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पवित्र शास्त्र का नयी दुनिया अनुवाद
अय्यूब

अय्यूब

1 ऊज़ नाम के देश में एक आदमी रहता था। उसका नाम अय्यूब* था।+ वह एक सीधा-सच्चा इंसान था जिसमें कोई दोष नहीं था।+ वह परमेश्‍वर का डर मानता और बुराई से दूर रहता था।+ 2 उसके सात बेटे और तीन बेटियाँ थीं। 3 उसके पास 7,000 भेड़ें, 3,000 ऊँट, 1,000* गाय-बैल और 500 गधियाँ थीं। उसके ढेर सारे नौकर-चाकर भी थे। वह पूरब के रहनेवालों में सबसे बड़ा आदमी था।

4 अय्यूब के सभी बेटे तय दिनों पर अपने-अपने घर दावत रखते थे* और अपनी तीनों बहनों को भी बुलाते थे। 5 जब दावतों का सिलसिला खत्म हो जाता तब अय्यूब अपने बच्चों को बुलाता ताकि उन्हें शुद्ध कर सके। फिर वह सुबह-सुबह उठकर अपने हर बच्चे के लिए होम-बलि चढ़ाता।+ उसका कहना था, “हो सकता है मेरे बच्चों ने कोई पाप किया हो और अपने मन में परमेश्‍वर के बारे में कुछ बुरा कहा हो।” अय्यूब हर बार ऐसा ही करता था।+

6 अब वह दिन आया जब सच्चे परमेश्‍वर के बेटे*+ उसके सामने इकट्ठा हुए।+ शैतान*+ भी उनके बीच यहोवा के सामने आया।+

7 यहोवा ने शैतान से पूछा, “तू कहाँ से आ रहा है?” शैतान ने यहोवा से कहा, “धरती पर यहाँ-वहाँ घूमते हुए आ रहा हूँ।”+ 8 तब यहोवा ने शैतान से कहा, “क्या तूने मेरे सेवक अय्यूब पर ध्यान दिया? उसके जैसा धरती पर कोई नहीं। वह एक सीधा-सच्चा इंसान है जिसमें कोई दोष नहीं।+ वह परमेश्‍वर का डर मानता और बुराई से दूर रहता है।” 9 शैतान ने यहोवा से कहा, “क्या अय्यूब यूँ ही तेरा डर मानता है?+ 10 क्या तूने उसकी, उसके घर की और उसकी सब चीज़ों की हिफाज़त के लिए चारों तरफ बाड़ा नहीं बाँधा?+ तूने उसके सब कामों पर आशीष दी है+ और उसके जानवरों की तादाद इतनी बढ़ा दी है कि वे देश-भर में फैल गए हैं। 11 लेकिन अब अपना हाथ बढ़ा और उसका सबकुछ छीन ले। फिर देख, वह कैसे तेरे मुँह पर तेरी निंदा करता है!” 12 यहोवा ने शैतान से कहा, “तो ठीक है, अय्यूब का जो कुछ है वह मैं तेरे हाथ में देता हूँ। तुझे जो करना है कर। मगर अय्यूब को कुछ मत करना।” तब शैतान यहोवा के सामने से चला गया।+

13 फिर जिस दिन अय्यूब के बेटे-बेटियाँ अपने सबसे बड़े भाई के घर खाना खा रहे थे और दाख-मदिरा पी रहे थे,+ 14 उस दिन एक आदमी ने आकर अय्यूब को खबर दी, “बैल खेत जोत रहे थे और गधियाँ पास में चर रही थीं 15 कि अचानक सबाई लोगों ने हमला बोल दिया और सारे जानवरों को लूटकर ले गए। उन्होंने तेरे सेवकों को तलवार से मार डाला। सिर्फ मैं बच निकला और तुझे यह खबर देने आया हूँ।”

16 उसकी बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि एक दूसरा आदमी आया और कहने लगा, “आसमान से परमेश्‍वर की आग* गिरी और उसने तेरी भेड़ों और तेरे सेवकों को जलाकर भस्म कर दिया। सिर्फ मैं बच निकला और तुझे यह खबर देने आया हूँ।”

17 उसकी बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि एक और आदमी आया और कहने लगा, “कसदी लोग+ तीन दल बनाकर आए और तेरे ऊँटों पर टूट पड़े और उन्हें ले गए। उन्होंने तेरे सेवकों को तलवार से मार डाला, सिर्फ मैं बच निकला और तुझे यह खबर देने आया हूँ।”

18 उसकी बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि एक और आदमी आया और कहने लगा, “तेरे बेटे-बेटियाँ अपने सबसे बड़े भाई के घर खाना खा रहे थे और दाख-मदिरा पी रहे थे। 19 तभी अचानक वीराने से ज़ोरदार आँधी चली और घर के चारों कोनों से ऐसी टकरायी कि पूरा घर तेरे बच्चों पर गिर पड़ा और वे मर गए। सिर्फ मैं बच निकला और तुझे यह खबर देने आया हूँ।”

20 यह सुनते ही अय्यूब ने दुख के मारे अपने कपड़े फाड़े और अपना सिर मुँड़वाया। उसने ज़मीन पर गिरकर 21 कहा,

“मैं अपनी माँ के पेट से नंगा आया

और नंगा ही लौट जाऊँगा।+

यहोवा ने दिया था+ और यहोवा ने ले लिया।

यहोवा के नाम की बड़ाई होती रहे।”

22 इतना सब होने पर भी अय्यूब ने कोई पाप नहीं किया, न ही उसके साथ जो बुरा हुआ उसके लिए परमेश्‍वर को दोष दिया।

2 फिर वह दिन आया जब सच्चे परमेश्‍वर के बेटे*+ यहोवा के सामने इकट्ठा हुए।+ शैतान भी उनके बीच यहोवा के सामने आया।+

2 यहोवा ने शैतान से पूछा, “तू कहाँ से आ रहा है?” शैतान ने यहोवा से कहा, “धरती पर यहाँ-वहाँ घूमते हुए आ रहा हूँ।”+ 3 तब यहोवा ने शैतान से कहा, “क्या तूने मेरे सेवक अय्यूब पर ध्यान दिया? उसके जैसा धरती पर कोई नहीं। वह एक सीधा-सच्चा इंसान है जिसमें कोई दोष नहीं।+ वह परमेश्‍वर का डर मानता और बुराई से दूर रहता है। तूने मुझे उकसाने की कोशिश की+ कि मैं बिना वजह उसे बरबाद कर दूँ। मगर देख, वह अब भी निर्दोष बना हुआ है।”+ 4 इस पर शैतान ने यहोवा से कहा, “खाल के बदले खाल। इंसान अपनी जान बचाने के लिए अपना सबकुछ दे सकता है। 5 अब ज़रा अपना हाथ बढ़ा और अय्यूब की हड्डी और शरीर को छू। फिर देख, वह कैसे तेरे मुँह पर तेरी निंदा करता है!”+

6 यहोवा ने शैतान से कहा, “तो ठीक है, उसे मैं तेरे हाथ में देता हूँ, तुझे जो करना है कर। लेकिन तुझे उसकी जान लेने की इजाज़त नहीं।” 7 तब शैतान यहोवा के सामने से चला गया। शैतान ने अय्यूब को सिर से लेकर तलवों तक दर्दनाक फोड़ों से पीड़ित किया।+ 8 अय्यूब राख पर बैठ गया+ और उसने अपना शरीर खुजाने के लिए मिट्टी के टूटे बरतन का एक टुकड़ा लिया।

9 आखिरकार उसकी पत्नी ने कहा, “क्या तू अब भी निर्दोष बना रहेगा? परमेश्‍वर की निंदा कर और मर जा!” 10 मगर अय्यूब ने उससे कहा, “तू क्यों नासमझ औरतों की तरह बात कर रही है? क्या हम सच्चे परमेश्‍वर से सिर्फ सुख ही लें, दुख न लें?”+ इतना सब होने पर भी अय्यूब ने अपनी ज़बान से कोई पाप नहीं किया।+

11 जब अय्यूब के तीन साथी तेमानी एलीपज,+ शूही+ बिलदद+ और नामाती सोपर+ ने सुना कि अय्यूब पर क्या-क्या मुसीबतें आयी हैं, तब वे अपनी-अपनी जगह से निकल पड़े। उन्होंने मिलकर तय किया कि वे अय्यूब के पास जाकर उससे हमदर्दी जताएँगे और उसे दिलासा देंगे। 12 जब उन्होंने अय्यूब को दूर से देखा तो उसे पहचान भी न पाए। मगर जब उन्हें मालूम हुआ कि वह अय्यूब है, तो वे ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। उन्होंने अपने कपड़े फाड़े और आसमान में धूल उड़ाते हुए अपने सिर पर धूल डाली।+ 13 वे सात दिन और सात रात, उसके पास ज़मीन पर बैठे रहे। मगर उन तीनों में से किसी ने अय्यूब से कुछ नहीं कहा क्योंकि वे देख सकते थे कि वह दुख से बेहाल है।+

3 इसके बाद अय्यूब ने बोलना शुरू किया। वह उस दिन को कोसने लगा जिस दिन उसका जन्म हुआ था।+ 2 अय्यूब ने कहा,

 3 “काश! वह दिन मिट जाता जिस दिन मैं पैदा हुआ,+

वह रात कभी न आती जब कहा गया, ‘देखो, लड़का हुआ है!’

 4 काश! वह दिन काली रात में बदल जाता,

परमेश्‍वर आसमान से उस पर ध्यान न देता,

उस दिन उजाला ही न होता।

 5 काश! घुप अँधेरा* उसे निगल जाता,

घनघोर घटा उस पर छा जाती,

आसमान का भयानक मंज़र देख वह दिन सहम जाता।

 6 काश! वह रात गुमनामी के अँधेरे में कहीं खो जाती।+

साल के किसी भी दिन उसे याद न किया जाता,

न ही महीनों में उसे गिना जाता।

 7 काश! वह रात बाँझ हो जाती,

खुशियों की आवाज़ सुनायी न देती।

 8 हे दिनों को कोसनेवालो! लिव्यातान*+ को जगानेवालो!

उस दिन को कोसो जब मैं पैदा हुआ।

 9 काश! भोर के टिमटिमाते तारे बुझ जाते,

सूरज की किरणों को वह देख न पाता,

उजाले की आस में बैठे-बैठे वह थक जाता।

10 क्यों उस दिन ने मेरी माँ की कोख बंद नहीं कर दी?+

क्यों मुझे ये दुख-भरे दिन दिखाए?

11 हाय! मैं पैदा होते ही मर क्यों नहीं गया?

माँ के पेट से निकलते ही मेरा दम क्यों नहीं निकल गया?+

12 क्यों मुझे पैरों पर झुलाया* गया?

क्यों मुझे दूध पिलाया गया?

13 नहीं तो आज मैं बेखबर पड़ा रहता,+

गहरी नींद में चैन से सोया रहता,+

14 उन राजाओं, उन सलाहकारों के साथ,

जिनकी बनायी इमारतें आज खंडहर हो चुकी हैं।*

15 उन राजकुमारों* के साथ जिनके पास सोना था

और जिनके घर चाँदी से भरे थे।

16 काश, मैं गर्भ में बढ़ने से पहले ही मिट जाता,

उस बच्चे-सा होता, जिसने कभी उजाला न देखा हो।

17 कब्र में दुष्ट की भी तकलीफें खत्म हो जाती हैं,

थका-माँदा इंसान भी राहत पाता है।+

18 कैदियों को कब्र में चैन मिलता है,

काम लेनेवालों की घुड़कियाँ उन्हें सुनायी नहीं देतीं।

19 वहाँ छोटे-बड़े सब बराबर हैं,+

गुलाम भी अपने मालिक से आज़ाद है।

20 परमेश्‍वर क्यों दुखियारों को रौशनी देता है?*

क्यों दुख से बेहाल लोगों+ को ज़िंदा रहने देता है?

21 जो मौत के लिए तरसते हैं, उन्हें मौत क्यों नहीं आती?+

उन्हें छिपे खज़ाने से भी ज़्यादा इसकी तलाश रहती है।

22 उसे पाकर वे खुश हो जाते हैं,

कब्र देखकर उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता।

23 परमेश्‍वर क्यों उस इंसान को रौशनी दिखाता है,

जो राह भटक गया है और जिसका रास्ता खुद परमेश्‍वर ने रोका है?+

24 मैं हर निवाला आहें भरते हुए लेता हूँ,+

बहते झरने की तरह कराहता रहता हूँ।+

25 जिसका मुझे डर था, वही मेरे साथ हुआ,

जिस बात से मैं घबराता था, वही मेरे साथ घट गयी।

26 मेरा सुख-चैन छिन गया, मुझे कोई आराम नहीं,

और मुसीबतें हैं कि मेरा पीछा ही नहीं छोड़तीं।”

4 तब तेमानी एलीपज+ ने अय्यूब से कहा,

 2 “अगर कोई तुझसे कुछ कहे तो क्या तू सब्र खो देगा?

लेकिन मैं खुद को बोलने से नहीं रोक सकता।

 3 माना तूने सीख देकर बहुतों को सुधारा है,

कमज़ोर हाथों को मज़बूत किया है।

 4 अपनी बातों से लड़खड़ाते हुओं को सँभाला है,

काँपते घुटनों को मज़बूत किया है।

 5 पर अब जब तुझ पर आफत आ पड़ी, तो कहाँ गया तेरा साहस?*

तुझ पर कहर क्या टूटा, तू घबरा गया?

 6 अगर तू परमेश्‍वर की भक्‍ति करता है, तो तुझे किस बात का डर?

क्या तुझे अपने निर्दोष+ होने पर भरोसा नहीं?

 7 ज़रा सोच, क्या कभी कोई बेकसूर तबाह हुआ है?

कभी कोई सीधा-सच्चा इंसान बरबाद हुआ है?

 8 मैंने तो देखा है कि जो बुराई जोतते हैं*

और मुसीबत बोते हैं, वे ही उसे काटते हैं।

 9 परमेश्‍वर एक फूँक मारता है और वे मिट जाते हैं,

उसके क्रोध के भड़कने पर वे भस्म हो जाते हैं।

10 शेर चाहे जितना दहाड़े, जवान शेर चाहे जितना गरजे,

मगर ताकतवर शेरों के भी दाँत टूट जाते हैं।

11 शिकार न मिलने पर वे भूखे मर जाते हैं

और उनके बच्चे तितर-बितर हो जाते हैं।

12 अब सुन! मुझे अकेले में एक बात बतायी गयी,

उसकी फुसफुसाहट मेरे कानों में पड़ी।

13 रात के उस पहर जब लोग गहरी नींद में होते हैं,

मुझे एक ऐसा दर्शन मिला कि मेरी नींद उड़ गयी।

14 मुझ पर इस कदर डर छा गया

कि मेरी हड्डियाँ काँपने लगीं।

15 एक साया* मेरे सामने से होकर गुज़रा,

मेरे रोंगटे खड़े हो गए।

16 वह एक जगह जाकर ठहर गया,

मैं उसे पहचान न सका।

मेरी आँखों के सामने एक परछाईं थी।

चारों तरफ सन्‍नाटा था, तभी मुझे एक आवाज़ सुनायी दी,

17 ‘क्या नश्‍वर इंसान परमेश्‍वर से बढ़कर नेक हो सकता है?

क्या कोई आदमी अपने बनानेवाले से भी पवित्र हो सकता है?’

18 देख, परमेश्‍वर को अपने सेवकों पर भरोसा नहीं,

वह तो अपने स्वर्गदूतों* में भी गलतियाँ निकालता है,

19 तो फिर माटी के घरौंदे में रहनेवाले की क्या बिसात,

जिसकी नींव धरती की धूल से डाली गयी है,+

जिसे आसानी से मसला जा सकता है मानो कोई पतंगा* हो।

20 सुबह से शाम तक, एक ही दिन में वह खत्म हो जाता है,

हमेशा के लिए मिट जाता है और किसी को पता भी नहीं चलता।

21 वह उस तंबू की तरह है जिसकी रस्सियाँ खोल दी गयी हों,

वह बिन बुद्धि के ही मर जाता है।

5 ज़रा आवाज़ लगाकर देख! क्या कोई है जो तुझे जवाब दे?

मदद के लिए तू किस स्वर्गदूत* को पुकारेगा?

 2 मन की कुढ़न, मूर्ख की जान ले लेती है,

ईर्ष्या, नासमझ इंसान को मार डालती है।

 3 मैंने देखा है, मूर्ख फलता-फूलता है,

लेकिन अचानक उसके घर पर शाप आ पड़ता है।

 4 उसके बेटों को कोई सुरक्षा नहीं मिलती,

शहर के फाटक पर+ उन्हें न्यायी कुचलते हैं,

उनका बचानेवाला कोई नहीं।

 5 भूखे लोग उस मूर्ख की फसल खा जाते हैं,

कँटीली झाड़ियों के बीच से भी उसकी फसल निकाल लेते हैं,

वे उसका और उसके बच्चों का सबकुछ हड़प लेते हैं।

 6 अब ऐसा तो नहीं कि मुसीबतें मिट्टी से पैदा हुई हों!

और दुख के अंकुर ज़मीन से फूटे हों!

 7 आग है तो चिंगारी उठेगी ही,

इंसान पैदा हुआ है तो उसकी ज़िंदगी में दुख आएँगे ही।

 8 मैं तेरी जगह होता तो परमेश्‍वर से फरियाद करता,

अपना मामला उसके आगे पेश करता।

 9 उसके काम इतने महान हैं कि हमारी समझ से परे हैं,

उसके लाजवाब कामों की कोई गिनती नहीं।

10 धरती पर वह पानी बरसाता है,

खेतों को सींचता है।

11 वह दीन-दुखियों को ऊपर उठाता है,

उदास मनवालों की हिफाज़त* करता है।

12 वह धूर्त की चालें नाकाम कर देता है,

जिससे उनके हाथ के काम सफल नहीं होते।

13 वह बुद्धिमानों को उन्हीं की चालाकी में फँसा देता है,+

टेढ़े लोगों की साज़िश धरी-की-धरी रह जाती है।

14 दिन के उजाले में अंधकार उन्हें आ घेरता है,

भरी दोपहरी में वे ऐसे टटोलते हैं मानो रात हो।

15 वह उनकी जीभ की धार से लोगों को बचाता है,

वह गरीबों को ताकतवरों के चंगुल से छुड़ाता है।

16 इसलिए दीन-दुखियों के लिए उम्मीद है,

मगर बुराई करनेवालों के मुँह बंद कर दिए जाएँगे।

17 सुखी है वह जिसे परमेश्‍वर डाँट लगाता है!

इसलिए सर्वशक्‍तिमान तुझे सुधारने के लिए जो सीख दे, उसे मत ठुकरा।

18 क्योंकि जब वह चोट देता है तो पट्टी भी बाँधता है,

जब वह मारता है तो अपने हाथों से चंगा भी करता है।

19 वह एक-के-बाद-एक छ: विपत्तियों से तुझे बचाएगा,

सातवीं तो तुझे छू भी नहीं पाएगी।

20 अकाल के वक्‍त वह तुझे भूखों मरने नहीं देगा,

मैदाने-जंग में तुझे तलवार की भेंट चढ़ने नहीं देगा।

21 जब शब्दों के कोड़े बरसेंगे,+ तो तेरी हिफाज़त की जाएगी,

तबाही आने पर तू न घबराएगा।

22 विनाश और अकाल पर तू हँसेगा,

जंगली जानवरों से न डरेगा।

23 मैदान के पत्थर तुझे ठोकर नहीं खिलाएँगे,*

मैदान के जंगली जानवर भी तेरे साथ शांति से रहेंगे।

24 तुझे यकीन होगा कि तेरा तंबू महफूज़ है,

अपने चरागाह को देखने पर तुझे कोई कमी नज़र नहीं आएगी।

25 तेरा घर बच्चों से आबाद रहेगा,

तेरी आनेवाली पीढ़ियाँ मैदान की घास की तरह फूले-फलेंगी।

26 जैसे पकी बालें खलिहान में लायी जाने तक लहलहाती हैं,

वैसे ही कब्र में जाने तक तुझमें दमखम होगा।

27 हमने ये बातें परखी हैं और इन्हें सच पाया है,

इसलिए इन्हें सुन और मान।”

6 तब अय्यूब ने कहा,

 2 “काश! मेरी पीड़ा+ को तौला जाता,

मुसीबतों के साथ उसे तराज़ू में रखा जाता,

 3 तब वह समुंदर की रेत से भी भारी होती।

इसलिए मेरे मुँह से बेसिर-पैर की बातें निकली हैं।+

 4 सर्वशक्‍तिमान ने ज़हरीले तीरों से मुझे छलनी कर दिया है,

उनका ज़हर मेरी रग-रग में फैल रहा है।

परमेश्‍वर का कहर मोरचा बाँधे मेरे सामने खड़ा है।

 5 अगर जंगली गधे+ को घास मिले, तो वह रेंकेगा क्यों?

बैल के आगे चारा हो, तो वह रँभाएगा क्यों?

 6 क्या बेस्वाद खाना, बिना नमक के गले से नीचे उतरता है?

भला गुलखेर पौधे के रस में कोई स्वाद होता है?

 7 ऐसी चीज़ों को मैं हाथ तक नहीं लगाना चाहता,

ये* मेरे लिए सड़े हुए खाने जैसी हैं!

 8 काश! मेरी दुआ सुन ली जाए,

परमेश्‍वर मेरी आरज़ू पूरी कर दे,

 9 मुझे मसल दे, अपना हाथ बढ़ाकर मुझे खत्म कर दे।+

10 मुझे इसका कोई गम नहीं होगा,

दर्दनाक हाल में भी हँसकर मौत को गले लगा लूँगा।

क्योंकि मैंने पवित्र परमेश्‍वर+ की बातों को कभी अनसुना नहीं किया।

11 मुझमें अब और इंतज़ार करने की हिम्मत नहीं।+

जीने के लिए जब कुछ रहा ही नहीं, तो जीकर क्या करूँ?

12 मैं चट्टान जैसा मज़बूत नहीं,

न मेरा शरीर ताँबे का बना है!

13 देखो क्या हाल हो गया है मेरा,

मैं खुद की मदद नहीं कर सकता,

मेरा हर सहारा छिन गया है।

14 जो अपने साथी का वफादार न रहे,*+

उसमें सर्वशक्‍तिमान का डर कहाँ!+

15 मेरे भाई सर्दियों में बहनेवाली नदी की तरह दगाबाज़ हैं,+

जो ज़रूरत की घड़ी में सूख जाती है।

16 पिघलती बर्फ से वह मटमैली हो जाती है,

छिपी हिम के गलने से उमड़ पड़ती है,

17 मगर तपती गरमी में वह सूख जाती है, खत्म हो जाती है,

चिलचिलाती धूप में वह अपना दम तोड़ देती है।

18 वह बहते-बहते रेगिस्तान में आती है

और गायब हो जाती है।

19 तेमा+ से आनेवाले कारवाँ उसकी राह तकते हैं,

शीबा+ से आए मुसाफिर* उसके इंतज़ार में रहते हैं।

20 उस पर भरोसा करके वे शर्मिंदा होते हैं,

उनके हाथ सिर्फ निराशा लगती है।

21 उसी तरह तुम भी मेरी मुसीबतें देखकर डर गए,

तुमने मुझसे किनारा कर लिया।+

22 क्या मैंने तुमसे कुछ माँगा?

