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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1998
w98 8/15 पेज 25-29

ह्‍यूगनॉट्‌स की आज़ादी की लड़ाई

“राजा और रानी की तरफ से, . . . हम यह ऐलान करते हैं कि उन सभी फ्रांसीसी प्रोटेस्टेंटों को, जो पनाह लेने हमारे राज्य में आएँगे, न केवल राजसी सुरक्षा मिलेगी . . . बल्कि हम हर संभव तरीके व ज़रिए से उन्हें सहारा, सहयोग और मदद देने की पुरज़ोर कोशिश करेंगे . . . ताकि उनका इस राज्य में रहना आरामदेह और आसान हो।”

इंग्लैंड के राजा-रानी, विल्यम और मेरी के १६८९ के घोषणा-पत्र में यूँ लिखा गया था। लेकिन फ्रांसीसी प्रोटेस्टेंटों को—या ह्‍यूगनॉट्‌स जैसे उन्हें बाद में पुकारा गया—फ्रांस से बाहर पनाह व सुरक्षा तलाशने की ज़रूरत क्यों पड़ी? कुछ ३०० साल पहले वे फ्रांस से फरार हुए थे। आज हमें इस घटना में दिलचस्पी क्यों लेनी चाहिए?

सोलहवीं सदी में यूरोप में धर्म को लेकर कई युद्ध व वाद-विवाद हो रहे थे। इस खलबली का असर फ्रांस पर भी हुआ, जहाँ कैथोलिक व प्रोटेस्टेंटों के बीच ‘धर्म-युद्ध’ (१५६२-१५९८) हुए। लेकिन १५९८ में, फ्रांसीसी राजा हैन्री IV ने मान्यता के धर्मादेश यानी ‘नैंटिस के धर्मादेश’ पर हस्ताक्षर किए और प्रोटेस्टेंट ह्‍यूगनॉट्‌स को कुछ हद तक धर्म की आज़ादी दी। एक ही देश में दो धर्मों की ऐसी कानूनी मान्यता यूरोप में अनोखी बात थी। इससे १६वीं-सदी के फ्रांस को ३० से भी ज़्यादा सालों से हानि पहुँचानेवाली धार्मिक उथल-पुथल कुछ समय के लिए ठंडी पड़ गयी।

हालाँकि ‘नैंटिस का धर्मादेश’ इसी मंशा से बनाया गया था कि यह “स्थायी व अटल” रहे, लेकिन १६८५ में ‘फॉन्तैंब्लो के धर्मादेश’ ने इसे रद्द कर दिया। फ्रांसीसी फिलॉसॉफर वोल्टैर ने बाद में रद्द किए जाने के इस कार्य को “फ्रांस की एक सबसे बड़ी दुःखद घटना” कहा। इसका तत्काल परिणाम यह हुआ कि लगभग २,००,००० ह्‍यूगनॉट्‌स दूसरे देशों को फरार हो गए। मगर इसके परिणाम बस यहीं तक सीमित नहीं थे। लेकिन धार्मिक मान्यता के पक्ष में किए गए ‘नैंटिस के धर्मादेश’ को रद्द क्यों किया गया?

शुरूआत से ही विरोध

हालाँकि ‘नैंटिस का धर्मादेश’ का लगभग ९० साल तक सरकारी तौर पर पालन किया गया, एक इतिहासकार कहती है कि “१६८५ में इसे रद्द करने से पहले ही यह गुमनाम हो” रहा था। वाकई, इस धर्मादेश की नींव पक्की नहीं थी। शुरू से ही, यह कैथोलिक पादरियों और “आर.पी.आर.” (तथा-कथित संशोधित धर्म) के बीच “शीत युद्ध” का कारण था। ‘नैंटिस के धर्मादेश’ को सन्‌ १५९८ में जारी किया गया था। तब से लेकर लगभग १६३० तक, इसके प्रति विरोध, प्रोटेस्टेंटों व कैथोलिकों के बीच के विवादों में, साथ ही प्रकाशित किए गए प्रकाशनों में दिखायी देता था। लेकिन असहनशीलता यहीं तक सीमित नहीं थी।

सन्‌ १६२१ से १६२९ तक प्रोटेस्टेंटों को उत्पीड़ित करने के बाद, फ्रांसीसी सरकार ने लगातार दमनकारी तरीके अपनाकर उन पर कैथोलिक बनने के लिए ज़बरदस्ती करने की कोशिश की। यह उत्पीड़न लुई XIV, अर्थात्‌ “सूर्य राजा” के शासन के अधीन और भी बढ़ गया। उसकी सताहट की नीति ‘नैंटिस के धर्मादेश’ के रद्द किए जाने का कारण हुई।

