युवा लोग पूछते हैं . . .
मैं क्या करूँ कि हमेशा मेरी ही ग़लती न मानी जाए?
“हमेशा मेरी ग़लती मानी जाती थी। अगर घर बंद नहीं होता या स्टोव जलता हुआ छूट जाता या कोई और चीज़ जगह पर नहीं होती या अधूरी होती, तो ग़लती रमन की होती!”—रमन।
किशोरावस्था में कभी-कभी ऐसा लग सकता है कि आप पर मानो हर ग़लती का दोष लगाया जाता है। पहले के एक लेख में, हमने स्वीकार किया था कि कभी-कभी माता-पिता बिना सोचे-समझे अपने बच्चों पर दोष लगा देते हैं।a इसका कारण माता-पिता द्वारा सामान्य चिंता से लेकर गहरी भावात्मक व्यथा तक हो सकता है। कारण जो भी हो, उन बातों का दोषी ठहराया जाना जो आपने नहीं कीं दुःखद और अपमानजनक हो सकता है।
इसमें संदेह नहीं कि अपरिपूर्ण मनुष्य होने के कारण, आप समय-समय पर ग़लतियाँ करेंगे। (रोमियों ३:२३) साथ ही, क्योंकि आप उम्र में छोटे हैं, आपको उतना अनुभव नहीं है। (नीतिवचन १:४) आपका कभी-कभार ग़लत फ़ैसले कर बैठना निश्चित है। सो जब आप ग़लती करते हैं, तब उसके लिए जवाबदेह ठहराया जाना सही और उचित है।—सभोपदेशक ११:९.
तो फिर, आपको उस समय कैसी प्रतिक्रिया दिखानी चाहिए जब आपको उस ग़लती के लिए दोषी ठहराया जाता है जो आपने सचमुच की है? कुछ युवा ऐसा दिखाने की कोशिश करते हैं मानो वे किसी घोर अन्याय के शिकार हों। वे चीखते-चिल्लाते हैं कि उनके माता-पिता हमेशा हर बात के लिए उनको दोष देते हैं। परिणाम? कुंठित माता-पिता अपनी बात समझाने के लिए और कड़े क़दम उठाते हैं। बाइबल यह सलाह देती है: “बुद्धि और शिक्षा को मूढ़ ही लोग तुच्छ जानते हैं। हे मेरे पुत्र, अपने पिता की शिक्षा पर कान लगा, और अपनी माता की शिक्षा को न तज।” (नीतिवचन १:७, ८) जब आप अपनी ग़लती स्वीकार करते हैं और ज़रूरी बदलाव करते हैं, तब आप अपनी ग़लतियों से सीख सकते हैं।—इब्रानियों १२:११.
माता-पिता के साथ “अंतरंग बातचीत”
लेकिन, तब बात एकदम अलग होती है जब आप पर उन ग़लतियों का दोष लगाया जाता है जो आपने की ही नहीं या जब उठते-बैठते आप पर दोष लगाया जाता है। स्वाभाविक है कि आपको ग़ुस्सा या चिढ़ आ सकती है। आपका जानबूझकर शरारत करने का भी मन कर सकता है क्योंकि आप मान बैठते हैं कि आप पर दोष तो वैसे भी लगाया जाएगा। (सभोपदेशक ७:७) लेकिन, दुर्भावपूर्ण कार्य सभी को चोट पहुँचाते हैं। (अय्यूब ३६:१८ से तुलना कीजिए।) नीतिवचन १५:२२ स्थिति से ज़्यादा अच्छी तरह निपटने का तरीक़ा बताता है। वहाँ लिखा है: “बिना सम्मति [“अंतरंग बातचीत,” NW] की कल्पनाएं निष्फल हुआ करती हैं।” जी हाँ, अपने माता-पिता को यह बताना कि आप कैसा महसूस करते हैं आपके प्रति उनके व्यवहार को बदलने का एक तरीक़ा है।
पहले, वह समय ढूँढ़िए जिसे बाइबल “यथा समय” कहती है। (नीतिवचन १५:२३, NHT) लेखक क्लेटन बारबो सुझाव देता है: “ऐसा समय और स्थान चुनिए जब सब का दिमाग़ ठंडा हो और काफ़ी अच्छा महसूस कर रहे हों।” इसके अलावा, बाइबल चिताती है: “कटुवचन से क्रोध धधक उठता है।” (नीतिवचन १५:१) सो झगड़ा मत कीजिए, बल्कि कृपा और आदर के साथ बात करने की कोशिश कीजिए। अपना आपा मत खोइए। (नीतिवचन २९:११) अपने माता-पिता पर हमला करने के बजाय (‘आप हमेशा हर बात का दोष मुझ पर लगाते हैं!’), यह समझाने की कोशिश कीजिए कि उनके हर समय दोष लगाने से आपको कैसा लगता है। (‘मुझे बुरा लगता है जब मुझ पर उन ग़लतियों का दोष लगाया जाता है जो मैंने नहीं कीं।’)—उत्पत्ति ३०:१, २ से तुलना कीजिए।
यही बात उस समय के बारे में भी कही जा सकती है जब आपके माता-पिता किसी ग़लतफ़हमी के कारण ग़ुस्सा हैं। युवा यीशु के माता-पिता एक बार परेशान हो गये थे जब पता नहीं चला कि वह कहाँ है। लेकिन यीशु पिनपिनाया नहीं अथवा उसने शिकायत नहीं की। शांति से, उसने स्थिति समझायी। (लूका २:४९) जब आप मुसीबत में हों, तब क्यों न अपने माता-पिता के साथ बड़ों-जैसा व्यवहार करके देखें? इस बात को समझिए कि वे इसलिए परेशान हैं क्योंकि वे आपकी परवाह करते हैं! आदर के साथ सुनिए। (नीतिवचन ४:१) जब तक कि स्थिति शांत नहीं हो जाती, अपनी बात बताने की जल्दबाज़ी मत कीजिए।