क्या मैंने कहा, अपनी दौलत से मेरी मदद करो?

23 क्या मैंने कहा, मुझे दुश्‍मनों के हाथ से बचा लो?

ज़ालिमों के चंगुल से छुड़ा लो?

24 बताओ मैंने क्या किया है? मैं चुपचाप तुम्हारी सुनूँगा।+

मुझे समझाओ कि मुझसे कहाँ भूल हुई!

25 खरी बात कभी नहीं अखरती!+

मगर तुम क्या सोचकर मुझे डाँट रहे हो?+

26 क्या तुम मेरी बातों में नुक्स निकालना चाहते हो?

दुखी इंसान बहुत कुछ कह जाता है,+ मगर हवा उन बातों को उड़ा ले जाती है।

27 तुम्हारा बस चले तो तुम एक अनाथ पर भी चिट्ठी डाल दो,+

अपने दोस्त का सौदा करने से भी पीछे न हटो!+

28 अब ज़रा मुड़कर मेरी तरफ देखो,

क्योंकि मैं तुमसे झूठ नहीं बोलूँगा।

29 मैं बिनती करता हूँ, एक बार फिर सोचो,

मुझ पर दोष मत लगाओ,

मैं परमेश्‍वर की नज़र में अब भी नेक हूँ।

30 क्या मैं कुछ गलत कह रहा हूँ?

क्या मुझे नहीं पता मुझ पर क्या बीत रही है?

7 क्या नश्‍वर इंसान की ज़िंदगी किसी गुलामी से कम है?

क्या उसके दिन, दिहाड़ी के मज़दूरों जैसे नहीं?+

 2 गुलाम की तरह वह छाँव के लिए तरसता है,

मज़दूरों की तरह अपनी मज़दूरी पाने का इंतज़ार करता है।+

 3 तभी मेरे हिस्से में क्लेश से भरे महीने जोड़ दिए गए हैं

और मेरे लिए दुख-भरी रातें ठहरायी गयी हैं।+

 4 जब मैं लेटता हूँ तो सोचता हूँ, ‘न जाने सुबह कब होगी!’+

पर रात है कि कटती नहीं, भोर तक मैं करवटें बदलता रहता हूँ।

 5 मेरे पूरे शरीर में कीड़े पड़ चुके हैं,

जगह-जगह मिट्टी के लोंदे बन गए हैं,+

फोड़ों की पपड़ी फट गयी है और मवाद बहे जा रहा है।+

 6 मेरे दिन जुलाहे के करघे से भी तेज़ दौड़ रहे हैं,+

वे बिन आशा के यूँ ही खत्म हो जाएँगे।+

 7 हे परमेश्‍वर ध्यान दे, मेरी ज़िंदगी पल-भर की है,*+

मेरी आँखें खुशियों* के लिए तरस जाएँगी।

 8 जो आँखें मुझे देखती हैं, वे फिर मुझे न देखेंगी।

तेरी नज़रें मुझे ढूँढ़ेंगी, मगर मैं न मिलूँगा।+

 9 जैसे बादल छँटकर गायब हो जाता है,

कब्र में जानेवाला भी वापस नहीं आता।+

10 वह फिर कभी अपने घर नहीं लौटता,

उसका अपना घर उसे बेगाना समझता है।+

11 इसलिए मैं चुप नहीं रहूँगा,

मेरे अंदर जितना दर्द छिपा है, उसे उँडेल दूँगा,

अपनी कड़वाहट उगल दूँगा।+

12 क्या मैं सागर हूँ? या कोई बड़ा समुद्री जीव हूँ,

जो तूने मुझ पर पहरा बिठाया है?

13 जब मैं सोचता हूँ, ‘मेरा बिस्तर मुझे आराम पहुँचाएगा,

मेरा पलंग मेरे गम को हलका करेगा,’

14 तब तू मुझे सपने दिखाकर घबरा देता है,

दर्शन दिखाकर मेरे होश उड़ा देता है।

15 काश! मेरा दम घुट जाए,

जीने से अच्छा है कि मुझे मौत आ जाए।+

16 नफरत हो गयी है ज़िंदगी से,+ मैं और जीना नहीं चाहता।

मुझे अकेला छोड़ दो, मेरी ज़िंदगी पल-भर की है।*+

17 नश्‍वर इंसान कौन है जो तू उसकी परवाह करे?

उसकी क्या औकात कि तू उस पर ध्यान दे?*+

18 तू क्यों हर सुबह उस पर नज़र रखता है?

और कदम-कदम पर उसे परखता है?+

19 तू कब तक मुझ पर टकटकी लगाए रहेगा?

क्या इतनी भी मोहलत न देगा कि मैं थूक निगल सकूँ?+

20 इंसान पर नज़र रखनेवाले!+ अगर मैंने पाप किया है, तो इससे तेरा क्या नुकसान हुआ है?

तूने क्यों मुझे अपना निशाना बनाया है?

क्या मैं तुझ पर बोझ बन गया हूँ?

21 मेरे अपराधों को माफ क्यों नहीं कर देता?

मेरे गुनाहों को भुला क्यों नहीं देता?

जल्द ही मैं मिट्टी में मिल जाऊँगा,+

तब ढूँढ़ने पर भी तुझे न मिलूँगा।”

8 तब शूही बिलदद+ ने बोलना शुरू किया,

 2 “तू कब तक ऐसी बातें करता रहेगा?+

तेरी बातें एकदम खोखली हैं।*

 3 क्या परमेश्‍वर न्याय का खून करेगा?

क्या सर्वशक्‍तिमान, जो सही है वह न करेगा?

 4 हो सकता है तेरे बेटों ने उसके खिलाफ पाप किया हो,

तभी तो उसने उन्हें अपने किए की सज़ा भुगतने दी।

 5 लेकिन अगर तू परमेश्‍वर को ढूँढ़े,+

सर्वशक्‍तिमान से दया की भीख माँगे,

 6 अगर तेरा मन साफ है, तू सीधा-सच्चा है,+

तो वह तुझ पर ध्यान देगा,*

तेरी जगह तुझे वापस लौटा देगा।

 7 भले ही आज तेरा यह हाल है,

मगर तेरा आनेवाला कल सुनहरा होगा।+

 8 ज़रा पुरानी पीढ़ी के लोगों से पूछ,

उनके पुरखों ने जो बातें मालूम कीं, उन पर ध्यान दे।+

 9 कल के पैदा हुए हम क्या जानते हैं,

हमारी ज़िंदगी भी छाया की तरह गुज़र जाएगी।

10 क्या वे लोग तुझे नहीं सिखाएँगे,

जो बातें वे जानते हैं क्या तुझे नहीं बताएँगे?*

11 क्या बिना दलदल के सरकंडा बढ़ सकता है?

क्या बगैर पानी के नरकट बढ़ सकता है?

12 चाहे उसमें फूल आ रहे हों, चाहे उसे उखाड़ा न गया हो,

लेकिन वह बाकी पौधों से पहले मुरझा जाएगा।

13 परमेश्‍वर को भूलनेवाले का भी यही हाल होता है,

भक्‍तिहीन की आशा मिट जाती है।

14 जिन चीज़ों पर उसे भरोसा है वे खोखली निकलती हैं,

मकड़ी के कच्चे जाल की तरह,

15 जितना सहारा लेने की कोशिश करो, वह टूटता जाता है,

उसे थामे रहने पर वह तार-तार हो जाता है।

16 वह इंसान उस हरे-भरे पौधे के समान है जिसे अच्छी धूप मिलती है,

जिसकी शाखाएँ बगीचे में फैलती जाती हैं,+

17 जो पत्थरों के बीच अपनी जड़ें फैलाता है

और वहीं अपने लिए घर ढूँढ़ता है।*

18 लेकिन जब उसे अपनी जगह से उखाड़ दिया जाता है,

तो सींचनेवाली मिट्टी भी उसे पहचानने से इनकार कर देती है।+

19 इस तरह वह खत्म हो जाता है*+

और उसकी जगह दूसरे पौधे उगने लगते हैं।

20 देख, परमेश्‍वर उन्हें नहीं ठुकराता, जो निर्दोष बने रहते हैं

और न ही वह बुरे लोगों का हाथ थामता है।

21 इसलिए वह तेरे चेहरे पर फिर से हँसी ले आएगा

और तेरे होंठों पर जयजयकार।

22 तुझसे नफरत करनेवाले शर्मिंदा किए जाएँगे

और दुष्टों का डेरा खाक में मिला दिया जाएगा।”

9 अय्यूब ने जवाब दिया,

 2 “मैं अच्छी तरह जानता हूँ, परमेश्‍वर अन्यायी नहीं,

तो भला अदना इंसान उसके सामने कैसे सही ठहर सकता है?+

 3 अगर कोई परमेश्‍वर से बहस करना चाहे,*+

तो उसके हज़ार सवालों में से एक का भी जवाब नहीं दे पाएगा।

 4 परमेश्‍वर बुद्धिमान* और बहुत शक्‍तिशाली है।+

ऐसा कौन है जो उसके खिलाफ जाकर सही-सलामत बच जाए?+

 5 वह पहाड़ों को सरकाता* है और किसी को पता भी नहीं चलता,

अपने क्रोध में उन्हें उलट-पुलट देता है।

 6 वह पृथ्वी को उसकी जगह से हिला देता है,

उसके खंभे थर-थर काँप उठते हैं।+

 7 वह सूरज को हुक्म देता है और वह बुझ जाता है,

तारों को बंद कर देता है कि वे न चमकें।+

 8 अपने हाथों से आसमान की चादर फैलाता है,+

समुंदर की ऊँची-ऊँची लहरों+ पर डग भरता है।

 9 उसने अश,* केसिल* और किमा नाम तारामंडल* बनाए,+

दक्षिणी तारामंडल भी उसी की कारीगरी है।

10 वह ऐसे महान काम करता है, जो हमारी समझ से परे हैं,+

उसके लाजवाब कामों की कोई गिनती नहीं।+

11 वह मेरे पास से गुज़र जाता है और मैं उसे देख नहीं पाता,

मेरे सामने से निकल जाता है और मैं उसे पहचान नहीं पाता।

12 अगर वह कुछ लेना चाहे, तो कौन उसे रोक सकता है?

कौन उससे कह सकता है, ‘यह तू क्या कर रहा है?’+

13 परमेश्‍वर अपने क्रोध को नहीं रोकेगा,+

राहाब*+ के मददगारों को भी उसके सामने झुकना पड़ेगा।

14 अगर ऐसा है तो जब मुझे उसे जवाब देना होगा,

दलीलें पेश करनी होंगी, तो सोच-समझकर बोलना होगा।

15 चाहे मैं सही भी क्यों न हूँ, तब भी उसे पलटकर जवाब न दूँगा।+

मैं अपने न्यायी* के आगे सिर्फ दया की भीख माँग सकता हूँ।

16 लेकिन अगर मैं उसे पुकारूँ तो क्या वह मुझे जवाब देगा?

मुझे नहीं लगता वह मेरी सुनेगा भी।

17 वह तो मुसीबतों का तूफान लाकर मुझे तोड़ डालता है,

बिना कुछ कहे-सुने ज़ख्म-पर-ज़ख्म देता है।+

18 वह मुझे साँस भी नहीं लेने देता,

पल-पल मुझ पर तकलीफें लाता है।

19 अगर सवाल ताकत का है, तो उसके जैसा शक्‍तिशाली कोई नहीं,+

अगर सवाल न्याय का है, तो वह खुद कहता है, ‘कौन मुझसे जवाब-तलब कर* सकता है?’

20 चाहे मैं सही भी हूँ, तब भी मेरी बातें मुझे गुनहगार ठहराएँगी,

चाहे मैं निर्दोष बना रहूँ, तो भी वह मुझे दोषी* ठहराएगा।

21 अब तो मुझे भी शक होने लगा है कि मैं निर्दोष हूँ या नहीं,

लानत है ऐसी ज़िंदगी पर!

22 बात तो एक ही है। इसलिए मैं कहता हूँ,

‘वह दुष्ट और निर्दोष दोनों का नाश कर देता है।’

23 जब कोई सैलाब अचानक कई ज़िंदगियाँ बहा ले जाता है,

तब वह मासूमों की बेबसी पर हँसता है।

24 धरती दुष्ट के हाथ में कर दी गयी है,+

उसने इंसाफ करनेवालों की आँखों पर पट्टी बाँध दी है।

अगर यह उसने नहीं किया, तो फिर किसने किया?

25 मेरे दिन खबर पहुँचानेवाले से भी तेज़ भाग रहे हैं,+

ऐसा एक भी दिन नहीं जब मैंने खुशी देखी हो।

26 वे ऐसे उड़ जाते हैं मानो नरकट की नाव हवा से बातें कर रही हो,

हाँ, उसी फुर्ती से, जिस फुर्ती से उकाब अपने शिकार पर झपटता है।

27 अगर मैं कहूँ, ‘मैं अपना गम भुला दूँगा,

चेहरे की उदासी मिटाकर खुश रहूँगा,’

28 तो भी अपने दुखों की वजह से मुझे डर सताएगा+

और मैं जानता हूँ तब भी तू मुझे बेकसूर न मानेगा।

29 जब मुझे दोषी* ही ठहराया जाना है,

तो खुद को निर्दोष साबित करने की कोशिश क्यों करूँ?+

30 अगर मैं पिघलती बर्फ के साफ पानी से नहा लूँ,

सज्जी* से अपने हाथ धो लूँ,+

31 तब भी तू मुझे कीचड़ से भरे गड्‌ढे में डाल देगा

और मेरे कपड़े तक मुझसे घिन करेंगे।

32 परमेश्‍वर कोई इंसान नहीं, जिससे मैं बहसबाज़ी करूँ

और जिसे कचहरी में घसीटकर ले जाऊँ।+

33 ऐसा कोई नहीं* जो हमारा मामला सुलझा सके,

न्यायी बनकर हमें फैसला सुना सके।*

34 काश! परमेश्‍वर मुझे अपनी छड़ी से मारना बंद कर दे,

मुझे डराना छोड़ दे,+

35 तब मैं बिना डरे उससे बात कर सकूँगा,

वरना यूँ डरते-काँपते मेरे मुँह से कुछ नहीं निकलेगा।

10 नफरत है मुझे अपनी ज़िंदगी से!+

अब मैं चुप नहीं रहूँगा, मन का गुबार निकाल दूँगा,

अपनी सारी कड़वाहट उगल दूँगा।

 2 परमेश्‍वर से कहूँगा, ‘मुझे दोषी मत ठहरा।

बता, क्यों मुझसे लड़ रहा है?

 3 मुझे सताकर, अपने हाथ की रचना को दुतकारकर तुझे क्या मिलेगा?+

दुष्ट की चालों से खुश होकर तुझे क्या मिलेगा?

 4 क्या तेरी आँखें इंसानों जैसी हैं?

क्या तू हम नश्‍वर इंसानों की तरह देखता है?

 5 क्या तेरी ज़िंदगी नश्‍वर इंसानों जितनी है,

जिसे दिनों और सालों में गिना जा सके?+

 6 तू क्यों मेरे अंदर गलतियाँ ढूँढ़ रहा है?

क्यों मुझमें पाप खोज रहा है?+

 7 तू जानता है मैं दोषी नहीं+

और कोई मुझे तेरे हाथ से नहीं बचा सकता।+

 8 तूने अपने हाथों से मुझे ढाला और बनाया है,+

अब तू ही मुझे खत्म कर देना चाहता है?

 9 हे परमेश्‍वर याद कर, तूने मुझे मिट्टी से रचा है,+

अब तू ही मुझे मिट्टी में मिला देना चाहता है?+

10 क्या तूने मुझे मेरी माँ के गर्भ में नहीं डाला

और मुझे आकार नहीं दिया?*

11 तूने मुझे माँस और खाल का ओढ़ना पहनाया

और हड्डियों और नसों से मुझे जोड़ा।+

12 यह जीवन तेरी ही देन है! तेरा प्यार मेरे लिए अटल रहा,

तूने मेरा ध्यान रखा,+ मेरी जान* सलामत रखी।

13 लेकिन मन-ही-मन तूने मुझ पर मुसीबतें लाने की सोची,*

मैं जानता हूँ यह सब तूने किया है।

14 जब मैं पाप करता हूँ, तो तू सब देखता है+

और मेरे गुनाह माफ नहीं करता।

15 अगर मैं दोषी हूँ, तो धिक्कार है मुझ पर!

लेकिन अगर मैं निर्दोष हूँ, तो भी सिर उठाकर नहीं चल पाऊँगा,+

इतना अपमान और तकलीफें जो सही हैं मैंने!+

16 अगर मैं घमंड करूँ, तो तू शेर की तरह मुझ पर टूट पड़ेगा,+

एक बार फिर दिखा देगा कि तू कितना ताकतवर है।

17 तू मेरे खिलाफ नए-नए गवाह खड़े करता है,

तेरा क्रोध मुझ पर बढ़ता जा रहा है,

तू मुझे दुख-पर-दुख दे रहा है।

18 क्यों तूने मुझे माँ की कोख से पैदा होने दिया?+

अच्छा होता मैं वहीं मर जाता और मुझे कोई न देख पाता।

19 तब मेरा होना, न होने के समान होता!

माँ के गर्भ से मैं सीधे कब्र में जाता।’

20 क्या मेरे दिन गिनती के नहीं रह गए?+

काश! परमेश्‍वर मुझे अकेला छोड़ दे,

अपनी नज़रें मुझसे फेर ले कि मुझे थोड़ी राहत* मिले।+

21 क्योंकि बहुत जल्द मैं जानेवाला हूँ,

घोर अंधकार* के उस देश में,+ जहाँ से मैं वापस नहीं आऊँगा,+

22 सूनी काली रातों का वह देश

जहाँ हाथ-को-हाथ नहीं सूझता, जहाँ कोई व्यवस्था नहीं,

जहाँ दिन का उजाला भी घने अँधेरे जैसा है।”

11 तब नामाती सोपर+ ने कहा,

 2 “तू क्या सोचता है, तू बकबक करेगा और कोई कुछ न कहेगा?

तेरे बहुत बोलने* से तू सही साबित हो जाएगा?

 3 क्या तेरी बेकार की बातें लोगों का मुँह बंद कर सकती हैं?

दूसरों का मज़ाक उड़ाकर+ क्या तू अपमान से बच सकता है?

 4 तू कहता है, ‘मैं जो सिखाता हूँ वह सही है,+

मैं परमेश्‍वर की नज़र में बेदाग हूँ।’+

 5 काश! परमेश्‍वर अपना मुँह खोले

और बोलना शुरू करे,+

 6 तो वह तेरे सामने बुद्धि के गहरे रहस्य खोलेगा,

क्योंकि जब बुद्धि से काम लिया जाता है, तो उसके कई फायदे होते हैं।

और तब तुझे पता चलेगा कि तेरे कई पाप उसने भुला दिए हैं!

 7 क्या तू परमेश्‍वर की गहरी बातों का पता लगा सकता है?

क्या तू सर्वशक्‍तिमान के बारे में सबकुछ जान सकता है?

 8 बुद्धि आसमान से भी ऊँची है, क्या तू वहाँ पहुँच सकता है?

वह कब्र से भी गहरी है, क्या तू वहाँ उतर सकता है?

 9 वह तो धरती से भी विशाल है

और समुंदर से भी चौड़ी है।

10 अगर परमेश्‍वर किसी राह चलते को पकड़कर अदालत ले आए,

तो भला कौन उसे रोक सकता है?

11 क्योंकि वह मक्कार आदमी को देखते ही पहचान लेता है,

वह उसके बुरे कामों को अनदेखा नहीं करता।

12 एक जंगली गधा कभी इंसान को जन्म नहीं दे सकता,*

उसी तरह मूर्ख कभी समझदार नहीं बन सकता।

13 अगर तू अपने दिल को शुद्ध* करे,

परमेश्‍वर के आगे हाथ फैलाकर गिड़गिड़ाए,

14 अगर तू गलत काम करना छोड़ दे

और तेरे डेरे में बुरे काम न हों,

15 तो तू निर्दोष ठहरेगा और उसको अपना मुँह दिखा सकेगा,

तू उसके सामने थरथराएगा नहीं, सीधा खड़ा रहेगा।

16 तू अपनी दुख-तकलीफें भूल जाएगा,

वे तेरे ज़हन से ऐसे उतर जाएँगी, जैसे पानी बह जाता है।

17 तेरी ज़िंदगी के दिन, भरी दोपहरी से ज़्यादा रौशन होंगे

और रातें, सुबह की तरह जगमगाएँगी।

18 तेरे पास आशा होगी और तू किसी बात से न डरेगा,

जो कुछ तेरा है, तू उस पर नज़र दौड़ाएगा और आराम फरमाएगा।

19 तू इत्मीनान से लेटेगा, कोई तुझे नहीं डराएगा।

तेरी मेहरबानी पाने के लिए लोगों का ताँता लग जाएगा।

20 मगर दुष्ट की आँखें धुँधली हो जाएँगी,

उसे बचने का कोई रास्ता नहीं दिखेगा।

मरने के सिवा उसके पास कोई आशा नहीं होगी।”+

12 तब अय्यूब ने जवाब दिया,

 2 “हाँ-हाँ, सारी बुद्धि तुम लोगों को ही मिली है!

तुम मर गए तो इस दुनिया से बुद्धि ही मिट जाएगी!

 3 लेकिन मुझमें भी समझ है,

मैं किसी भी तरह तुमसे कम नहीं।

जो बातें तुमने कहीं, वह कौन नहीं जानता?

 4 मैं अपने साथियों के बीच मज़ाक बनकर रह गया हूँ,+

मैं परमेश्‍वर से दुआ करता हूँ, चाहता हूँ कि वह मेरी सुने।+

यह ज़माना मुझ जैसे नेक और निर्दोष इंसान की खिल्ली उड़ाता है।

 5 बेफिक्र इंसान सोचता है बरबादी उसे छू भी नहीं सकती,

यह सिर्फ उन पर आती है जिनके कदम लड़खड़ा* जाते हैं।

 6 लुटेरे अपने डेरों में चैन से रहते हैं,+

जो परमेश्‍वर का क्रोध भड़काते हैं वे उतने ही महफूज़ हैं+

जितने वे लोग, जो अपने देवता की मूरतें लिए फिरते हैं।

 7 लेकिन ज़रा जानवरों से पूछो, वे तुमसे कहेंगे,

आसमान के पंछियों से पूछो, वे तुम्हें बताएँगे,

 8 धरती को ध्यान से देखो,* वह तुम्हें समझाएगी,

समुंदर की मछलियाँ भी तुम्हें सिखाएँगी।

 9 इनमें से ऐसा कौन है जो यह न जानता हो

कि यहोवा ने ही उसे अपने हाथों से रचा है?

10 हर किसी* की जान,

हर इंसान के जीवन की साँस उसी के हाथ में है।+

11 जैसे जीभ से खाना चखा जाता है,

वैसे ही क्या कानों से बातों को नहीं परखा जाता?+

12 क्या बुद्धि, बड़े-बूढ़ों में नहीं पायी जाती?+

क्या समझ उनमें नहीं होती जिन्होंने लंबी उम्र देखी है?