शिकंजे का कसना

शिकंजे को और भी कसने के लिए, प्रोटेस्टेंट लोगों के मानवाधिकारों को आहिस्ते-आहिस्ते खत्म कर दिया गया। सन्‌ १६५७ से १६८५ के बीच, अकसर पादरी-वर्ग के कहने पर, ह्‍यूगनॉट्‌स के खिलाफ लगभग ३०० नियम जारी किए। इन नियमों का असर उनके जीवन के हर क्षेत्र पर पड़ा। मसलन, ऐसे ढेर सारे पेशे, जैसे कि चिकित्सा, वकालत, और यहाँ तक कि दाई का पेशा भी ह्‍यूगनॉट्‌स के लिए वर्जित था। दाई के काम के संबंध में एक इतिहासकार ने दलील दी: “एक विधर्मी के भरोसे किसी की ज़िंदगी सौंपना कैसे मुमकिन है जबकि उस विधर्मी का मकसद है वर्तमान समाज को नष्ट करना?”

इस शिकंजे को १६७७ में और भी कस दिया गया। जिस ह्‍यूगनॉट को किसी कैथोलिक का धर्म बदलवाने की कोशिश करते हुए रंगे हाथों पकड़ा जाता, उसे हज़ार फ्रांसीसी पाउंड्‌स का जुर्माना भरना पड़ता। बेहिसाब करों से प्राप्त सरकारी पैसों का इस्तेमाल ह्‍यूगनॉट्‌स का धर्म परिवर्तित करने के लिए किया गया। सन्‌ १६७५ में कैथोलिक पादरियों ने किंग लुई XIV को ४५ लाख फ्रांसीसी पाउंड्‌स दिए और कहा: “अब तुम्हें अपनी एहसानमंदी दिखाने के लिए अपने अधिकार का इस्तेमाल करना होगा और इन विधर्मियों का पूरी तरह से सफाया करना होगा।” धर्म-परिवर्तित लोगों को “खरीदने” की इस चाल का परिणाम यह हुआ कि तीन साल के भीतर ही लगभग १०,००० लोग अपना धर्म बदलकर कैथोलिक बन गए।

सन्‌ १६६३ में अपना धर्म बदलकर प्रोटेस्टेंट धर्म को अपना लेना गैर-कानूनी बना दिया गया। इस बात पर भी प्रतिबंध था कि ह्‍यूगनॉट्‌स कहाँ-कहाँ रह सकते थे। जो ज़बरदस्त कदम उठाए गए थे, उनकी एक मिसाल यह है कि सात बरस की उम्र में ही बच्चे अपने माँ-बाप की मर्ज़ी के खिलाफ कैथोलिक बन सकते थे। उनके बच्चे, जेसुइट्‌स या अन्य कैथोलिक शिक्षकों से जो शिक्षा प्राप्त करते थे, उसका आर्थिक भार उठाने के लिए प्रोटेस्टेंट माता-पिता बाध्य थे।

ह्‍यूगनॉट्‌स का दमन करने के लिए एक और हथकंडा अपनाया गया और वह था गोपनीय कोम्पान्यी द्‌यू साँ-साक्रॆमाँ (पवित्र धर्म-विधि संगठन)। यह एक ऐसा कैथोलिक संगठन था जो इतिहासकार झानीन गैरिसों के हिसाब से पूरे फ्रांस में बिछे “महाजाल” के बराबर था। इसकी पहुँच समाज के ऊँचे-से-ऊँचे वर्ग तक थी और इसके पास ना तो पैसों की कमी थी ना ही मुखबिरों की। गैरिसों समझाती है कि इसके पास कई हथकंडे थे: “दबाव डालने से लेकर ज़बरदस्ती दखलअंदाज़ी करने तक, चालबाज़ी करने से लेकर झूठा इल्ज़ाम लगाने तक, कोम्पान्यी ने प्रोटेस्टेंट संप्रदाय को कमज़ोर करने के लिए हर तरह का ज़रिया अपनाया।” फिर भी, सताहट के इस आलम में ज़्यादातर ह्‍यूगनॉट्‌स फ्रांस में ही रहे। इतिहासकार गैरिसों कहती है: “यह समझना बहुत मुश्‍किल है कि जब इन प्रोटेस्टेंटों के प्रति विरोध धीरे-धीरे बढ़ता गया, तब ये लोग बड़ी तादाद में फ्रांस छोड़कर क्यों नहीं चले गए।” लेकिन, आज़ादी पाने के लिए फरार होना आखिरकार ज़रूरी हो गया।

