क्लेश भी।”
एक शोधकर्ता दावा करती है कि युवा लोग “अदब-क़ायदे को ठुकरा” रहे हैं। क्यों? “क्योंकि अदब-क़ायदा उनके काम का नहीं रहा।” उदाहरण के लिए स्त्री-पुरुषों की भूमिका के बारे में बदलते नज़रिए को लीजिए। अनेक युवतियाँ मर्दों जैसे आक्रामक और हिंसक गुणों को अपना रही हैं, जबकि युवक लड़कियों जैसे बन रहे हैं। पुराने स्तरों से कितना फ़रक़!
लेकिन हम आज इतने भारी बदलाव क्यों देखते हैं? और आज युवा लोगों के लिए ख़ुशी की ख़बर क्या है? वे एक सुरक्षित भविष्य कैसे पा सकते है? हमारा अगला लेख इन सवालों के जवाब देता है।