13 परमेश्‍वर के पास बुद्धि और ताकत है,+

उसमें समझ है+ और वह अपना मकसद ठहराता है।

14 वह जिसे ढा दे, उसे खड़ा नहीं किया जा सकता,+

वह जिसे बंद कर दे, उसे कोई इंसान खोल नहीं सकता।

15 अगर वह पानी रोक दे, तो सूखा पड़ जाए+

और अगर उसे छोड़ दे, तो धरती ही डूब जाए।+

16 उसमें शक्‍ति है और वह ऐसी बुद्धि देता है जो फायदेमंद होती है,+

गुमराह करनेवाले और गुमराह होनेवाले, दोनों उसके हाथ में हैं।

17 वह सलाहकारों से उनका सबकुछ छीन लेता है*

और बड़े-बड़े न्यायियों को मूर्ख बना देता है।+

18 वह उन बंधनों को खोल देता है, जिन्हें राजाओं ने बाँधा है+

और उनकी कमर में कमरबंद कस देता है।

19 धर्म के अगुवों को नंगे पाँव चलाता है,+

जो सत्ता जमाए बैठे हैं, उन्हें गद्दी से उतार देता है।+

20 वह भरोसेमंद सलाहकारों को चुप करा देता है

और बुज़ुर्गों* से उनकी समझदारी छीन लेता है।

21 वह रुतबेदार लोगों का अपमान करवाता है,+

ताकतवरों को कमज़ोर बना देता है।*

22 वह गहरे राज़ पर से परदा उठाता है,+

घोर अंधकार को रौशनी में लाकर खड़ा कर देता है।

23 वह राष्ट्रों को शक्‍तिशाली बनने देता है, फिर उन्हें मिटा देता है,

वह उन्हें बढ़ने देता है, फिर उनके लोगों को बँधुआई में भेज देता है।

24 वह अगुवों से समझ रखनेवाला मन छीन लेता है,

उन्हें वीरानों में भटकाता है जहाँ कोई रास्ता नहीं।+

25 घुप अँधेरे में वे टटोलते फिरते हैं,+

वह उनका हाल लड़खड़ाते शराबियों जैसा बना देता है।+

13 यह सब मैंने अपनी आँखों से देखा है,

अपने कानों से सुना और समझा है।

 2 जितना तुम जानते हो, उतना मैं भी जानता हूँ,

मैं किसी तरह तुमसे कम नहीं।

 3 पर मैं अपनी बात तुमसे नहीं, सर्वशक्‍तिमान से कहूँगा,

उसके सामने अपनी सफाई पेश करूँगा।+

 4 तुम झूठ बोलकर मुझे बदनाम करते हो,

तुम सब-के-सब निकम्मे वैद्य हो।+

 5 समझदारी इसी में है कि तुम चुप रहो,

अपने मुँह से एक शब्द भी न निकालो।+

 6 अब ज़रा मेरी दलीलें सुनो,

मैं जो कहूँगा, उस पर ध्यान दो।

 7 परमेश्‍वर की तरफ से क्या तुम टेढ़ी बातें कहोगे?

छल-कपट का सहारा लोगे?

 8 सच्चे परमेश्‍वर का पक्ष लेकर मेरे खिलाफ लड़ोगे?

उसकी वकालत करोगे?

 9 अगर उसने तुम्हें जाँच लिया तब क्या होगा?+

क्या तुम उसे झाँसा दे सकोगे, मानो वह कोई नश्‍वर इंसान हो?

10 अगर तुम ढोंग करने की कोशिश करो,

तो वह ज़रूर तुम्हें डाँटेगा।+

11 क्या उसका गौरव देखकर तुम आतंक से न भर जाओगे?

क्या उसका खौफ तुम पर नहीं छा जाएगा?

12 तुम लोगों के नीतिवचन* राख जैसे भुरभुरे हैं,

तुम्हारी दलीलें* मिट्टी की ढाल जैसी कमज़ोर हैं।

13 खामोश रहो और मुझे बोलने दो,

फिर मेरे साथ जो होगा, देखा जाएगा।

14 मैं अपनी जान हथेली पर रखकर घूमूँगा,

खुद को खतरे में डालूँगा,*

15 चाहे परमेश्‍वर मुझे मार डाले, तो भी मैं इंतज़ार करूँगा+

कि अपनी सफाई में उसे दलीलें दे सकूँ।

16 वह मुझे निर्दोष पाकर मेरा उद्धार करेगा,+

वरना भक्‍तिहीन को वह अपने सामने भी नहीं आने देता।+

17 मेरी बात पर कान लगाओ,

मेरा बयान ध्यान से सुनो।

18 अब मैं अपना मुकदमा लड़ने के लिए तैयार हूँ,

मैं जानता हूँ मैं बेगुनाह हूँ।

19 कौन मुझसे बहसबाज़ी करेगा?

अगर मैं चुप रहा तो मैं मर जाऊँगा।*

20 हे परमेश्‍वर, बस दो एहसान कर दे मुझ पर,*

ताकि मुझे तुझसे छिपना न पड़े।

21 तू अपने हाथ से मुझे मारना बंद कर दे

और अपने खौफ से मुझे न डरा।+

22 या तो तू बोल और मैं जवाब दूँगा,

या फिर मुझे बोलने दे और तू जवाब दे।

23 मुझसे क्या गलती हुई है, क्या पाप किया है मैंने?

मेरा अपराध तो बता, ऐसा क्या हुआ है मुझसे?

24 क्यों मुझसे इस तरह मुँह फेरे हुए है?+

क्यों मुझे अपना दुश्‍मन समझ रहा है?+

25 हवा में उड़ते पत्ते को तू क्या डराएगा?

तिनके के पीछे पड़कर तुझे क्या मिलेगा?

26 तूने मुझ पर लगे एक-एक इलज़ाम का हिसाब रखा है,

तू मेरी जवानी के पापों का लेखा अब मुझसे ले रहा है।

27 तूने मेरे पैर काठ में कस दिए हैं,

तू मेरी हर हरकत पर नज़र रखता है,

मेरे पैरों के निशान ढूँढ़-ढूँढ़कर मेरा पीछा करता है।

28 इसलिए इंसान* खत्म होता जा रहा है,

जैसे कोई चीज़ सड़ रही हो,

जैसे किसी कपड़े को कीड़ा* लग गया हो।

14 इंसान जो औरत से पैदा होता है,

उसकी ज़िंदगी बस चार दिन की होती है+ और वह भी दुखों से भरी।+

 2 वह फूल की तरह खिलकर मुरझा* जाता है,+

छाया के समान तुरंत गायब हो जाता है।+

 3 तब भी तू उस पर नज़रें गड़ाए रहता है,

उसे* अदालत में घसीटकर ले जाता है।+

 4 क्या अशुद्ध इंसान से शुद्ध इंसान पैदा हो सकता है?+

नहीं! बिलकुल नहीं।

 5 अगर तूने उसके दिन तय किए हैं,

तो तू उसके महीनों की गिनती जानता है।

तूने उसके लिए जो हद बाँधी है, उसे वह पार नहीं कर सकता।+

 6 उस पर से नज़र हटा ले कि वह आराम कर सके,

जब तक वह दिहाड़ी के मज़दूर की तरह अपना दिन पूरा न कर ले।+

 7 एक कटे हुए पेड़ के लिए भी उम्मीद रहती है

कि उस पर फिर से कोपलें फूटेंगी,

नरम-नरम डालियाँ आएँगी।

 8 चाहे उसकी जड़ें कितनी भी पुरानी क्यों न हों,

चाहे उसका ठूँठ ज़मीन में पड़े-पड़े सूख चुका हो,

 9 पर पानी की एक बूँद मिलते ही उसमें जान आ जाएगी,

एक नए पौधे की तरह उसमें टहनियाँ फूटने लगेंगी।

10 मगर जब एक इंसान मरता है, तो उसकी शक्‍ति खत्म हो जाती है।

जब वह दम तोड़ता है, तो उसका अस्तित्व मिट जाता है।*+

11 जैसे समुंदर से पानी गायब हो जाता है,

जैसे नदी खाली होकर सूख जाती है,

12 वैसे ही इंसान मौत की नींद सो जाता है और फिर नहीं उठता।+

जब तक आसमान बना रहेगा तब तक उसकी आँखें नहीं खुलेंगी,

न ही गहरी नींद से उसे जगाया जाएगा।+

13 काश! तू मुझे कब्र* में छिपा ले+

और तब तक छिपाए रखे जब तक तेरा गुस्सा शांत न हो जाए।

काश! तू मेरे लिए एक वक्‍त ठहराए और मुझे याद करे।+

14 अगर एक इंसान मर जाए, तो क्या वह फिर ज़िंदा हो सकता है?+

मैं अपनी जबरन सेवा के सारे दिन इंतज़ार करूँगा,

जब तक कि मुझे छुटकारा नहीं मिल जाता।+

15 तू मुझे पुकारेगा और मैं जवाब दूँगा,+

अपने हाथ की रचना को देखने के लिए तू तरसेगा।

16 पर अभी तू मेरे एक-एक कदम गिन रहा है,

तेरी नज़र सिर्फ मेरे पापों पर रहती है,

17 तूने मेरे अपराध थैली में मुहरबंद कर दिए हैं,

मेरे गुनाहों को उसमें डालकर गोंद लगा दिया है।

18 जिस तरह पहाड़ टूटकर चूर-चूर हो जाते हैं,

चट्टानें अपनी जगह से खिसक जाती हैं,

19 पानी की धार से पत्थर घिस जाता है,

उसका तेज़ बहाव मिट्टी को बहा ले जाता है,

उसी तरह, तू नश्‍वर इंसान की आशा मिटा डालता है।

20 तू उस पर तब तक हावी होता है जब तक वह मिट न जाए,+

तू उसका हुलिया बदलकर उसे दूर भेज देता है।

21 चाहे उसके बेटों को आदर दिया जाए या उन्हें पूछनेवाला कोई न हो,

पर उसे कुछ खबर नहीं होती।+

22 वह सिर्फ तब तक दर्द महसूस करता है जब तक वह ज़िंदा है,

उसे दुख का एहसास सिर्फ तब तक होता है जब तक उसमें जान है।”

15 जवाब में तेमानी एलीपज+ ने कहा,

 2 “एक बुद्धिमान इंसान क्या खोखली दलीलें देगा?

अपना मन गलत विचारों* से भरेगा?

 3 सिर्फ शब्दों से फटकार लगाने का कोई फायदा नहीं,

बड़ी-बड़ी बातें हाँकने से कुछ नहीं होता।

 4 तेरी वजह से परमेश्‍वर का डर खत्म हो गया है,

दूसरों ने परमेश्‍वर के बारे में सोचना छोड़ दिया है।

 5 तेरा गुनाह तुझे ऐसी बातें करना सिखाता है

और तू छल की बातें बोलता है।

 6 तेरी अपनी ज़बान तुझे दोषी ठहराती है, मैं नहीं!

तेरे अपने होंठ तेरे खिलाफ गवाही देते हैं।+

 7 क्या इंसानों में तू ही सबसे पहले पैदा हुआ था?

क्या तुझे पहाड़ों से भी पहले रचा गया था?

 8 क्या परमेश्‍वर तेरे सामने राज़ की बातें करता है?

क्या सारी बुद्धि तेरे ही पास है?

 9 तू ऐसा क्या जानता है जो हम नहीं जानते?+

तुझमें ऐसी कौन-सी समझ है जो हममें नहीं?

10 हमारे बीच पके बालवाले और बड़े-बुज़ुर्ग हैं,+

जो उम्र में तेरे पिता से भी बड़े हैं।

11 परमेश्‍वर जो दिलासा देता है, क्या वह तेरे लिए काफी नहीं?

और जिस नरमी से तुझसे बात की गयी, उसका क्या?

12 तेरे दिल ने तुझे इतना ढीठ क्यों बना दिया?

क्यों तेरी आँखें गुस्से से लाल हैं?

13 क्यों तू परमेश्‍वर को अपनी नाराज़गी दिखा रहा है?

और अपने मुँह से ऐसे शब्द निकाल रहा है?

14 अदना इंसान क्या है जो उसे शुद्ध समझा जाए?

औरत से पैदा हुआ इंसान क्या है जो उसे नेक माना जाए?+

15 देख! परमेश्‍वर को अपने स्वर्गदूतों* पर विश्‍वास नहीं,

यहाँ तक कि स्वर्ग भी उसकी नज़र में अपवित्र है!+

16 तो वह एक नीच और भ्रष्ट इंसान को पवित्र क्यों समझेगा,+

जो बुराई करने के लिए इस कदर तरसता है जैसे प्यासा पानी के लिए।

17 सुन, मैं तुझे बताता हूँ!

मैं समझाता हूँ कि मैंने क्या देखा है।

18 वे बातें बताता हूँ जो बुद्धिमानों ने अपने पुरखों से सुनी हैं,+

उन्होंने ये बातें छिपाकर नहीं रखीं।

19 उनके पुरखों को यह देश दिया गया था

और कोई परदेसी उनके यहाँ से होकर नहीं गया।

20 दुष्ट इंसान ज़िंदगी-भर दुखों से घिरा रहता है,

जितने साल वह ज़ालिम जीता है, उसे कहीं चैन नहीं मिलता।

21 डरावनी आवाज़ें उसके कानों में गूँजती हैं,+

अमन के वक्‍त भी लुटेरे उस पर हमला बोल देते हैं।

22 उसे नहीं लगता कि वह अंधकार से बच पाएगा,+

उसकी मौत तय है, वह तलवार से मारा जाएगा।

23 वह मारा-मारा फिरता है कि कहीं तो खाने को रोटी मिले,

उसे मालूम है कि अंधकार का दिन नज़दीक है।

24 दुख और चिंताएँ रह-रहकर डराती हैं उसको,

ऐसे टूट पड़ती हैं जैसे कोई राजा दल-बल के साथ टूट पड़ता है।

25 वह अपना हाथ परमेश्‍वर के खिलाफ उठाता है,

सर्वशक्‍तिमान से लड़ने की जुर्रत* करता है।

26 वह बड़ी ढिठाई से उसे ललकारता है,

मज़बूत* ढाल लिए उसकी तरफ बढ़ा चला आता है।

27 उसके चेहरे पर चरबी चढ़ गयी है

और उसकी तोंद मोटी हो गयी है।*

28 इसलिए वह जिन शहरों में बसा है, वे उजाड़े जाएँगे,

जिन घरों में वह रहता है वे वीरान हो जाएँगे,

उन्हें खंडहर बना दिया जाएगा।

29 वह न मालामाल होगा, न दौलत बटोर पाएगा,

न ही देश-भर में फूले-फलेगा।

30 वह अंधकार से नहीं बच पाएगा,

उसकी डालियाँ आग की लपट से झुलस जाएँगी,*

परमेश्‍वर की* ज़ोरदार फूँक से वह खत्म हो जाएगा।+

31 वह व्यर्थ चीज़ों पर भरोसा रखकर खुद को धोखे में न रखे,

क्योंकि उसे सिर्फ निराशा हाथ लगेगी।

32 यह सब समय से पहले उसके साथ होगा,

उसकी डालियाँ कभी हरी-भरी नहीं होंगी।+

33 वह अंगूर की उस बेल जैसा होगा, जिसके फल पकने से पहले गिर जाते हैं,

वह जैतून के उस पेड़ के समान होगा जिसके फूल झड़ जाते हैं।

34 भक्‍तिहीनों की मंडली फूले-फलेगी नहीं,+

घूस लेनेवालों के डेरे आग में भस्म हो जाएँगे।

35 वे बुरी बातें गढ़ते हैं और दूसरों का नुकसान करते हैं,

उनका मन धोखाधड़ी की बातें रचता रहता है।”

16 अय्यूब ने कहा,

 2 “इस तरह की बातें मैंने खूब सुनी हैं,

दिलासा देना तो दूर, तुम सब मेरी तकलीफ और बढ़ा रहे हो।+

 3 क्या तुम्हारी खोखली बातें कभी खत्म होंगी?

तुम मुझसे इस तरह बात क्यों कर रहे हो?

 4 अगर तुम मेरी जगह होते,

तो मैं भी इस तरह की बातें कर सकता था,

लंबे-लंबे भाषण झाड़ सकता था,

सिर हिला-हिलाकर तुम्हारी खिल्ली उड़ा सकता था।+

 5 मगर मैं ऐसा नहीं करता बल्कि अपने शब्दों से तुम्हें हिम्मत देता,

अपनी बातों से तुम्हारा दुख हलका करता।+

 6 मेरा दर्द न तो बोलने से दूर हो रहा है,+

न चुप रहने से कम हो रहा है।

 7 अब तो परमेश्‍वर ने मेरी हिम्मत तोड़ दी,+

मेरा घर-परिवार तबाह कर दिया।

 8 उसने मुझे भी इस कदर दबोचा कि मेरा शरीर कुम्हला गया

और मेरी हालत मेरे खिलाफ गवाही दे रही है।

 9 गुस्से में आकर उसने मुझे फाड़ डाला,

वह मुझसे दुश्‍मनी पाल रहा है,+

मुझे देखकर दाँत पीसता है,

मेरा दुश्‍मन मुझे आँखें दिखाता है।+

10 लोग मेरे खिलाफ अपना मुँह खोलते हैं,+

थप्पड़ मारकर मेरी बेइज़्ज़ती करते हैं,

भीड़ लगाकर मुझे घेर लेते हैं।+

11 परमेश्‍वर ने मुझे जवान लड़कों के हवाले कर दिया,

मुझे खींचकर दुष्टों के हाथ कर दिया।+

12 मैं चैन से जी रहा था, पर उसने मुझे हिलाकर रख दिया,+

मेरी गरदन पकड़कर मुझे रौंद डाला,

फिर खड़ा करके मुझे अपना निशाना बनाया।

13 उसके तीरंदाज़ मुझे घेरे हुए हैं,+

वह मुझ पर बिलकुल तरस नहीं खाता,

मेरे गुरदों को भेदता है,+ मेरे पित्त को ज़मीन पर उँडेल देता है।

14 मुझ पर वार-पे-वार करता है, मानो शहरपनाह तोड़ रहा हो,

योद्धा की तरह मुझ पर टूट पड़ता है।

15 मैंने टाट सीकर पहन लिया है,+

मैं इतना लाचार हूँ कि धूल में बैठा हूँ।*+

16 रो-रोकर मेरा चेहरा लाल हो गया है,+

मेरी आँखों में उदासी* है,

17 जबकि मैंने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा

और मेरी प्रार्थनाएँ सच्ची और निष्कपट हैं।

18 हे धरती, मेरे खून को मत ढकना,+

मेरे रोने की आवाज़ दबा न देना।

19 देखो! मेरा गवाह स्वर्ग में है,

मेरे पक्ष में बोलनेवाला ऊपर बैठा है।

20 मेरे साथी मेरा मज़ाक उड़ाते हैं+

और मैं परमेश्‍वर के आगे आँसू बहाता हूँ।*+

21 जैसे दो आदमियों के बीच मामला सुलझाया जाता है,

वैसे ही कोई तो आए, जो मेरे और परमेश्‍वर के बीच न्याय करे,+

22 क्योंकि समय बहुत कम रह गया है,

जल्द ही मैं उस राह पर चला जाऊँगा, जहाँ से लौटकर नहीं आऊँगा।+

17 मेरी हिम्मत टूट चुकी है, मेरे दिन खत्म होनेवाले हैं,

कब्र मेरी राह देख रही है।+

 2 ठट्ठा करनेवाले मुझे चारों ओर से घेरे रहते हैं,+

मैं देखता* रहता हूँ कि वे मुझसे कैसी दुश्‍मनी निकालते हैं।

 3 हे परमेश्‍वर, मुझे छुड़ाने का ज़िम्मा ले ले,*

तेरे सिवा कौन है जो हाथ मिलाकर मदद देने का वादा करे?+

 4 तूने उनका मन बंद कर दिया है, उनमें ज़रा भी सूझ-बूझ नहीं+

और तू उन्हें ऊँचा नहीं उठाता।

 5 ऐसा इंसान अपने दोस्तों में बाँटता फिरता है,

जबकि उसके बच्चों की आँखें तरसती रह जाती हैं।

 6 परमेश्‍वर ने लोगों के बीच मेरा मज़ाक* बना दिया है,+

मेरा यह हाल कर दिया है कि वे मेरे मुँह पर थूकते हैं।+

 7 दुख के मारे मेरी आँखें बुझी-बुझी-सी हैं,+

मेरा अंग-अंग घुलता जा रहा है।

 8 मेरा हाल देखकर सीधे-सच्चे लोग दंग रह जाते हैं

और निर्दोष लोग, भक्‍तिहीन के कारण गुस्से से भर जाते हैं।

 9 लेकिन नेक इंसान अपनी राह पर बना रहेगा,+

जो बेकसूर* है, वह ताकतवर होता जाएगा।+

10 तुम सब आओ और फिर से दलीलें देना शुरू करो

क्योंकि अब तक तुममें से किसी ने बुद्धि की बातें नहीं कहीं।+

11 मेरे दिन खत्म हो चुके हैं,+

मैंने जो-जो सोचा था, मेरे जितने अरमान थे, सब बिखर गए।+

12 मेरे साथी रात को दिन बताते हैं,

कहते हैं ‘सवेरा होनेवाला है!’ पर मुझे तो अँधेरा ही नज़र आता है।

13 अगर यूँ ही इंतज़ार करता रहा, तो कब्र मेरा घर बन जाएगी,+

मुझे अँधेरे में अपना बिस्तर बिछाना पड़ेगा।+

14 मैं गड्‌ढे*+ से कहूँगा, ‘तू मेरा पिता है।’

कीड़ों से कहूँगा, ‘तू मेरी माँ है और तू मेरी बहन।’

15 ऐसे में मेरे लिए क्या आशा है?+

क्या किसी को मेरे लिए कोई उम्मीद नज़र आती है?

16 वह* तो कब्र के बंद दरवाज़ों के पीछे कैद हो जाएगी,

तब मैं और मेरी आशा मिट्टी में मिल जाएँगे।”+

18 जवाब में शूही बिलदद+ ने कहा,

 2 “तू कब तक बोलता रहेगा?

थोड़ा तो समझ से काम ले, तभी हमारी बातचीत का कोई फायदा होगा।

 3 क्या तू हमें जानवर समझता है?+

क्या हम तुझे बेवकूफ* नज़र आते हैं?

 4 अगर तू गुस्से में अपने चिथड़े-चिथड़े कर ले,

तो क्या तेरे न होने से धरती सुनसान हो जाएगी?

चट्टान अपनी जगह से खिसक जाएगी?