स्थिति—धूम-फिर कर फिर वहीं

‘नाइमेगन की शांति-संधि’ (१६७८) व ‘रैटिस्बॉन की शांति-संधि’ (१६८४) की वज़ह से किंग लुई XIV को बाहरी देशों के युद्ध से राहत मिली। इंग्लिश खाड़ी के उस पार, इंग्लैंड में फरवरी १६८५ को एक कैथोलिक ने राजगद्दी सँभाली। लुई XIV इस बदले हुए हालात का फायदा उठा सका। चंद सालों पहले, फ्रांस के कैथोलिक पादरियों ने एक दस्तावेज़ जारी किया था जिसे ‘फोर गैलिकन आर्टिकल्स’ कहा गया। इसने फ्रांस के कैथोलिक चर्च पर पोप के अधिकार पर बंदिश लगायी। पोप इनोसॆंट XI ने तब “फ्रांस के चर्च को ऐसा समझा मानो वह लगभग कट कर अलग हो गया हो।” सो ‘नैंटिस के धर्मादेश’ को रद्द करने के द्वारा, लुई XIV अपनी प्रतिष्ठा पर लगे कलंक को थोड़ा-बहुत साफ कर सका तथा पोप के साथ पहले जैसा रिश्‍ता कायम कर सका।

प्रोटेस्टेंटों के प्रति राजा की नीति साफ-साफ दिखने लगी। नरमी से पेश आने का जो तरीका (समझाना-बुझाना और विधि-बनाना) इन्होंने अपनाया था, वह नाकाम रहा। दूसरी तरफ, हाल में ड्रैगन्‍नेड्‌सa को इस्तेमाल किया गया और इससे काम बन गया। सो १६८५ में, लुई XIV ने ‘नैंटिस के धर्मादेश’ को रद्द करते हुए ‘फॉन्तैंब्लो के धर्मादेश’ पर हस्ताक्षर किए। इसे रद्द करने के साथ-साथ हुई हिंसक सताहट ने ह्‍यूगनॉट्‌स की स्थिति को और भी बदतर बना दिया। इतना बदतर जो ‘नैंटिस के धर्मादेश’ पर हस्ताक्षर किए जाने से पहले भी नहीं थी। अब वे क्या करेंगे?

छुपें, लड़ें या फरार हों?

कुछ ह्‍यूगनॉट्‌स ने चोरी-छिपे उपासना करने का फैसला किया। क्योंकि उनके सभा-स्थानों को नष्ट कर दिया गया था और उनके खुलेआम उपासना करने पर प्रतिबंध लगाया गया था, उनके पास ‘रेगिस्तान के चर्च’ की ओर मुड़ने और छिप-छिपकर उपासना करने के सिवाय और कोई चारा नहीं था। उनको यह मालूम था कि जुलाई १६८६ में जारी किए गए एक कानून के मुताबिक जो लोग ऐसी सभाएँ करते, उनको सज़ा-ए-मौत मिल सकती है। इस खतरे के बावजूद उन्होंने ऐसी सभाएँ चलायीं। कुछ ह्‍यूगनॉट्‌स ने यह सोचकर अपना धर्म छोड़ दिया कि बाद में फिर से अपने धर्म में चले आना मुमकिन होगा। ऐसे लोगों ने ऊपरी-ऊपरी तौर पर कैथोलिक धर्म अपना लिया जिसकी नकल बाद की नसलें करतीं।