‘अपने ही काम को जांचना’
लेकिन, कुछ माता-पिता अपने बच्चों के बारे में ग़लत निष्कर्षों पर कूदने की प्रवृत्ति रखते ही क्यों हैं? साफ़-साफ़ कहें, कभी-कभी बच्चे अपने माता-पिता को संदेह करने का कारण देते हैं। नीतिवचन २०:११ कहता है: “लड़का भी अपने कामों से पहिचाना जाता है, कि उसका काम पवित्र और सीधा है, वा नहीं।” आपने अपने माता-पिता के साथ कैसा नाम बनाया है? क्या आपके “कामों” ने दिखाया है कि आप ‘सीधे’ और संजीदा हैं या यह दिखाया है कि आप लापरवाह और ग़ैर-ज़िम्मेदार हैं? यदि दूसरी बात सही है, तो चकित मत होइए यदि वे आपके बारे में प्रायः ग़लत निष्कर्षों पर कूदते हैं। “मैं सच्चाई से आँख नहीं मूँद सकता था,” पहले उल्लिखित युवा, रमन ने अपने माता-पिता द्वारा आलोचना के बारे में स्वीकार किया। “कभी-कभी उनके संदेहों में कुछ सच्चाई होती थी।”
यदि आपके बारे में यह सच है, तो आप इतना ही कर सकते हैं कि अतीत को न दोहराने की कोशिश करें। भरोसेमंद और ज़िम्मेदार व्यवहार की आदत डालने के द्वारा, आप शायद धीरे-धीरे अपने माता-पिता को विश्वास दिला पाएँ कि आपने बदलाव किये हैं और आप पर भरोसा किया जा सकता है।
रमन का अनुभव इस मुद्दे को सचित्रित करता है। उसके मित्रों और घरवालों ने प्यार से उसे सनकी प्रोफ़ॆसर का नाम दिया क्योंकि वह भुलक्कड़ था। क्या आपके माता-पिता ने आपको नकारात्मक ठप्पा दिया है, जैसे “नासमझ” या “ग़ैर-ज़िम्मेदार”? जैसा लेखिका कैथलीन मॆकॉय बताती है, माता-पिता शायद सोचें कि ऐसे ठप्पे ‘कमी उजागर कर सकते हैं ताकि किशोर उसे देख सके और बदलाव कर सके।’ लेकिन, असलियत में, ऐसे ठप्पे अकसर बहुत चिढ़ पैदा करते हैं। फिर भी, रमन को यह समझ आया कि उसके प्यार-के-नाम ने एक उचित बात मुखरित की। “मेरा दिमाग़ हमेशा एक बात पर लगा होता था, सो मैं चाबियाँ या अपनी कॉपियाँ इत्यादि खो देता था और ज़रूरी काम भूल जाता था,” वह स्वीकार करता है।
सो रमन बदलाव करने लगा। “मैंने ज़िम्मेदारियों और प्राथमिकताओं के बारे में सीखना शुरू किया,” वह याद करता है। “मैंने एक सारणी बनायी और व्यक्तिगत बाइबल अध्ययन को ज़्यादा गंभीरता से लेने लगा। मैंने सीखा कि यहोवा छोटी-छोटी बातों को महत्त्व देता है और बड़ी-बड़ी बातों को भी।” (लूका १६:१०) बाइबल सिद्धांत लागू करने के द्वारा, रमन ने भुलक्कड़ होने का अपना नाम धीरे-धीरे मिटवा दिया। क्यों न ऐसा ही करने की कोशिश करें? और यदि एक ठप्पा या ख़िताब सचमुच आपको दुःखी करता है, तो इस विषय में अपने माता-पिता से बात कीजिए। शायद वे समझ जाएँ कि आपको कैसा लगता है।
जब भेदभाव की बू आती है
कभी-कभी ऐसा लगता है कि आरोप के पीछे भेदभाव है। रमन याद करता है: “मेरे बड़े भाई-बहन देर से घर आते तो कुछ नहीं होता। मैं देर से आता, तो बखेड़ा खड़ा हो जाता।” ऐलबर्ट नाम का एक गयानावासी पुरुष याद करता है कि छुटपन में उसमें भी ऐसी ही भावनाएँ उठती थीं। उसे लगता था कि उसकी माँ उसके भाई से ज़्यादा कठोर अनुशासन उसे देती थीं।
लेकिन, जैसा लगता है हमेशा वैसा ही नहीं होता। माता-पिता प्रायः बड़े बच्चों को ज़्यादा छूट देते हैं, इसलिए नहीं कि वे भेदभाव करते हैं, बल्कि इसलिए कि उन्हें लगता है वे ज़िम्मेदारी के साथ काम करेंगे। या हो सकता है कि ख़ास परिस्थितियाँ हैं। ऐलबर्ट स्वीकार करता है कि उसके भाई को मार नहीं पड़ती थी क्योंकि वह “छोटा और बीमार” था। क्या माता-पिता भेदभाव कर रहे हैं यदि वे अमुक बच्चे की ख़ास ज़रूरतों या कमज़ोरियों का ध्यान रखते हैं?