 5 दुष्ट की शमा बुझ जाएगी,

उसकी जलती लौ ठंडी पड़ जाएगी।+

 6 उसके डेरे में फैला उजाला अंधकार में बदल जाएगा,

उसके घर का चिराग बुझ जाएगा।

 7 तेज़ी से बढ़नेवाले उसके कदम धीमे पड़ जाएँगे,

उसकी साज़िश उसे बरबाद कर देगी।+

 8 वह बिछे हुए जाल की तरफ जाएगा

और उसके पैर उसमें उलझकर रह जाएँगे।

 9 फंदा उसकी एड़ी को जकड़ लेगा,

जाल उसको फाँस लेगा।+

10 ज़मीन पर उसके लिए रस्सी का फंदा छिपाया गया है,

उसकी राह में जाल बिछाया गया है।

11 चारों तरफ से खौफ उसे डराएगा,+

हाथ धोकर उसके पीछे पड़ा रहेगा।

12 उसकी ताकत धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी,

बरबादी+ आने पर वह डगमगा जाएगा।

13 उसकी चमड़ी को सबसे जानलेवा बीमारी* खा जाएगी

और उसके हाथ-पैरों को गला देगी।

14 जिस डेरे में वह महफूज़ रहता था, उसे वहाँ से निकालकर,+

दर्दनाक मौत देने के लिए* ले जाया जाएगा।

15 अजनबी* उसके डेरे पर कब्ज़ा जमा लेंगे,

उसके घर पर गंधक छिड़क दी जाएगी।+

16 ज़मीन में उसकी जड़ें सूख जाएँगी,

उसकी लहराती शाखाएँ मुरझा जाएँगी।

17 धरती से उसकी यादें मिट जाएँगी,

गली-कूचों में उसका नाम नहीं लिया जाएगा।*

18 उसे उजाले से अँधेरे में धकेल दिया जाएगा,

दुनिया से खदेड़ दिया जाएगा।

19 उसके न तो बच्चे रहेंगे, न ही आनेवाली पीढ़ियाँ,

जहाँ वह रहता था, वहाँ उसका वंश चलानेवाला कोई न बचेगा।

20 जिस दिन उसका नाश होगा,

पश्‍चिम के रहनेवालों का दिल दहल जाएगा,

पूरब के लोगों के रोंगटे खड़े हो जाएँगे।

21 बुरा करनेवाले के साथ यही होता है,

जो परमेश्‍वर को नहीं जानता उसकी यही गत होती है।”

19 जवाब में अय्यूब ने कहा,

 2 “तुम कब तक मेरी जान खाते रहोगे?+

अपने शब्दों से मुझे कुचलते रहोगे?+

 3 दसियों बार तुमने मेरी बेइज़्ज़ती की!*

मेरे साथ बेदर्दी से पेश आकर तुम्हें ज़रा भी शर्म नहीं आयी?+

 4 अगर मैंने गलती की है,

तो मैं ही सज़ा भुगतूँगा।

 5 अगर तुम खुद को मुझसे बड़ा दिखाने पर तुले हो

और दावा करते हो कि मुझे नीचा दिखाकर तुमने सही किया,

 6 तो जान लो, परमेश्‍वर ने ही मेरा यह हाल किया है,

उसी ने मुझे धोखे से अपने जाल में फँसाया है।

 7 मैं चिल्लाता रहा, ‘यह सरासर ज़्यादती है!’ पर मेरी एक न सुनी गयी,+

मदद के लिए पुकारता रहा, पर मुझे इंसाफ न मिला।+

 8 मेरे रास्ते में उसने दीवार खड़ी कर दी कि मैं आगे न जा सकूँ,

मेरी राहों को उसने अंधकार से भर दिया।+

 9 मुझसे मेरी मान-मर्यादा छीन ली,

मेरे सिर से ताज उतार लिया।

10 चारों तरफ से वह मुझे तोड़ता रहा कि मैं खत्म हो जाऊँ,

मेरी उम्मीद को उसने पेड़ की तरह उखाड़ फेंका।

11 उसका क्रोध मेरे खिलाफ भड़क उठा है,

वह मुझे अपना दुश्‍मन मान बैठा है।+

12 उसकी फौज ने मेरे खिलाफ आकर मोरचा बाँधा है,

मेरे डेरे को हर तरफ से घेर लिया है।

13 मेरे अपने भाइयों को उसने मुझसे दूर कर दिया,

जान-पहचानवाले मुझसे अनजान बन गए।+

14 मेरे करीबी साथी* मुझे छोड़कर चले गए,

जिन्हें मैं अच्छी तरह जानता था, वे मुझे भूल गए।+

15 मेरे ही घर के मेहमान+ और दासियाँ मुझे पराया समझने लगे,

मैं उनके लिए बेगाना बन गया हूँ।

16 मैं अपने नौकर को आवाज़ लगाता हूँ पर वह कोई जवाब नहीं देता,

तब भी नहीं जब मैं उससे दया की भीख माँगता हूँ।

17 मेरी पत्नी को मेरी साँसों से भी घिन होने लगी है,+

मेरे सगे भाई मेरी दुर्गंध से दूर भागने लगे हैं।

18 छोटे-छोटे बच्चे भी मुझे दुतकारते हैं,

जब मैं खड़ा होता हूँ तो मुझे चिढ़ाते हैं।

19 मेरे सभी जिगरी दोस्त मुझसे नफरत करने लगे हैं,+

जिन-जिन से मैं प्यार करता था वे मेरे खिलाफ हो गए हैं।+

20 मेरी चमड़ी हड्डियों से चिपक गयी है,+

मैं मौत से बाल-बाल बचा हूँ।

21 मेरे साथियो, रहम करो मुझ पर, रहम करो!

क्योंकि परमेश्‍वर का हाथ मुझ पर उठा है।+

22 उसकी तरह तुम भी मुझे क्यों सता रहे हो?+

क्यों मुझ पर वार-पे-वार कर रहे हो?*+

23 काश! मेरे शब्द लिख दिए जाएँ,

किसी किताब में इन्हें दर्ज़ कर लिया जाए।

24 काश! लोहे की कलम से इन्हें चट्टान पर लिखा जाए,

सीसे से भरकर इन्हें अमर कर दिया जाए।

25 मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मेरा एक छुड़ानेवाला है,+

जो बाद में आएगा और धरती पर खड़ा होगा।

26 मेरी चमड़ी गल गयी है,

फिर भी इस हाल में मैं परमेश्‍वर को देखूँगा।

27 मैं खुद उसे देखूँगा,

हाँ, अपनी आँखों से, किसी दूसरे की आँखों से नहीं।+

मगर अब मैं अंदर से पस्त हो चुका हूँ।*

28 तुम मेरे बारे में कहते हो, ‘हम कहाँ इसे सता रहे हैं?’+

जैसे सारी समस्या की जड़ मैं ही हूँ।

29 अरे कुछ तो डरो! उसकी तलवार से डरो,+

जो गुनहगारों को नहीं छोड़ती।

याद रखो, न्याय करनेवाला कोई है।”+

20 नामाती सोपर+ ने जवाब दिया,

 2 “मेरे खयाल मुझे बेचैन कर रहे हैं, बोलने को मजबूर कर रहे हैं,

मेरे अंदर हलचल मची है, मैं चुप नहीं रह सकता।

 3 मैंने अपमान करनेवाली तेरी डाँट सुनी है

और अब मेरी समझ तुझे इसका जवाब देगी।

 4 तुझे तो यह पता होना चाहिए,

जब से इंसान* की सृष्टि हुई है, तब से यही होता आया है।+

 5 दुष्ट चंद दिनों के लिए हँसी-ठहाके मारता है,

भक्‍तिहीन पल-भर के लिए खुशियाँ मनाता है।+

 6 उसका घमंड चाहे आसमान तक पहुँच जाए,

उसका सिर बादलों को छू ले,

 7 तब भी वह अपने मल की तरह हमेशा के लिए खाक हो जाएगा।

जो उस दुष्ट को देखा करते थे पूछेंगे, ‘कहाँ गया वह?’

 8 वह सपनों की तरह उड़ जाएगा, ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगा,

रात में देखे ख्वाब की तरह गायब हो जाएगा।

 9 जो आँखें उसे देखा करती थीं, उसे फिर कभी न देखेंगी,

उसका अपना घर उसे देखने के लिए तरस जाएगा।+

10 उसकी औलाद गरीबों के रहमो-करम पर जीएगी,

वह अपने ही हाथों से दूसरों की दौलत लौटा देगा।+

11 उसकी हड्डियों में कभी जवानी का दमखम हुआ करता था,

पर अब वह* उसी के साथ मिट्टी में मिल जाएगा।

12 अगर बुराई उसके मुँह को मीठी लगती है

और वह उसे जीभ के नीचे दबा लेता है,

13 अगर वह उसे मुँह में ही रखता है,

चटकारे भर-भरके उसे खाता है,

14 तो वह उसके पेट में जाकर खट्टी हो जाएगी,

नाग के ज़हर की तरह ज़हरीली बन जाएगी।

15 उसने जो दौलत निगली है, उसे वह उगल देगा,

परमेश्‍वर उसके पेट से उसे निकाल लेगा।

16 वह नाग का ज़हर चूसेगा,

ज़हरीले साँप के डसने से मर जाएगा।

17 वह शहद और मक्खन की धाराएँ फिर न देखेगा,

उसे वे नदियाँ फिर नज़र न आएँगी।

18 अपनी धन-संपत्ति से उसे कोई खुशी न मिलेगी,

उसका सुख भोगे बगैर उसे वह वापस करनी पड़ेगी।*+

19 क्योंकि उसने गरीबों को कुचलकर छोड़ दिया,

उस घर को हड़प लिया जो उसने नहीं बनाया।

20 फिर भी उसे मन की शांति नहीं मिलेगी,

उसकी दौलत उसे नहीं बचा पाएगी।

21 अब उसके हड़पने के लिए और कुछ नहीं बचा,

इसलिए उसकी खुशहाली भी चंद रोज़ की रह जाएगी।

22 अमीरी के शिखर पर पहुँचते ही चिंताएँ उसे आ घेरेंगी,

दुखों का पहाड़ उस पर टूट पड़ेगा।

23 वह अपना पेट भर ही रहा होगा

कि परमेश्‍वर* उस पर अपनी जलजलाहट बरसा देगा,

इतनी कि उसकी अंतड़ियाँ उससे भर जाएँगी।

24 जब वह लोहे के हथियार से बचकर भाग रहा होगा,

तब ताँबे के धनुष से निकले तीर उसे छलनी कर देंगे।

25 वह अपनी पीठ से उस तीर को बाहर निकालेगा,

जिसकी चमकती नोंक उसके पित्ते में जा घुसी है

और उस पर आतंक छा जाएगा।+

26 उसके खज़ाने को घोर अंधकार खा जाएगा,

वह उस आग में भस्म हो जाएगा जिसे किसी ने हवा न दी हो,

उसके डेरे में बचे हुओं पर आफत आ पड़ेगी।

27 स्वर्ग उसके गुनाहों का खुलासा करेगा,

धरती उसके खिलाफ गवाही देगी,

28 बाढ़ आकर उसका घर बहा ले जाएगी।

हाँ, परमेश्‍वर के* क्रोध के दिन एक बड़ा सैलाब आएगा।

29 दुष्टों को परमेश्‍वर की तरफ से यही फल मिलेगा,

परमेश्‍वर ने उनके लिए यही विरासत ठहरायी है।”

21 जवाब में अय्यूब ने कहा,

 2 “मेरी बात ध्यान से सुनो,

इस तरह तुम मुझे दिलासा दोगे।

 3 मैं क्या कहना चाहता हूँ पहले सुन तो लो,

फिर जितनी खिल्ली उड़ानी है उड़ा लेना।+

 4 क्या मैं किसी इंसान के सामने अपना दुखड़ा रो रहा हूँ?

अगर ऐसा होता तो मेरा सब्र कब का टूट चुका होता।

 5 मुझे गौर से देखो, तुम दंग रह जाओगे,

अपने मुँह पर हाथ रख लोगे।

 6 जो मुझ पर बीती, उसे सोचकर मैं परेशान हो उठता हूँ,

मेरा शरीर थर-थर काँपने लगता है।

 7 ऐसा क्यों है कि दुष्ट लंबी उम्र जीता है,+

सुख से रहता है, दौलतमंद* हो जाता है?+

 8 उसके बच्चे उसके सामने फलते-फूलते हैं,

वह अपनी कई पीढ़ियाँ देखता है,

 9 उसका घर महफूज़ है, उसे कोई डर नहीं सताता,+

परमेश्‍वर उसे अपनी छड़ी से सज़ा नहीं देता।

10 उसके बैल, गायों को गाभिन करते हैं

और उसकी गायें बच्चे जनती हैं, एक का भी गर्भ नहीं गिरता।

11 उसके लड़के मस्ती में नाचते हैं,

ऐसे कूदते-फाँदते घर से निकलते हैं, जैसे भेड़ों को खोल दिया गया हो।

12 वह डफली और सुरमंडल पर गाता है,

बाँसुरी की धुन पर खुशियाँ मनाता है।+

13 उसकी ज़िंदगी मज़े में कटती है,

वह चैन से* कब्र में उतर जाता है।

14 वह सच्चे परमेश्‍वर से कहता है, ‘मुझे अकेला छोड़ दे,

नहीं जानना मुझे तेरी राहों के बारे में।+

15 सर्वशक्‍तिमान कौन है जो मैं उसकी सेवा करूँ?+

उसके बारे में सीखकर मुझे क्या फायदा?’+

16 मगर मैं जानता हूँ, दुष्ट की खुशहाली उसके बस में नहीं।+

उसकी सोच* उसी को मुबारक हो, उससे मेरा कोई वास्ता नहीं।+

17 क्या कभी दुष्टों के दीपक बुझे हैं?+

क्या कभी उन पर आफत टूटी है?

क्या कभी परमेश्‍वर ने क्रोध में उनका नाश किया है?

18 क्या कभी हवा उन्हें घास-फूस की तरह उड़ा पायी है?

क्या कभी आँधी का झोंका उन्हें भूसी की तरह उड़ा पाया है?

19 परमेश्‍वर उनके पाप की सज़ा उनके बेटों के लिए भी रख छोड़ता है।

काश! दुष्ट को पता चल जाए कि परमेश्‍वर उसे उसकी दुष्टता का सिला दे रहा है।+

20 ऐसा हो कि वह अपनी आँखों से अपनी बरबादी देखे,

सर्वशक्‍तिमान के क्रोध का प्याला पीए।+

21 जब दुष्ट की ज़िंदगी के महीने कम कर दिए जाएँगे,

तो उसके बाद उसके बाल-बच्चों का क्या होगा, उसे क्या चिंता!+

22 क्या कोई परमेश्‍वर को ज्ञान की बातें सिखा सकता है?*+

वह तो बड़े-बड़ों का न्याय करता है।+

23 ऐसा इंसान भी मर जाता है जिसमें दमखम हो,+

जो बेफिक्र होकर चैन की ज़िंदगी जी रहा हो,+

24 जिसकी जाँघें भरी-भरी हों,

जिसकी हड्डियों में जान हो।*

25 और ऐसा इंसान भी मर जाता है जो दिन-रात आहें भरता है,

जिसने कभी कोई सुख नहीं देखा।

26 दोनों मिट्टी में मिल जाते हैं+

और दोनों को ही कीड़े ढक लेते हैं।+

27 देखो, मैं खूब जानता हूँ तुम क्या सोच रहे हो,

मुझ पर ज़्यादती करने* के लिए तुम क्या साज़िश कर रहे हो।+

28 यही पूछते हो न तुम, ‘बड़े-बड़े लोगों का घर कहाँ रहा?

दुष्टों का डेरा कहाँ गया?’+

29 ज़रा मुसाफिरों से पूछकर देखो,

उनकी बातों* पर गौर करो,

30 तब तुम जानोगे, विपत्ति के दिन दुष्ट को छोड़ दिया जाता है,

मुसीबत आने पर वह बच निकलता है।

31 पर कौन दुष्ट के मुँह पर कहेगा कि तेरे काम बुरे हैं?

कौन उसकी बुराइयों का बदला उसे देगा?

32 जब उसे दफनाने के लिए ले जाया जाता है,

तब उसकी कब्र पर पहरा बिठाया जाता है,

33 कब्र की मिट्टी भी उसके लिए मुलायम सेज बिछाती है,+

उससे पहले भी अनगिनत लोग मिट्टी में मिल गए

और उसके बाद भी कई लोग मिल जाएँगे।+

34 तो फिर क्यों मुझे बेकार में दिलासा दे रहे हो,+

तुम्हारी बातों में झूठ और धोखे के सिवा कुछ नहीं।”

22 जवाब में तेमानी एलीपज+ ने कहा,

 2 “परमेश्‍वर की नज़र में इंसान का क्या मोल?

अंदरूनी समझ रखनेवाला इंसान उसके किस काम का?+

 3 तेरे नेक होने से क्या सर्वशक्‍तिमान को कोई फर्क पड़ेगा?*

तेरे निर्दोष बने रहने से उसे कोई फायदा होगा?+

 4 अगर तुझमें परमेश्‍वर के लिए भक्‍ति है,

तो क्या वह तुझसे मुकदमा लड़ेगा? तुझे सज़ा देगा?

 5 तेरी दुष्टता बहुत बढ़ गयी है, इसलिए वह तेरे खिलाफ हो गया है।

क्या तेरे गुनाहों का कभी अंत होगा?+

 6 तू बेवजह अपने भाइयों की चीज़ें गिरवी रख लेता है,

गरीबों* के कपड़े तक उतरवा लेता है।+

 7 तू थके-माँदों को पानी नहीं पिलाता,

भूखों को रोटी नहीं खिलाता।+

 8 तेरे जैसे ताकतवर लोगों ने ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया है+

और वहाँ तेरे जैसे बड़े-बड़े लोगों का ही बसेरा है।

 9 तू विधवाओं को खाली हाथ लौटा देता है,

अनाथों* को दुख देता है।*

10 इसीलिए तेरे चारों तरफ जाल बिछे हैं,+

खौफ अचानक आकर तुझे डरा देता है।

11 ऐसा अँधेरा छाया है कि तुझे कुछ दिखायी नहीं देता,

बाढ़ का उफनता पानी तुझे अपने में समा लेता है।

12 क्या परमेश्‍वर आसमान की बुलंदियों पर नहीं?

तारों को देख, वे कितनी ऊँचाई पर हैं।

13 पर तू कहता है, ‘परमेश्‍वर क्या जानता है?

क्या वह घने बादलों के आर-पार देखकर न्याय कर सकता है?

14 बादलों का परदा हमें उसकी नज़रों से छिपा लेता है,

तभी वह आसमान के घेरे पर चलते हुए हमें नहीं देख सकता।’

15 क्या तू उस डगर पर चलेगा,

जिस पर सदियों से दुष्ट चलते आए हैं?

16 ऐसे लोग वक्‍त से पहले मर जाते हैं,

बाढ़ का पानी* उनकी नींव बहा ले जाता है।+

17 दुष्ट सच्चे परमेश्‍वर से कहते थे, ‘हमें अकेला छोड़ दे!’

‘सर्वशक्‍तिमान हमारा क्या कर सकता है?’

18 मगर वही उनके घरों को अच्छी चीज़ों से भरता है।

(उनकी इस घिनौनी सोच से मेरा कोई वास्ता नहीं।)

19 नेक लोग दुष्टों के विनाश पर खुशियाँ मनाएँगे,

निर्दोष लोग उनकी खिल्ली उड़ाते हुए कहेंगे,

20 ‘हमारे विरोधी मारे गए,

उनका जो कुछ बचा था वह आग में भस्म हो गया।’

21 इसलिए परमेश्‍वर को जान और तू शांति से रहेगा,

तेरे साथ सबकुछ अच्छा होगा।

22 उसके मुँह से निकलनेवाले कायदे-कानूनों को मान,

अपने दिल में उसकी बातें संजोए रख।+

23 अगर तू सर्वशक्‍तिमान के पास लौट आए,

तो तू फिर आबाद हो जाएगा।+

अगर तू अपने डेरे से बुराई निकाल दे,

24 अपना सोना* धूल में फेंक दे,

ओपीर* का सोना+ चट्टानी घाटियों में डाल दे,

25 तो सर्वशक्‍तिमान तेरे लिए सोने जैसा

और बढ़िया चाँदी जैसा बेशकीमती ठहरेगा।

26 तू सर्वशक्‍तिमान में खुशी पाएगा

और उसकी ओर अपना मुँह उठा सकेगा।

27 तू फरियाद करेगा और वह तेरी सुनेगा,

अपनी मन्‍नत को तू पूरा करेगा।

28 तू जो कुछ करने की ठानेगा, उसमें कामयाब होगा,

जिस राह पर तू चलेगा वह रौशन होगी।

29 अगर तू घमंड से भरी बातें करे, तो तुझे नीचा किया जाएगा,

परमेश्‍वर सिर्फ नम्र लोगों की हिफाज़त करता है।

30 उन्हें छुड़ाता है जो बेकसूर हैं,

इसलिए अगर तू निर्दोष है* तो वह तुझे ज़रूर छुड़ाएगा।”

23 तब अय्यूब ने जवाब दिया,

 2 “आज भी मैं चुप नहीं रहूँगा, आवाज़ उठाऊँगा,+

आहें भरते-भरते मैं थक चुका हूँ।

 3 काश! मुझे पता होता परमेश्‍वर कहाँ मिलेगा,+

तो मैं उसके निवास-स्थान में जाता।+

 4 अपना मामला उसके सामने पेश करता,

अपनी सफाई में एक-के-बाद-एक दलीलें देता।

 5 उसकी बातों को ध्यान से सुनता

और समझने की कोशिश करता।

 6 क्या वह मुझसे लड़ने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देगा?

नहीं, नहीं, वह मेरी बात ज़रूर सुनेगा।+

 7 तभी सीधा-सच्चा इंसान उसके साथ अपना मामला निपटा सकेगा।

इस तरह मेरा न्यायी मुझे हमेशा के लिए बाइज़्ज़त बरी कर देगा।

 8 मगर जब मैं उसे ढूँढ़ने पूरब में जाता हूँ तो वह वहाँ नहीं मिलता,

पश्‍चिम में जाता हूँ तो वहाँ भी नहीं मिलता।

 9 जब वह उत्तर में काम करता है तो मैं उसे नहीं देख पाता,

वह दक्षिण की ओर जाता है, तब भी वह मुझे नज़र नहीं आता।

10 पर वह अच्छी तरह जानता है, मैं किस राह पर चला हूँ।+

जब वह मुझे तपा लेगा, तब मैं खरे सोने जैसा हो जाऊँगा।+

11 मैं उसके नक्शे-कदम पर नज़दीकी से चला हूँ,

मेरे कदम उसकी राह से नहीं भटके।+

12 उसके मुँह से निकली हर आज्ञा का मैंने पालन किया है,

जितना करना चाहिए था, उससे कहीं बढ़कर उसकी बात मानी है।+

13 एक बार जब वह ठान लेता है, तो कौन उसे रोक सकता है?+

जब उसे कुछ करना होता है, तो करके ही रहता है।+

14 मेरे साथ उसने जो-जो करने की ठानी है वह सब करेगा,

ऐसी बहुत-सी बातें हैं जो उसने सोच रखी हैं।

15 परमेश्‍वर के कारण मैं गहरी चिंता में हूँ,

उसके बारे में सोचकर मेरी श्रद्धा और बढ़ जाती है।

16 उसने मेरा मन कच्चा कर दिया है,

सर्वशक्‍तिमान ने मुझे डरा दिया है।

17 चाहे मेरे चारों तरफ अँधेरा छाया हो,

मेरा चेहरा घोर अंधकार से ढका हो,

फिर भी मैं खामोश नहीं रहूँगा।

24 सर्वशक्‍तिमान ने एक समय क्यों नहीं ठहराया?+

परमेश्‍वर को जाननेवाले उसका दिन* क्यों नहीं देख पाते?