सरकार ने इन धर्म-परिवर्तनों को पक्का करने की कोशिश की। नौकरी पाने के लिए, नए धर्म-परिवर्तित लोगों को यह साबित करने के लिए कि वे कैथोलिक हैं, स्थानीय पादरी द्वारा हस्ताक्षर किया हुआ एक सर्टिफिकेट दिखाना पड़ता था, जो चर्च में उनकी हाज़िरी पर नज़र रखता था। अगर बच्चों को कैथोलिकों की तरह परवरिश करके उन्हें बपतिस्मा नहीं दिया जाता, तो उन्हें उनके माता-पिता से छीन लिया जा सकता था। स्कूलों के लिए यह ज़रूरी था कि वे कैथोलिक शिक्षा को बढ़ावा दें। प्रोटेस्टेंट लोगों को “बाइबल के लोग” नाम से पुकारा जाता था और इनके लिए कैथोलिक धर्म की पुस्तकें प्रकाशित की जाती थीं। सरकार ने दस लाख से भी ज़्यादा ऐसी पुस्तकें छापीं और इन्हें उन इलाकों में पहुँचाया जहाँ बड़ी तादाद में धर्मांतरित लोग रहते थे। उठाए गए कदम इतने क्रूर थे कि यदि कोई व्यक्‍ति बीमार पड़ जाता, और कैथोलिक धर्म के अंतिम संस्कार से इंकार करता और बाद में ठीक हो जाता, तो उसे कैदखाने में डाल दिया जाता या ताउम्र जहाज़ पर दास बनकर काम करना पड़ता। और फिर जब उसकी मौत होती, तो उसकी लाश को यूँ ही फेंक दिया जाता मानो वह कूड़ा-करकट हो और उसकी संपत्ति ज़ब्त कर ली जाती।

कुछ ह्‍यूगनॉट्‌स ने विरोध करने के लिए हथियार उठा लिए। सावैन इलाके में, जो कि धार्मिक जोशो-खरोश के लिए विख्यात था, कामॆज़ाड्‌र्स नामक सैन्य ह्‍यूगनॉट्‌स ने १७०२ में बगावत की। कामॆज़ाड्‌र्स घात लगाए बैठते थे और रात को हमला करते थे, और इसके जवाब में सरकारी सैनिकों ने कई गाँवों को आग में फूँक दिया। हालाँकि ह्‍यूगनॉट्‌स के हमले कभी-कभी ही हुआ करते थे फिर भी ये हमले कुछ समय तक चलते रहे। मगर सन्‌ १७१० तक किंग लुई की सेना ने कामॆज़ाड्‌र्स को रौंद डाला।

ह्‍यूगनॉट्‌स की एक और प्रतिक्रिया थी फ्रांस से फरार होना। इस प्रकार फरार होने का परिणाम यह हुआ कि वे पूरी तरह से तित्तर-बित्तर हो गए। फरार होते वक्‍त ज़्यादातर ह्‍यूगनॉट्‌स कंगाल हो गए थे क्योंकि सरकार ने उनकी संपत्ति ज़ब्त कर ली थी, और इस धन-दौलत का एक भाग कैथोलिक चर्च को भी दिया जाता था। सो बचकर फरार होना इतना आसान नहीं था। जो हो रहा था उसके प्रति फ्रांसीसी सरकार ने फौरन कार्यवाही की, और बाहर जाने के रास्तों पर कड़ी नज़र रखी और जहाज़ों की तलाशी ली। फ्रांस से बाहर जानेवाले जहाज़ों पर समुद्री-डाकू हमला बोलते, क्योंकि फरार होनेवाले लोगों पर बड़े-बड़े इनाम थे। जो ह्‍यूगनॉट्‌स फरार होते वक्‍त रंगे हाथों पकड़े जाते, उन्हें कड़ी-से-कड़ी सज़ा भुगतनी पड़ती। जीना और दूभर हो गया जब समाज के अंदर ही मिल-जुलकर रहनेवाले जासूस, फरार होने की योजना बना रहे लोगों का नाम तथा जिस मार्ग से वे जानेवाले हैं, उसका पता लगाने की कोशिश करने लगे। चिट्ठियों का ज़ब्त किया जाना, धोखाधड़ी और चालबाज़ी आम बात हो गयी।

शरणार्थियों के लिए पनाह

फ्रांस से ह्‍यूगनॉट्‌स के फरार होने और मेज़बान देशों में उनके स्वागत को ‘पनाह’ कहा गया। ह्‍यूगनॉट्‌स फरार होकर हॉलैंड, स्विट्‌ज़रलैंड, जर्मनी और इंग्लैंड गए। बाद में कुछ ह्‍यूगनॉट्‌स स्कैंडॆनेवीया, अमरीका, आयरलैंड, वेस्ट इंडीज़, दक्षिण अफ्रीका और रूस गए।