यह सच है कि कभी-कभी माता-पिता के अपने चहेते होते हैं। (उत्पत्ति ३७:३ से तुलना कीजिए।) ऐलबर्ट अपने बीमार भाई के बारे में कहता है: “मम्मी को उससे ख़ास लगाव था।” ख़ुशी की बात है, मसीही प्रेम फैल सकता है। (२ कुरिन्थियों ६:११-१३) सो यदि आपके माता-पिता को आपके किसी भाई या बहन से “ख़ास लगाव” है, तो इसका यह अर्थ नहीं कि आपके लिए कोई प्रेम नहीं बचा। मुख्य बात है, क्या वे आपके साथ अनुचित व्यवहार कर रहे हैं, एक बच्चे के लिए अंधे मोह के कारण आप पर दोष लगा रहे हैं? यदि ऐसा लगता है, तो निश्चित ही उन्हें अपनी भावनाएँ बताइए। शांत और उचित रीति से, उन्हें निश्चित उदाहरण दीजिए कि कैसे आपके हिसाब से उन्होंने भेदभाव दिखाया है। शायद वे सुनें।
समस्या-ग्रस्त परिवार
माना, सभी स्थितियों को बदलना आसान नहीं होता। अपमान करना और दोष लगाना कुछ माता-पिताओं की पक्की आदत होती है। यह ख़ासकर उन माता-पिताओं के बारे में सही हो सकता है जिन्हें भावात्मक समस्याएँ हैं या जो व्यसन से जूझ रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में, बात करके हल निकालने की कोशिशों का शायद ही कोई फ़ायदा हो। यदि आपकी स्थिति ऐसी लगती है, तो इस बात को समझिए कि आपके माता-पिता की समस्याएँ आपके बस से बाहर हैं और शायद बाहरी मदद से ही सुलझ सकें। आप ज़्यादा से ज़्यादा यही कर सकते हैं कि उन्हें उचित सम्मान और आदर दें और अनावश्यक किचकिच से बचने की कोशिश करें। (इफिसियों ६:१, २) नीतिवचन २२:३ कहता है: “चतुर मनुष्य विपत्ति को आते देखकर छिप जाता है।”b
साथ ही, बाहर से कुछ सहारा लीजिए। किसी प्रौढ़ व्यक्ति से, शायद एक मसीही प्राचीन से बात कीजिए। ऐसे व्यक्ति का प्रेममय ध्यान इस भावना से लड़ने में मदद दे सकता है कि हमेशा आपकी ही ग़लती होती है। साथ ही, “परमेश्वर के निकट आओ।” (याकूब ४:८) जबकि दूसरे आप पर झूठा दोष लगा सकते हैं, “[परमेश्वर] सर्वदा वादविवाद करता न रहेगा, न उसका क्रोध सदा के लिये भड़का रहेगा। . . . क्योंकि वह हमारी सृष्टि जानता है; और उसको स्मरण रहता है कि मनुष्य मिट्टी ही हैं।” (भजन १०३:९, १४) यह जानना कि आप परमेश्वर की दृष्टि में अनमोल हैं आपको अनुचित दोष को सहने में मदद दे सकता है।
[फुटनोट]
a हमारे जुलाई ८, १९९७ के अंक में छपा लेख, “युवा लोग पूछते हैं . . . हमेशा मेरी ही ग़लती क्यों मानी जाती है?” देखिए।
b हमारे जून ८, १९८९ के अंग्रेज़ी अंक में लेख “युवा लोग पूछते हैं . . . मैं मौखिक दुर्व्यवहार का सामना कैसे करूँ?” देखिए। अक्तूबर २२, १९९६ की सजग होइए! (अंग्रेज़ी) में “चोट पहुँचानेवाली बातों से घाव भरनेवाली बातों तक” श्रंखला भी देखिए।
[पेज 17 पर तसवीर]
अपनी भूल स्वीकार करना हमें अपनी ग़लतियों से सीखने में मदद देता है