 2 दुष्ट अपने पड़ोसी की ज़मीन का सीमा-चिन्ह खिसकाते हैं,+

दूसरों की भेड़ें हाँककर अपने चरागाह में ले जाते हैं।

 3 वे अनाथ का गधा छीन ले जाते हैं,

विधवा का बैल ज़बरदस्ती गिरवी रख लेते हैं।+

 4 गरीब को रास्ता छोड़ने के लिए मजबूर करते हैं,

वह बेबस इंसान उनसे छिपता फिरता है।+

 5 वह वीराने के जंगली गधे+ की तरह खाना ढूँढ़ता फिरता है,

अपने बच्चों का पेट भरने के लिए रेगिस्तान छान मारता है।

 6 उसे दूसरों के खेत में जाकर फसल काटनी पड़ती है,*

दुष्टों के बाग से बचे हुए अंगूर बीनने पड़ते हैं।

 7 उसके पास कपड़े नहीं हैं, वह सारी रात नंगा पड़ा रहता है,+

ठंड में भी उसके पास ओढ़ने के लिए कुछ नहीं होता।

 8 वह पहाड़ों पर होनेवाली बारिश में भीग जाता है,

छिपने की जगह न मिलने पर चट्टानों से लिपट जाता है।

 9 अनाथ को उसकी माँ के सीने से छीन लिया जाता है,+

गरीब के कपड़े तक गिरवी रख लिए जाते हैं,+

10 वह नंगा लौटने के लिए मजबूर हो जाता है,

अनाज के गट्ठर उठाता है मगर खुद भूख से कुलबुलाता है।

11 वह खेतों* में मुँडेरों के बीच कड़ी धूप में मज़दूरी करता है,*

अंगूर रौंदकर रस निकालता है, मगर खुद एक बूँद के लिए तरस जाता है।+

12 मरनेवालों का कराहना पूरे शहर में गूँज रहा है,

बुरी तरह घायल लोग मदद के लिए पुकार रहे हैं,+

मगर परमेश्‍वर को कोई फर्क नहीं पड़ता।*

13 ऐसे भी लोग हैं जिन्हें उजाले से नफरत है,+

वे उसकी राह को नकारते हैं

और उस पर चलना नहीं चाहते।

14 पौ फटते ही कातिल निकल पड़ता है,

गरीब-मोहताजों का खून बहाता है+

और रात के अँधेरे में वह चोरी करता है।

15 व्यभिचार करनेवाला शाम ढलने का इंतज़ार करता है।+

कहता है, ‘मुझे कोई नहीं देखेगा’+

और अपना चेहरा ढक लेता है।

16 अँधेरा होते ही चोर घरों में सेंध लगाता है

और सूरज उगते ही वह छिप जाता है।

वह उजाले को जानता ही नहीं।+

17 सुबह की रौशनी दुष्ट को घोर अंधकार जान पड़ती है,

उसकी यारी उस अँधेरे से है जिससे दूसरे खौफ खाते हैं।

18 मगर तेज़ पानी उसे बहा ले जाएगा,*

उसकी ज़मीन पर शाप पड़ेगा,+

वह अपने अंगूरों के बाग में कभी नहीं लौट पाएगा।

19 जैसे तपती गरमी और बंजर ज़मीन बर्फीले पानी को सुखा देती है,

वैसे ही कब्र पापी को निगल जाती है।+

20 उसकी माँ* उसे भूल जाएगी,

वह कीड़ों की दावत बन जाएगा,

सबकी यादों से मिट जाएगा,+

दुष्ट इंसान पेड़ की तरह टूटकर गिर जाएगा।

21 वह बाँझ औरतों को अपना शिकार बनाता है,

विधवाओं के साथ बदसलूकी करता है।

22 ऐसे ज़ालिमों को परमेश्‍वर* अपनी ताकत से खत्म कर देगा,

चाहे वे कितने ही ऊँचे उठें, उन्हें अपनी ज़िंदगी का भरोसा नहीं होगा।

23 दुष्टों को परमेश्‍वर* बेखौफ, बेफिक्र जीने देता है,+

मगर उसकी आँखें उनके हर काम* पर लगी रहती हैं।+

24 कुछ समय के लिए वे फलते-फूलते हैं, फिर मुरझा जाते हैं,+

बाकी लोगों की तरह खत्म हो जाते हैं,+

अनाज की बालों की तरह काट दिए जाते हैं।

25 अब बताओ, कौन मुझे झूठा साबित कर सकता है?

कौन मेरी बातों को काट सकता है?”

25 जवाब में शूही बिलदद+ ने कहा,

 2 “राज करने का हक परमेश्‍वर को है, उसके पास ज़बरदस्त शक्‍ति है,

वह स्वर्ग* में शांति कायम करता है।

 3 क्या उसकी सेनाओं को कोई गिन सकता है?

कौन है जिस पर उसकी रौशनी नहीं चमकती?

 4 तो फिर नश्‍वर इंसान उसके सामने नेक कैसे हो सकता है?+

औरत से पैदा हुआ इंसान निर्दोष* कैसे हो सकता है?+

 5 जब उसे चाँद की चाँदनी फीकी लगती है,

आसमान के तारों में दोष नज़र आता है,

 6 तो भला नश्‍वर इंसान जो एक इल्ली है,

इंसान जो एक कीड़ा है,

उसके सामने कैसे शुद्ध ठहर सकता है?”

26 तब अय्यूब ने कहा,

 2 “क्या खूब मदद की है तूने कमज़ोरों की!

जिनकी बाँहों में ताकत नहीं, उन्हें क्या सँभाला है तूने!+

 3 नासमझों को जो सलाह दी, उसकी तो दाद देनी पड़ेगी!+

क्या अक्लमंदी* दिखायी है तूने!

 4 किसे समझाने की कोशिश कर रहा है तू?

किससे सीखकर आया है ये बातें?

 5 मरे हुए थर-थर काँपते हैं,

वे समुंदर और उसके जीवों से भी निचली जगह में हैं।

 6 कब्र परमेश्‍वर के* सामने बेपरदा है+

और विनाश की जगह* उसके सामने खुली पड़ी है।

 7 वह उत्तरी आकाश* को खाली जगह पर ताने हुए है,+

पृथ्वी को बिना किसी सहारे के लटकाए हुए है।

 8 उसने बादलों को पानी से लबालब भरा है,+

इतने भारी होने पर भी वे फटते नहीं।

 9 उसने बादलों को ऐसा फैलाया है

कि कोई उसकी राजगद्दी को देख न सके।+

10 उसने पानी पर सीमा-रेखा* खींची है,+

उजाले और अंधकार की सरहद ठहरायी है।

11 उसकी फटकार से आसमान के खंभे हिल जाते हैं,

वे डर के मारे काँपने लगते हैं।

12 वह अपनी ताकत से समुंदर में हलचल पैदा करता है,+

अपनी बुद्धि से विशाल समुद्री जीव* के टुकड़े कर देता है।+

13 उसकी एक फूँक से आसमान साफ हो जाता है,

वह भागते साँप को भी दबोचकर मार डालता है।

14 देख! यह सब उसके कामों के छोर को छूने जैसा है,+

उसकी फुसफुसाहट सुनने जैसा है,

तो फिर उसके भयानक गरजन को कौन समझ पाएगा?”+

27 अय्यूब ने अपनी बात जारी रखी,

 2 “मुझे उस परमेश्‍वर के जीवन की शपथ,

जिसने मुझे इंसाफ नहीं दिया,+ जिसने मेरे जी को दुखी किया,+

उसी सर्वशक्‍तिमान की शपथ खाकर कहता हूँ,

 3 जब तक मेरी साँसें चलती रहेंगी,

परमेश्‍वर से मिली जीवन की साँसें मेरे नथनों में बनी रहेंगी,+

 4 मैं अपने होंठों से कोई बुरी बात नहीं कहूँगा,

अपनी ज़बान से कोई झूठी बात नहीं बोलूँगा।

 5 तुम लोगों को नेक मानने की मैं सोच भी नहीं सकता,

मैंने ठान लिया है, मैं मरते दम तक निर्दोष बना रहूँगा।+

 6 मैं अपनी नेकी को थामे रहूँगा, उसे कभी नहीं छोड़ूँगा,+

जब तक मैं ज़िंदा हूँ मेरा मन मुझे नहीं धिक्कारेगा।*

 7 काश! मेरे दुश्‍मनों का हाल दुष्टों जैसा हो,

मेरे हमलावरों का हश्र बुरे लोगों जैसा हो,

 8 क्योंकि जब परमेश्‍वर भक्‍तिहीन की जान लेता है,+

उसे मिटा देता है, तो क्या उसके लिए कोई आशा रह जाती है?

 9 जब उस पर मुसीबतें आती हैं,

तो क्या परमेश्‍वर उसकी दुहाई सुनता है?+

10 क्या ऐसा इंसान सर्वशक्‍तिमान में खुशी पाता है?

क्या वह परमेश्‍वर को हर वक्‍त पुकारता है?

11 मैं तुम्हें परमेश्‍वर की शक्‍ति के बारे में* सिखाऊँगा,

सर्वशक्‍तिमान के बारे में तुमसे कुछ नहीं छिपाऊँगा।

12 अगर तुम सबको सचमुच दर्शन मिले हैं,

तो फिर तुम्हारी बातें खोखली क्यों हैं?

13 परमेश्‍वर की तरफ से दुष्ट की जागीर,+

सर्वशक्‍तिमान की तरफ से ज़ालिम की विरासत यही है:

14 उसके चाहे कई बेटे हों फिर भी वे तलवार से मारे जाएँगे+

और उसके वंशजों को खाने के लाले पड़ेंगे।

15 उसकी मौत के बाद उसके लोगों को महामारी खा जाएगी,

उनकी विधवाएँ उनके लिए आँसू नहीं बहाएँगी।

16 चाहे वह धूल के कणों के समान चाँदी बटोर ले,

मिट्टी के ढेर की तरह बढ़िया कपड़ों का अंबार लगा ले,

17 मगर उन कपड़ों को इकट्ठा करने पर भी,

वह उन्हें पहन नहीं पाएगा, नेक इंसान उन्हें पहनेगा+

और उसकी चाँदी निर्दोष लोग आपस में बाँटेंगे।

18 उसका बनाया घर पतंगे के कोए जैसा हलका

और पहरेदारों के छप्पर+ जितना कमज़ोर होगा।

19 भले ही सोते वक्‍त वह अमीर हो, मगर उसके पास कुछ नहीं बचेगा,

नींद से जागने पर वह कंगाल हो चुका होगा।

20 डर का सैलाब उसे बहा ले जाएगा,

तूफान उसे रातों-रात उड़ा ले जाएगा।+

21 पूर्वी हवा उसे उड़ा ले जाएगी, वह कहीं नज़र नहीं आएगा,

हवा उसे अपनी जगह से उखाड़ फेंकेगी,+

22 बड़ी बेदर्दी से उस पर टूट पड़ेगी,+

उसकी मार से बचने की वह लाख कोशिश करेगा,+

23 उसकी बुरी हालत देखकर हवा तालियाँ पीटेगी,

अपनी जगह पर खड़े-खड़े सीटियाँ बजाएगी,+ उसका मज़ाक उड़ाएगी।*

28 चाँदी की खोज में खदान खोदी जाती हैं

और ऐसी जगह होती हैं जहाँ सोना* मिलता है,

 2 लोहा ज़मीन से निकाला जाता है

और ताँबा चट्टानें पिघलाकर।+

 3 कीमती धातु* की खोज में,

इंसान अँधेरे को चीरता हुआ

ज़मीन की गहराइयों में, घोर अंधकार में खोदता जाता है।

 4 वह इंसान की बस्तियों से दूर सुरंग बनाता है,

ऐसी सुनसान जगह जहाँ कोई आता-जाता नहीं।

सुरंग में उतरकर वह रस्सियों पर लटकते हुए काम करता है।

 5 ऊपर धरती पर तो अनाज उगता है,

मगर नीचे उथल-पुथल मची होती है, मानो आग लगी हो।*

 6 वहाँ चट्टानों में नीलम पाया जाता है,

धूल में सोने के कण मिलते हैं।

 7 शिकारी पक्षी इस जगह का पता तक नहीं जानते,

काली चील की पैनी नज़र भी वहाँ का रास्ता नहीं ढूँढ़ पाती।

 8 खूँखार जानवर वहाँ नज़र नहीं आते,

जवान शेर वहाँ शिकार ढूँढ़ता नज़र नहीं आता।

 9 इंसान कड़ी चट्टानें* तोड़ता है,

पहाड़ों को उसकी नींव से उखाड़ देता है।

10 चट्टानों में पानी की सुरंग+ बनाता है,

उसकी नज़र हर कीमती चीज़ ढूँढ़ निकालती है।

11 वह नदी का पानी आने का हर रास्ता बंद कर देता है,

धरती में दफन चीज़ों को बाहर उजाले में लाता है।

12 लेकिन बुद्धि कहाँ मिलेगी?+

समझ का सोता कहाँ पाया जा सकता है?+

13 कोई भी इंसान इसका मोल नहीं जानता,+

न ही यह दुनिया* में कहीं पायी जाती है।

14 गहरा सागर कहता है, ‘वह मेरे पास नहीं!’

समुंदर कहता है, ‘वह मेरे पास भी नहीं!’+

15 खरा सोना देकर भी उसे नहीं खरीदा जा सकता,

चाँदी तौलकर देने पर भी उसे नहीं पाया जा सकता।+

16 ओपीर का सोना+ तो क्या,

बेशकीमती सुलेमानी पत्थर और नीलम देकर भी उसे नहीं खरीदा जा सकता।

17 सोना और काँच भी उसकी बराबरी नहीं कर सकते,

तपाए हुए सोने का बरतन देकर भी उसे हासिल नहीं किया जा सकता।+

18 मूंगा और बिल्लौर तो उसके सामने फीके पड़ जाते हैं,+

बुद्धि का मोल मोतियों से भरी थैली से कहीं बढ़कर है।

19 कूश* का पुखराज+ भी इसके सामने कुछ नहीं,

खरे सोने से भी इसे नहीं खरीदा जा सकता।

20 तो फिर बुद्धि कैसे पायी जा सकती है?

समझ का सोता कहाँ पाया जा सकता है?+

21 यह तो धरती के सभी जीवों से छिपी हुई है,+

आकाश के परिंदे इसे नहीं देख सकते।

22 मौत और विनाश कहते हैं,

‘हमने सिर्फ उसके चर्चे सुने हैं।’

23 मगर परमेश्‍वर को पता है बुद्धि कैसे पायी जा सकती है,

सिर्फ वही उसका ठिकाना जानता है।+

24 वह तो धरती के कोने-कोने तक देख सकता है,

अंबर के नीचे सब चीज़ों पर उसकी नज़र है।+

25 उसने हवा को तेज़ चलना सिखाया,*+

पानी को नापकर भरा,+

26 बारिश पड़ने के नियम ठहराए,+

गरजते बादलों के लिए बरसने का रास्ता खोला,+

27 उसने बुद्धि देखी और उसके बारे में समझाया,

उसकी नींव डाली और उसे परखा।

28 इसलिए परमेश्‍वर ने इंसान से कहा,

‘देख! यहोवा का डर मानना ही बुद्धि है,+

बुराई से मुँह फेर लेना ही समझदारी है।’”+

29 अय्यूब ने अपनी बात जारी रखी,

 2 “काश! वह गुज़रा हुआ वक्‍त वापस आ जाए,

वे दिन लौट आएँ जब परमेश्‍वर मेरा ध्यान रखता था,

 3 जब उसका दीपक मेरे ऊपर चमकता था,

मेरी अँधेरी राहों को रौशन करता था।+

 4 जवानी के वे दिन भी क्या दिन थे!

मुझे अपने डेरे में परमेश्‍वर की दोस्ती का सुख-भरा एहसास था,+

 5 सर्वशक्‍तिमान मेरे साथ था,

मेरे बाल-बच्चे* मुझे घेरे रहते थे।

 6 मेरे पैर मक्खन में डूबे रहते थे,

चट्टानें मेरे लिए तेल की धाराएँ बहाती थीं।+

 7 वे भी क्या दिन थे, जब मैं शहर के फाटक+ पर जाता था,

चौक में आकर अपनी जगह लेता था।+

 8 मुझे देखते ही जवान लड़के मेरे लिए रास्ता छोड़ देते थे,*

बड़े-बुज़ुर्ग भी अपनी जगह से उठ जाते और खड़े रहते थे।+

 9 हाकिम बोलने से खुद को रोक लेते थे,

मुँह पर अपना हाथ रख लेते थे।

10 बड़े-बड़े आदमी चुप हो जाते थे,

उनकी जीभ तालू से चिपक जाती थी।

11 जो मेरी बातें सुनता, मेरी तारीफ करते नहीं थकता था,

जो मुझे देखता, मेरी नेकनामी की गवाही देता था।

12 क्योंकि गरीबों की फरियाद सुन मैं उनकी मदद करता था,+

अनाथों और बेसहारों को मुसीबत से छुड़ाता था।+

13 वे मुझे दुआएँ देते थे कि मैंने उन्हें मिटने से बचाया,+

मेरी मदद पाकर विधवाओं का दिल खुश हो जाता था।+

14 मैंने नेकी को अपना पहनावा बनाया,

न्याय को अपना चोगा और अपनी पगड़ी समझा।

15 मैं अंधों के लिए आँखें बना

और लँगड़ों के लिए पैर।

16 गरीबों के लिए मैं पिता समान था,+

अनजान लोगों के मुकदमे जाँचता था।+

17 मैं बुरा करनेवालों का जबड़ा तोड़ देता था,+

उनके मुँह से शिकार को बचा लेता था।

18 मैं कहता था, ‘मेरे दिन बालू के किनकों जैसे अनगिनत होंगे

और मैं अपने ही बसेरे में दम तोड़ूँगा।+

19 मेरी जड़ें पानी के सोते तक फैलेंगी,

मेरी डालियाँ रात-भर ओस से भीगी रहेंगी।

20 मेरी मान-मर्यादा सदा बनी रहेगी,

तीर चलाने के लिए मेरे बाज़ुओं में हमेशा दम रहेगा।’

21 लोग बड़े चाव से मेरी बातें सुनते,

खामोश रहकर मेरी सलाह का इंतज़ार करते।+

22 मेरे कहने के बाद उनके पास कहने को कुछ नहीं होता था,

मेरे एक-एक शब्द को वे रस लेकर सुनते थे।*

23 जैसे कोई बरखा का इंतज़ार करता है, वे मेरे बोलने का इंतज़ार करते थे।

मेरे शब्दों को ऐसे पीते थे, जैसे मुँह खोलकर वसंत की बौछार पी रहे हों।+

24 जब मैं उन्हें देखकर मुस्कुराता तो उन्हें यकीन नहीं होता था,

मेरे चेहरे की रौनक से उनका हौसला बढ़ता था।*

25 उनका मुखिया होने के नाते मैं उन्हें राह दिखाता,

उनके बीच ऐसे रहता था जैसे कोई राजा अपनी फौज के बीच रहता है+

और जैसे कोई मातम करनेवालों के बीच रहकर दिलासा देता है।+

30 अब वे लोग ही मेरी हँसी उड़ाते हैं,+

जो उम्र में मुझसे छोटे हैं,

जिनके पिताओं को मैं अपने कुत्तों के साथ भी न रखूँ

कि वे मेरी भेड़ों की रखवाली करें।

 2 उनके हाथ की ताकत मेरे किस काम की?

उनका दमखम तो खत्म हो गया है,

 3 भूख और तंगी से उनकी हालत खस्ता है,

वीरान और उजाड़ हो चुकी ज़मीन पर

वे धूल खाते फिरते हैं।

 4 वे झुरमुटों से लोनी साग तोड़कर खाते हैं,

झाड़ियों की जड़ों से अपना पेट भरते हैं।

 5 उन्हें बिरादरी से बाहर कर दिया जाता है,+

लोग उन पर ऐसे चिल्लाते हैं, जैसे चोर पर चिल्ला रहे हों।

 6 तंग घाटियों की ढलान पर उनका बसेरा है,

ज़मीन और चट्टानों में वे गड्‌ढे खोदकर रहते हैं।

 7 झाड़ियों के बीच से वे पुकार लगाते हैं,

बिच्छू-बूटी के पौधों में सटकर बैठते हैं।

 8 मूर्ख और नीच की इन औलादों को

देश से भगा* दिया जाता है।

 9 पर अब वे अपने गानों में भी मुझ पर ताने कसते हैं,+

मज़ाक* बन गया हूँ मैं उनके लिए!+

10 वे मुझसे घिन करते हैं, दूर-दूर रहते हैं,+

मेरे मुँह पर थूकने से भी नहीं डरते।+

11 परमेश्‍वर ने ही मुझे निहत्था किया है,* बेबस कर दिया है,

इसीलिए वे मेरे सामने बेलगाम हो गए हैं।

12 झुंड बनाकर दायीं तरफ से मुझ पर चढ़ आते हैं,

मुझे भागने पर मजबूर कर देते हैं,

फिर मुझे खत्म करने के लिए मेरे रास्ते में मोरचा बाँधते हैं,

13 भागने के सारे रास्ते बंद कर देते हैं,

मेरी मुश्‍किलों को और बढ़ा देते हैं,+

उन्हें रोकनेवाला* कोई नहीं।

14 वे मानो शहरपनाह की चौड़ी दरार से घुस आते हैं,

मुसीबतों के साथ-साथ वे भी मुझ पर टूट पड़ते हैं।

15 खौफ मुझे घेर लेता है,

मेरे मान-सम्मान को हवा में उड़ा दिया जाता है।

मेरे बचने की सारी उम्मीदें बादल की तरह गायब हो गयी हैं।

16 ज़िंदगी हाथ से फिसलती जा रही है,+

दुख-भरे दिन+ हाथ धोकर पीछे पड़े हैं।

17 रात को मेरी हड्डियों में ऐसा दर्द उठता है,+ जैसे कोई उन्हें छेद रहा हो

और दर्द है कि जाता नहीं।+

18 मेरे कपड़े को कसकर खींचा गया है,*

गले पर इतना कस रहा है कि मेरा दम घुट रहा है।

19 परमेश्‍वर ने मुझे कीचड़ में पटक दिया है,

मैं धूल और राख हो गया हूँ।

20 मदद के लिए मैं तुझे पुकारता हूँ, पर तू जवाब नहीं देता।+

जब मैं उठकर खड़ा होता हूँ तो तू बस देखता रहता है।

21 तू मेरे खिलाफ हो गया है,+

तुझे ज़रा भी रहम नहीं आता,

मुझे मारने के लिए तू पूरा ज़ोर लगा रहा है।

22 मुझे हवा के साथ उड़ा ले जाता है,

फिर तूफान में इधर-उधर उछालता है।*

23 मैं जानता हूँ तू मुझे मौत की ओर ले जा रहा है,

उस घर की तरफ, जहाँ एक दिन हर किसी को जाना है।

24 मगर जो इंसान अंदर से टूट चुका हो,*

जो मुसीबत में दुहाई दे रहा हो, उसे कौन मारेगा?+

25 क्या मैंने दुखियारों* के लिए आँसू नहीं बहाए?