कई यूरोपीय देशों ने ऐसे धर्मादेश जारी किए जिससे ह्‍यूगनॉट्‌स को उनके देश में जाने का प्रोत्साहन मिला। जो प्रलोभन पेश किए गए थे, उनमें से कुछ थे मुफ्त नागरिकता, करों से छूट और किसी व्यापार संघ में मुफ्त सदस्यता। इतिहासकार एलिसाबॆथ लाबरूस के मुताबिक, ह्‍यूगनॉट्‌स ज़्यादातर “जवान पुरुष [थे,] . . . जो जोशीले और उल्लेखनीय सदाचार दिखानेवाले मेहनती नागरिक थे।” अतः, जब फ्रांस अपनी शक्‍ति की चरम पर था, तब वह कई व्यापारिक पेशों में अपने अनेक निपुण मज़दूरों को खो बैठा। और वे अपने साथ-साथ “संपत्ति, धन-दौलत और कार्य-कुशलता” भी ले गए। ह्‍यूगनॉट्‌स को पनाह देने के पीछे धार्मिक व राजनैतिक कारण भी थे। लेकिन दूसरी जगह जा बसने के दीर्घ-कालिक परिणाम क्या थे?

‘नैंटिस के धर्मादेश’ का रद्द किया जाना और इसके परिणाम में होनेवाली सताहट ने प्रतिकूल अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया भड़कायी। विल्यम ऑफ ऑरेंज, नॆदरलैंडस्‌ का शासक बनने के लिए फ्रांस-विरोधी भावना का फायदा उठा सका। ह्‍यूगनॉट्‌स के अफसरों की मदद से, वह कैथोलिक जेम्स II को हटाकर, खुद ग्रेट ब्रिटॆन का राजा भी बन गया। इतिहासकार फिलिप झूटार बताता है कि “लुई XIV की प्रोटेस्टेंट नीति जेम्स II के सत्तापलट [और] अग्स्बर्ग लीग की स्थापना का एक मुख्य कारण थी। . . . [ये] घटनाएँ यूरोप के इतिहास में बेहद महत्त्वपूर्ण मोड़ थीं, जिनकी वज़ह से फ्रांसीसी अधिकार हटकर अंग्रेज़ अधिकार आ गया।”

यूरोप की संस्कृति में ह्‍यूगनॉट्‌स ने एक अहम भूमिका निभायी। उन्होंने अपनी नयी-नयी आज़ादी का इस्तेमाल ऐसे साहित्य निकालने में किया जिससे एन्लाइटनमेंट युग के तत्त्वज्ञान और सहनशीलता के विचारों को आकार देने में मदद मिली। मिसाल के लिए, एक फ्रांसीसी प्रोटेस्टेंट ने अंग्रेज़ तत्त्वज्ञानी जॉन लॉक की पुस्तकों का अनुवाद किया और मानवाधिकार के विचारों को बढ़ावा दिया। दूसरे प्रोटेस्टेंट लेखकों ने अपने विवेक के अनुसार काम करने के महत्त्व पर ज़ोर दिया। यह विचार पनपने लगा कि हमेशा ही शासकों के अधीन रहना ज़रूरी नहीं है, और यदि ये शासक अपने और लोगों के बीच मौजूद करारनामे को तोड़ देते हैं तो इस अधीनता को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। अतः जैसे इतिहासकार चार्ल्स रीड ने कहा, ‘नैंटिस के धर्मादेश’ का रद्द होना “फ्रेंच क्रांति का एक स्पष्ट कारण” था।

कुछ सबक?

सताहट से और इतने सारे मूल्यवान लोगों के चले जाने से राज्य को हुए उलट-परिणाम के कारण, किंग लुई XIV के सैन्य सलाहकार, मारक्विस दे वाउबान ने राजा से ‘नैंटिस के धर्मादेश’ को वापस जारी करने का आग्रह किया। उसने कहा: “दिलों को परिवर्तित करने का हक केवल परमेश्‍वर का है।” तो फिर फ्रांसीसी राज्य ने इससे सबक सीखकर अपना फैसला वापस क्यों नहीं लिया? यकीनन एक कारण था कि राजा को डर था कि राज्य कमज़ोर पड़ जाएगा। और तो और, १७वीं सदी के फ्रांस के कैथोलिक धार्मिक-जागरण और धार्मिक असहनशीलता का फायदा उठाना ज़्यादा उचित था।