क्या गरीबों के लिए मेरा मन दुखी नहीं हुआ?+

26 मैंने अच्छे की आस लगायी पर मेरे साथ बुरा हुआ,

उजाले का इंतज़ार किया पर अँधेरा मिला।

27 मेरे अंदर उथल-पुथल मची है, ज़रा भी चैन नहीं,

मुझ पर दुख-भरे दिन आ पड़े हैं।

28 मैं उदासी के अँधेरे में चल रहा हूँ+ और सवेरा नज़र नहीं आता,

मैं मंडली के बीच खड़ा मदद के लिए भीख माँगता हूँ।

29 यह हाल हो गया है कि अब मैं गीदड़ों का भाई

और शुतुरमुर्ग की बेटियों का साथी बन गया हूँ।+

30 मेरी चमड़ी काली पड़कर उतर गयी है,+

मेरी हड्डियाँ जल रही हैं।*

31 मेरे सुरमंडल पर सिर्फ मातम की धुन बजती है,

मेरी बाँसुरी से सिर्फ रोने का सुर निकलता है।

31 मैंने अपनी आँखों के साथ करार किया है।+

फिर मैं किसी कुँवारी को गलत नज़र से कैसे देख सकता हूँ?+

 2 अगर मैं ऐसा करूँ, तो स्वर्ग के परमेश्‍वर से मुझे क्या मिलेगा?

सर्वशक्‍तिमान जो ऊँचे पर विराजमान है, मेरे हिस्से में क्या देगा?

 3 क्या दुष्टों पर विपत्ति नहीं आ पड़ेगी?

क्या बुरे काम करनेवालों को मुसीबतें नहीं आ घेरेंगी?+

 4 क्या परमेश्‍वर मेरे चालचलन को नहीं देखता?+

मेरे एक-एक कदम को नहीं गिनता?

 5 क्या मैंने कभी झूठ का रास्ता अपनाया है?*

क्या धोखा देने के लिए मैंने फुर्ती से कदम बढ़ाए हैं?+

 6 परमेश्‍वर चाहे तो मुझे खरे तराज़ू में तौल ले,+

वह जान जाएगा कि मुझमें ज़रा भी दोष नहीं।+

 7 अगर मेरे पाँव सही राह से कभी भटके हों,+

अगर मेरा दिल मेरी आँखों के बहकावे में आया हो,+

अगर बुरे काम करके मेरे हाथ दूषित हुए हों,

 8 तो ऐसा हो कि मैं बोऊँ और दूसरा खाए,+

मैं लगाऊँ और दूसरा उसे उखाड़ फेंके।*

 9 अगर पड़ोसी की पत्नी के लिए मेरा दिल ललचाया हो+

और उसके दरवाज़े पर मैंने उसका इंतज़ार किया हो,+

10 तो मेरी बीवी पराए मर्द के घर में अनाज पीसे

और दूसरे आदमी उसके साथ सोएँ,+

11 क्योंकि मेरी यह करतूत बहुत ही शर्मनाक होगी,

ऐसा गुनाह होगा जिसके लिए मैं न्यायियों से सज़ा पाने के लायक ठहरूँगा।+

12 बदचलनी वह आग है जो मुझे भस्म कर देगी,+

यहाँ तक कि मेरा सबकुछ जड़ से खत्म कर देगी।*

13 अगर मेरे दास या दासी को मुझसे कोई शिकायत* हो

और मैंने उसे अनसुना कर न्याय न किया हो,

14 तो जब परमेश्‍वर मुझसे पूछेगा,* मैं क्या जवाब दूँगा?

जब वह मुझसे हिसाब लेगा, मैं क्या कहूँगा?+

15 जिसने मुझे कोख में रचा, क्या उसने उन्हें भी नहीं रचा?+

क्या उसी ने हमें पैदा होने से पहले* नहीं बनाया?+

16 गरीब के कुछ माँगने पर अगर मैंने उसे न दिया हो,+

या मेरी वजह से विधवा की आँखों में उदासी छायी हो,+

17 अगर मैंने अपने हिस्से का खाना अकेले ही खा लिया हो

और अनाथों को न दिया हो,+

18 (लड़कपन से ही मैं इन अनाथों के* लिए पिता जैसा रहा,

जब से मैंने होश सँभाला, तब से* मैं विधवाओं को सहारा देता आया हूँ।)

19 अगर मैंने किसी को बिन कपड़ों के ठंड से मरते देखा हो,

या देखा हो कि गरीब के पास ओढ़ने के लिए कुछ नहीं,+

20 अगर उसने मेरी भेड़ों के ऊन से खुद को न गरमाया हो

और मुझे दुआएँ न दी हों,+

21 अगर शहर के फाटक+ पर किसी अनाथ को मेरी ज़रूरत थी,*

पर मैंने मुट्ठी भींचकर उसे धमकाया हो,+

22 तो मेरी बाँह कंधे से उखड़ जाए,

मेरी कोहनी* टूट जाए,

23 क्योंकि मैं परमेश्‍वर से आनेवाली विपत्ति से डरता हूँ,

उसके गौरव के आगे मैं टिक न सकूँगा।

24 अगर मैंने सोने पर भरोसा रखा हो,

या खरे सोने से कहा हो, ‘तू ही मुझे हिफाज़त देगा।’+

25 अगर मुझे अपनी ढेर सारी चीज़ों का,

अपनी बेशुमार दौलत+ का घमंड हो,+

26 अगर मैं सूरज को चमकता देखकर,

चाँद को अपनी चाँदनी में नहाता देखकर,+

27 मन-ही-मन लुभाया जाऊँ

कि उन्हें पूजने के लिए होंठों से अपना हाथ चूम लूँ,+

28 तो यह एक गुनाह होगा, क्योंकि मैं स्वर्ग के सच्चे परमेश्‍वर का इनकार कर रहा होऊँगा

और इसके लिए न्यायियों से सज़ा पाने के लायक ठहरूँगा।

29 क्या मैं कभी अपने दुश्‍मनों की बरबादी पर खुश हुआ?+

उन्हें मुसीबत में देखकर क्या मैंने कभी जश्‍न मनाया?

30 मैंने कभी उन्हें शाप नहीं दिया कि उन्हें मौत आ जाए,

अपने मुँह से कभी ऐसा पाप नहीं किया।+

31 क्या मेरे डेरे के आदमी यह नहीं कहते,

‘ऐसा कोई नहीं जिसने अय्यूब के यहाँ भरपेट* न खाया हो।’+

32 मुसाफिरों के लिए मेरे घर के दरवाज़े हमेशा खुले थे,

कभी किसी अजनबी* को बाहर रात नहीं गुज़ारनी पड़ी।+

33 क्या मैंने औरों की तरह कभी अपने अपराधों पर परदा डाला?+

अपने गुनाहों को अपने कपड़ों की झोली में छिपाने की कोशिश की,

34 इस डर से कि सबको पता चल गया तो क्या होगा?

समाज में कितनी थू-थू होगी,

घर से निकलना या किसी से कुछ कहना मुश्‍किल हो जाएगा।

35 काश! कोई मेरी सुने।+

मैं कसम खाता हूँ,* मेरी एक-एक बात सच है।

काश! सर्वशक्‍तिमान मुझे जवाब दे।+

मेरा मुद्दई मेरे सारे दोष कागज़ात पर लिख दे,

36 उन कागज़ात को मैं अपने कंधे पर लिए फिरूँगा,

अपने सिर पर ताज बनाकर रखूँगा।

37 हाकिम की तरह बेझिझक परमेश्‍वर के सामने जाऊँगा,

उसे अपने एक-एक काम का हिसाब दूँगा।

38 अगर मेरी ज़मीन शिकायत करे कि मैंने उसे चुराया है,

अगर हल से बनी उसकी रेखाएँ आँसू बहाएँ,

39 अगर मैंने उसकी उपज मुफ्त में उड़ायी हो+

और ज़मीन के असली मालिकों को आहें भरनी पड़ी हों,+

40 तो उस ज़मीन में गेहूँ के बदले काँटे उग आएँ,

जौ के बदले बदबूदार जंगली घास बढ़ आए।”

इसी के साथ अय्यूब अपनी बात खत्म करता है।

32 इन तीनों आदमियों ने जब देखा कि अय्यूब को अपनी नेकी पर पूरा यकीन है,*+ तो उन्होंने उससे और कुछ नहीं कहा। 2 मगर एलीहू तमतमा उठा। वह बूज+ वंशी बारकेल का बेटा था, जो राम के घराने से था। उसे अय्यूब पर इसलिए गुस्सा आया क्योंकि उसने परमेश्‍वर को नहीं बल्कि खुद को सही साबित करने की कोशिश की।+ 3 उसे अय्यूब के तीन साथियों पर भी बहुत गुस्सा आया क्योंकि वे अय्यूब की बातों का सही-सही जवाब नहीं दे पाए, उलटा उन्होंने परमेश्‍वर को दोषी बताया।+ 4 मगर एलीहू ने उन लोगों को अपनी बात पूरी करने दी क्योंकि वे उम्र में उससे बड़े थे।+ वह अय्यूब से अपनी बात कहने के लिए रुका रहा। 5 जब उसने देखा कि उन तीनों के पास अय्यूब से कहने के लिए और कुछ नहीं है, तो उसका क्रोध भड़क उठा। 6 और बूज वंशी बारकेल के बेटे एलीहू ने बोलना शुरू किया,

“उम्र में तुम सब मुझसे बड़े हो+

और मैं तुमसे छोटा हूँ,

इसलिए जब तुम बात कर रहे थे, तो मैं बीच में नहीं बोला+

और जो बातें मुझे मालूम हैं मैंने नहीं बतायीं।

 7 मैंने सोचा बड़े-बुज़ुर्गों को ही बोलने दूँ,

उम्रवालों को ही बुद्धि की बातें कहने दूँ।

 8 मगर लोगों को परमेश्‍वर की पवित्र शक्‍ति से ही,

सर्वशक्‍तिमान की साँस से ही समझ मिलती है।+

 9 उम्र इंसान को खुद-ब-खुद बुद्धिमान नहीं बना देती,

न ही बुढ़ापा अपने आप सही-गलत का फर्क सिखाता है।+

10 इसलिए सुनो कि मैं क्या कहता हूँ,

जो बातें मुझे मालूम हैं मैं तुम्हें बताऊँगा।

11 देखो, मैं तुम्हारी बातें सुनने के लिए ठहरा रहा,

जब तुम तर्क कर रहे थे, तो मैं सुनता रहा,+

जब तुम सोच रहे थे कि आगे क्या कहें, तब भी मैं रुका रहा।+

12 मैंने बड़े ध्यान से तुम्हारी बातें सुनी हैं,

लेकिन तुममें से कोई भी

न अय्यूब को गलत साबित कर पाया,

न उसकी दलीलें काट पाया।

13 अब यह मत कहना, ‘हम बहुत बुद्धिमान हैं,

अय्यूब को जो फटकार मिली है,

वह परमेश्‍वर की तरफ से है, इंसान की तरफ से नहीं।’

14 जो बातें अय्यूब ने कहीं वे मेरे खिलाफ नहीं कहीं,

इसलिए मैं तुम्हारी दलीलों का सहारा लेकर उसे जवाब नहीं दूँगा।

15 ये लोग घबराए हुए हैं, इनके पास कोई जवाब नहीं।

कुछ नहीं बचा इनके पास कहने को।

16 मैं इंतज़ार करता रहा कि ये लोग कुछ कहेंगे,

मगर ये बुत बने खड़े हैं, इनके मुँह से एक शब्द नहीं निकल रहा।

17 इसलिए अब मैं बोलूँगा

और बताऊँगा कि मुझे क्या मालूम है।

18 मेरे पास कहने को बहुत कुछ है,

पवित्र शक्‍ति मुझे बोलने के लिए मजबूर कर रही है।

19 मेरे मन में इतनी बातें भरी हैं कि अब इन्हें रोकना मुश्‍किल है,

मानो दाख-मदिरा के उफनने से नयी मशक फटने पर हो।+

20 मुझे बोलने दो, तभी मुझे चैन पड़ेगा,

मैं मुँह खोलकर जवाब दूँगा।

21 मैं किसी की तरफदारी नहीं करूँगा,+

न किसी इंसान की झूठी तारीफ करूँगा,*

22 क्योंकि झूठी तारीफ करना मुझे नहीं आता,

अगर मैं ऐसा करूँ, तो मेरा बनानेवाला मुझे फौरन मिटा देगा।

33 हे अय्यूब! तुझसे बिनती है कि ध्यान से मेरी सुन,

मेरी एक-एक बात पर कान लगा।

 2 देख! अब मैं चुप नहीं रह सकता,

मेरी ज़बान बोलने के लिए बेचैन है।

 3 मेरी बातें मेरे मन की सीधाई ज़ाहिर करेंगी+

और जो मुझे मालूम है वह मैं सच-सच बताऊँगा।

 4 परमेश्‍वर ने अपनी पवित्र शक्‍ति से मुझे रचा है,+

सर्वशक्‍तिमान की फूँक से मुझे जीवन मिला है।+

 5 अगर तू मेरी बातों का जवाब दे सकता है, तो ज़रूर देना,

मेरे सामने अपनी दलीलें पेश करना,

अपनी पैरवी करने के लिए तैयार हो जा।

 6 देख, सच्चे परमेश्‍वर के सामने मैं तेरे जैसा हूँ,

मैं भी मिट्टी का बना हूँ।+

 7 इसलिए तू मुझसे मत डर,

मेरी बातें इतनी भारी न होंगी कि तुझे कुचल दें।

 8 तूने अपने बारे में जो कहा,

वह सब मैंने सुना। तूने कहा,

 9 ‘मैं बिलकुल शुद्ध हूँ, मैंने कोई अपराध नहीं किया,+

मैं बेदाग हूँ, मुझमें कोई दोष नहीं।+

10 फिर भी परमेश्‍वर बेवजह मेरे खिलाफ हो गया है,

मुझे अपना दुश्‍मन समझ रहा है।+

11 उसने मेरे पैर काठ में कस दिए हैं,

वह मेरी हर हरकत पर नज़र रखता है।’+

12 मगर तेरी यह बात गलत है,

मैं बताता हूँ कि सच क्या है:

परमेश्‍वर महान है, अदना इंसान से बहुत महान।+

13 तू क्यों उसकी शिकायत कर रहा है?+

क्या इसलिए कि उसने तेरी बातों का जवाब नहीं दिया?+

14 परमेश्‍वर एक बार कहता है, दूसरी बार कहता है,

मगर कोई उस पर ध्यान नहीं देता।

15 वह सपने में, हाँ, दर्शन में अपनी बातें बताता है,+

रात के उस पहर जब लोग गहरी नींद में,

अपने बिस्तर पर सोए होते हैं,

16 तब वह अपनी बातें उन पर ज़ाहिर करता है,+

उनके अंदर अपनी हिदायतें बिठाता है,*

17 ताकि इंसान बुरे काम करना छोड़ दे+

और घमंड से दूर रहे।+

18 इस तरह परमेश्‍वर उसे कब्र* में जाने से बचाता है,+

तलवार* को उसकी जान नहीं लेने देता।

19 जब एक इंसान तकलीफों से गुज़रता है,

बिस्तर पर पड़े-पड़े हड्डियों के दर्द से कराहता है, तब वह सबक सीखता है।

20 उसका जी रोटी से घिन करने लगता है,

लज़ीज़ खाने से भी वह मुँह फेर लेता है।+

21 उसका शरीर घुलता जाता है,

उसकी हड्डियाँ तक नज़र आने लगती हैं।

22 वह धीरे-धीरे कब्र* की तरफ बढ़ रहा है,

लोग उसकी जान के प्यासे हैं।

23 अगर उसे एक दूत* मिल जाए,

हज़ार में से कोई एक मिल जाए जो उसकी वकालत करे,

जो उसे बताए कि वह सीधा-सच्चा इंसान कैसे बने,

24 तो परमेश्‍वर उस पर दया करेगा और हुक्म देगा,

‘उसे कब्र*+ में जाने से बचा,

उसके लिए मुझे फिरौती मिल गयी है।+

25 उसकी त्वचा बच्चे की त्वचा से भी कोमल* हो जाएगी,+

उसकी जवानी का दमखम फिर लौट आएगा।’+

26 वह परमेश्‍वर से मिन्‍नत करेगा+ जो उससे खुश होगा,

वह जयजयकार करते हुए परमेश्‍वर के सामने आएगा

और परमेश्‍वर उस अदना इंसान को फिर से अपनी नज़र में नेक करार देगा।

27 वह इंसान सबसे कहेगा,*

‘मैंने पाप किया है,+ जो सही है उसे करने से मैं चूक गया हूँ,

पर मुझे वह सज़ा नहीं दी गयी जिसके मैं लायक था।*

28 परमेश्‍वर ने मुझे कब्र* में जाने से बचा लिया,+

मैं उजाला देख पाऊँगा।’

29 परमेश्‍वर इंसान की खातिर

दो बार क्या, तीन बार ऐसा करता है,

30 ताकि उसे कब्र* से वापस ला सके

और उसके जीवन की लौ जलती रहे।+

31 हे अय्यूब! मेरी बात पर कान लगा,

खामोश रह और मुझे अपनी बात पूरी कर लेने दे।

32 अगर तुझे कुछ कहना है तो बता,

बेझिझक बोल क्योंकि मैं तुझे निर्दोष ठहराना चाहता हूँ।

33 लेकिन अगर तेरे पास कहने को कुछ नहीं, तो खामोश रह और मेरी सुन,

मैं तुझे बुद्धि की बातें सिखाऊँगा।”

34 एलीहू ने यह भी कहा,

 2 “हे समझ रखनेवालो, मुझ पर ध्यान दो!

हे ज्ञान रखनेवालो, मेरी बातें सुनो!

 3 जैसे जीभ से खाना चखा जाता है,

वैसे ही कानों से बातों को परखा जाता है।

 4 तो आओ हम परखकर देखें कि क्या सही है,

मिलकर जानें कि क्या अच्छा है।

 5 अय्यूब का कहना है, ‘मैं निर्दोष हूँ,+

फिर भी परमेश्‍वर ने मुझे इंसाफ नहीं दिया।+

 6 क्या मैं झूठ बोलूँगा कि मुझे न्याय मिलना चाहिए?

मैंने कोई अपराध नहीं किया, तब भी मेरा ज़ख्म नहीं भर रहा।’+

 7 ऐसा कौन है जो अय्यूब की तरह,

निंदा की बातें ऐसे पीता है मानो पानी पी रहा हो?

 8 वह बुराई करनेवालों के साथ रहता है,

दुष्टों के साथ मेल-जोल रखता है,+

 9 इसलिए वह कहता है, ‘परमेश्‍वर को खुश करने के लिए

इंसान लाख जतन कर ले, पर कोई फायदा नहीं।’+

10 हे समझ रखनेवालो, मेरी सुनो!

ऐसा हो ही नहीं सकता कि सच्चा परमेश्‍वर दुष्ट काम करे,+

यह मुमकिन नहीं कि सर्वशक्‍तिमान बुरे काम करे।+

11 परमेश्‍वर हर इंसान को उसके कामों का फल देता है,+

जो जैसी चाल चलता है, उसे वैसा ही अंजाम भुगतने देता है।

12 यकीनन परमेश्‍वर दुष्टता नहीं करता,+

हाँ, सर्वशक्‍तिमान अन्याय नहीं करता।+

13 परमेश्‍वर को पृथ्वी का ज़िम्मा किसने सौंपा?

पूरी दुनिया पर अधिकार किसने दिया?

14 अगर वह इंसानों पर ध्यान देकर

उनकी जीवन-शक्‍ति और साँसें छीन ले,+

15 तो वे सब-के-सब खत्म हो जाएँगे

और मिट्टी में मिल जाएँगे।+

16 इसलिए अगर तुममें समझ है तो कान लगाओ,

ध्यान से सुनो कि मैं क्या कहने जा रहा हूँ,

17 जो न्याय से नफरत करता है, क्या उसे राज करने का हक है?

या जो अधिकार रखता और सही काम करता है, क्या तुम उसे धिक्कारोगे?

18 क्या तुम राजा से कहोगे, ‘तू किसी काम का नहीं’?

इज़्ज़तदार लोगों से कहोगे, ‘तुम दुष्ट हो’?+

19 परमेश्‍वर बड़े-बड़े हाकिमों का पक्ष नहीं लेता,

वह अमीर-गरीब में कोई भेद नहीं करता+

क्योंकि वे सब उसी के हाथ के काम हैं।+

20 आधी रात को अचानक वे मर जाते हैं,+

बुरी तरह थरथराकर दम तोड़ देते हैं,

शक्‍तिशाली लोग भी मिट जाते हैं, लेकिन इंसान के हाथों नहीं।+

21 परमेश्‍वर इंसान के चालचलन को देखता रहता है,+

उसके एक-एक कदम पर उसकी नज़र रहती है।

22 ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ दुष्ट उससे छिप सके,

अंधकार या घना साया भी उसे नहीं छिपा सकता।+

23 किसी इंसान का न्याय करने के लिए

परमेश्‍वर को पहले से कोई तारीख नहीं देनी पड़ती,

24 वह सीधे ताकतवरों की ताकत तोड़ डालता है

और उनकी जगह दूसरों को बिठा देता है,+

उसे पूछताछ नहीं करनी पड़ती

25 क्योंकि उसे सब पता है कि वे क्या करते हैं, क्या नहीं।+

वह रातों-रात उनका तख्ता पलट देता है और वे मिट जाते हैं।+

26 परमेश्‍वर सबके सामने

उन्हें उनकी दुष्टता की सज़ा देता है।+

27 क्योंकि वे उसकी बात मानने से इनकार करते हैं,+

उसकी दिखायी राह को ठुकराते हैं।+

28 गरीब को इतना मजबूर कर देते हैं कि वह परमेश्‍वर के आगे रोता है

और परमेश्‍वर उस लाचार इंसान का कराहना सुनता है।+

29 जब परमेश्‍वर चुप रहता है, तो कौन उसे गलत ठहरा सकता है?

जब वह अपना मुँह फेर लेता है, तो कौन उसे देख सकता है?

चाहे राष्ट्र हो या इंसान, वह दोनों के साथ इसी तरह पेश आता है

30 ताकि कोई भक्‍तिहीन, मनमाना राज न करे+

और लोगों के लिए फंदे न बिछाए।

31 क्या कोई परमेश्‍वर से कहेगा,

‘मैंने कोई अपराध नहीं किया, फिर भी मुझे सज़ा दी गयी।+

32 ऐसा क्या है जो मैं नहीं देख पा रहा, मुझे बता,

अगर मैंने गलती की है, तो मैं उसे नहीं दोहराऊँगा।’

33 तुझे उसका फैसला मंज़ूर नहीं,

तो अब उसे तेरी मरज़ी के मुताबिक तेरा नुकसान भरना पड़ेगा?

तू बड़ा जानकार है, तो तू ही बता क्या किया जाए?

34 समझ रखनेवाले लोग मुझसे कहेंगे,

हाँ, हर वह बुद्धिमान आदमी जो मेरी सुनता है यही कहेगा,

35 ‘अय्यूब ऐसी बातें बोल रहा है जिसका उसे पूरा ज्ञान नहीं,+

उसकी बातें दिखा रही हैं कि उसमें अंदरूनी समझ नहीं।’

36 इसलिए अय्यूब को* पूरी तरह परखा जाए,

वह दुष्ट लोगों की तरह बातें जो कर रहा है।

37 वह पाप करने के साथ-साथ विद्रोह कर रहा है,+

तालियाँ पीट-पीटकर मज़ाक उड़ा रहा है

और सच्चे परमेश्‍वर के खिलाफ ढेरों बातें कह रहा है।”+

35 फिर एलीहू ने यह कहा,

 2 “क्या तुझे अपने सही होने पर इतना यकीन है

कि तू कहता है, ‘मैं परमेश्‍वर से भी ज़्यादा नेक हूँ।’+

 3 तू कहता है, ‘मेरे निर्दोष बने रहने से तुझे* क्या फर्क पड़ता है?

पाप न करके भला मुझे क्या फायदा हुआ?’+

 4 मैं तुझे इसका जवाब देता हूँ,

न सिर्फ तुझे बल्कि तेरे इन साथियों+ को भी।

 5 ज़रा ऊपर आसमान की तरफ देख,

ऊँचे-ऊँचे बादलों पर गौर कर।+

 6 अगर तू पाप करे, तो परमेश्‍वर का क्या बिगड़ेगा?+

अगर तेरे अपराध बढ़ जाएँ, तो उसे क्या नुकसान होगा?+

 7 अगर तू अच्छे काम करे, तो उसका क्या भला होगा?

तेरे कामों से उसे क्या मिलेगा?+

 8 तेरी दुष्टता से सिर्फ लोगों को नुकसान पहुँचेगा

और तेरी अच्छाई से सिर्फ इंसानों को फायदा होगा।

 9 ज़ुल्म के बढ़ने पर इंसान फरियाद करता है,

ताकतवरों की तानाशाही* से राहत पाने के लिए वह गिड़गिड़ाता है,+

10 मगर कोई यह नहीं पूछता, ‘मेरा महान रचनाकार+ कहाँ है?

परमेश्‍वर कहाँ है, जो रात में गाने के लिए प्रेरित करता है?’+

11 वह धरती के जानवरों+ से ज़्यादा हमें सिखाता है+

और आकाश के पंछियों से ज़्यादा हमें बुद्धिमान बनाता है।

12 लोग उससे फरियाद करते हैं,

मगर वह दुष्टों की नहीं सुनता+ क्योंकि वे घमंडी हैं।+

13 वह उनकी खोखली पुकार* पर ध्यान नहीं देता,+

सर्वशक्‍तिमान उनकी बिनती नहीं सुनता।

14 तेरी तो वह और भी नहीं सुनेगा क्योंकि तेरी शिकायत है कि वह तुझे अनदेखा कर रहा है।+

तेरा मुकदमा उसके सामने पेश कर दिया गया है,

अब तू उसके फैसले का इंतज़ार कर।+

15 उसने गुस्से में आकर तुझे सज़ा नहीं दी

और तूने बिना सोचे-समझे जो कहा, उसका हिसाब नहीं लिया।+

16 इसलिए अय्यूब बेकार में अपना मुँह खोलता है

और बहुत-सी बातें करता है, जिसके बारे में उसे कुछ नहीं पता।”+

36 एलीहू ने यह भी कहा,

 2 “थोड़ा और सब्र रखो और मेरी सुनो!

परमेश्‍वर के पक्ष में मुझे कुछ और भी कहना है।

 3 मैंने जो जानकारी हासिल की है, वह सब बताऊँगा,

खुलेआम बताऊँगा कि मेरा बनानेवाला कितना नेक है।+

 4 यकीन मानो, मेरी बातें झूठी नहीं,

यह सब मैंने उससे जाना है जिसके पास पूरा ज्ञान है।+

 5 हाँ, परमेश्‍वर से, जो ताकतवर है+ और किसी को नहीं ठुकराता,

वह गहरी समझ रखनेवाला परमेश्‍वर है।

 6 वह दुष्टों को ज़िंदा नहीं छोड़ता,+

मगर सताए हुओं को न्याय दिलाता है।+

 7 वह नेक लोगों से अपनी नज़र नहीं हटाता,+

उन्हें राजाओं की तरह* राजगद्दी पर बिठाता है+

और उन्हें सदा के लिए ऊँचा करता है।

 8 लेकिन अगर उन्हें बेड़ियों में जकड़ दिया जाता है

और दुख की रस्सियों से बाँध दिया जाता है,

 9 तो वह उन्हें बताता है कि उनका कसूर क्या है,

घमंड में आकर उन्होंने क्या अपराध किया है।

10 सुधारने के लिए वह उन्हें शिक्षा देता है

और कहता है कि बुरे रास्ते से पलटकर लौट आओ।+

11 अगर वे उसकी बात मानकर उसकी सेवा करें,

तो उनके दिन खुशहाली में बीतेंगे,

उनकी ज़िंदगी के साल सुख से कटेंगे।+

12 लेकिन अगर वे नहीं मानेंगे तो तलवार* से मारे जाएँगे,+

अज्ञानता की हालत में मर जाएँगे।

13 जो मन से भक्‍तिहीन हैं, वे नाराज़गी पालते हैं,

परमेश्‍वर उन्हें बाँध देता है, फिर भी वे उससे मदद नहीं मागँते।

14 वे नीच आदमियों*+ के साथ ज़िंदगी बिताते हैं*

और जवानी में ही मर जाते हैं।+

15 मगर परमेश्‍वर* मुसीबत के मारों को छुड़ाता है,

सताए हुओं को अपनी हिदायतें देता है।

16 वह तुझे संकट के मुँह से खींचकर+

एक खुली जगह ले आएगा, जहाँ कोई बंदिश न होगी,+

तेरी मेज़ पर चिकना-चिकना भोजन सजाकर तुझे दिलासा देगा।+

17 तुझे यह भी देखकर चैन मिलेगा कि दुष्टों को सज़ा सुनायी गयी,+

उन्हें सज़ा दी गयी और इंसाफ किया गया।

18 मगर ध्यान रख कि गुस्से में तू उनका कुछ बुरा न कर बैठे*+

और मोटी रिश्‍वत तुझे बहका न दे।

19 तू मदद के लिए चाहे कितनी ही फरियाद कर ले,

कितने ही हाथ-पैर मार ले, मगर क्या तू मुसीबत से बच पाएगा?+

20 तू रात के लिए मत तरस,

जब लोग अपनी-अपनी जगह से गायब हो जाते हैं।

21 खबरदार रह कि तेरे कदम बुराई की तरफ न बढ़ें,

दुख सहने के बजाय तू बुराई न करने लगे।+

22 देख! परमेश्‍वर बड़ा शक्‍तिशाली है,

सिखाने में उसके जैसा कोई नहीं।

23 भला कौन उसे बता सकता है कि किस राह पर चलना है?*+

या उससे कह सकता है, ‘तूने जो किया, गलत किया।’+

24 उसके कामों की बड़ाई करना मत भूल,+

जिनकी तारीफ में लोग गीत गाते हैं।+

25 उसके ये काम सब लोगों ने देखे हैं,

नश्‍वर इंसान दूर से उन्हें निहारता है।

26 परमेश्‍वर की महानता हमारी समझ से परे है,+

उसकी उम्र का कोई हिसाब नहीं लगाया जा सकता।+

27 वह पानी को भाप बनाकर ऊपर उठा ले जाता है,+

कोहरा फिर पानी की बूँदें बन जाता है

28 और बादल इन्हें नीचे उँडेलते हैं,+

इंसान की बस्तियों पर जमकर पानी बरसाते हैं।

29 क्या कोई आसमान में फैले बादलों को समझ सकता है?

उसके डेरे में होनेवाली गड़गड़ाहट को जान सकता है?+

30 देख, वह कैसे बादलों में से बिजली* चमकाता है+

और समुंदर की गहराइयों को ढकता है।

31 इन्हीं से वह लोगों की ज़िंदगी कायम रखता है,*

उन्हें बहुतायत में खाना देता है।+

32 वह बिजली को अपनी हथेली से ढक लेता है,

जहाँ निशाना साधता है, वहीं उसे गिराता है।+

33 बादलों का गरजन उसके आने की खबर देता है,

यहाँ तक कि मवेशी भी बताते हैं कि कौन* आ रहा है।

37 इस पर मेरा दिल काँप उठा

और ज़ोरों से धड़कने लगा।

 2 परमेश्‍वर की आवाज़ की गड़गड़ाहट सुनो!

उसके मुँह से निकलनेवाले गरजन पर ध्यान दो!

 3 आसमान के नीचे चारों तरफ उसकी गूँज सुनायी देती है,

वह धरती के कोने-कोने तक बिजली चमकाता है।+

 4 फिर कड़कड़ाने का भयानक शोर होता है,

वह ज़ोरदार आवाज़ में गरजता है।+

जब उसकी आवाज़ सुनायी देती है,

तब बिजली लगातार चमकती रहती है।

 5 परमेश्‍वर अपना गरजन+ बड़े लाजवाब ढंग से सुनाता है,

ऐसे बड़े-बड़े काम करता है जो हमारी समझ से परे हैं।+

 6 वह बर्फ से कहता है, ‘धरती पर गिर!’+

बारिश से कहता है, ‘जमकर बरस!’+

 7 ऐसा करके वह इंसान के सारे काम रोक देता है,*

ताकि अदना इंसान उसके अद्‌भुत कामों को जान सके।

 8 जंगली जानवर भी अपनी गुफाओं में भाग जाते हैं,

दुबककर अपनी माँदों में बैठे रहते हैं।

 9 एक तरफ बवंडर अपने ठिकाने से निकलता है,+

दूसरी तरफ उत्तर की हवाएँ कड़ाके की ठंड लाती हैं।+

10 परमेश्‍वर की फूँक से पानी बर्फ बन जाता है,+

दूर-दूर तक फैला पानी जम जाता है।+

11 वह बादलों को पानी की बूँदों से भरता है,

बिजली को बादलों में लहराता है।+

12 उसके इशारे पर बादल इधर से उधर जाते हैं,

धरती पर उन्हें जो काम दिया जाता है, उसे वे पूरा करते हैं,+

13 चाहे किसी को सज़ा देनी* हो,+

ज़मीन को सींचना हो या किसी पर कृपा* करनी हो,

जैसा परमेश्‍वर चाहता है वैसा हो जाता है।+

14 हे अय्यूब सुन!

परमेश्‍वर के लाजवाब कामों पर गौर कर!+

15 क्या तू जानता है, वह बादलों को कैसे काबू में रखता है?*

कैसे बादलों से बिजली चमकाता है?

16 क्या तुझे पता है, आसमान में बादल कैसे तैरते हैं?+

ये उसके अजूबे हैं जिसके पास सब बातों का पूरा ज्ञान है।+

17 जब दक्षिण से हवा चलती है, तब सन्‍नाटा क्यों छा जाता है?

बता, तेरे कपड़े गरम क्यों हो जाते हैं?+

18 क्या तू परमेश्‍वर की तरह आकाश को फैला सकता है?+

उसे धातु से ढले हुए आईने जितना मज़बूत बना सकता है?

19 हम परमेश्‍वर से क्या कहें, तू ही बता?

हमें तो कुछ नहीं पता, हम क्या बताएँ।

20 क्या कोई उससे कह सकता है कि मैं कुछ बताना चाहता हूँ?

या किसी को ऐसी कोई खास बात पता है, जो उसे बतायी जानी है?+

21 आसमान में चाहे कितना ही उजाला हो,

मगर रौशनी* तब तक नहीं दिखायी देती,

जब तक हवा बादलों का परदा न सरका दे।

22 उत्तर से जब सुनहरी किरणें छनकर आती हैं,

तब परमेश्‍वर का वैभव+ देखकर सब विस्मय से भर जाते हैं।

23 सर्वशक्‍तिमान को समझना हमारे बस के बाहर है।+

वह बहुत शक्‍तिशाली है,+

वह कभी अन्याय नहीं करता,+

न नेकी के अपने स्तरों को दरकिनार करता है।+

24 इसलिए इंसान को उसका डर मानना चाहिए,+

पर जो खुद को बुद्धिमान समझता है, उससे वह खुश नहीं होता।”+

38 तब तूफान में से यहोवा की आवाज़ सुनायी दी।+ उसने अय्यूब से कहा,

 2 “यह कौन है जो बिना कुछ जाने बात कर रहा है?

मेरी सलाह को तोड़-मरोड़कर बता रहा है?+

 3 हे इंसान, तैयार हो जा!

मैं तुझसे सवाल करूँगा और तू मुझे बता।

 4 जब मैंने धरती की नींव डाली तब तू कहाँ था?+

अगर तू इस बारे में जानता है, तो बता।

 5 क्या तू जानता है पृथ्वी की नाप किसने तय की?

किसने नापने की डोरी से इसकी लंबाई-चौड़ाई नापी?

 6 इसके पाये किसमें बिठाए गए?

इसके कोने का पत्थर किसने रखा?+

 7 जब भोर के तारे+ खुशी से झूम उठे,

परमेश्‍वर के सभी बेटों*+ ने जयजयकार की, तब तू कहाँ था?

 8 किसने समुंदर को रोकने के लिए दरवाज़े लगाए?+

जब समुंदर गर्भ से निकला,

 9 जब मैंने उसे बादलों के कपड़े पहनाए,

उसे काले घने बादलों में लपेटा,

10 उसकी हदें ठहरायीं,

उसमें पल्ले और बेड़े लगाए,+

11 उससे कहा, ‘तू बस यहाँ तक आ सकता है, इससे आगे नहीं।

तेरी ऊँची लहरें साहिल से टकराकर यहीं रुक जाएँगी,’+ तब तू कहाँ था?

12 क्या तूने कभी* सुबह को हुक्म दिया, ‘अपना उजाला फैला’?

या भोर से कहा, ‘यहाँ से अपनी छटा बिखेर’?+

13 क्या सुबह की किरणों को तूने धरती के छोर तक भेजा

कि वे दुष्ट लोगों को खदेड़कर भगा दें?+

14 किरणों से धरती ऐसे उभरती है, जैसे मुहर के नीचे चिकनी मिट्टी,

धरती का रूप ऐसा नज़र आता है, जैसे कपड़े की सजावट।

15 मगर यही सुबह दुष्ट से उसकी रौशनी छीन लेती है,

जिन हाथों से वह दूसरों पर ज़ुल्म ढाता है, वे तोड़ दिए जाते हैं।

16 क्या तू समुंदर में उतरकर उसके सोते तक गया है?

क्या तू बता सकता है, गहरे सागर में क्या-कुछ पाया जाता है?+

17 क्या तू जान पाया है, मौत का दरवाज़ा+ कहाँ है?

क्या तूने घोर अंधकार* का दरवाज़ा देखा है?+

18 क्या तूने धरती की हर जगह देखी और समझी है?+

अगर तू यह सब जानता है तो बता।

19 उजाले का बसेरा किधर है?+

अँधेरा कहाँ रहता है?

20 क्या तुझे उनके घर का रास्ता मालूम है

कि उन्हें घर पहुँचा सके?

21 क्या तू इन चीज़ों के बनने से पहले पैदा हुआ था?

क्या तू इतने सालों से वजूद में है कि तुझे सब मालूम है?

22 क्या तू बर्फ के गोदामों में गया है?+

क्या तूने ओलों के उन भंडारों को देखा है,+

23 जिन्हें मैंने विपत्ति के समय,

युद्ध और लड़ाई के दिन के लिए बचा रखा है?+

24 क्या तू बता सकता है रौशनी* कैसे फैलती है?

वह जगह कहाँ है जहाँ से पूरब की हवा धरती पर चलती है?+

25 किसने तेज़ बारिश के लिए आसमान में नहर खोदी है?

गरजते बादलों के लिए बरसने का रास्ता तैयार किया है?+

26 ताकि सुनसान, वीरान जगहों में

जहाँ कोई इंसान नहीं रहता, बौछार हो,+

27 उजड़ी, बंजर ज़मीन की प्यास बुझे

और हरी-हरी घास उग आए।+

28 क्या बारिश का कोई पिता है?+

ओस की बूँदों को पैदा करनेवाला कौन है?+

29 आसमान का पाला किसके गर्भ से निकला है?

बर्फ ने किसकी कोख से जन्म लिया है,+

30 जब पानी की सतह को जमाया गया

और गहरे सागर को मानो सफेद पत्थर से ढक दिया गया?+

31 क्या तू किमा तारामंडल* में तारों को बाँधे रख सकता है?

या केसिल तारामंडल* के बंधन खोल सकता है?+

32 क्या तू किसी तारामंडल* को अपने मौसम में चमका सकता है?

क्या तू अश तारामंडल* और उसके बेटों को राह दिखा सकता है?

33 क्या तू आकाशमंडल में ठहराए नियमों को जानता है?+

क्या तू उन* नियमों को पृथ्वी पर लागू करवा सकता है?

34 क्या तू ज़ोर से पुकारकर बादलों से कह सकता है

कि वे तुझ पर जमकर बरसें?+

35 बिजली को आदेश दे सकता है कि वह अपना काम करे?

क्या वह लौटकर तुझसे कहेगी, ‘मैं आ गयी’?

36 बादलों* में बुद्धि किसने डाली?+

आसमान में होनेवाले अजूबों को* समझ किसने दी?+

37 कौन इतना बुद्धिमान है जो बादलों को गिन सकता है?

कौन आसमान की गगरियाँ छलका सकता है+

38 ताकि धूल कीचड़ बन जाए,

मिट्टी के लोंदे आपस में चिपक जाएँ?

39 क्या तू शेर के लिए शिकार कर सकता है,

जवान शेरों की भूख मिटा सकता है,+

40 जब वे अपने ठिकानों पर घात में बैठते हैं,

छिपने की जगहों पर शिकार की ताक में रहते हैं?

41 कौवे को कौन खिलाता है?+

जब उसके बच्चे परमेश्‍वर से खाना माँगते हैं

और भूख के मारे फुदकते हैं, तो कौन उन्हें खाना देता है?

39 क्या तू जानता है पहाड़ी बकरी कब जन्म देती है?+

क्या तूने कभी हिरनी को बच्चा जनते देखा है?+

 2 क्या तू गिन सकता है, वे कितने महीने गाभिन रहती हैं?

या ठीक किस वक्‍त बच्चा देती हैं?

 3 बच्चा देते वक्‍त वे झुक जाती हैं

और बच्चा हो जाने पर उन्हें प्रसव-पीड़ा से राहत मिलती है।

 4 उनके बच्चे खुले मैदानों में बढ़ते और तगड़े होते जाते हैं,

फिर वे चले जाते हैं और लौटकर नहीं आते।

 5 किसने जंगली गधे* को खुला घूमने दिया?+

किसने उसकी रस्सियों को खोल दिया?

 6 मैंने बंजर इलाके को उसका घर बनाया,

नमकवाली ज़मीन उसके बसेरे के लिए रखी।

 7 शहर की चहल-पहल से उसे कोई मतलब नहीं,

हाँकनेवाले की आवाज़ को वह अनसुना कर देता है।

 8 ज़रा-सी घास की तलाश में,

वह पहाड़ों को छान मारता है।

 9 बता, क्या जंगली साँड़ तेरे लिए काम करेगा?+

क्या वह तेरे तबेले* में रात बिताएगा?

10 क्या तू उसे रस्सी से बाँधकर जुताई करवा सकता है?

क्या वह घाटी में खेत जोतने* के लिए तेरे पीछे-पीछे आएगा?

11 क्या तू उसकी ज़बरदस्त ताकत पर भरोसा रख सकता है?

उससे अपने भारी काम करवा सकता है?

12 क्या वह तेरे लिए फसल ढोएगा?

उसे उठाकर खलिहान तक लाएगा?

13 मादा शुतुरमुर्ग खुशी के मारे पंख फड़फड़ाती है,

मगर क्या उसके पंख और डैने, लगलग पक्षी+ की तरह होते हैं?

14 वह अंडे देकर उन्हें ज़मीन में ही रहने देती है

और वहीं धूल में उन्हें सेती है।

15 वह भूल जाती है कि कोई अंडों को कुचल सकता है,

या जंगली जानवर उन्हें रौंद सकता है।

16 वह अपने बच्चों के साथ कठोरता करती है, मानो वे उसके हैं ही नहीं।+

उसे कोई चिंता नहीं कि उन्हें पालने-पोसने की उसकी मेहनत बेकार जाएगी।

17 परमेश्‍वर ने उसे बुद्धि नहीं दी,

न ही उसमें समझ डाली।

18 मगर जब वह अपने पंख फड़फड़ाकर दौड़ती है,

तब घोड़े और उसके सवार पर हँसती है।

19 क्या घोड़े में ताकत तूने भरी है?+

उसकी गरदन पर लहराता अयाल क्या तूने दिया है?

20 क्या उसे टिड्डी की तरह छलाँग लगाना तूने सिखाया है?

उसकी फुफकार से कँपकँपी छूट जाती है।+

21 घाटी में वह टाप मारता है और ज़ोर लगाकर उछलता है,+

युद्ध के मैदान की तरफ* सरपट दौड़ पड़ता है।+

22 खौफ को सामने देख वह हँसता है,

किसी से नहीं डरता,+

तलवार देखकर पीछे नहीं हटता।

23 जब तरकश उससे लगकर खड़खड़ाता है,

जब सवार के भाले-बरछी चमचमाते हैं,

24 तो वह उमंग से भर जाता है, हवा से बातें करने लगता है,*

नरसिंगा फूँके जाने पर उसे रोकना मुश्‍किल है,*

25 उसकी आवाज़ सुनकर वह ज़ोर से हिनहिनाता है,

दूर से ही उसे युद्ध की खुशबू आ जाती है,

सेनापतियों का चिल्लाना और युद्ध की ललकार सुनायी पड़ती है।+

26 क्या बाज़ को आसमान में उड़ने की समझ तूने दी है,

जो वह दक्षिण की तरफ अपने पंख फैलाता है?

27 या क्या तेरे हुक्म पर उकाब उड़ान भरता है,+

अपना घोंसला ऊँची जगहों पर बनाता है,+

28 खड़ी चट्टान पर रात गुज़ारता है

और चट्टान की चोटी पर अपना गढ़ बनाता है?

29 वहाँ से वह खाने की तलाश में,+

दूर-दूर तक अपनी नज़र दौड़ाता है।

30 उसके चूज़े खून पीते हैं,

जहाँ लाश होती है वहीं वह पहुँच जाता है।”+

40 यहोवा ने अय्यूब से यह भी कहा,

 2 “कौन सर्वशक्‍तिमान में गलती ढूँढ़कर उससे बहस कर सकता है?+

कौन परमेश्‍वर को सुधारना चाहता है? अगर कोई है, तो जवाब दे।”+

 3 तब अय्यूब ने यहोवा से कहा,

 4 “मेरी क्या औकात?+

मैं तुझे क्या जवाब दूँ?