रद्द करने के समय में हुई घटनाओं की वज़ह से कुछ ने पूछा है, “समाज और कितनी विविधताओं को अनुमति दे सकता और बरदाश्‍त कर सकता है?” वाकई, जैसे इतिहासकारों ने कहा है, “अधिकार जताने के तरीकों और उनके दुरुपयोग” के बारे में सोचे बिना ह्‍यूगनॉट्‌स की दास्तान पर विचार करना मुमकिन नहीं है। आज के समाज ज़्यादा-से-ज़्यादा बहुजातीय हो रहे हैं और इनमें धार्मिक विविधताएँ बढ़ रही हैं। ऐसे हालात में ह्‍यूगनॉट्‌स की आज़ादी की लड़ाई दिल को छू लेनेवाली यादगार है कि तब क्या होता है जब चर्च से प्रेरित राजनीति, लोगों के हितों पर प्रबल हो जाती है।

[फुटनोट]

a पृष्ठ २८ का बॉक्स देखिए।

[पेज 28 पर बक्स]

आतंक द्वारा धर्मपरिवर्तित करनेवाले

ड्रैगन्‍नेड्‌स

कुछ लोगों ने ड्रागून्स को “बेहतरीन मिशनरी” समझा। लेकिन, ह्‍यूगनॉट्‌स के दिलों में इन्होंने आतंक पैदा किया, और कुछ मामलों में तो पूरा-का-पूरा गाँव इनके आने की भनक पड़ते ही कैथोलिक धर्म अपना लेता। लेकिन ये ड्रागून्स थे कौन?

ड्रागून्स पूरी तरह हथियारों से लैस सैनिक थे जो ह्‍यूगनॉट्‌स के घरों में डेरा डालते थे ताकि वे उसके रहवासियों के दिलों में खौफ पैदा करें। ड्रागून्स के इस तरह के इस्तेमाल को ड्रैगन्‍नेड्‌स कहा गया। परिवारों पर बोझ और भी बढ़ाने के लिए, परिवार के सदस्यों की संख्या और भरण-पोषण के साधनों से कहीं ज़्यादा सैनिकों को उनके घर में भेजा जाता था। ड्रागून्स को यह अधिकार दिया गया कि वे परिवारों के साथ अति क्रूरता से सलूक करें, उनकी नींद हराम करें और उनकी संपत्ति को तहस-नहस करें। यदि घर के लोग प्रोटेस्टेंट धर्म का त्याग कर देते, तो ये ड्रागून्स उनके घर से चले जाते।

सन्‌ १६८१ में, पश्‍चिम फ्रांस के प्वातू में धर्म बदलवाने के लिए ड्रैगन्‍नेड्‌स का इस्तेमाल किया गया। प्वातू ऐसा इलाका है जहाँ बड़ी तादाद में ह्‍यूगनॉट्‌स रहते थे। कुछ ही महीनों के भीतर, ३०,००० से ३५,००० लोगों ने अपना धर्म बदल लिया। यही ज़रिया १६८५ में ह्‍यूगनॉट्‌स के दूसरे निवास-क्षेत्रों में इस्तेमाल किया गया। कुछ ही महीनों की बात थी, और ३,००,००० से ४,००,००० लोगों ने अपना धर्म बदल लिया। इतिहासकार झाँ केनयार के मुताबिक, ड्रैगन्‍नेड्‌स की कामयाबी की वज़ह से मान्यता देनेवाला ‘नैंटिस के धर्मादेश’ “का रद्द होना टाला नहीं जा सकता था, और अब यह मुमकिन लगने लगा।”

[चित्र का श्रेय]

© Cliché Bibliothèque Nationale de France, Paris

[पेज 25 पर तसवीर]

सन्‌ १६८९ के इस घोषणा-पत्र ने फ्रांसीसी प्रोटेस्टेंटों को पनाह दी जो धार्मिक सताहट से राहत चाहते थे

[चित्र का श्रेय]

By permission of The Huguenot Library, Huguenot Society of Great Britain and Ireland, London

[पेज 26 पर तसवीर]

सन्‌ १६८५ में ‘नैंटिस के धर्मादेश’ का रद्द किया जाना (इसका पहला पन्‍ना यहाँ दिखाया गया है)

[चित्र का श्रेय]

Documents conservés au Centre Historique des Archives nationales à Paris

[पेज 26 पर तसवीर]

प्रोटेस्टेंटों के अनेक मंदिर तहस-नहस किए गए

[चित्र का श्रेय]

© Cliché Bibliothèque Nationale de France, Paris

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