मैं मुँह पर हाथ रखकर चुप रहूँगा,+

 5 मैंने एक बार कहा, दूसरी बार कहा,

मगर अब कुछ न कहूँगा, अपने मुँह से एक शब्द नहीं निकालूँगा।”

 6 तब तूफान में से यहोवा की आवाज़ सुनायी दी। उसने अय्यूब से कहा,+

 7 “हे इंसान, तैयार हो जा!

मैं तुझसे सवाल करूँगा और तू मुझे बता।+

 8 क्या तू मेरे फैसले पर उँगली उठाएगा?

खुद को सही साबित करने के लिए मुझे दोषी ठहराएगा?+

 9 क्या तू सच्चे परमेश्‍वर जितना शक्‍तिशाली है?+

क्या तू उसकी तरह गरज सकता है?+

10 अगर हाँ, तो पूरी शान और ऐश्‍वर्य से खुद को सँवार ले,

गौरव और वैभव की पोशाक पहन ले।

11 अपने क्रोध की ज्वाला बरसा दे,

घमंडियों पर ध्यान दे और उन्हें नीचा कर।

12 उन पर ध्यान दे और उनका घमंड तोड़ दे,

जहाँ कहीं दुष्ट दिखें, उन्हें कुचल दे।

13 उन सबको मिट्टी में गाड़ दे,

अँधेरी जगह में उन्हें* बाँध दे,

14 तब मैं भी मान लूँगा*

कि तेरा दायाँ हाथ तुझे बचा सकता है।

15 ज़रा बहेमोत* को देख,

जैसे मैंने तुझे बनाया है उसे भी बनाया है,

वह बैल की तरह घास खाता है।

16 उसके कूल्हों में ज़बरदस्त शक्‍ति है,

उसके पेट की माँस-पेशियों में गज़ब की ताकत है।

17 वह अपनी पूँछ देवदार के पेड़ की तरह कड़ी कर लेता है,

उसकी जाँघ की माँस-पेशियाँ मज़बूती से गुंथी हुई हैं।

18 उसकी हड्डियाँ, ताँबे की नलियों जैसी

और उसके हाथ-पैर लोहे के छड़ जैसे मज़बूत हैं।

19 बड़े-बड़े जानवरों में परमेश्‍वर ने उसे सबसे पहले बनाया,

सिर्फ उसका बनानेवाला ही उसे तलवार से मार सकता है।

20 उसे खाना देने के लिए पूरा पहाड़ जुटा रहता है,

सारे जंगली जानवर वहीं आस-पास खेलते-कूदते हैं।

21 वह कँटीली झाड़ियों* के नीचे आराम फरमाता है,

दलदल में नरकटों के बीच रहता है,

22 कँटीली झाड़ियाँ भी उसे अपनी छाँव में ले लेती हैं,

घाटी के पेड़* उसे घेरे रहते हैं।

23 चाहे नदी में उफान आ जाए, वह घबराता नहीं,

चाहे यरदन का पानी+ उस पर चढ़ आए, वह बेफिक्र रहता है।

24 क्या कोई उसका सामना करके उसे पकड़ सकता है?

या उसकी नाक में नकेल* डाल सकता है?

41 क्या तू मछली पकड़नेवाले काँटे से लिव्यातान*+ को पकड़ सकता है?

या उसकी जीभ को रस्सी से कस सकता है?

 2 क्या तू उसकी नाक में नकेल* डाल सकता है?

या उसके जबड़ों को काँटे से छेद सकता है?

 3 क्या वह तुझसे रहम की भीख माँगेगा?

तुझसे मीठी-मीठी बातें करेगा?

 4 उम्र-भर तेरी गुलामी करने के लिए

तुझसे करार करेगा?

 5 क्या तू उसके साथ ऐसे खेलेगा, जैसे चिड़िया से खेलता है?

या उसे बाँधकर रखेगा कि वह तेरी बच्चियों का मन बहलाए?

 6 क्या उसे पकड़नेवाले मछुवारे उसका सौदा करेंगे?

उसे काटकर व्यापारियों में बाँटेंगे?

 7 क्या तू मछली मारनेवाले भालों से उसकी खाल छलनी कर सकता है?+

या उसके सिर के आर-पार भाला घुसा सकता है?

 8 ज़रा उसे हाथ लगाकर तो देख!

ऐसी मुठभेड़ होगी कि ज़िंदगी-भर याद रहेगी

और दोबारा तू यह गलती नहीं करेगा।

 9 उसे पकड़ने की आस रखना बेकार है,

उसे देखते ही तेरे हाथ-पैर फूल जाएँगे।

10 जब किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि उसे छेड़ सके,

तो मेरे खिलाफ खड़े होने की जुर्रत कौन करेगा?+

11 कौन है जिसने मुझे कुछ दिया है, जो मुझे लौटाना पड़े?+

आकाश के नीचे जो कुछ है, सब मेरा है!+

12 मैं बताता हूँ उसके हाथ-पैरों की बनावट कैसी है,

उसमें कितनी ताकत है, उसे किस खूबसूरती से तराशा गया है।

13 कौन उसकी खाल निकाल सकता है?

उसके मज़बूत जबड़ों के पास फटक सकता है?

14 कौन उन्हें* खोलने का साहस कर सकता है?

उसके दाँत देखकर कोई भी काँप उठे।

15 उसकी पीठ ऐसी नज़र आती है,

मानो ढालें कतार में एक-दूसरे से सटी हों।*

16 वे इस कदर आपस में जुड़ी होती हैं

कि उनके बीच हवा तक नहीं जा सकती।

17 उनका जोड़ इतना मज़बूत होता है

कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता।

18 उसकी नाक से तेज़ फुहार रौशनी की तरह दमकती है,

उसकी आँखें, सुबह की किरणों जैसी चमकती हैं।

19 उसके मुँह से बिजली कौंधती है,

चिंगारियाँ छूटती हैं।

20 उसके नथनों से ऐसा धुआँ निकलता है,

जैसे आग की भट्ठी में घास जल रही हो।

21 उसकी फूँक से मानो कोयले सुलग उठते हैं,

उसके मुँह से आग की लपटें उठती हैं।

22 उसकी गरदन में ज़बरदस्त ताकत है,

डर उसके सामने से भाग खड़ा होता है।

23 उसके पेट की परतें लोहे जितनी सख्त होती हैं,

उन्हें हिलाना नामुमकिन है।

24 उसका दिल पत्थर की तरह मज़बूत होता है,

हाँ, चक्की के निचले पाट जितना मज़बूत।

25 जब वह हरकत में आता है, तो अच्छे-अच्छे घबरा जाते हैं,

डर के मारे सुध-बुध खो बैठते हैं।

26 उस पर तलवार, भाले,

बरछी या तीर का कोई असर नहीं होता।+

27 वह लोहे को भूसा

और ताँबे को गली हुई लकड़ी समझता है।

28 वह तीर से डरकर भागता नहीं

गोफन के पत्थरों का वार, उस पर घास-फूस की बौछार है।

29 वह डंडे को घास-फूस समझता है,

बरछी से ललकारे जाने पर हँसता है।

30 उसका पेट ठीकरे जैसा पैना होता है,

कीचड़ पर वह ऐसे निशान छोड़ जाता है,

मानो दाँवने की पटिया चलायी गयी हो।+

31 वह गहरे सागर में ऐसी हलचल मचाता है, मानो हाँडी उबल रही हो,

समुंदर में ऐसा उफान लाता है, मानो हाँडी में खुशबूदार तेल उफन रहा हो।

32 वह पानी में अपने पीछे एक चमकीली लकीर छोड़ जाता है,

ऐसा लगता है कि सागर का सफेद बाल निकल आया हो।

33 उसके जैसा पूरी धरती पर कोई नहीं,

उसे इस तरह बनाया गया है कि वह किसी से नहीं डरता।

34 वह बड़े-बड़े जानवरों को घूरता है,

जंगली जानवरों का वह बादशाह है।”

42 तब अय्यूब ने यहोवा से कहा,

 2 “अब मैं जान गया हूँ कि तू सबकुछ कर सकता है,

ऐसा कोई काम नहीं जो तूने सोचा हो और उसे पूरा न कर सके।+

 3 तूने पूछा था, ‘यह कौन है जो बिना कुछ जाने मेरी सलाह को तोड़-मरोड़ रहा है?’+

मैं ही वह इंसान हूँ जिसने बिना सोचे-समझे बातें कीं,

उन अनोखी बातों के बारे में कहा, जिन्हें मैं सही-सही नहीं जानता।+

 4 तूने कहा था, ‘अब ज़रा मेरी बात पर ध्यान दे,

मैं तुझसे सवाल करूँगा और तू मुझे बता।’+

 5 आज तक मैंने तेरे बारे में सुना था,

पर अब तुझे देख भी लिया है।

 6 इसलिए मैं अपने शब्द वापस लेता हूँ,+

धूल और राख में बैठकर पश्‍चाताप करता हूँ।”+

7 जब यहोवा अय्यूब से बात कर चुका तो यहोवा ने तेमानी एलीपज से कहा,

“तुझ पर और तेरे दोनों साथियों+ पर मेरा क्रोध भड़क उठा है। क्योंकि तुम लोगों ने मेरे बारे में सच नहीं कहा+ जबकि मेरे सेवक अय्यूब ने मेरे बारे में सच कहा। 8 अब सात बैल और सात मेढ़े ले और मेरे सेवक अय्यूब के पास जा। वहाँ तुम लोग अपने लिए होम-बलि चढ़ाना और मेरा सेवक अय्यूब तुम्हारे लिए प्रार्थना करेगा।+ हालाँकि तुमने मेरे सेवक अय्यूब की तरह मेरे बारे में सच नहीं कहा, फिर भी उसकी बिनती सुनकर मैं तुम्हारी मूर्खता की सज़ा तुम्हें नहीं दूँगा।”

9 तब तेमानी एलीपज, शूही बिलदद और नामाती सोपर ने वही किया, जो यहोवा ने कहा था। और यहोवा ने अय्यूब की प्रार्थना कबूल की।

10 जब अय्यूब ने अपने साथियों के लिए प्रार्थना की,+ तब यहोवा ने अय्यूब का सारा दुख दूर कर दिया+ और उसकी खुशहाली लौटा दी।* अय्यूब के पास पहले जो कुछ था, यहोवा ने उसका दुगना उसे दिया।+ 11 उसके सभी भाई-बहन और पुराने दोस्त+ उसके घर उससे मिलने आए और उन्होंने उसके साथ खाना खाया। यहोवा की इजाज़त से उस पर जो भी मुसीबतें आयी थीं, उसके लिए उन्होंने अय्यूब से हमदर्दी जतायी और उसे दिलासा दिया। हरेक ने तोहफे में उसे चाँदी का एक टुकड़ा और सोने की एक बाली दी।

12 यहोवा ने अय्यूब को उसके पहले के दिनों से ज़्यादा आशीष दी।+ उसके पास 14,000 भेड़ें, 6,000 ऊँट, 2,000* गाय-बैल और 1,000 गधियाँ हो गयीं।+ 13 अय्यूब के सात बेटे और हुए। इसके अलावा, उसकी तीन और बेटियाँ हुईं।+ 14 उसने पहली बेटी का नाम यमीमा, दूसरी का कसीआ और तीसरी का केरेन-हप्पूक रखा। 15 उनके जैसी खूबसूरत लड़कियाँ पूरे देश में कहीं न थीं। अय्यूब ने अपने बेटों के साथ-साथ अपनी बेटियों को भी जायदाद का हिस्सा दिया।

16 अय्यूब 140 साल और जीया। उसने अपने बच्चों और परपोतों को भी देखा, कुल मिलाकर उसने चार पीढ़ियाँ देखीं। 17 एक लंबी और खुशहाल ज़िंदगी जीने के बाद* अय्यूब की मौत हो गयी।

शायद इसका मतलब है, “दुश्‍मनी का शिकार।”

शा., “500 जोड़ी।”

या “अय्यूब का हर बेटा बारी-बारी से अपने घर दावत रखता था।”

परमेश्‍वर के स्वर्गदूतों के लिए इस्तेमाल होनेवाला इब्रानी मुहावरा।

शब्दावली देखें।

या शायद, “बिजली।”

परमेश्‍वर के स्वर्गदूतों के लिए इस्तेमाल होनेवाला इब्रानी मुहावरा।

या “अंधकार और मौत का साया।”

माना जाता है कि यह मगरमच्छ या कोई बड़ा और ताकतवर समुद्री जीव था।

या “खेलाया।”

या शायद, “जिन्होंने अपने लिए सुनसान जगह बनायीं।”

या “ऊँचे ओहदे के दरबारियों।”

या “को जीने देता है?”

शा., “तू थक गया?”

या “बुराई करने की सोचते हैं।”

या “अदृश्‍य शक्‍ति।” शब्दावली में “रुआख; नफ्मा” देखें।

या “दूतों।”

या “कपड़-कीड़ा।”

शा., “पवित्र जन।”

या “का उद्धार।”

या “तेरे साथ करार (या समझौता) करेंगे।”

शायद अय्यूब की तकलीफों की या उसके साथियों की दी सलाह की बात की गयी है।

या “से अटल प्यार न करे।”

या “सबाई लोगों के काफिले।”

या “हवा है।”

शा., “कुछ अच्छा देखने।”

शा., “बस एक साँस है।”

शा., “पर मन लगाए?”

या “तेज़ आँधी की तरह हैं।”

या “तेरे लिए कदम उठाएगा।”

शा., “क्या वे अपने मन से बात न निकालेंगे?”

या “पत्थरों का घर देखता है।”

या “उसकी राह मिट जाती है।”

या “को कचहरी ले जाना चाहे।”

शा., “दिल में बुद्धिमान।”

शा., “हटाता।”

शायद सप्तर्षि तारामंडल। सात तारों का मंडल।

शायद मृगशिरा तारामंडल।

शायद वृष तारामंडल में तारों का समूह, कृत्तिका।

शायद एक बड़ा समुद्री जीव।

या शायद, “मुद्दई।”

शा., “मुझे अदालत का बुलावा दे।”

शा., “टेढ़ा।”

शा., “दुष्ट।”

एक तरह का साबुन।

या “कोई बिचवई नहीं।”

शा., “जो हम दोनों पर अपना हाथ रख सके।”

शा., “क्या तूने मुझे दूध की तरह नहीं उँडेला? और पनीर की तरह नहीं बनाया?”

या “साँसें।”

शा., “और तूने ऐसी बातों को अपने मन में छिपा रखा।”

या “खुशी।”

या “अंधकार और मौत के साए।”

या “डींगें हाँकने।”

या “इंसान बनकर पैदा नहीं हो सकता।”

या “तैयार।”

या “फिसल।”

या शायद, “धरती से बात करो।”

या “इंसान।”

शा., “को नंगे पाँव चलाता है।”

या “मुखियाओं।”

शा., “के कमरबंद ढीले कर देता है।”

या “यादगार नीतिवचन।”

शा., “ढालें।”

शा., “अपना माँस दाँतों में दबाए फिरूँगा।”

या शायद, “अगर कोई करे, तो मैं चुप रहूँगा और मर जाऊँगा।”

शा., “बस ये दो बातें मेरे साथ मत कर।”

शा., “वह।” शायद अय्यूब की बात की गयी है।

या “कपड़-कीड़ा।”

या शायद, “तोड़ दिया।”

शा., “मुझे।”

शा., “तो वह कहाँ रहा?”

या “शीओल।” शब्दावली देखें।

शा., “पूर्वी हवा।”

शा., “पवित्र जनों।”

या “से जीतने की कोशिश।”

शा., “मोटी।”

यहाँ मोटापा फलने-फूलने, चीज़ों का हद-से-ज़्यादा मज़ा लेने और घमंड की निशानी है।

यानी बचने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी।

शा., “उसके मुँह की।”

शा., “मैंने अपना सींग मिट्टी में गाड़ दिया है।”

या “मौत का साया।”

या शायद, “को ऐसे देखता हूँ मानो मेरी नींद उड़ गयी हो।”

या “सोचता।”

या “मेरा ज़ामिन बन जा।”

शा., “कहावत।”

शा., “जिसके हाथ शुद्ध हैं।”

या “कब्र।”

यानी मेरी आशा।

या शायद, “अशुद्ध।”

शा., “मौत का पहलौठा।”

शा., “आतंक के राजा के पास।”

शा., “जो उसके यहाँ का नहीं है।”

शा., “उसका कोई नाम न होगा।”

या “मुझे फटकारा।”

या “मेरे रिश्‍तेदार।”

शा., “क्यों मेरे माँस से तृप्त नहीं हो?”

या “मेरे गुरदों ने काम करना बंद कर दिया है।”

या “आदम।”

यानी उसका दमखम।

शा., “और वह उसे निगल नहीं पाएगा।”

शा., “वह।”

शा., “उसके।”

या “ताकतवर।”

या “पल-भर में।” यानी दर्दनाक मौत नहीं मरता बल्कि तुरंत मर जाता है।

या “सलाह; साज़िश।”

या “परमेश्‍वर को कुछ सिखा सकता है?”

शा., “हड्डियाँ गूदे से भरी हों।”

या शायद, “मुझे चोट पहुँचाने।”

या “उनके सबूतों।”

या “खुशी होगी?”

शा., “नंगों।”

या “जिनके पिता की मौत हो गयी है।”

शा., “की बाँहें तोड़ देता है।”

शा., “नदी।”

या “अपने सोने के डले।”

यह जगह उम्दा किस्म के सोने के लिए मशहूर थी।

शा., “तेरे हाथ शुद्ध हैं।”

यानी उसके न्याय का दिन।

या शायद, “उसे खेत में चारा काटना पड़ता है।”

या “सीढ़ीदार खेतों।”

या शायद, “के बीच तेल पेरकर निकालता है।”

या शायद, “परमेश्‍वर किसी को दोषी नहीं ठहराता।”

शा., “वह पानी की सतह पर फुर्तीला है।”

शा., “गर्भ।”

शा., “वह।”

शा., “वह।”

शा., “उनकी राहों।”

शा., “ऊँची जगहों।”

या “शुद्ध।”

या “बुद्धि जिससे फायदा होता।”

शा., “उसके।”

या “और अबद्दोन।” शब्दावली देखें।

शा., “उत्तर दिशा।”

या “क्षितिज।”

शा., “राहाब।”

या “ताने नहीं मारेगा।”

या शायद, “परमेश्‍वर के हाथ से।”

या शायद, “वे तालियाँ पीटेंगे और अपनी जगह पर खड़े-खड़े सीटियाँ बजाकर उसका मज़ाक उड़ाएँगे।”

या “कच्चा सोना।”

शा., “पत्थर।”

ज़ाहिर है कि यहाँ खदान में होनेवाले काम की बात की गयी है।

शा., “चकमक पत्थर।”

शा., “जीवितों के देश में।”

या “इथियोपिया।”

शा., “हवा का वज़न ठहराया।”

या “सेवक।”

शा., “छिप जाते थे।”

शा., “मेरे शब्द बारिश की बूँदों की तरह उनके कानों में पड़ते।”

या शायद, “उन्होंने मेरे चेहरे की रौनक नहीं छीनी।”

शा., “मार-मारकर भगा।”

शा., “कहावत।”

शा., “मेरे धनुष की रस्सी ढीली कर दी है।”

या शायद, “उनकी मदद करनेवाला।”

या शायद, “घिनौनी बीमारी ने मेरा हुलिया बिगाड़ दिया है।”

या शायद, “फिर भयानक आँधी में मुझे घुला देता है।”

शा., “जो मलबे का ढेर है।”

या “मुश्‍किल दौर से गुज़रनेवालों।”

या शायद, “बुखार से जल रही हैं।”

या शायद, “झूठे आदमियों के साथ चला हूँ?”

या “मेरे वंशजों को उखाड़ दिया जाए।”

या “उखाड़ फेंकेगी।”

या “मुकदमा।”

शा., “उठ खड़ा होगा।”

शा., “गर्भ में।”

शा., “उसके।”

शा., “माँ के गर्भ से।”

या शायद, “जब मैंने देखा कि शहर के फाटक पर मेरा साथ देनेवाले बहुत हैं।”

या “जोड़ से; बाज़ू की हड्डी।”

शा., “भरपेट माँस।”

या “परदेसी।”

या “ये रहे मेरे हस्ताक्षर।”

या “अपनी नज़र में निर्दोष है।”

या “को इज़्ज़त देने के लिए उसे खिताब दूँगा।”

शा., “हिदायतों पर मुहर लगाता है।”

या “गड्‌ढे।”

या “भाले।”

या “गड्‌ढे।”

या “स्वर्गदूत।”

या “गड्‌ढे।”

या “स्वस्थ।”

शा., “सबके सामने गाएगा।”

या शायद, “और इससे मुझे फायदा नहीं हुआ।”

या “गड्‌ढे।”

या “गड्‌ढे।”

या शायद, “हे मेरे पिता, अय्यूब को।”

शायद परमेश्‍वर की बात की गयी है।

शा., “के बाज़ू।”

या “उनके झूठ।”

या शायद, “वह राजाओं को।”

या “भाले।”

शा., “मंदिरों में दूसरे आदमियों के साथ संभोग करनेवाले आदमी।”

या शायद, “ज़िंदगी खत्म कर देते हैं।”

शा., “वह।”

या “तू ताली बजा-बजाकर उनका मज़ाक न उड़ाए।”

या शायद, “कौन उसकी राह में मीनमेख निकाल सकता है; लेखा ले सकता है?”

शा., “उजियाला।”

या शायद, “लोगों की पैरवी करता है।”

या शायद, “क्या।”

शा., “हर इंसान के हाथ पर मुहर कर देता है।”

शा., “छड़ी लगानी।”

या “अटल प्यार।”

या “कैसे आज्ञा देता है?”

यानी सूरज की।

परमेश्‍वर के स्वर्गदूतों के लिए इस्तेमाल होनेवाला इब्रानी मुहावरा।

शा., “अपने दिनों में।”

या “मौत के साए।”

या शायद, “बिजली।”

शायद वृष तारामंडल में तारों का समूह, कृत्तिका।

शायद मृगशिरा तारामंडल।

शा., “मज्जरोत।” 2रा 23:5 में इससे मिलता-जुलता शब्द बहुवचन में इस्तेमाल हुआ है, जो राशि के नक्षत्रों की तरफ इशारा करता है।

शायद सप्तर्षि तारामंडल। सात तारों का मंडल।

या शायद, “उसके।”

या शायद, “इंसान।”

या शायद, “दिमाग को।”

या “गोरखर।”

या “चरनी।”

या “हेंगा खींचने।”

शा., “हथियारों का सामना करने।”

शा., “ज़मीन को निगल जाता है।”

या शायद, “उसे यकीन नहीं होता।”

शा., “उनके चेहरे।”

या “तुझे दाद दूँगा।”

शायद दरियाई घोड़ा।

शायद बेर की प्रजाति का पेड़।

शा., “पहाड़ी पीपल।”

शा., “फंदा।”

शायद मगरमच्छ।

जल-बेंत से बनी रस्सी।

शा., “मुँह के दरवाज़े।”

या शायद, “उसे अपनी ढालों की कतार पर घमंड है।”

शा., “तब यहोवा उसको बँधुआई से लौटा लाया।”

शा., “1,000 जोड़ी।”

शा., “बूढ़ा और पूरी उम्र का होकर।”

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